(3)
अजीत का जीवन
अजीत अपने मित्र रामावत को अलविदा कहने के बाद ट्रेन में रोता हुआ ही सो गया जब उठा तो नए शहर की हवा भी उसे उदास लगी पर समय किसी के लिए कहा ठहरता हैं। जल्द ही अजीत के पिता ने अपना कार्यभार संभाला और वो अपने दफ्तर के काम-काज में व्यस्त हो गए। अजीत की माता भी जल्द ही समझ गई की शहर का रहन-सहन शहर के हिसाब से रखने के लिए केवल एक की कमाई के भरोसे नही रह सकते है अंतः अजीत के पिता की मंजूरी पा कर तीन बच्चों के लालन-पोषण के लिए वो भी एक नौकरी में जुट गई। दोनो माता-पिता ने अपने बच्चो को शहर के एक नामी स्कूल मे डाल दिया नामी स्कूल में जाने से अजीत ने पढ़ाई तो ठीक-ठाक संभाल ली पर अपने साथ के सहपाठियों के ठाठ-बाट देख कर वो दंग रह जाता और माता-पिता के सामने अपनी नई-नई फरमाइश लाता रहता। कभी महंगे कपड़े, जूते खेलने को नए खिलौने, बाहर मेलों में जाना।
अजीत के बार-बार पैसे मांगने पर अजीत की मां हर बार अपने सामने आए उन खर्चों को गिनाने लगती जो अजीत की समझ से बाहर थे। वास्तव मे अजीत के पिता एक मामूली सरकारी क्लर्क के पद पर काम करते थे और अजीत की माता भी पास के एक निजी दफ्तर में कार्यरत थी पर शहर आ कर उच्च शिक्षा और आधुनिक रहन-सहन के खर्चों को वो बड़ी मुश्किल से पूरा कर पा रहे थे। गांव का एक टका और शहर का एक रुपया अब बराबर लगने लगा था।
अजीत को पैसों के लिए हर बार ना सुनने से उसके दिमाग मे एक अलग से मनोवृत्ति आ गई अब अजीत भी अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद पैसों को पाने की दौड़ में शामिल हो गया। अजीत पढ़ाई में एक अच्छा विद्यार्थी था इसलिए पढ़ाई पूरी करते ही उसको जल्द अच्छी नौकरी मिल गई परन्तु अजीत का स्वभाव एक कंजूस व्यक्ति का हो चुका था। अच्छी पढ़ाई और नौकरी के बाद माता-पिता ने शादी की बात करी तो अजीत ने अपनी पसंद की लडकी से सबकी राजी खुशी से शादी भी कर ली। अजीत के घर पर भी दो संतान पुत्र रूप में हुई।
(4)
संतान व परवरिश
रामावत का पुत्र लावांश बचपन से ही हर नई चीज के लिए उत्सुक रहता था। उसके लिए नए खिलौने, बाजार घूमना, और हर तरह की सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाता था पर रामावत की पुत्री दुर्भाग्यवश अपने जीवन के चार साल भी नही देख पाई और एक बीमारी के कारण उसने दम तोड दिया। कुल मिला कर रामावत की अब केवल एक संतान बची हुई थी और एक कारण ये भी था की रामावत लवांश को अपने जी (दिल) से लगा कर रखता था।
कहते है ज्यादा लाड़-प्यार बच्चे को संस्कारों से दूर ले जा कर ही दम लेता है यही कारण था की थोड़ा बड़ा होने पर उसका गांव में आवारा हो कर घूमना-फिरना, बड़ो से दुर्व्यवहार, ज़िद्द करना किसी को दिखाई नहीं दिया। पहले तो वो कुसंगती में फस कर ये सब कर रहा था पर समय के अंतराल के बाद वो सब बदमाशो का नेता बन गया। रामावत ने भी इस पर ये सोच कर ध्यान नहीं दिया की जो सुख मै अपने जीवन मे ना ले सका वो अपने एक लोते पुत्र को देदू। आखिर ये सब काम-धाम उसी ने ही तो संभालना है जिम्मेदारी सर पर पड़ेगी तो जरूर सीख जायेगा।
उधर शहर में अजीत के दोनो पुत्र भी बड़े हो रहे थे। अजीत ने एक-एक पाई सोच कर खर्च करनी शुरू कर दी थी पर वो अपनी तरह अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा देना चाहता था तो जिस स्कूल में अजीत ने अपनी पढाई पूरी करी थी उसी स्कूल में उसने नितिन और मुकेश को डाल दिया। पर अच्छी नौकरी और आमदनी होने के बावजूद अजीत को जेब से एक पाई निकलने में दर्द महसूस होता था।
