Nainam chhindati shstrani - 54 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 54

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 54

54

अचानक ! समिधा पाशोपेश में पद गई | उसने तो कुछ सोचा ही नहीं था इस बारे में ! हाँ, वह सारांश को एक अच्छे इंसान की, एक अच्छे मित्र की हैसियत से पसंद करती थी पर ---

समिधा को भौंचक्की देखकर रोज़ी खिलखिलाकर हँस पड़ी | 

“हाँ, मैं समिधा के साथ अपना पूरा जीवन बिताना चाहता हूँ | ”सारांश ने अब खुलकर कहा | 

समिधा अचकचा उठी और कुछ अजीब सी दृष्टि से उसने सारांश की ओर देखा | उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सारांश इतनी आसानी से उसके सामने अचानक यह सब कुछ परोस देगा | समिधा का चेहरा देखकर रोज़ी और सारांश ठठाकर हँस पड़े, यह कोई मज़ाक तो नहीं था ?

“तुम दोनों बड़े शैतान हो | ”समिधा ने धीमे से कहा, उसका दिल धुकर-पुकर करने लगा था| उसके भीतर के चोर ने अब गंभीरता से उसके मन में चहलकदमी करनी शुरू कर दी थी | एक अच्छे मित्र से कुछ ज़्यादा ही था सारांश –उसे भी लगता था लेकिन उन दोनों में अभी तक इस प्रकार की चर्चा नहीं हुई थी इसलिए उसे बहुत अजीब लग रहा था | 

“नहीं, यह मज़ाक नहीं था | ”समिधा ने सोचा था | प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ लोग विशेष स्थान रखते हैं, कुछ रिश्ते ख़ास अहमियत रखते हैं, कुछ दोस्त ख़ास हो जाते हैं, ख़ास रिश्ते भी बन जाते हैं पर ये रिश्ते ऐसे बनते हैं क्या?अभी तक उन दोनों के बीच केवल मित्रता पनपती रही थी | स्वीकारोक्ति क्या इतनी सहज होती है ?मनुष्य के समक्ष कई चीज़ें अचानक आकार खड़ी हो जाती हैं, जिनमें वह ऊपर-नीचे घूमता रह जाता है | 

“मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ | ”सारांश ने अपनी बात दोहराते हुए कहा और समिधा का मुख ताकने लगा | 

नहीं उत्तर दिया गया समिधा से कुछ !वह गुमसुम बनी रही, जानती थी सारांश मज़ाक नहीं कर रहा था | उसके लिए भी सारांश के लिए कोमल अहसास था परंतु इतनी शीघ्र उत्तर देना संभव न था | यह कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल न था | वह समुद्र की लहरों के साथ ऊपर-नीचे होने लगी | गुड्डे-गुड़िया को याद करते हुए फिर से वह अपने पुराने पृष्ठ उलट बैठी जब उसे बचपन में गुड्डे-गुड़िया का ब्याह रचने का शौक चढ़ा था | 

सुममी और किन्नी की सहेली थी आभा जिसके पिता कपड़े के बहुत बड़े व्यापारी थे | आभा सम्पन्न घर की लाड़ली बेटी थी | अपनी सहेलियों को अपने घर बुलाती रहती, नौकर-चाकर उसके पीछे लगे रहते | यह परिवार सुममी की माँ का बहुत आदर करता ।ज़रूरत पड़ने पर आभा की माँ दयावती बहन जी यानि सुममी की माँ से उनकी सलाह लेने आतीं | 

खूब पैसा होने के बावजूद घर की औरत महज़ एक ‘बेचारी’ थी | गहनों, रेशमी सदियों में लिपटी वह पति के बिस्तर तक ही सीमित रही, किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय में वह पति की सहभागी नहीं बन सकी | उसको एक ही कम मिला था घर के प्रत्येक सदस्य के पेट और नाक का ख़्याल रखना ! घर के मर्दों की नाक बहुत ऊँची थी | उनके पेट और नाक का ध्यान रखते-रखते आभा की माँ की नाक कहाँ गायब हो चुकी थी, उसे स्वयं भी नहीं पता चला था | वह अपनापन खो चुकी थी, केवल ‘परिवारमय’ होकर वह एक कठपुतली होकर रह गई थी | 

