Pyar ke Indradhanush - 25 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | प्यार के इन्द्रधुनष - 25

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प्यार के इन्द्रधुनष - 25

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डॉ. वर्मा का नियमित अलार्म - पंछियों की चहचहाहट - तो यहाँ सम्भव नहीं था, किन्तु स्पन्दन ने अलार्म की क्षतिपूर्ति कर दी। पाँच बजने ही वाले थे कि स्पन्दन की रूँ-रूँ की आवाज़ से डॉ. वर्मा की आँख खुल गई। उसने स्पन्दन का डायपर बदला और उसके लिए दूध की बोतल तैयार की। दूध पीने के बाद स्पन्दन तो फिर से सो गई और डॉ. वर्मा फ्रेश होकर योग-प्राणायाम करने लगी। प्राणायाम करने के पश्चात् वह सोचने लगी कि मनु को फ़ोन करूँ या नहीं! पता नहीं, वे अभी उठे भी होंगे या नहीं! वह अभी इसी दुविधा से गुजर रही थी कि डोरबेल बजी। उसने उठकर दरवाजा खोला। सामने रेनु थी। रेणु ने ‘नमस्ते दीदी’ कहा और पूछा - ‘गुड्डू अभी सोई हुई है? रात को तंग तो नहीं किया?’

‘रेनु, तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि स्पन्दन ने मुझे तंग किया होगा? …. बेटी माँ को कभी तंग करती है? … नहीं ना! …. स्पन्दन घंटा-एक पहले उठी थी। दूध पीकर दुबारा सो गई। …. मनु नहीं उठा अभी?’

‘यह तो आप ठीक कहती हैं, बेटी माँ को तंग नहीं करती। …. ये बाथरूम गए हैं। ब्रश करके आते हैं। चाय आपके साथ ही पीएँगे।’

‘तुम्हारे आने से पहले मैं पूछने ही वाली थी चाय के लिए। ....... कैसा लगा होटल में रात बिताना?’

‘मैं इनसे कह रही थी कि दीदी की बदौलत हमें इतने शानदार होटल में ठहरने का मौक़ा मिला है। हम ख़ुशनसीब हैं कि हमें आपका इतना स्नेह मिल रहा है। रात बहुत बढ़िया गुजरी।’

‘रेनु, अभी तक जितना मैंने देखा है, तुम दोनों में बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग है। मनु बहुत अच्छा इंसान है। क़िस्मत से ऐसे इंसान का साथ मिलता है। मैं कामना करती हूँ कि तुम्हारा जीवन सदैव ख़ुशियों से भरपूर रहे...।’

डॉ. वृंदा शायद कुछ और कहने जा रही थी कि दरवाजा खुला और मनमोहन ने अन्दर आते हुए ‘गुड मॉर्निंग’ कहा और पूछा - ‘ऐसी क्या बातें हो रही थी कि मेरे आते ही चुप्पी छा गई?’

‘कुछ विशेष नहीं। दो बहनें तुम्हारी चुग़ली कर रही थीं,’ डॉ. वर्मा ने मज़ाक़ में कहा।

‘अरे, सुबह-सुबह चुग़ली! सारा दिन पड़ा है चुग़ली करने के लिए तो, इस समय तो कोई ढंग की बात कर लेतीं’, मनमोहन ने उसे छेड़ते हुए कहा।

जवाब रेनु ने दिया - ‘दीदी, हमें जीवन भर की ख़ुशियों का आशीर्वाद दे रही थीं।’

‘वो तो देना ही था, बड़ी बहन जो ठहरी तुम्हारी। अब मुझे भी चाय के एक कप का आशीर्वाद मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाए।’

‘रेनु के हाथ की बनी चाय पीओगे या मेरे हाथ की?’ डॉ. वर्मा ने फिर चुहल की।

‘डॉ. साहब, आज तो आप ही चाय बनाओ; आपके हाथ की चाय पीए मुद्दतें हो गईं।’

डॉ. वर्मा बात को और आगे बढ़ाए बिना चाय बनाने लगी।

चाय पीने के पश्चात् डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘मनु, तुम किस समय निकलोगे?’

