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हमारे शास्त्रों में मानव-जीवन के कल्याण एवं उत्थान के लिये गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न संस्कारों के सम्पादन का उल्लेख मिलता है। इन्हीं संस्कारों में से एक है - छठी पूजा (षष्ठी पूजा)। यह बच्चे के जन्म के छठवें दिन किया जाता है। इस दिन ‘षष्ठी देवी’ जोकि शिशुओं की अधिष्ठात्री देवी हैं, की विधिपूर्वक पूजा की जाती है। मूल प्रकृति के छठवें अंश से प्रकट होने के कारण इन्हें ‘षष्ठी देवी’ कहा जाता है। ब्रह्मा जी की मानसपुत्री तथा कार्तिकेय की प्राणप्रिया षष्ठी देवी का स्वाभाविक गुणधर्म है - सन्तान को दीर्घायु प्रदान करना तथा बच्चों की रक्षा व उनका भरण-पोषण करना; उन्हें शरीर, मन व अन्त:करण से बलिष्ठ एवं गुणी बनाना। यह बच्चों को स्वप्न में कभी रुलाती हैं तो कभी हँसाती और दुलारती हैं। छठी (षष्ठी) पूजन के अवसर पर नाते-रिश्ते की स्त्रियाँ मंगल-गीत गाती हैं तथा बधाइयों का आदान-प्रदान होता है। भक्ति-काल के कवियों ने बाल-गोपाल कृष्ण के षष्ठी उत्सव को लेकर अनेक पद रचे हैं। अष्टछाप के एक प्रमुख भक्त-कवि परमानंद का निम्न पद द्रष्टव्य है, जो प्रायः ऐसे अवसरों पर गाया जाता है:
मंगल दिवस छठी को आयो,
आनंद ब्रज राज यशोदा, मानहु अघन धन पायो।
कुंवर न्हावाई यशोदा रानी, कुल देवी के पाय परायो।
बहु प्रकार व्यंजन धरी आगे, सब बिधि भलो मनायो।
सब ब्रजनारि बधावन आई, सुत को तिलक करायो।
जय जय कार होत गोकुल मै, परमांनद जस गायो।
छठी पूजा के दिन मनमोहन के घर ख़ूब रौनक़ थी। उसकी ससुराल से आई रेनु की भाभी, मंजरी तथा उसके ऑफिस के साथियों की तीन-चार स्त्रियाँ नाचती हुई मंगलगीत गा रही थीं। जब गोरेपन की ओर उन्मुख गेहुँए रंग, घने काले बाल, अजन्ता-एलोरा की मूर्तियों-से शारीरिक सौष्ठव की स्वामिनी डॉ. वर्मा ने घर में प्रवेश किया तो उसके आकर्षक व्यक्तित्व की ओर सभी उपस्थित स्त्रियों का ध्यान जाना स्वाभाविक था। मनमोहन और मंजरी ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया तथा उसने सभी को हाथ जोड़कर नमस्ते की व पुष्पा के चरणस्पर्श किए। उसके आने के कुछ मिनटों बाद ही पंडित जी ने पूजा आरम्भ कर दी। पूजा की समाप्ति पर बधाइयों का दौर चला। डॉ. वर्मा ने रेनु को बधाई देने के साथ ही उसकी गोद से गुड्डू को अपनी गोद में लेकर उसका माथा चूमा, सिर पर हाथ फेरा और वापस रेनु को पकड़ाकर अपने पर्स से एक डिब्बी निकाली और सोने की चेन गुड्डू के गले में पहना दी। उसे ऐसा करते देख मंजरी और मनमोहन एक साथ बोले - ‘डॉ. वर्मा, आप यह क्या कर रही हैं?’
डॉ. वर्मा ने मंजरी को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘दीदी, आज का दिन बहुत शुभ है। मैं अपनी गुड्डू को कुछ भी दूँ, किसी को एतराज़ करने का हक़ नहीं।’
रेणु-मंजरी सहित अन्य स्त्रियों को भी डॉ. वर्मा द्वारा कहे ‘अपनी गुड्डू’ शब्दों पर हैरानी हुई, लेकिन मुखर प्रतिक्रिया किसी ने व्यक्त नहीं की।
चाय-नाश्ते के उपरान्त डॉ. वर्मा ने मनमोहन को एक तरफ़ करके पूछा - ‘मनु, विमल और उसकी मिसेज़ नहीं आए?’
‘वृंदा, इसकी एक लम्बी और दु:खद दास्तान है। किसी वक़्त फ़ुर्सत में बताऊँगा। ... तुम अभी मत जाना। यहीं खाना खाकर जाना।’
चाहे विमल से डॉ. वर्मा केवल एक बार जयपुर में ही मिली थी, किन्तु उसके मिलनसार एवं विनोदी स्वभाव तथा मनमोहन के साथ गूढ़ सम्बन्ध के कारण उसके बारे में की गई टिप्पणी से उसके मन को संताप हुआ। परिस्थिति को देखते हुए उसने अपने मनोभावों को दबाकर इतना ही कहा - ‘मनु, खाने के लिए फिर कभी आऊँगी। अब तो मैं चलूँगी।’
इसके बाद डॉ. वर्मा ने एक बार फिर गुड्डू को प्यार किया, रेनु को अपना तथा गुड्डू का ध्यान रखने के लिए कहा तथा मंजरी और पुष्पा से आज्ञा लेकर विदा ली।
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