Pyar ke Indradhanush - 16 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | प्यार के इन्द्रधुनष - 16

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प्यार के इन्द्रधुनष - 16

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डॉ. वर्मा मेडिकल एसोसिएशन की कांफ्रेंस में प्रतिभागी बनने के समय हवाई यात्रा कर चुकी थी, लेकिन मनमोहन प्रथम बार हवाई यात्रा करने जा रहा था। नियत तिथि को दोनों फ़्लाइट के नियमानुसार शेड्यूल टाइम से दो घंटे पहले दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुँच गए। सामान सँभलवाने, बोर्डिंग पास लेने तथा सिक्योरिटी चेकिंग के बाद डॉ. वर्मा ने पूछा - ‘मनु, तुम्हारे पास डेबिट कार्ड है?’

‘हाँ, है। क्यों?’

‘गुड। आओ, सामने ‘प्रीमियम लाउंज’ में चलते हैं।’

मनमोहन का प्रथम अनुभव होने के कारण उसके लिए सब कुछ नया-नया सा था। डॉ. वर्मा से एक-आध कदम पीछे चलते हुए वह आश्चर्य भरी नज़रों से दाएँ-बाएँ, हर तरफ़ देख रहा था। ‘प्रीमियम लाउंज’ में पहुँचकर डॉ. वर्मा ने डेबिट कार्ड और बोर्डिंग पास काउंटर पर खड़े कर्मचारी को दिए। उसने कार्ड स्वाइप किए, पिन कोड भरवाए और उन्हें प्रवेश करने के लिए कहा।

डॉ. वर्मा ने मनमोहन को बताया कि यहाँ अपनी पसन्द का कुछ भी खाया-पिया जा सकता है, वह भी मुफ़्त में। बोर्डिंग आरम्भ होने तक उनके पास पौना घंटा था। उन्होंने थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई व्यंजनों का स्वाद चखा।

आख़िर वह पल भी आ गया जब मनमोहन ने हवाई जहाज़ को पहली बार अन्दर से देखा। दोनों के पास एक सीट विंडो थी। डॉ. वर्मा ने मनमोहन को विंडो सीट पर बैठने का संकेत किया। जब जहाज़ बादलों के ऊपर निकल गया तो डॉ. वर्मा ने मनमोहन को विंडो में से बाहर देखने के लिए कहा। धरती और आकाश के बीच के आश्चर्य-लोक को निहार कर मनमोहन आश्चर्यचकित था। जब जहाज़ नियत ऊँचाई पर पहुँचकर सम-गति से चलने लगा तो मनमोहन ने कहा - ‘वृंदा, लगता है जैसे प्लेन रुक गया हो! बाहर का दृश्य पिछले पाँच मिनटों से बिल्कुल भी नहीं बदला। वही सफ़ेद कपास के ऊँचे-नीचे ढेर दिखाई दे रहे हैं।’

‘हाँ मनु, ऐसा ही प्रतीत होता है, जबकि इस समय इसकी गति हज़ार किलोमीटर प्रति घंटे की अवश्य होगी।’

इतने में जलपान-सेवा की ट्रॉली उनकी सीट के पास आ पहुँची। एयरहोस्टेस्स ने पूछा - ‘मैम, आप क्या लेंगी?’

डॉ. वर्मा ने मनमोहन से पूछा - ‘मनु, क्या लेना पसन्द करोगे?’

मनमोहन ने एयरलाइंस की मैगज़ीन देख ली थी। स्नैक्स के रेट पढ़ चुका था। उसने धीरे से कहा - ‘वृंदा, अभी थोड़ी देर पहले ही तो हमने पेट भरके खाया है। दूसरे, यहाँ तो रेट भी अनाप-शनाप हैं।’

मनमोहन के इनकार के बावजूद डॉ. वर्मा ने दो कप कॉफी और एक उपमा का ऑर्डर कर दिया। उपमा का स्वाद चखते तथा कॉफी सिप करते हुए डॉ. वर्मा ने कहा - ‘उड़ान के दौरान खाने-पीने के आनन्द की तुलना पैसों से नहीं की जा सकती मनु। इस दुनिया में आनन्द लेने के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करने को तैयार हो जाता, कभी सोचा है?’