कभी-कभी जब उसे अपने भीतर काँटे उगते हुए प्रतीत होते, भीतर का बाँध नाज़ुक कगार पर पहुँचने को तत्पर होता, वह बहन जी के पास अपनी पीड़ा बाँटने चली आती | अपनी माँ के साथ आभा भी आती थी जिसके पहनावे, बातचीत, व्यवहार से अमीरी झलकती | लाला जी की कोठी पास ही थी, कोई पचासेक कदम पर ! आभा की माँ को कहीं भी जाने की इजाज़त नहीं थी | न जाने कैसे आभा के दादा जी के मन में विश्वास व आदर कूट-कूटकर भर गया था | उन्हें लगता यदि घर की बड़ी बहू कुछ समझदारी से सीख सकेगी तो केवल दयावती बहन जी से | यदि वह समझदार हो गई तो घर की और बहुएँ भी समझदार बन सकेंगी| यद्यपि घर पर कभी उसे वह स्थान अथवा अवसर दिया ही नहीं गया था कि वह अपनी समझदारी का कभी कोई नमूना दे पाती | 

सुम्मी की माँ आभा की माँ की पीड़ा समझती थी, वह उसके लिए कुछ अधिक तो न कर पाती | हाँ, उसके भीतर उमड़ते तूफ़ान को शांत करने के लिए उसे सहज बनाने का प्रयास करती | आभा भी अपनी अम्मा के साथ आया करती थी | पहले तो वह सुम्मी और सभी से दूर बनी रही, धीरे-धीरे बालपन की स्वाभाविक सादगी ने तीनों को समीप ला दिया| 

एक दिन खेलते-खेलते तय किया गया कि गुड्डे-गुड़िया कि शादी की जाएगी | आभा गुड़िया वाली बनी, उसके पास बहुत सुंदर गुड़िया थी जो उसके दादा जी दिल्ली से लाए थे और जो सोती, जागती थी | अपनी इतनी सुंदर, लाड़ली गुड़िया देने में आभा का दम निकला जा रहा था | वह उसे हर रात को उसकी छोटी सी रेशमी चादर वाले पलंग सुलाती, रात में उसको रेशमी चादर ओढ़ाती | 

तय यह हुआ कि शादी के बाद गुड्डा अपनी पत्नी के घर रहेगा | हाँ, कभी-कभी गुड़िया बार-त्योहार अपनी ससुराल आ जया करेगी | सुम्मी और किन्नी गुड्डे वाले बने और बारात ले जाने की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आई | आभा की गुड़िया की शादी की तैयारी के लिए नौकर, नौकरानी थे, उन्होंने बाकायदा शादी की तैयारी शुरू कर दी | जब सुम्मी ने माँ को बताया कि वे गुड्डे की शादी कर रही हैं तो वे तुरंत बोली थीं –

“पर, तुम्हारे पास गुड्डा है कहाँ ? ब्याह किससे रचाओगी ? अपने सिर से ---??”

हत्त तेरे की ! गुड्डा तो था ही नहीं उन दोनों के पास ! आभा ने भी नहीं पूछा था, न ही कहा था कि वे अपना गुड्डा दिखाएँ | अब? नाक का प्रश्न था | गुड्डे का इंतज़ाम तो करना ही होगा | बीबी दोनों पर कितनी गुस्सा हुई थीं, फिर आनन –फानन में पुराने कपड़े, रूई, सूईं-धागा निकाले गए | बीबी और सुम्मी की माँ ने मिलकर गुड्डा तैयार किया जिसके सिर पर चमकीले गोटे और मोतियों का सेहरा बाँधा गया | जिसकी अचकन माँ की पुरानी साड़ी के बॉर्डर से सिली गई थी और चूड़ीदार पापा के पुराने पायजामे के टुकड़े से बनाया गया था | 

