Nainam chhindati shstrani - 55 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 55

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 55

55

इस सप्ताह समिधा व रोज़ी का कार्यक्रम काफ़ी व्यस्त था, सारांश भी व्यस्त था परंतु वह जैसे ही काम से ख़ाली होता उसे अकेलापन कचोटना लगता | उसे अपनी इन मित्रों के साथ अपनी शामें बिताने की आदत पड़ गई थी अत: इस बार उसने अकेलापन महसूस किया | अपने ऊपर सारांश को हँसी आई, पहले भी तो वह अकेला ही घूमता रहता था, अब उसे इन मित्रों की आदत पड़ गई थी | इस ख़ाली व अकेले समय में उसने अपने व समिधा के बारे में गंभीरता से सोचा | फ़ोन पर माँ से बात करके समिधा के बारे में पूरी जानकारी दी, उन्हें बताया कि वह समिधा को पसंद करने लगा है | 

इंदु इस बात से बहुत प्रसन्न हुई, वह सारांश के अकेलेपन को बहुत शिद्दत से महसूसती थी | सारांश बचपन से ही उसके साथ जुड़ा था | उसकी मित्रता जो कुछ भी थी, उसकी माँ से ही तो थी | अपने पिता के साथ बचपन का बिताया समय उसे जो थोड़ा-बहुत याद था, उसे सोचकर कभी उसके मुख पर कभी मुस्कान तैर जाती, कभी उसके रौंगटे खड़े होने लगते तो कभी आँसू लरजने लगते | पापा के साथ बिताई गई उसकी धुंधली स्मृतियों के ख़ज़ाने में बचपन में पापा का घोड़ा बनना, उसको मोंटेसरी स्कूल छोड़कर आना, अपने हाथों से छोटे-छोटे कौर बनाकर उसे खिलाना ! सब कुछ उसके स्मृति-पटल पर नाचने लगता | 

यह साथ केवल चार-पाँच वर्ष तक की उम्र तक ही क्यों रहा ?उसे कभी समझ नहीं आया, उसे हॉस्टल क्यों फेंक दिया गया ?आख़िर उसने क्या किया होगा ?हॉस्टल भेजते समय माँ की उदासी भरी अश्रुपूरित आँखों की तस्वीर वह कभी भुला नहीं पाया | उसके जीवन के केवल चार-पाँच वर्ष ही उसके ख़ज़ाने में ज़िंदा थे| उसके पश्चात उसके पापा उसके साथ नहीं थे, न जाने क्यों?बस।उसने माँ को सदा अपनी ऊंगली पकड़े हुए पाया | पाप की व्यस्तताएँ इतनी बढ़ गईं कि वे परिवार को समय देने में हिचकिचाने लगे | 

जिस भारतीय –अंग्रेज़ी रक्त से बनी इंदु को उसके गुणों के कारण वे प्रेम करने लगे थे, प्रेम-विवाह करके आदर-सत्कार से उसे ब्याह कर लाए थे | वह प्यार, स्नेह, चाहत पापा की आँखों व व्यवहार कम से कम उसे तो दिखाई नहीं देता था | जब जब भी वह हॉस्टल से घर गया, उसने पापा को या तो देखा नहीं अथवा इतना व्यस्त देखा कि उनके पास माँ से बात करने का समय तक न था | वे गुमसुम अपनी ‘स्टडी’ में कैद रहते | उनके लिए बेटे का घर आना या न आना मानो कोई अर्थ ही नहीं रखता था | 

हाँ, एक बात थी, उसने पापा या माँ के बीच में कभी भी ज़ोर से बोलने या झगड़ने की आवाज़ नहीं सुनी थी | एक कब्रिस्तान की सी खामोशी घर भर में पसरी रहती | केवल कभी नौकरों के बोलने की, खाना बनाने वाले महाराज की माँ से बात करने की, उनके आदेश की फुसफुसाहट सी वातावरण में तैरती लगती | घर के माहौल में आनंद पाने के स्थान पर सारांश वहाँ उदास हो उठता | घर उसे हॉस्टल से भी अधिक अकेला, गुमसुम लगता | 

वास्तव में कुछ वर्षों में उसे अपना हॉस्टल ही घर लगने लगा था | जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया माँ ने छुट्टियों में भी उसे घर न बुलाकर बाहर अन्य स्थानों पर उसके साथ भ्रमण करना शुरू कर दिया था | वे उसे अपने सीने से लगातीं और कहतीं;

“पापा बहुत व्यस्त रहते हैं तो क्या ---माँ और बेटा एंजॉय करेंगे | ”

इंदु ने सारांश को कितने सारे दर्शनीय स्थल दिखाए आ| उसकी छुट्टी के समय इंदु के विश्वविद्यालय की छुट्टियाँ भी होती थीं अत: इंदु के लिए यह मुश्किल नहीं था | प्रतिवर्ष छुट्टियों में वह बेटे को लेकर कहीं न कहीं घूमने का कार्यक्रम बना लेती और फिर उसे हॉस्टल छोड़ देती | यह सब योजना वह पहले से ही तैयार कर लेती थी | 

सारांश के नाना-नानी अपनी वृद्धावस्था में इंग्लैंड गए थे जहाँ इंदु के पिता यानि सारांश के नाना की मृत्यु हो गई थी | सारांश की नानी फिर वहीं रह गईं | इंदु सारांश को नानी से मिलवामे इंग्लैंड भी ले गई और धीरे-धीरे उसने बेटे को सारा यूरोप ही घुमा दिया था, पर पापा कभी न साथ थे | इंदु से ही सारांश ने माँ, पापा का प्यार, स्नेह, दुलार पाया | 