‘बहुत सोचा है। लेकिन मेरी फ़िलासफ़ी तो है - तेते पाँव पसारिए, जेती लाम्बी सौर।’

‘मनु प्लीज़, मेरे साथ होते हुए पैसों की चिंता ना किया करो। मुझे अच्छा नहीं लगता।’

‘तुम्हारी ख़ुशी के लिए नहीं करूँगा, लेकिन जीवन की नौका तो मुझे अपने हिसाब से ही पार लगानी होगी।’

‘मनु, मुझे पूरा विश्वास है कि एम.ए. और कंपीटिशन दोनों में तुम सफल होगे! फिर देखना, दुनिया तुम्हारे कदमों तले होगी।’

‘वृंदा, तुम्हें तो पता ही है, मैं जो भी काम हाथ में लेता हूँ, उसे जी-जान लगाकर सिरे चढ़ाने का प्रयास करता हूँ। कोशिश करूँगा कि तुम्हारे मुँह से निकले हुए प्रोत्साहन भरे शब्द व्यर्थ न हों।’

‘हाँ, वह तो मैं भली-भाँति जानती हूँ। इसीलिए मैंने तुम्हें इस राह का राही बनाया है।’

अभी तक डॉ. वर्मा ने उपमा का एकाध चम्मच ही लिया था। उसने उपमा का बाउल मनमोहन की ओर करते हुए कहा - ‘मनु, ज़रा टेस्ट करके देखो, बहुत स्वादिष्ट है।’

यह पहला अवसर था कि डॉ. वर्मा ने मनमोहन को अपने पात्र में से खाने के लिए कहा था। इसलिए उसे कुछ अटपटा तो लगा, लेकिन यह सोचकर कि मना करने पर डॉ. वर्मा बुरा लग सकता है, उसने अगले ही क्षण उससे चम्मच पकड़कर एक ‘बाइट’ ले ली। खाने के बाद कहा - ‘वाक़ई ही बहुत स्वादिष्ट है।’

‘तो थोड़ी और लो। इतनी मुझसे तो अकेले खाई नहीं जाएगी।’

डॉ. वर्मा और मनमोहन इस तरह के वार्तालाप में मग्न थे कि अनाऊंसमेंट हुई - ‘सभी यात्रियों से अनुरोध है कि वे अपनी सीट पर ही रहें और सीट बेल्ट बाँध लें तथा अपने लैपटॉप आदि इलेक्ट्रोनिक उपकरण बन्द कर लें, क्योंकि कुछ ही मिनटों में प्लेन लैंड करने वाला है।’

जब वे कन्वेयर बेल्ट से अपने बैग लेकर निकासी द्वार से बाहर आए तो चैनल वालों की तरफ़ से आया टैक्सी चालक हाथ में डॉ. वृंदा वर्मा के नाम की स्वागत पट्टिका लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

डॉ. वर्मा के लिए होटल में एक रूम बुक था। उसने मनमोहन से पूछा - ‘मनु, चैनल ने तो हमारे लिए एक रूम बुक करवाया है, क्योंकि उन्हें क्या पता था कि मेरा फ़्रेंड मैरीड है और मैं सिंगल। उन्हें तो लगा होगा कि जब मैं अपने फ़्रेंड के साथ आ रही हूँ तो ज़रूर हम लिव-इन रिलेशन में होंगे! क्या तुम्हारे लिए अलग से रूम बुक करवाऊँ?’

