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वह रात वृंदा ने अन्तर्द्वन्द्व में ही गुज़ारी। वह सोचने लगी - मुझमें इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि मैं पापा के समक्ष अपने मन की बात इतनी स्पष्टता और दृढ़ता से कह गई। सम्भवत: यह मेरे प्रेम की ही शक्ति थी, जिसकी वजह से मैं एक बार भी डगमगाई नहीं, घबराई नहीं। .... एक तरफ़ माँ-बाप का लाड़-प्यार था तो दूसरी तरफ़ मनमोहन का नि:स्वार्थ व पवित्र प्रेम। रात करवटें बदलते गुजरी थी, अत: ताज़ा हवा में साँस लेने के इरादे से वृंदा मुँह-अँधेरे आँगन में निकली। भोर का तारा अभी भी आकाश में गुजरती रात की पहरेदारी कर रहा था, जबकि अन्य तारे अपना अस्तित्व छिपा चुके थे। वृंदा ने मन में निर्णय लिया कि आज मनमोहन से मिलकर उसे वास्तविकता से अवगत करवाना होगा।
ऑफिस खुलने से कुछ समय पूर्व वृंदा ने मनमोहन के मोबाइल पर कॉल किया। हैलो-हॉय के पश्चात् वृंदा ने पूछा - ‘मनु, आज की छुट्टी ले सकते हो?’
‘हाँ, लेकिन क्यों?’
‘मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ।’
‘कहाँ?’
‘मैं आ रहीं हूँ तुम्हारे पास।’
‘कब तक पहुँच रही हो?’
‘दो-एक घंटे में। कहाँ मिलोगे?’
‘सीधे घर ही आ जाना। मंजरी दीदी भी तुमसे मिलना चाहती हैं।’
फ़ोन काटकर जब मनमोहन ने मंजरी को वृंदा के आने के बारे में बताया तो उसने फटाफट दोपहर के खाने का प्रबन्ध कर लिया तथा चाय के साथ रखने के लिए मिठाई आदि लाने के लिए मनमोहन को कहा।
दो घंटे होने ही वाले थे कि घर के बाहर कार का हॉर्न बजा। मनमोहन लपककर बाहर आया। वृंदा के चेहरे पर गम्भीरता के चिन्ह लक्ष्य कर मनमोहन ने पूछा - ‘वृंदा, ख़ैरियत तो है?’
‘अन्दर चलो, बताती हूँ।’
दो कमरों वाले घर में वृंदा को मनमोहन और श्यामल वाले कमरे में ही बिठाया गया। मंजरी के आते ही नमस्ते का आदान-प्रदान हुआ। जब मंजरी चाय बना रही थी तो वृंदा ने बिना कोई खुलासा किए कहा - ‘मनु, मैं तुमसे क्षमा माँगने आई हूँ।’
‘क्षमा! मगर किस बात की?’
तब वृंदा ने सारी बातें मनमोहन के समक्ष रखीं। बोलते-बोलते उसका गला ही नहीं रूँधने लगा, उसकी आँखें भी भर आईं। मनमोहन ने अपनी हथेली से उसकी आँखें पोंछीं। जब वह ऐसा कर रहा था, तभी मंजरी ने चाय के साथ प्रवेश किया। उसने स्थिति का अंदाज़ा लगाकर बिना कुछ पूछे चाय का एक कप वृंदा की ओर बढ़ा दिया। वृंदा ने कप पकड़ कर टेबल पर रखा और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी। मंजरी ने मिठाई और नमकीन की तश्तरी उसके सामने की, लेकिन उसने थोड़े-से नमकीन के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया।
ख़ाली कप टेबल पर रखने के पश्चात् मंजरी ने मनमोहन की ओर सवालिया नज़रों से देखा। वृंदा ने जो कुछ बताया था, मनमोहन ने संक्षिप्त में मंजरी को बता दिया।जब मनमोहन बोल रहा था, वृंदा सिर नीचा किए सुनती रही। मनमोहन ने जब बोलना बन्द किया तो मंजरी के मुख से निकला - ‘ओह!’
वृंदा - ‘दीदी, मैं चाहती हूँ कि आप मनमोहन की किसी अच्छी लड़की से शादी कर दें। इनका जीवन ख़ुशियों से भरपूर हो, उसी से मुझे ख़ुशी मिलेगी।...... अच्छा, अब मैं चलती हूँ।’
‘ऐसे कैसे? मैंने खाना बना रखा है।’ मंजरी ने रुकने का आग्रह किया।
‘दीदी, खाने के लिए क्षमा करें। लंच तक न पहुँची तो माँ परेशान होगी, क्योंकि मैं बिना बताए आई हूँ।’
फिर मंजरी ने कुछ नहीं कहा। मनमोहन वृंदा को बाहर तक छोड़ने आया। उसने उसका हाथ दबाते हुए कहा - ‘वृंदा, मैं तुम्हें कभी भुला नहीं पाऊँगा।’
‘मनु, तुम आम लड़कों से बिल्कुल अलग हो। तुमने मेरी देह से प्रेम नहीं किया, बल्कि मेरी आत्मा में अपनी पैठ बनाई है। इसलिए तुम्हारी यादें ही अब मेरे जीवन का सहारा रहेंगी।’
इस प्रकार कवि गणेश गनी के शब्दों में -
‘किसी का क़र्ज़ उतर गया
और कोई ऋणी हो गया’
जीवनभर के लिये।’
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