नितिन और मुकेश दोनो ही पढ़ाई में तेज थे स्कूल में दोनो ही बालको की प्रशंशा होती थी। स्कूल की कोई भी प्रतियोगिता हो दोनो ही बालक अच्छे अंक प्राप्त करते मगर दोनो के मन में एक अलग सी जलन की भावना उत्पन्न होने लगी थी। अजीत का परिवार अब धन-धान्य से संपन था फिर भी अजीत की जरूरत से ज्यादा कंजूसी उसके बच्चो को अखर रही थी। उनको घन की कोई कमी नहीं थी पर ये जानते हुए भी हर बार अपनी छोटी-छोटी इच्छा को दबाना उनके लिए बड़ा कष्ट दायक था।
(5)
परिणाम
रामावत अक्सर अपने पुत्र को अपने बचपन के मित्र अजीत के बारे में बताता पर लावांश तो इसका अर्थ उल्टा ही लेता अपनी कुसंगति मित्र मंडली को भी वो किसी चीज के लिए मना नही करता और दोस्ती के नाम पर हर तरह का गलत काम करने पर भी पीछे नहीं हटता।
समय अपनी गति से चलता है, ये जानकर की कब तक मै इस व्यापार को अपने कंधो पर रखे चला पाऊंगा उसने अपने पुत्र लावांश को व्यापार में साथ आने को और व्यापार के तौर-तरीके समझने के लिए साथ जुड़ने के लिए कहा। ये जानकर की काम करना पड़ेगा जिस वजह से ये जमी-जमाई दोस्ती, ये ठाट-बाट, सेर-सपाटा सब कुछ छुट जायेगा लावांश ने मना-मनाही बहुत करी पर रामावत ने लावांश की मरी मां की कसम दे कर उसे मना लिया।
केवल आठ महीनो में ही लावांश अपने आप को व्यपरियो का देवता मानने लगा और अपने पिता से जिद करने लगा की व्यापार का अब हर फैसला उसे खुद करने दे। लाख समझाने पर भी जब जिद्दी बेटा ना माना तो रामावत ने अपने आप को व्यापार से अलग कर रिटायर होने का मन बना लिया। धीरे-धीरे व्यापार मे लापरवाही की वजह से नुकसान हो गया और केवल तीन सालों मे रामावत की सारी मेहनत जमीन पर धराशाई हो गई। लावांश ने व्यापार बचाने के लिए ऊंचे ब्याज पर उधार लेना शुरू किया पर वो उधार की रकम भी कागज की नाव भर थी। जिस दोस्ती पर लावांश नाज किए रहता था अब वो भी उसको नीचे गिरता देख कान्नी काटने लगे।
रामावत की साख के ऊपर लावांश की शादी दो साल पहले ही धूम-धाम से की गई थी पर घर की और लावांश की हालत देख कर बहु मन ही मन रामावत को पहला दोषी मानने लगी। सब तरफ से अपने आप को घिरता देख लावांश ने अपने पिता पर दबाव बनाया की सब कुछ बेच कर शहर जाया जाए और नई शुरुआत की जाए। अपने कई बेतुके तर्क देते हुए वो अपने पिता को ये भी समझाने लगा कि क्या पता आपको अपने बचपन का वो मित्र मिल जाए जिसको आप याद करते थकते नहीं हो? रामावत को भी समझ आ गया कि मेरे बेटे के कारण मेरा बुरा समय आ चुका है इसलिए मन में एक आशा दबाए कि शायद सब ठीक हो जाए उसने लावांश की बात मान ली और अपना सब बेच कर गांव को बड़े भरी मन से अलविदा कह दिया।
(6)
महापाप
रामावत को पहले पिता से कष्ट मिला जब खुद कुछ करने का मौका आया तो सारी उम्र मेहनत करके अपनी साख बनाई फिर बाद में अपने ही पुत्र ने उस साख को मिट्टी में मिलाकर कष्ट दिया और अपनी जमीन से शहर में एक किराए के मकान में ला कर पटक दिया। लावांश को शायद इस बात का अंदाजा नही था की गांव में सर छुपाने के लिए छत और दो वक्त की सुखी रोटी फिर मिल जाएगी पर शहर में पड़ोसी-पड़ोसी से जलता है। अब बेचे हुए गांव के व्यापर और मकान से घर का खर्च चलाना पड़ रहा है पर आखिर कब तक वो धन भी चल पाता फिर रामावत को उम्र के हिसाब से आती हुई बीमारियों ने भी घेरना शुरू कर दिया। घर पर अब पैसों की तंगी का माहौल था रामावत ने ये तंगी अपने बचपन मे जरूर देखी थी पर लावांश और उसकी पत्नी को ये पहला बुरा अनुभव था। अब घर पर रोज झगड़ा, ऊंची आवाज में कोसना ये सब शुरू हो गया।