वह अपनी माँ इंदु से अपने पापा और माँ के बीच में पसरी हुई दूरी के बारे में न जाने कितनी बार प्रश्न कर चुका था| माँ ने इस दूरी का कारण सदा पिता की व्यस्तता बताई थी | जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उसे लगने लगा कि उसकी माँ अपने पति की बातों पर पर्दा डालती रही थी अथवा उनके सम्मान के प्रति बहुत सचेत रही थी | उन्होंने कभी भी अपने पति के प्रति कटु शब्दों का प्रयोग नहीं किया था | बड़े होते हुए उसने बहुत बार सोचा था ;

“क्या किसी स्त्री में इतनी शालीनता, इतनी सहनशीलता, इतनी गंभीरता संभव है ?”वह माँ को बचपन से देख रहा था, वे उसके साथ बहुत खुश रहतीं | खिलखिलातीं, हँसतीं परंतु उनके भीतर न जाने क्या चलता रहता था ?सारांश अपनी माँ का अकेलापन महसूस करता था | जो शायद वह पढ़ाई के अतिरिक्त खली समय में हर पल ही करता था | उसे लगता जैसे उसके दिल को कोई काँच से काट रहा हो | 

बचपन की बातें स्मृति-पटल पर ज़िंदा रखना मुमकिन न था परंतु वह सदा इस युद्ध से भीतर ही भीतर लड़ता रहा था | सो।उसके लिए यह सब भूलना कठिन था | बालपन की बातें उसकी पनीली आँखों में हर पल समाई रही थीं | ढेर से प्रश्नों के जंगल उसके मन की मरुभूमि में अपना घर बसा, खंधरों की भाँति उसे बहयभीत करते रहते थे | माँ ने उसे कभी कुछ नहीं बताया, उसने सब कुछ खुद ही सूँघ लिया था ऐसे ही जैसे माँ उसके अकेलेपन को, उसकी उदासी को सदा महसूस करती आई थी | 

अध्ययन समाप्त करके वह नौकरी करने बंबई आया पर यहाँ भी उसे अपने मन के मुताबिक कोई मित्र न मिल सका | यूँ वह सब वेदनाओं को गर्त में उड़ाकर अपने सामने की ज़िंदगी को स्वीकार कर चुका था पर परछाइयाँ कहाँ साथ छोड़ती हैं ?वे तो लिपटी ही रहती हैं | अपनी इन दोनों मित्रों के मिलने से पहले ऑफ़िस के बाद उसकी मित्रता केवल रेडियो के संगीत तथा बंबई की सड़कों से थी | या फिर जुहू के बीच उन स्थलों पर वह अकेला भटकता रहता था जिसके समुद्र की लहरें उसे ज़िंदगी के अर्थ समझाती प्रतीत होतीं | 

इन दोनों मित्रों के मिलने से उसका अकेलापन काफ़ी हद तक दूर हुआ था और उसे लगने लगा था कि उसकी ज़िंदगी में से भी सूनापन दूर हो सकता है | उसे एक ऐसे संबल की आवश्यकता थी जो उसके बचपन से पली पीड़ा को उसके साथ बाँटकर उसे जीवन भर साथ दे सकता | उसके पिता विलास के जैसा नहीं जिन्होंने अपने प्यार व संवेदनाओं को हवा में उड़ाकर उसकी आत्मा में छेद कर दिए थे | उसे अपने लिए एक ऐसी साथी की ज़रूरत महसूस होती थी जो उसके साथ जीवन भर किसी भी स्थिति में कदम से कदम मिलाकर चल सकता, एक मोम के पुतले की नहीं | 

पापा मोम के पुतले ही तो बनकर रह गए थे पर उस पुतले को भूख-प्यास लगती थी | उसकी और सारी आवश्यकताएँ भी थीं जिनका ध्यान रखना उनकी वफ़ादार पत्नी अपना कर्तव्य समझती रही थी | बेशक वे अपने जीवन में किन्हीं भी कारणों से असहज रहे होंगे पर अपने कम में सदा वाहवाही लूटते रहे थे | विदेशों से उन्हें बुलावे आते रहते थे, उनका जीवन काम में संलग्न होकर सहजता से चल रहा था | उसे कभी भी यहा महसूस नहीं हुआ कि उसके पिता ने अपनी पत्नी और बेटे के बारे में कभी गंभीरता से सोचा भी होगा | 

अपनी अनुकूलता से माँ उसके पास आती रहतीं, वे जीवन की तराजू के दोनों पलड़ों में संतुलन करने का प्रयास करती रहीं थीं जिनमें उसके दो महत्वपूर्ण साथी डगमग कर रहे थे | उनकी भी विश्वविद्यालय की व्यस्तताएँ थीं | पापा यदि इलाहाबाद में होते तो उनके प्रति कभी भी कर्तव्यों से वे चूकी नहीं थीं | उसने जब माँ को समिधा के बारे में बताया और उनकी आवाज़ की चहक सुनी, उसके मन में एक सुकून सा भर उठा | उसकी आँखों में माँ का खूबसूरत चेहरा चित्रित हो उठा, वह उनकी मानसिक स्थिति से अच्छी तरह परिचित था | माँ अपने पति के प्रति कर्तव्यों तथा बेटे के प्रति स्नेह एवं ममता अपने हृदयांचल में सँजोए दोनों के प्रति पूर्ण समर्पित थीं |