Rimzim gire saavan - 1 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | रिमझिम गिरे सावन - 1

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रिमझिम गिरे सावन - 1

भाग(१)

शायद दुनिया का सबसे सुन्दर शब्द है प्रेम, निस्वार्थ प्रेम किसी के भी जीवन को बदल सकता है, निस्वार्थ प्रेम में वो शक्ति होती है कि कितनी बड़ी से बड़ी मुश्किल या दुख हो तो वो उसे भी झेल जाता है, प्रेम के दम पर इन्सान किसी भी असम्भव कार्य को सम्भव में परिवर्तित कर सकता है।।
    यही कार्य कर दिखाया था झुम्पा ने अपने जतिन्दर के लिए, मैं झुम्पा से जब मिला, तब उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ चुकीं थीं, उसकी आँखें धँस गई थीं और उसके बाल सफेद हो गए थे लेकिन तब भी उस उम्र में उसके चेहरे पर ग़जब का आकर्षण और मासूमियत थी, उसके सभी दाँत अब भी सही सलामत थे, वो हँसती थी तो उसके दाँत मोतियों जैसे लगते थे, आज अचानक बारिश देखकर मुझे झुम्पा की याद आ गई।।
      तो सोचा आज झुम्पा की कहानी आप सबसे कह ही देता हूँ तो बात उस समय की है जब  मैं मोहन और मेरा दोस्त सुधीर एक पहाड़ी इलाके में घूमने गए, वहाँ के डाकबंगले में हमने शरण लीं, डाकबंगले में केवल दो ही लोग थे एक बिहारी चौकीदार और दूसरी उसकी मेहरारू, दोनों ने घर से भागकर शादी की थी, लड़की के घरवाले दोनों के खून के प्यासे हो गए तो दोनों वहाँ से भागकर इस पहाड़ी क्षेत्र में आ बसे।।
        डाकबंगला सुनसान और गाँव से काफी दूर था, इसलिए वहाँ चौकीदारी करने के लिए कोई भी राज़ी ना होता था, अब सीताराम की तो मजबूरी थी, उसे अपने लिए और अपनी मेहरारू के लिए सिर छुपाने की जगह जो चाहिए थी, इसलिए उसने इस काम के लिए हाँ कर दी, चूँकि वहाँ यदा-कदा इक्का-दुक्का ही मेहमान आते थे इसलिए दोनों के लिए वहाँ कोई ज्यादा काम ना था, दोनों को एकदूसरे के लिए समय ही समय था।।
   जब कोई मेहमान आ जाता तो सीताराम की मेहरारू छगिनिया रसोई सम्भाल लेती और सीताराम मेहमानों को, छगिनिया के एक हाथ में छः ऊँगली थी इसलिए उसका नाम छगिनिया था, सीताराम डाकबंगले का माली, नौकर, सफाईकर्मी सब कुछ था।।
     मै और सुधीर सुबह नाश्ता खाकर निकलते, छगिनिया नाश्ते में कभी तो तरीवाली आलू की सब्जी और पूरी बना देती तो कभी आलू के पराँठें, आलू इसलिए ज्यादा इस्तेमाल करते थे वो लोंग क्योंकि उन्होंने डाकबँगले के लाँन में बो रखें थे, वैसे वहाँ उन्होंने टमाटर, धनिया, हरी मिर्च, मैथी, पालक भी बो रखी  थी।।
    इस तरह हमने उस पहाड़ी इलाके की सभी जगहें घूम लीं थीं, दो दिन छुट्टी अभी बाक़ी थी और हम डाँकबँगले में बोर होने लगें, तभी हमें किसी ने बताया था कि अगर वहाँ जा रहे हो तो वहाँ का सूर्यास्त जरूर देखकर आना, बहुत ही खूबसूरत होता है वो नजारा, पहाड़ का सूर्यास्त को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाओगे।।
        इसके बारें में हमने सीताराम से पूछा तो उसने कहा...
