Pyar ke Indradhanush - 18 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | प्यार के इन्द्रधुनष - 18

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प्यार के इन्द्रधुनष - 18

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अगले दिन नाश्ता करने के पश्चात् उन्होंने टैक्सी ली और पहुँच गये ‘गेट वे ऑफ इंडिया’। डॉ. वर्मा ने ‘कौन बनेगा अरबपति’ में चयन होने के बाद सामान्य ज्ञान की काफ़ी जानकारी एकत्रित कर ली थी। उसके आधार पर उसने मनमोहन को बताया कि दिसम्बर 1911 में इंग्लैंड के सम्राट जॉर्ज पंचम व महारानी मेरी की प्रथम भारत यात्रा के उपलक्ष्य में इस इमारत को बनाने की योजना बनाई गई थी। यद्यपि उनके आगमन के पश्चात् इसका शिलान्यास मार्च 1913 में किया गया, तथापि उनके आगमन के समय कार्डबोर्ड का मॉडल ही उनके सम्मान में प्रदर्शित किया गया। इसका अंतिम प्रारूप 1914 में स्वीकृत हुआ। इसके वास्तुकार थे - जॉर्ज विटेट। इसका निर्माण-कार्य 1920 में शुरू होकर 1924 में पूर्ण हुआ। इस इमारत का निर्माण गेमन इंडिया कम्पनी द्वारा किया गया था। उस समय इसके निर्माण में कुल इक्कीस लाख रुपये खर्च हुए थे। इसका उद्घाटन 04 दिसम्बर, 1924 को वायसराय अर्ल ऑफ रीडिंग ने किया था। इसकी कुल ऊँचाई छब्बीस मीटर है।

‘वृंदा, ‘कौन बनेगा अरबपति’ खेल तो बहुत यूजफुल है। देखो ना, इस खेल की तैयारी तुमने की और इतनी जानकारी मुझे भी मिल गयी। अब लगे हाथ एलिफ़ेंटा गुफाओं के बारे में भी कुछ बता दो।’

‘मनु, एलिफ़ेंटा गुफाएँ यहाँ से लगभग दस किलोमीटर दूर समुद्र में एक आइलैंड पर बनी हुई कुल सात गुफाएँ हैं, जिनमें से पाँच हिन्दू देवताओं विशेषकर भगवान् शिव को समर्पित हैं और दो बौद्ध धर्म को समर्पित हैं। पुर्तगालियों ने भारत पर आक्रमण के दौरान इन गुफाओं को काफ़ी क्षति पहुँचाई थी, साथ ही ‘एलिफ़ेंटा’ नाम भी उन्होंने ही दिया था। यूनेस्को ने इन गुफाओं को ‘विश्व धरोहर’ के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है। बाक़ी वहाँ चलकर देखते हैं।’

‘गेट वे ऑफ इंडिया’ से ही उन्होंने स्टीमर की टिकटें लीं। किनारे लगे स्टीमर पर यात्रियों को चढ़ने में हेल्पर सहायता कर रहे थे। पहले मनमोहन स्टीमर पर चढ़ा। तब उसने अपना हाथ डॉ. वर्मा की ओर बढ़ाया और उसे स्टीमर पर चढ़ने में मदद की। इस प्रकार समुद्री यात्रा का आनन्द लेते हुए प्रह्लाद और डॉ. रवि पहुँच गए ‘एलिफ़ेंटा केव्स’। चट्टान को काट-तराशकर बनाई गई त्रिमुख सदाशिव की मूर्ति विशेष आकर्षण का केन्द्र है। डॉ. वर्मा और मनमोहन ने लगभग अढ़ाई-तीन घंटे घूम-फिरकर गुफाओं में बिताए। वापस आते हुए रास्ते के दोनों ओर सजी दुकानों से डॉ. वर्मा ने स्पन्दन के लिए कुछ खिलौने ख़रीदे तथा रंग-बिरंगी चूड़ियाँ ख़रीदीं।