डॉ. वर्मा के बेबाक़ अन्दाज़ से मनमोहन सोचने लगा, काश! हम लिव-इन रिलेशन तो क्या, वास्तव में एक-दूसरे के जीवनसाथी होते। उसका उत्तर न पाकर डॉ. वर्मा ने पुन: पूछा। सचेत होकर उसने उत्तर दिया - ‘जैसा तुम ठीक समझो।’

तब डॉ. वर्मा ने रिसेप्शनिस्ट से कहा - ‘हमें ऐसा रूम चाहिए जिसमें डबल बेड की बजाय दो सिंगल बेड हों।’

रिसेप्शनिस्ट ने गेस्ट-लिस्ट में नाम के साथ ‘डॉ.’ लिखा देख लिया था, इसलिए उसने कहा - ‘डॉ. साहब, हमारे यहाँ इसी तरह की व्यवस्था है। यदि गेस्ट चाहें तो हम सिंगल बेड्स को जोड़कर डबल बेड बना देते हैं।’

कमरे में दीवार से दीवार तक क़ालीन बिछा था। बड़ा टी.वी., छत और दीवारों पर लगी विभिन्न प्रकार तथा रंगों की आकर्षक डिज़ाइनों वाली लाइटें, ए.सी. कहीं दिखाई नहीं देते हुए भी रूम में खूब ठंडक, बेड पर चकाचक सफ़ेद चादर और पाँवों की तरफ़ क़रीने से तह किया हुआ मख़मली कम्बल, सिरहाने की ओर दो मोटे तकिये, सुन्दर नक्काशीदार ड्रेसिंग टेबल, स्टडी टेबल के साथ कुर्सी, लिखने के लिये नोटपैड और ज़ैल-पैन, आमने-सामने रखे सिंगल सीटर दो सोफों के मध्य ग्लास टॉप वाली टेबल, साइड टेबल पर ट्रे में चाय-कॉफी का सामान तथा इलेक्ट्रिक कैटल आदि देखकर मनमोहन की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। सोचने लगा, वृंदा के कारण उसे ऐसा अवसर मिला है। यदि वृंदा उसके जीवन में न आई होती तो इस तरह का अनुभव, अपनी परिस्थितियों के चलते, वह जीवन में शायद ही कर पाता।

‘मनु, मैं देख रही हूँ कि तुम कहीं खोए हुए हो? रेनु और स्पन्दन की याद आ रही है?’

अपने मन में जो चल रहा था, वैसा कुछ न बताकर मनमोहन ने डॉ. वर्मा के प्रश्न के अनुसार ही उत्तर दिया - ‘हाँ वृंदा। कितना अच्छा लगता यदि वे भी हमारे साथ होतीं!

‘चलो, फ़ोन लगाओ। रेनु को पहुँचने की सूचना दे दो और स्पन्दन की किलकारी भी सुनते हैं। फिर चाय-कॉफी पीएँगे।’

फ़ोन करने तथा चाय पीने के पश्चात् डॉ. वर्मा ने कहा - ‘अब बाहर कहीं घूमने जाने का तो समय रहा नहीं, कुछ देर पूल एरिया में चलकर मौसम का आनन्द लेते हैं। कल रिकॉर्डिंग के बाद फ़ुर्सत होगी, तब घूमने चलेंगे।’

मनमोहन को आश्चर्य हुआ कि वृंदा कितनी सहजता से सारी प्लानिंग कर रही है! चाबी भरे खिलौने की तरह वह उसके अनुसार चलता रहा। पूल एरिया में आए तो पूल में कुछ विदेशी युवतियों को स्विमिंग कास्ट्यूम में मस्ती करते देखा। ऐसे दृश्य फ़िल्मों में तो देखे थे उसने, लेकिन सजीव रूप में देखने का प्रथम अवसर था। वृंदा के साथ होते हुए ऐसे दृश्यों को देखना उसे कुछ असहज कर गया। लेकिन, उसने महसूस किया कि वृंदा बिल्कुल सहज थी।

.......

रात को दोनों अपने-अपने बेड पर लेटे थे। अचानक डॉ. वर्मा ने कहा - ‘मनु, मैंने अब तक रेनु जैसी स्त्री नहीं देखी’, इतना कहकर वह उसके मनमोहन की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी।

मनमोहन सोचने लगा, वृंदा ने यह बात किस सन्दर्भ में कही है। कुछ निश्चय नहीं कर पाया तो सीधे ही पूछ लिया - ‘क्या मतलब?’