हाँ! साहब! बहुत ही खूबसूरत होता है, मैं छगिनिया को लेकर वहाँ दो बार जा चुका हूँ।।
    ठीक है तो सुधीर आज ही हम वहाँ चलते हैं, मैनें सुधीर से कहा।
  हाँ! मोहन देर किस बात की ? वैसे भी यहाँ बोरियत हो रही है, सुधीर ने मुझसे कहा।।
    और दोपहर का खाना खाकर हम चल पड़े पहाड़ की ओर, सीताराम ने हमसे कह दिया था साहब ! सावधान रहिएगा, जंगली जानवरोँ का भी खतरा रहता है, वहाँ से लौटते समय ठण्ड बढ़ जाएगी, बारिश भी हो सकती है, क्योंकि वहाँ बहुत ही घना जंगल है इसलिए अपने कोट और ओवरकोट भी साथ में ले लीजिए।।
     वहाँ आपको पानी की दिक्कत नहीं मिलेगी, जगह जगह पर आपको बहते हुए छोटे छोटे  झरने मिल जाऐगे, हम चल पड़े ऊँचे पहाड़ पर सूर्यास्त देखने, हम तीन चार घंटों में लोगों से पूछते पूछते आखिर उस पहाड़ पर जा ही पहुँचे।।
    बस सूरज डूबने ही वाला था, सूरज की किरणों की लालिमा ने पूरे आसमान को घेर लिया था, साथ साथ पंक्षी भी गुजर जाते तो ऐसा लगता था कि जैसे को पेंटिंग हो, बड़ा ही मनमोहन दृश्य था, मैं तो बस खो ही गया उस खूबसूरती में, हम थोड़ी देर वहाँ बैठे फिर वापस आने का सोचा, क्योंकि अँधेरा होने को था।।
     हम वहाँ से नीचे की ओर चल पड़े लेकिन आते वक्त हमें कोई भी ना दिखा जिससे रास्ता पूछ लेते और हम रास्ता भटक गए, हम चलते चले जा रहे थे, गनीमत ये थी कि आते समय सीताराम ने हमारे हाथ में टार्च थमा दी थी, बोला अगर अँधेरा हो जाए तो इसके लिए...
     टार्च जलाकर रास्ता ढूढ़ते जा रहे थे लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था, हाथघड़ी देखी तो रात के आठ बज चुके थे, कहते हैं ना कि जब मुसीबत आती है तो चारों ओर से आती है, अचानक बिजली कड़की और बारिश शुरु हो गई, हम दोनों ने सोचा लो (कोढ़-कोढ़़ में खाज) एक मुहावरा है, मुसीबत के ऊपर मुसीबत, बारिश हल्की थी लेकिन ठण्ड तो लग ही रही थी, एक भी बूँद सिर पर पड़ती तो झुरझुरी सी उठ जाती सारे बदन में।।
   अब क्या करें ? कुछ नहीं सूझ रहा था, वहाँ कोई भी मकान कोई भी घर नहीं दिख रहा था, कि जहाँ जाकर आसरा लिया जा सकें और हम दोनों बस चलते जा रहे थें, अब तो ये भी डर लग रहा कि अगर कोई जंगली जानवर सामने आ जाए तो अब मरें, तब मरें, ऐसी कश्मकश थी जिसका कोई समाधान नहीं दिख रहा था।।
    हम बस चलते चलते जा रहे थे लेकिन कहाँ वो नहीं पता था, तभी हमारे मन में एक खुशी की लहर दौड़ गई, बहुत दूर हमें एक रोशनी सी दिखाई दी, लगा कि शायद वहाँ पहुँचकर कोई बात बन जाएं, सिर छिपाने को रात भर के लिए जगह मिल जाएं, भूख भी लगी थी लेकिन पहले सिर तो छुपाने की जगह मिले, भूखा तो रातभर रहा जा सकता है, हमने ये सोचा।।
    और हम उस रोशनी वाली दिशा की ओर बढ़ चले, लगभग आधा किलोमीटर चलकर हम उस जगह पहुँचे तो देखते ही कि कोई खेत है और चारों ओर से पतली पतली डण्डियों से घिरा हुआ है और वहीं पर एक छप्पर के नीचे दो कुत्ते बैठे सो रहें हैं और बगल के छप्पर में एक गाय और उसका बछड़ा बँधा है, कुछ मुर्गियाँ भी टोकरों के नीचे आवाज कर रहीं हैं, ये हमने टार्च जलाकर देखा।।
    और उसी खेत में ही एक पत्थरों का बना छोटा सा मकान था जहाँ कि खिड़की से वो रोशनी आ रही थी, खेतों के बीच में एक पतली सी पगडण्डी थी, मकान तक जाने के लिए, बारिश की रफ्तार अब बढ़ने लगी थी और अब हम ठण्ड को सह नहीं पा रहे थे, बुरी तरह से काँप रहे थे, तभी हमने पगडण्डी के भीतर मकान तक जाने के लिए जैसे ही पैर रखा था तो कुत्ते हमारी आहट पाकर जाग उठे और बुरी तरह लगातार भौंकने लगें।।
     हम दोनों बुरी तरह से डर गए, तभी चू...चू...करके मकान का किवाड़ खुलने की आवाज़ आई, वो आवाज़ किसी बूढ़ी औरत की लग रही थी, वो कुत्तों से बोली...
