Pyar ke Indradhanush - 3 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | प्यार के इन्द्रधुनष - 3

Featured Books
Categories
Share

प्यार के इन्द्रधुनष - 3

- 3 -

पीएमटी के द्वितीय प्रयास में वृंदा को आशातीत सफलता मिली। उसका एडमिशन सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज, जयपुर में हो गया। वृंदा ने यह शुभ समाचार मनमोहन को जिस पत्र के माध्यम से दिया, उसमें उसने जयपुर जाने से पहले मिलने की इच्छा व्यक्त की। मनमोहन ने जवाबी पत्र में उसे हार्दिक बधाई देते हुए लिखा कि आने वाले रविवार को वह ‘किसान एक्सप्रेस’ से भिवानी पहुँचेगा। रविवार को स्टेशन जाने के लिए घर से निकलकर अभी कुछ दूर ही गया था कि उसे याद आया कि वृंदा द्वारा दी गयी घड़ी तो उसने पहनी ही नहीं। तेज कदमों से वह घर वापस आया। अलमारी में से घड़ी निकाली, जेब में डाली और पुनः स्टेशन की राह पकड़ी।

ट्रेन जब भिवानी स्टेशन पर पहुँची तो रिमझिम बरसात हो रही थी। मनमोहन सोचने लगा, रिक्शा में जाते हुए तो कपड़े भीग जाएँगे और ऑटो वाला ऐसे मौसम में अनाप-शनाप पैसे माँग बैठेगा। ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर रुकी। मनमोहन खिड़की के पास आया। वृंदा को प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े देखकर मनमोहन की सोच को ब्रेक लग गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, क्योंकि तय तो यह हुआ था कि ‘बया’ में मिलेंगे। लेकिन, सुबह से बूँदाबाँदी हो रही थी, इसलिए रवि वृंदा मनमोहन को स्टेशन से ही ‘पिक’ करने की सोचकर कार ले आई थी।

होटल पहुँचकर वृंदा सीधे उसे पहले से बुक रूम में ले गई। रूम में पहुँचते ही वृंदा ने पर्स खोलते हुए कहा - ‘मॉय डियर मनु, मैं तुम्हारे लिये मोबाइल लेकर आई हूँ, तुम्हें कोई एतराज़ तो नहीं? पहले ही बता दूँ कि यह ऑर्डिनरी ही है, एक्सपेंसिव नहीं। मेरा इतना-सा ही स्वार्थ है कि मैं जब जी चाहा करेगा, तुम्हारी डोमिनेटिंग आवाज़ सुन लिया करूँगी।’

‘वृंदा, सवाल ऑर्डिनरी या एक्सपोंसिव मोबाइल का नहीं है, लेकिन मैं मोबाइल नहीं लूँगा। मुझे क्षमा करना। तुम्हारी भावनाओं की कद्र करता हूँ। मोबाइल न लेने का कारण है कि मोबाइल होने पर मैं स्वयं को ही तुमसे बातचीत करने से रोक नहीं पाऊँगा। तुम्हारा ध्यान पढ़ाई से भटके, कम-से-कम मेरे कारण, यह मैं नहीं चाहता। इसलिए कृपया इस विषय में और कुछ मत कहना।’

वृंदा ने बात नहीं बढ़ाई, लेकिन मन-ही-मन मनमोहन के सद्विचारों तथा उसके चरित्र की शुचिता से अभिभूत हो उठी। पास बैठे मनमोहन के कंधे से सिर टिकाकर दायीं बाँह से उसे अपने साथ सटा लिया। दोनों में से कोई भी नहीं चाहता था कि असीम आनन्द की अनुभूति में किसी तरह का व्यवधान पड़े, किन्तु वृंदा को अहसास था कि मनमोहन को नाश्ता भी करवाना है। स्वयं वह भी घर से नाश्ता किए बिना आई थी, क्योंकि प्रेमी संग नाश्ते का लुत्फ़ उठाना चाहती थी। अतः मन मारकर उसने स्वयं को अलग किया। इंटरकॉम से नाश्ते का ऑर्डर दिया और पूछा - ‘मनु, देखो कितना रोमांटिक मौसम है! क्यों न कुर्सियाँ बरामदे में खींच लें और फुहार का आनन्द उठाएँ?’

मनमोहन ने बिना कुछ कहे उठकर बरामदे की ओर का दरवाजा खोला, कुर्सियाँ बाहर लगा लीं। जब वेटर नाश्ता लेकर आया तो उससे टेबल भी बाहर रखवा लिया। हल्की-हल्की फुहार में गर्मागर्म नाश्ते का स्वाद भी द्विगुणित हो गया। बूँदाबाँदी रुकने पर उमस होने लगी तो उन्होंने अन्दर आकर ए.सी. ऑन कर लिया। बातें बहुत कम, एक-दूसरे की उपस्थिति का अहसास अधिक। समय गुजरता रहा और वक़्त हो गया दैहिक स्तर पर एक-दूसरे को अलविदा कहने का। भविष्य की योजना की रूपरेखा पर सहमति के पश्चात् आख़िर मनमोहन ने वृंदा से विदा ली।

॰॰॰॰॰