वापसी पर शाम होने की वजह से समुद्र में ज्वार आया हुआ था। लहरें बहुत ऊँची उठ रही थीं। तेज लहरों की बदौलत पानी की बौछारें स्टीमर में सीटों तक आ रही थीं और स्टीमर हिचकोले खा रहा था। एक लहर इतनी ऊँची उठी कि लगा, सारा समुद्र ही स्टीमर में आ गया हो! डॉ. वर्मा ने स्वयं को सँभालने के लिए मनमोहन की बायीं बाजू को ज़ोर से पकड़ लिया। मनमोहन ने भी बिना देर किए उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया। मनमोहन की बाँहों के घेरे में डॉ. वर्मा को जहाँ सुरक्षा महसूस हुई, वहीं आनन्द की अनुभूति भी हुई। जहाँ कुछ देर पहले तक स्टीमर में यात्रियों की ऊँची आवाज़ें गूँज रही थीं, वहीं एकाएक सन्नाटा पसर गया। भयाक्रांत हर यात्री अपने-अपने इष्ट को स्मरण करते हुए मन-ही-मन प्रार्थना कर रहा था कि हे प्रभु! सकुशल तट पर लगा दे। यात्रा पूर्ण होने पर तट पर कदम रखने पर ही यात्रियों की साँस में साँस आई।

गेट वे ऑफ इंडिया के विशाल प्राँगण में चहलक़दमी करते हुए डॉ. वर्मा ने कहा - ‘मनु, जब तूफानी लहर आई थी तो एकबारगी ऐसा लगा था जैसे समुद्र आज हमें निगल ही जाएगा और हम जल-समाधि में विलीन हो जाएँगे! लेकिन तुम्हारी बाँहों के मज़बूत घेरे ने मेरा डर दूर कर दिया।’

मनमोहन को डॉ. वर्मा की इस स्वीकारोक्ति ने रोमांचित कर दिया। उसने कहा - ‘वृंदा, मुसीबत के समय तुम्हारे काम न आ सकूँ तो मेरा जीवन व्यर्थ है। … यह एडवेंचर भी हमेशा याद रहेगा।’

‘मनु , इस एडवेंचर को सेलिब्रेट करते हैं होटल ताज में डिनर करके।’

‘इसी होटल ताज में 2008 में 26/11 की भयावह वारदात हुई थी ना, जिसमें ख़ूँख़ार आतंकवादी

अजमल कसाब ज़िन्दा पकड़ा गया था।’

‘हाँ। लेकिन उस समय आतंकवादियों ने मुम्बई में चार जगहों पर एक साथ हमले किए थे, जिनमें लगभग एक सौ साठ निर्दोष मनुष्यों की जानें गई थीं। यह इतिहास का काला पन्ना है।’

जब वे होटल ताज में खाना खा रहे थे तो डॉ. वर्मा ने मनमोहन को बताया कि लगभग साठ साल पहले मेरे बड़े मामा जी मुम्बई आए थे, उस समय इसे बम्बई नाम से जाना जाता था। बचपन में मामा जी सुनाया करते थे कि जब मैं बम्बई गया तो ताज होटल को अन्दर से देखने के लिए मैंने चाय के एक कप पर पाँच रुपए खर्च किए थे और उन पाँच रुपयों के बदले होटल को नीचे से ऊपर तक देख लिया था।

‘वृंदा, उन दिनों पाँच रुपयों की भी बहुत क़ीमत होती थी।’

‘हाँ मनु। समय के साथ पैसे की क़ीमत घटती जा रही है। मामा जी उस समय के पाँच रुपयों का महत्त्व इस प्रकार बताया करते थे कि उन दिनों साढ़े चार रुपए में एक किलो देसी घी आ ज़ाया करता था।’

‘समय-समय की बात है। अब तो सरकार ने भी एक रुपये से कम के सिक्के बन्द कर दिए हैं। आजकल तो भिखारी को एक का सिक्का दो तो वह भी नाक-भौंह सिकोड़ने लगता है।’

इस प्रकार बातें करते हुए उन्होंने खाना समाप्त किया और अपने होटल में आ गए। अगले दिन उन्हें दिल्ली के लिए फ़्लाइट पकड़नी थी।

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