   हीरा-मोती चुप हो जाओ, जरा देखने तो दो कि कौन आया है, हो सकता है कि कोई भूला भटका मुसाफिर हो, उसे मदद की जुरूरत हो वैसे भी इतनी तेज बारिश हो रही है, पता नहीं कौन बेचारा बारिश में रास्ता भटक गया हो।।
    हमने उनकी बात सुन ली थी और मैं चिल्लाकर बोला....
जी! हम हैं! रास्ता भटक गए हैं।।
फिर वो बूढ़ी औरत हम दोनों से बोली...
  वहाँ क्यों भींग रहे हो? जल्दी से अंदर आ जाओं, 
उनकी बात सुनकर हम दोनों फौरन ही उनके मकान की ओर भागें, भीतर पहुँचे तो थोड़ी राहत मिली, फिर वें बोलीं....
  अरे, तुम दोनों तो बिल्कुल भीग गए हो, अपने अपने ओवरकोट उतार दो, मैं पीछे बरामदे में डाल देती हूँ, तुम लोंग जब तक कम्बल लपेट लो और इस आग के पास बैठ जाओ और हमने ऐसा ही किया, उन्होंने हमें कम्बल दिए तो हमने लपेट लिए, उनके चूल्हे में आग जल रही थी तो हम वहीं खुद को सेंककर सुखाने लगें।।
  वो ओवरकोट बरामदे में डालकर आईं तो उन्होंने चूल्हे पर दूध चढ़ा दिया, जब दूध थोड़ा गरम हो गया तो हम दोनों को बड़े बड़े पीतल के गिलास में दूध देते हुए बोलीं.....
  ये गरम दूध पी लो, ठण्ड मिट जाएगी, हम दूध पीने लगें, दूध पीकर हमें वाकई बहुत अच्छा लग रहा था, फिर वें बोलीं....
  मेरे पास इतना कुछ नहीं है तुमलोगों को खिलाने के लिए, क्योंकि यहाँ अकेली रहती हूँ, हाट नहीं जा सकती, बूढ़ी जो हो गई हूँ और इधर खेत में भी देखना पड़ता है, कोई सामान ला देता है तो उसे से काम चला लेतीं हूँ।।
    ये कुछ आलू पड़े हैं खेतों के, इन्हें भून देती हूँ नमक मिर्च मिलाकर भरता बना दूँगीं, कुछ मक्के का आटा है तुम लोगों के लिए उसकी रोटियाँ बना देती हूँ।।
  हमने कहा ...
माँ जी! इतना कष्ट उठाने की जुरूरत नहीं है, दूध से ही हमारा काम चल जाएगा।।
ना! ऐसे कैसे? आज रात तुम मेरे मेहमान हो, भूखा कैसे सोने दूँगीं भला? वे बोलीं।।
  हमें तो भूख लगी थी, हम मना नहीं कर पाएं, उन्होंने कुछ ही देर में खाना तैयार कर दिया, भरता और मक्के की रोटी खाकर आत्मा तृप्त हो गई, तब हमने उनसे पूछा....
   माँ जी! आप पहाड़ी होकर इतनी अच्छी हिन्दी कैसे जानती हैं?
  वो बोलीं....