घर पर ये सब देख रामावत ने घर के पास वाले मंदिर जाना, कीर्तन करना शुरू कर दिया। घर पर बेटे और बहू का स्वभाव चिड़चिड़ा जान घर से बाहर जाना अब ज्यादा अच्छा लगने लगा। लावांश की धर्म पत्नी को अभी तक कोई बच्चा नहीं हुआ था ऊपर से काम-धाम सब चौपट हो जाने से पैसों की तंगी में जीना पड़ रहा था और सबसे बड़ा दुख की पति भी निकम्मा ये सब बाते जाने वो मन ही मन रामावत को कोसने लगी और हालात तब ज्यादा खराब हो गए जब एक दिन घर पर झगड़े के बीच चिल्लाते हुए रामावत की बहु रामावत को सारा दोष देने लगी कि आपके गलत लाड-प्यार ने पहले लावांश की जिन्दगी खराब करी और आपकी ही साख पर मैं इस घर पर ब्याह कर आई हु जबकि आप अपने निक्कमे बेटे की हर करतूत जानते थे।
रामावत का ये सब सुन कर दिल बैठ गया और वो आत्मगिलानी से भर उठा वो सोचने लगा कि सत्य ही है की मैने अपने बेटे के दोष छुपाते हुए ये गलत फैसला लिया और बहु की जिन्दगी खराब कर दी फिर ये भी सोचने लगा की कौन बाप अपने बेटे के लिए ये नही करेगा? एक बार जुबान खुलने से अब रोज बहु के शब्द और भी ज्यादा तीखे हो रहे थे और एक दिन रामावत ने पैसों की तंगी से और झगड़ो से तंग आकर एक महापाप किया उसने अपने बूढ़े बीमार बाप को बेसहारा कर बड़ी बेशर्मी से शहर के एक वृद्ध आश्रम छोड़ आया।
(7)
रामावत का नया जीवन
रामावत को अब जीवन व्यर्थ लगने लगा था। जिसको वो सारी उम्र अपने सीने से लगाए था वो इतना निर्लज निकलेगा सपने में भी नही सोचा था। शुरू के तीन-चार दिन तो वो आश्रम के एक कोने में पड़ा सोचता रहा पर अपने व्यवहार के चलते वो नए-नए लोगो से मिलने लगा। रामावत के साथ वाले कमरे में एक महिला को जगह मिली हुई थी। बातो से पड़ी-लिखी मालूम होती थी। रामावत भी अपना समय व्यतीत करने के लिए आस-पास के लोगो से बातचीत करने लगा। कहने से भारी से भारी दुख में हल्कापन आता है इस सिदांत से हर कोई अपनी राम कहानी आश्रम में बताया करता था ।
जल्द ही रामावत के आश्रम में भी दो-तीन मित्र बन गए पर रामावत का ध्यान उस महिला पर रहता था जो अकेली थी और परेशान थी। यहां सब लोगो का दुख एक जैसा है और अब हम ही एक दूसरे के सहारे है ये जानकर रामावत ने उस महिला से बात करनी शुरू करी। महिला ने अपना नाम निर्मला बताया और अपनी कहानी बताए हुए कहने लगी कि वो और उसके पति यहा पिछले तीन महीने से है रामावत जिस दिन इस आश्रम में आए उससे दो दिन पहले ही उनके पति की तबीयत इतनी बिगड़ गई की आश्रम वालो ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया। नियमों और पैसे ना होने के कारण निर्मला जी अस्पताल नही जा पाती है सो अपने पति की जल्द ठीक होने की प्रार्थना वो आश्रम से कर लेती है। पर सुना है की अब उनकी तबियत में सुधार है तो वो जल्द अस्पताल से वापिस आ जायेंगे बस उन्ही का इंतजार रहता है।
रामावत के पूछने पर निर्मला जी बताने लगी की उनके पुत्रों ने जब हमे अपने ऊपर आश्रित पाया तो लालच में उन्होंने हमे त्याग कर आश्रम का रास्ता दिखा दिया। निर्मला जी ने बताया की वैसे घर पर धन से जुड़ी कोई समस्या नही है पर उन्होंने ने ही पुत्र नही कुपुत्र को जन्म दिया जिस कारण उनकी ये दशा हुई है। घर पर सब ऐशो-आराम होने पर भी हमारी संतान ने हमे ये कह कर निकाल दिया कि आपने हमारे लिए किया ही क्या है?