आभा के दो नौकर सगाई की मिठाई की दो थालियाँ भरकर दे गए थे | बीबी और माँ ने भी कुछ मिठाइयाँ बनाईं और उन्हें डिब्बों में भरकर गुड़िया के घर फिरौती में भेज दिया गया| बारात वाले दिन कई पड़ौस के बच्चे इकक्ठे हो गए थे, जिनमें से कोई अपनी पीं-पीं ले आया था, कोई ढपलीऔर कोई बाँसुरी ! गर्ज़ यह कि बैंड-बाजे का इंतज़ाम हो गया तो घोड़े की खोज शुरू हो गई | 

आख़िर खिलौनों की टोकरी में एक पीले रंग का प्लास्टिक का घोड़ा मिला जिसे सुम्मी के पापा लाए थे और जब उससे खेलकर मन भर गया था तब घर के पीछे के भाग में उसे टूटे खिलौने की टोकरी में फेंक दिया गया था | अरे! घोड़े की एक टाँग तो गायब थी लेकिन अब कोई उपाय नहीं था | घोड़े को साबुन के पानी से नहलाया गया, उसकी प्लास्टिक की देह निखर आई पर टूटी टाँग तो ठीक हो नहीं सकती थी | सो, उसी घोड़े पर बारात निकली | 

आगे-आगे बैंड-बाजा, बीच में छोटे बच्चे नाचने के नाम पर फिट-फिट भर की छलाँगें लगाते हुए और पीछे सजे हुए टूटी टाँग वाले घोड़े पर विराजमान दूल्हे राजा !जो सुम्मी के हाथ में विराजमान थे और किन्नी पूरे रास्ते उसे कमर से पकड़कर

घोड़े की पीठ पर टिकाए रखने की कोशिश करती रही थी जबकि उसका नाचने का कितना मन हो रहा था | ऊपर से बरसात की छ्म-छम बूँदें ---

क्या भव्य स्वागत किया गया था गुड़िया वालों ने ! पूरी, कचौरी, रायता, दही-बड़ा, लड्डू, इमरती! बाल-बरात के मज़े आ गए थे | दुल्हन गुड़िया को लेकर जब घर आए तब चढ़ावे में उसे गिलट का अधन्ने ( उस ज़माने में आना, पैसा चलते थे | अधन्ने का मतलब आधा आना ) वाला गहनों का सैट ही चढ़ा पाए थे जो हर दिन मुहल्ले में फिरकी वाला बेचता फिरता था | इस बात से आभा नाराज़ हो गई थी और आकर गुड्डे को उनके पास पटक गई थी | 

समिधा के मुख पर मुस्कुराहट देखकर सारांश ने उसका हाथ पकड़ लिया और एक बार फिर से अपना प्रस्ताव दोहरा दिया | सुम्मी मानो सोते से जग गई | वर्षों पूर्व की सैर कर आई थी वह!

सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही समिधा ! न जाने रोज़ी कब चली गई थी ? वह उन दोनों को एकांत देना चाहती थी | समिधा के मन में एक अजीब सी कोमल भावना प्रगाढ़ हो चली थी जिसे उसका धड़कता हुआ दिल बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था | 

सारांश अपने मन की बात समिधा तक पहुँचाकर एक तसल्ली से भर उठा था | उसे प्रतीक्षा थी समिधा से उत्तर की | वह समिधा का उत्तर जानता था परंतु उसके मुख से सुनकर वह आश्वस्त होना चाहता था | उसे समिधा का संकोच स्वाभाविक लग रहा था| अब कई दिनों तक तीनों व्यस्त थे | उनके मिलने का संयोग नहीं के बराबर था अत: सारांश का मन उद्विग्न था |