‘मेरी क्लास साढ़े-नौ बजे है। मैं नौ बजे निकलूँगा। तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’

‘मुझे ‘पिक’ करने के लिए वैन पौने दस बजे आएगी। मैं शाम को साढ़े पाँच तक वापस आ जाऊँगी। .... बेचारी रेनु को सारा दिन कमरे में रहना पड़ेगा, लेकिन मजबूरी है।’

रेणु - ‘दीदी, आप मेरी चिंता ना करें। दिन में अकेले रहने की तो मुझे आदत है। गुड्डू होने के बाद से तो दिन का वक़्त निकलते पता ही नहीं चलता। आपके आने के बाद समय हुआ तो थोड़ा घूम आएँगे। ... क्यों जी, चलें अपने कमरे में, दीदी ने भी तैयार होना होगा?’

.......

शाम को उन्होंने कनॉटप्लेस देखने का प्रोग्राम बनाया। कुछ देर कनॉटप्लेस में विंडो शॉपिंग करने के बाद वे पालिका बाज़ार में आ गए। डॉ. वर्मा ने स्पन्दन के लिए कुछ खिलौने, सर्दी की दो-तीन ड्रेसें, रेनु तथा स्वयं के लिए कार्डिगन और मनमोहन के लिए एक जैकेट ख़रीदी। यह जैकेट, जैकेट थी अन्यों के लिए, किन्तु डॉ. वर्मा ने इसे पसन्द किया था अपने प्यार के इज़हार के तौर पर। आठ बजे वे पहुँच गए कस्तूरबा गांधी मार्ग पर स्थित अन्तरिक्ष भवन के ‘परिक्रमा रिवॉल्विंग’ रेस्तराँ में।

खाना ऑर्डर करने के बाद डॉ. वर्मा ने टेबल पर पड़ा पेम्फैल्ट उठाया और पढ़कर सुनाने लगी। पेम्फैल्ट के अनुसार यह रेस्तराँ अंतरिक्ष भवन की 24वीं मंज़िल पर स्थित है। यह 360 डिग्री पर घूमता है। एक चक्र लगभग डेढ़ घंटे में पूरा होता है। क्योंकि दिल्ली लगभग गोलाकार है, इसलिए दिल्ली के हर कोने में स्थित ऐतिहासिक इमारतें इस रेस्तराँ में बैठे-बैठे देखी जा सकती हैं, जैसे क़ुतुब मीनार, लाल क़िला, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, बँगला साहब गुरुद्वारा आदि-आदि।

रेस्तराँ बहुत धीमी गति से गतिमय था। जब क़ुतुब मीनार दिखाई देने लगी तो डॉ. वर्मा ने अपनी गोद में बैठी स्पन्दन का चेहरा हाथों से पकड़कर बाहर की ओर करते हुए कहा - ‘देखो बेटे, वो रही क़ुतुब मीनार।’

रेनु और मनमोहन जो सूप की चुस्कियाँ ले रहे थे, का ध्यान बरबस सूप से हटकर बाहर की ओर हो गया। सारा शहर तरह-तरह की रोशनियों से जगमगा रहा था। ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के बीच में से भी क़ुतुब मीनार साफ़ दिख रही थी। इसके बाद रेनु और मनमोहन भी खाना खाते हुए बीच-बीच में बाहर की ओर देखने लगे।

अगले दिन डॉ. वर्मा की कांफ्रेंस का केवल प्रात:क़ालीन सत्र था। इसलिए डॉ. वर्मा ने सुबह ही मनमोहन को बता दिया था कि दोपहर में वापस जाना है। क्योंकि वह दोपहर में नहीं आ सकता था, इसलिए उसने कोचिंग के लिए जाने से पूर्व ही डॉ. वर्मा और रेनु से विदाई ले ली।

कांफ्रेंस में लंच के बाद प्रत्येक डेलीगेट को स्मृति-चिन्ह देकर विदाई दी गई। डॉ. वर्मा ने होटल आकर पैकिंग की और रेनु-स्पन्दन को लेकर वापस अपने ठिकाने की ओर रवानगी की।

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