  हिन्दी मुझे पहले से आती है क्योंकि मेरी दादी को हिन्दी आती थी, जब वो चली गई तो, मैने हिन्दी बोलना बंद कर दिया, लेकिन कोई और भी था जिसने मुझे और अच्छी तरह हिन्दी बोलना सिखा दिया जो सालों पहले तुम्हारी ही तरह बरसात की रात में आया था, तब सावन का महीना था लेकिन आज तो बेवजह ही बारिश हो रही है, उसने भी उस रात हमारे घर पर दस्तक दी थी और मैने ही उसके लिए दरवाजा खोला था.....
   तब उसने कहा था....
  माफ कीजिए, बारिश में भटक गया हूँ, रात भर सिर छिपाने की जगह चाहिए....
  तब मैने कहा था कि....
अपने बाबा से पूछकर बताती हूँ....
  वो मेरी और उसकी पहली मुलाकात थी और ये कहते कहते उनकी आँखें भर आईं....
  तब सुधीर ने उनसे कहा....
   क्या हम आपकी और उनकी कहानी जान सकते हैं....?
   वें बोली....
   तो मेरी कहानी सुनना चाहते हो....
   तब सुधीर बोला...
  हाँ! माँ जी! ये लेखक है और इसे दूसरों की कहानियांँ सुनकर ही प्रेरणा मिलती है....
ठीक है तो सुनो मेरी कहानी....वें बोलीं।।

वो ऐसी बारिश की तूफानी रात थी, तब किसी ने हमारे घर के दरवाजे पर दस्तक दी, तब मैं इस घर में नहीं रहती थी, पहाड़ से नीचें उतरकर हमारा घर हुआ करता था पत्थरों से बना हुआ, वहाँ मैं अपने परिवार के साथ रहती थी, परिवार में मैं मेरी दो छोटी बहनें, एक छोटा भाई, माँ और बाबा थे।।
     मैं घर में बड़ी थी तो घर के बाहर के ज्यादातर काम मैं ही किया करती, जैसे कि हाट से सब्जी लाना, राशन लाना, आटा पिसाना, आटा कभी कभी माँ पर ही पीस लेती थी लेकिन उनकी तबियत ठीक नहीं रहती तो मै बाहर की चक्की से पिसा लाती थी।।
     हाँ! तो जब हमारे दरवाजे पर दस्तक हुई तो बाबा ने कहा....
भला! इतनी रात गए इतनी तेज़ तूफानी बारिश में कौन हो सकता है, तब बाबा ने मुझसे कहा....
  बेटी! झुम्पा ! देख तो दरवाजे पर कौन आया है?
मैने दरवाजा खोला तो कोई नवयुवक ओवरकोट पहने खड़ा था और उसने मुझसे पूछा....
  जी! रातभर सिर छुपाने की जगह चाहिए बस, रास्ता भटक गया हूँ।।
मैने कहा....
मैं अपने बाबा से पूछकर बताती हूँ।।
मैं ने जैसे ही भीतर जाकर बाबा से ये कहा....
बाबा! कोई परदेशी मालूम पड़ता है, भींगा हुआ है, रात भर सिर छुपाने की जगह चाहता है, चेहरा तो नहीं देख सकी क्योंकि बाहर बहुत अँधेरा हैं, ऊपर से बारिश भी हो रही है।।
तब बाबा बोले...
  अरे...अरे....इतना भीगने के बाद बेचारा बीमार ना पड़ जाएं, मैं उसे भीतर लेकर आता हूँ।।
तभी माँ बोल पड़ी....
  एक अन्जान परदेशी को घर में घुसाओगे, जानते नहीं घर में सयानी बेटियाँ हैं।।
फिर बाबा बोले....
तू हमेशा गलत क्यों सोचती है झुम्पा की माँ! हो सकता है उसे सचमुच मदद की जरूरत हो, 
तुम नेकदिल हो तो तुम्हें सारी दुनिया नेकदिल दिखाई देती है, माँ बोली।।
  ऊपर वाला है ना! हमारी रक्षा के लिए, वो सबकी करनी देखता है, मैं उसे भीतर बुला लेता हूँ, तू जब तक खाने का कुछ कर ले, बाबा बोले।।
खाना तो कब का बना लिया मैने, बस  लगाने ही तो जा रही थी, माँ बोली।।
चूल्हा मत बुझाना, शायद कुछ और बनाना पड़ जाएं, बाबा बोले।।

क्रमशः....