(8)
मीठा संयोग
बातो का सिलसिला अभी जारी था की निर्मला के पति अस्पताल से स्वस्थ हो कर वापिस आ गए और वो भी इस चर्चा में शामिल हो गए। तब रामावत ने अपना परिचय देते हुए निर्मला के पति को अपना नाम बताया। निर्मला के पति ने जवाब देते हुए अपना नाम अजीत बताया और रामावत के पूछने पर जब ये बताया की उसका जन्म रांझीपुर गांव में हुआ है, रामावत को अकस्मात झटका लगा।
रामावत ने अपने बचपन के मित्र को पहचान लिया था। ये अजीत वोही अजीत है जो पाठशाला में मेरा सहपाठी और प्रिय मित्र था। रामावत को याद आ गया की जीवन में मैने जितने भी सुख त्यागे है उनमें से अजीत भी मेरा एक मित्र रूप में सुख था। रामावत ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए अपना परिचय फिर से दिया और अजीत को बचपन की याद दिलाता हुआ गले से लग गया। दोनो का ये मिलन देख अजीत की पत्नी निर्मला भी चौक गई की जिस मित्र की मिसाल हमेशा उनके पति देते थे वो आज सम्मुख खड़े हुए है जिसकी आशा ना के बराबर थी।
दोनो मित्र गले से लगे हुए अपनी-अपनी आंखो से अश्क बहा रहे थे। कमरे में रूदन की आवाज तेज हो गई थी। अपनी हालत भूल दोनो मित्र एक दूसरे की दशा देख कर रो रहे थे। जब दोनो शांत हुए तो फिर अपनी-अपनी कहने लगे।
अजीत ने बताया की वास्तव में उनकी ये हालत उनकी खुद की वजह से हुई है। मेरे माता-पिता ने मुझे अच्छी शिक्षा देने के लिए ऐसे स्कूल में भेजा जहां के विद्यार्थियों का रहन-सहन ऊंचा था और जब भी मैं उनकी बराबरी करने की सोचता तो धन की कमी की वजह से अपने आप को सबसे पीछे पाता। ये सब देख कर मुझे धन की म्हत्वता का अंदाजा हो गया और पढ़ाई पूरी होते ही अपने परिवार की और देखे बिना घन के पीछे लग गया। अजीत ने बताया कि वो बहुत कंजूस हो गए थे। जिस कारणवश ये मानसिकता उन्होंने अपने बच्चो को स्वाभाविक ही देदी की धन से बडकर परिवार नही होता है। क्योंकि मेरे पास धन होते-सोते अपनी संतान को गरीब रखा। अजीत ने अपनी बात जारी करते हुए बोला, मैने अपनी संतान को शिक्षा तो अच्छी दी पर नैतिक मूल्य नहीं सीखा पाया। वास्तव में अजीत ने अपनी संतान को जीवन में सफलता के लिए अच्छी शिक्षा से जीवन की दिशा तो दी पर अच्छी दशा नही दे पाए।
रामावत ने भी अपने अनुभव व्यक्त करते हुए बताया की जो दुख अपने जीवन में उन्होंने देखे वो अपनी संतान से दूर रखना चाहते थे। बिना किसी रोक-टोक से वो और बिगड़ता गया। रामावत ने कहा मैने खुद तो मेहनत कर के व्यापर में उन्नति कर ली पर अपने पुत्र की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जिस कारण रामावत के पुत्र ने सब कुछ मिट्टी में मिला दिया। रामावत ने कहा वास्तव में मैने अपने पुत्र को अच्छा वव्यापार, धन और सब सुख-सुविधा के द्वारा अच्छी दशा तो दी पर शिक्षा ना देने के कारण अच्छी दिशा नही दे पाया।
दोनो मित्रो को अब अपनी-अपनी गलती का एहसास हो चुका था। अब वो ये जानते थे कि संतान की सफलता में लिए संतान को सही दशा और दिशा दोनो का ज्ञान देना जरूरी है। अब दोनो फिर गले लग कर रोने लगे पर इस बार उनके रूदन में पछतावा नहीं बल्कि एक दूसरे से मिलन का संतोष छलक रहा था।
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