‘कोई भी स्त्री अपने पति को ग़ैर स्त्री, और वो भी ऐसी स्त्री जो उसके पति की प्रेमिका रही हो, के साथ अकेले भेजने की सोच भी नहीं सकती, लेकिन रेनु ने ख़ुशी-ख़ुशी तुम्हें मेरे साथ भेज दिया। यही विचार मेरे मन को मथ रहा है।’

‘वृंदा, मैंने तुम्हें शायद पहले भी बताया था कि विवाह के आरम्भिक दिनों में ही मैंने रेनु को तुम्हारे बारे में यानी हमारे बारे में सब कुछ बता दिया था, कुछ भी छिपाया नहीं। रेनु तुम्हारे त्याग से बहुत प्रभावित है। दूसरे, वह तुम्हें अपनी बड़ी बहन मानती है। तीसरे, स्पन्दन के लिए तुम्हारे प्यार और लगाव को जाँचने-परखने के बाद उसके मन में तुम्हारे प्रति किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है।’

‘रेनु के बारे में तुम्हारी बात मान लेती हूँ। क्या तुम्हारे मन में मुझे पाने की इच्छा कभी उत्पन्न नहीं हुई?’

‘हुई क्यों नहीं?

मनमोहन का उत्तर सुनकर डॉ. वृंदा के हृदय की धड़कनें एकाएक बढ़ गईं। यदि दोनों बेडों के बीच पाँच-छह फ़ीट का फ़ासला न होता तो मनमोहन आसानी से उन्हें सुन सकता था। डॉ. वर्मा ने स्वयं को नियन्त्रित किया और पूछा - ‘फिर क्या किया?’

‘वृंदा, यह इच्छा तब तक मन में मचलती रही जब तक रेनु मेरे जीवन में नहीं आई थी। तुम्हारे आग्रह को मानकर ही तो मैंने अपनी इच्छा का दमन करके विवाह के लिये ‘हाँ’ की थी, वरना मैं भी तुम्हारी प्रतीक्षा में कुँवारा रहने को तैयार था।’

‘और अब?’

‘अब इस सवाल का कोई अर्थ नहीं रहा। हम दोस्त थे, हैं और रहेंगे। ..... एक बार तुमने स्वयं कहा था - प्रेम प्रतिदान नहीं माँगता। बस, उसी पर स्थिर रहना ही शुभकर रहेगा। और यदि अपनी कामना पर नियन्त्रण सम्भव ना हो तो, मैं तुम्हें सलाह दूँगा कि विवाह कर लो।’

‘नहीं मनु, ऐसा नहीं हो सकता। जबसे तुमसे प्यार हुआ है, मन से तुम्हारे प्रति समर्पित हूँ। मन-मन्दिर में तुम्हें बिठा के, कर ली हैं बन्द मैंने आँखें। मन जिस शरीर में वास करता है, इस जन्म में तो उस शरीर को मैं किसी अन्य को सौंपने की सोच भी नहीं सकती। अगले जन्म में कौन किसके साथ, किस रिश्ते में जुड़ेगा, कोई नहीं जानता। इसलिए इस विषय पर अपनी सलाह दुबारा मत देना।’

‘वृंदा , तुम्हारी भावनाओं की कद्र करता हूँ। दिल करता है, तुम्हारे क़दम चूम लूँ।’

‘मन में बसा देवता मेरे कदम चूमे, इससे बड़ा नरक मेरे लिए और क्या होगा!’

मनमोहन नि:शब्द हो गया। फिर भी वह उठा, डॉ. वर्मा के पास गया। उसका हाथ चूमा और वापस अपने बेड पर आ गया। इसके पश्चात् कोई कुछ नहीं बोला। दोनों अपने-अपने ढंग से सन्तुष्टि का अहसास कर रहे थे।

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