Pyar ke Indradhanush - 13 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | प्यार के इन्द्रधुनष - 13

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प्यार के इन्द्रधुनष - 13

- 13 -

दिन का चौथा पहर समाप्ति की कगार पर था। अपने-अपने घोंसलों में लौटते हुए परिंदों की डार की डार आकाश में दिखाई दे रही थी। शाम ढलने लगी थी जब मनमोहन घर पहुँचा। रेनु ने उससे पूछा - ‘आपके लिए चाय बनाऊँ?’

‘तूने पी ली या पीनी है?’

‘मैं तो आपका इंतज़ार कर रही थी।’

‘फिर यूँ क्यों पूछा कि आपके लिए चाय बनाऊँ।’

‘आप भी ना शब्दों की बाल की खाल निकालने लगते हो! अब जल्दी से ‘हाँ’ या ‘ना’ कहो।’

चाहे मनमोहन डॉ. वर्मा के यहाँ से चाय पीकर आया था, फिर भी रेनु की ख़ुशी के लिए उसने ‘हाँ’ कर दी। चाय पीते हुए मनमोहन ने पूछा - ‘गुड्डू सो रही है क्या?’

‘हाँ, अब तो सो रही है। जब मैं आराम करना चाहती थी, तो महारानी जी हाथ-पाँव मार-मारकर खेलती रही। उसके खेलते मैं कैसे सो सकती थी?’

‘रेनु, अब तो तुम्हें अपना रूटीन बदलना पड़ेगा। जब गुड्डू सोई हुई हो, तुम भी सो लिया करो।’

‘अगर उसके सोने के समय मेरा खाना बनाने का समय हो तो क्या करूँ?’

‘अरे भई, अब माँ बनी हो तो बेटी के अनुसार ढलना तो पड़ेगा ही।’

‘अजीब बात है! जब से होश सँभाला है, विवाह से पहले पिता जी के अनुसार चलना पड़ता था। विवाह के बाद आपके अनुसार और अब इस छुटकी के अनुसार ढलने की कह रहे हो।’

‘रेनु, विवाह से पहले तुम अपने घर में किस तरह से रहती थी, मुझे नहीं पता, वह तुम जानती हो। लेकिन, इस घर की तुम मालकिन हो। जिस तरह से रहना चाहो, जो करना चाहो, तुम्हें पूरी छूट है। मेरे अनुसार ढलने की तो क़तई ज़रूरत नहीं। मेरे विचार में तो पति-पत्नी स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी आनन्ददायक जीवन बिता सकते हैं, बशर्ते उनमें ईगो प्रॉब्लम न हो। और जहाँ तक गुड्डू की बात है तो यही बड़ी होकर तुम्हारी सबसे बड़ी हमदर्द-हमराज़ बनेगी, यह क्यों भूलती हो?’

‘मैं नहीं भूली, आप भूल रहे हैं। जब यह बड़ी होगी, तब तो डॉ. दीदी गार्जियन होंगी इसकी। .... अरे, मैं तो भूल ही गई पूछना कि डॉ. दीदी के यहाँ इतना टाइम कैसे लग गया, ऐसी कौन-सी बातें करते रहे इतनी देर तक?’

‘छठी पूजा वाले दिन वृंदा ने विमल के न आने के बारे में पूछा था तो मैंने कहा था कि कभी फ़ुर्सत में बताऊँगा। आज उसी के बारे में बातें होती रहीं। विमल की दास्तान सुनकर वृंदा को बहुत कष्ट हुआ, वह बहुत महसूस कर रही थी। .... रेनु , वृंदा गुड्डू के नाम बारे में पूछ रही थी। मैंने कह दिया - जो तुम रखोगी, उसी नाम से पुकारेंगे।’

‘यह आपने अच्छा किया। जब वे गुड्डू को इतना प्यार करती हैं, तो इतना अधिकार तो उनका भी बनता है।’

‘यही बात मैंने कही थी। हम दोनों की सोच कितनी मिलती-जुलती है, है ना?’

‘होगी क्यों नहीं? अर्द्धांगिनी हूँ मैं आपकी। आधा अंग इस बात से कैसे अनजान रह सकता है कि दूसरा आधा अंग क्या सोच रहा है। दूसरे, हम एक-दूसरे की ज़िन्दगी में शक्कर की तरह घुल-मिल चुके हैं।’

‘बड़ी गहरी बातें कर रही हो, कहीं पढ़ी हैं या सुनी-सुनाई बातें दुहरा रही हो?’

‘ना तो कहीं पढ़ी हैं और ना ही कहीं से सुनी हैं। मन में जो महसूस किया, कह दिया।’

‘वाह! मन में जब इस तरह के भाव और विचार आएँ तो उन्हें काग़ज़-कॉपी पर लिख लिया करो। हो सकता है, कभी यही तुम्हें लेखन की ओर प्रवृत्त कर दें।’

‘रहने दो बस। कभी ढंग से कुछ पढ़ा तो है नहीं, लिखूँगी ख़ाक!’

‘रेनु, ऐसी बात नहीं। लेखन के लिये मन में कुछ भाव, कुछ विचार उठने चाहिएँ। उनको सार्थक ढंग से प्रस्तुत करने में अच्छी किताबों का पढ़ना सहायक सिद्ध होता है। ... मैं तुम्हारे लिए एक-दो अच्छी पत्रिकाएँ लाऊँगा।’

‘लगता है, अब आप मुझे इस ओर लगाकर ही मानेंगे। लेकिन गुड्डू की परवरिश करते हुए पढ़ने का टाइम कैसे निकालूँगी?’

‘वो भी निकल आएगा’, मनमोहन और रेनु बातों में मग्न थे कि गुड्डू के रोने की आवाज़ सुनकर - ‘लो महारानी की बात की और वह जाग भी गई’ कहती हुई रेनु बेडरूम की तरफ़ लपकी।

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