- 6 -
एम.बी.बी.एस. की फ़ाइनल परीक्षा देकर जब वृंदा घर आई तो उसकी माँ और पापा ने उसके विवाह की बात चलाई। पहले तो वृंदा ने कहा कि अभी उसे पी.जी. करना है तो उसके पापा चौधरी हरलाल ने कहा - ‘वृंदा बेटा, पी.जी. तो तू विवाह के बाद भी कर सकती है।’
‘पापा, एक बार पी.जी. में एडमिशन मिल जाए, उसके बाद विवाह की सोचूँगी।’
हरलाल भी समझता था कि पी.जी. के एडमिशन से पहले विवाह के बारे में सोचना ठीक नहीं, अत: उसने विवाह का प्रसंग पुनः नहीं उठाया।
एक दिन जब हरलाल कहीं गया हुआ था और घर पर माँ-बेटी के अलावा अन्य कोई नहीं था तो वृंदा ने अपनी माँ परमेश्वरी के समक्ष अपने मन की बात कह दी और जता दिया कि विवाह करूँगी तो मनमोहन के साथ, वरना नहीं करूँगी। मनमोहन की पारिवारिक, सामाजिक तथा आर्थिक पृष्ठभूमि के विषय में जानकर तथा वृंदा का दृढ़ निश्चय सुनकर परमेश्वरी को दुश्चिंता ने घेर लिया।
उस दिन रात को सोते समय परमेश्वरी ने हरलाल के साथ अपनी दुश्चिंता साझा की। हरलाल आवेश में आकर कोई निर्णय नहीं लेता था। उसने परमेश्वरी को समझाया - ‘इस समस्या पर विचार करने का यह उचित समय नहीं है। सुबह मैं वृंदा को समझाऊँगा। मुझे पूरा यक़ीन है कि वह मेरी बात को टालेगी नहीं।’
इतना कहकर वह करवट बदलकर सोने की कोशिश करने लगा। चाहे उसने पत्नी को आराम से सोने की सलाह दी थी, किन्तु स्वयं उसका मन अशान्त था।
सुबह नाश्ता करने के बाद हरलाल ने ‘बैठक’ की ओर जाते हुए कहा - ‘वृंदा बेटे, नाश्ता करने के बाद थोड़ी देर के लिए मेरे पास ‘बैठक’ में आना।’
जब वृंदा ‘बैठक’ में आई तो पीछे-पीछे परमेश्वरी भी चली आई और एक तरफ़ बैठ गई। हरलाल ने बड़ी सहजता से बात चलाई - ‘वृंदा, तेरी माँ कह रही थी कि तू किसी लड़के को चाहती है। क्या करता है वो लड़का और तेरा उसके साथ क्या सम्बन्ध है?’
परमेश्वरी के मुख से सारा क़िस्सा सुना होने के बावजूद हरलाल ने वृंदा के सामने सवाल रखा। वृंदा समझती थी कि पापा सब बातें जानते हैं, फिर भी उसने मनमोहन के साथ अपने सम्बन्धों तथा उसके विषय में सब कुछ दोहरा दिया। उसे सुनने के पश्चात् हरलाल कुछ देर मौन रहा। जैसे मन-ही-मन तौल रहा हो कि उसकी बातें कहाँ तक असर करेंगी! फिर बोला - ‘वृंदा, विवाह का निर्णय केवल भावुकता के वश होकर नहीं लिया जाता। विवाह एक ऐसा बँधन है जो दो व्यक्तियों के जीवन को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि दो परिवारों तथा आगामी पीढ़ियों के जीवन पर भी असर डालता है। जैसा तुमने बताया, मनमोहन अपनी बिरादरी का नहीं है। दूसरे, वह एक क्लर्क मात्र है जबकि तू एक डॉक्टर है। व्यावहारिक स्तर पर यह सम्बन्ध किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। पहली बात तो यह है कि हम गाँव में रहते हैं, यहीं हमें सारी उम्र रहना है। एक बार गाँव और वर्मा खाप की बात छोड़ भी दें, तो भी तेरे चाचा-ताऊ तक हमसे सम्बन्ध तोड़ लेंगे। समाज में सबसे कटकर जीना बड़ा मुश्किल होता है। दूसरी बात यह है कि मनमोहन एक क्लर्क है, उसकी पैतृक सम्पत्ति शून्य है। वह सदा तुम्हारा मोहताज रहेगा। इन हालात में सम्बन्धों की मिठास कड़वाहट में बदलते देर नहीं लगती।’
‘पापा, समय बहुत बदल गया है। बिरादरी की इच्छा नहीं, विवाह के लिए विवाह करने वाले दो व्यक्तियों की इच्छा अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यदि उनके मन मिल गये तो अन्य व्यवधान अपने आप दूर हो जाते हैं। जहाँ तक मनमोहन और हमारी आर्थिक स्थिति का सवाल है तो जब एक पति अपनी पत्नी को हर तरह से सपोर्ट कर सकता है तो एक पत्नी अपने पति को यदि सपोर्ट करती है तो इसमें क्या बुराई है? .... जहाँ तक सवाल पढ़ाई के अन्तर का है, तो पापा, मैं ऐसे कई उदाहरण दे सकती हूँ, जहाँ मजबूर माता-पिता ने अपनी एम.ए. पास लड़की को दसवीं-बारहवीं पास लड़के से ब्याहा है। जहाँ दोनों के दिल मिले हुए हों, वहाँ लड़की यदि लड़के से अधिक पढ़ी-लिखी भी हो तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। टकराव होने के चाँस वहाँ होते हैं, जहाँ अधिक पढ़ी-लिखी लड़की को मजबूरीवश कम पढ़े-लिखे लड़के को स्वीकार करना पड़ता है। ..... मनमोहन बहुत इंटेलीजेंट है। घर के हालात की वजह से वह आगे पढ़ नहीं पाया। मेरा साथ मिलने के बाद वह आगे पढ़ेगा भी और अच्छी नौकरी भी उसे मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।’
‘बेटे, जो ये बातें तुम कर रही हो, कहने-सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं, किन्तु जब ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों से दो-चार होना पड़ता है तो ऐसे काल्पनिक आदर्श रफ़ूचक्कर होते देर नहीं लगती।’
‘पापा, मैंने मनमोहन को बहुत अच्छी तरह से जाँच-परखकर ही अपना बनाने का मन बनाया है। मन एक बार ही किसी का होता है। मैं विवाह करूँगी तो केवल मनमोहन के साथ , नहीं तो मैं कुँवारी ही रहूँगी।’
हरलाल वृंदा से बेहद प्यार करता था। इतनी निर्णायक बात सुनकर अन्दर तक विचलित हो उठा। फिर भी उसने कहा - ‘वृंदा बेटे, मैं चाहता हूँ कि तू ठंडे दिमाग़ से मेरी सारी बातों पर गौर कर। उम्मीद है कि तू सही निर्णय ले पाएगी!’
॰॰॰॰॰॰