उजाले की ओर----संस्मरण
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नमस्कार स्नेही मित्रों
ज़िंदगी की गलियों के अनुभव कुछ खट्टे,कुछ मीठे तो कुछ कड़वे भी !
लेकिन हर दिन नए अनुभव होते हैं और वे हमें कुछ न कुछ तो देकर जाते ही हैं |
ये अनुभव केवल मेरी ही थाती थोड़े ही हैं ,ये हम सबको मिलते हैं |
एक नए दिन के उजाले से दिन की रोशनी धरती से लेकर मन के कोने-कोने में पसरती है
और साँझ होते-होते न जाने कितनी घटनाएँ और उनमें छिपे कितने अनुभवों से हमें
सराबोर कर जाती है|
बात बड़ी पुरानी है ,संभवत: चालीस वर्षों से भी पुरानी ! चलो पैंतीस लगा लेते हैं |
बच्चे छोटे थे और माँ जी यानि (सासु माँ ) काफ़ी बीमार !
उस समय सुविधाएँ भी पर्याप्त नहीं थीं और हम माँ जी की सेवा-सुश्रुषा में लगे रहते थे |
इन दिनों में ही दिल्ली एक ऐसी शादी में जाने की ज़रूरत हुई जिसमें जाना इसलिए आवश्यक था कि शादी हमारे द्वारा ही फ़िक्स कारवाई गई थी |
पति ने मुझे वहाँ भेजने का मन बना लिया ,उनका सोचना था कि मुझे बदलाव की ज़रूरत थी |
सो,बच्चों के साथ मुझे रेलगाड़ी में लाद दिया गया |
दिल्ली में शादी ठीक प्रकार से सम्पन्न हो गई | वहीं कानपुर से बड़ी नन्द भी आई हुई थीं |
उन्होंने मुझे और छूट दे दी | उन्होंने मुझसे कहा कि मैं माँ के साथ घूम-फिर आऊँ,वे अहमदाबाद आकर माँ जी को महीने भर के लिए संभाल लेंगी |
इस प्रकार मेरी माँ के साथ मेरा अलीगढ़ जाने का कार्यक्रम बन गया |
अलीगढ़ में माँ के ममेरे भाई रहते थे जो मेरे विवाह के बाद से ही मुझे बुला रहे थे |
लगभग पंद्रह दिन का कार्यक्रम बनाकर हम अलीगढ़ पहुँच गए |
मामा जी जी के दो छोटे बच्चे मेरे अपने बच्चों से 4/5 वर्ष ही बड़े थे | सो,बच्चों को खूब मज़ा आ रहा था |
मामा जी का पुश्तैनी गाँव अलीगढ़ के पास ही था यानि बुलंदशहर ज़िले में था | नाम ?बीरखेड़ा ---
वहाँ मामा जी के पुश्तैनी घर और बाग थे |
गर्मियों का मौसम ! पूरा बाग यहाँ से वहाँ तक फैला हुआ और वृक्षों पर लदे आम !
ये आम कच्चे-पक्के दोनों थे | मीठे-मीठे पके आम हर रोज़ माली व आम के बाग का चौकीदार गाड़ी में भरकर अलीगढ़ भेज देते |
हम लोगों ने गाँव के जीवन को जीया नहीं था | मैं भी एक-दो बार गई लेकिन मेरा गर्मी से बुरा हाल हो जाता |
घर में तो कूलर के नीचे पड़े रहते ,(उन दिनों ए.सी) नहीं होते थे ) खस -ख़स के पर्दे पूरे घर में लगे हुए थे |
ठंडक रहती लेकिन बच्चों को कमरों में बंद पड़े रहना सज़ा लगती |
सो,वे चार बच्चे रोज़ाना नाश्ता करके घर से भाग जाते | मामा जी जीप व ड्राइवर भेज देते थे |
उन धूल भरे रास्तों पर जीप ही चलतीं ,कारें नहीं | कभी कार जाती भी तो धूल में ऐसी अटकर वापिस आती कि मामा जी दो दिन तक उसे धुलवाते,पुछवाते ही रहते |
बच्चों को वैसे भी खुली जीप की मस्ती में बड़ा आनंद आता और वे शैतानी करते हुए गाँव पहुँचते |
उनके दोपहर के भोजन का इंतज़ाम वहीं गाँव में हो जाता जिसमें बाग से तोड़े गए आम ज़रूर होते |
मामा जी इर्रिगेशन (सिंचाई विभाग )में एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर थे | बड़ी सुविधाएँ !
जिनका मामी जी जमकर लाभ लेतीं | कभी खाना न बनातीं | ऑफिस का एक बंदा हर समय घर पर सेवा में तल्लीन रहता |
सुबह से लेकर वह शाम तक घर के काम करता रहता | खाना बनाने से लेकर टेबल लगाने तक में उसका जवाब नहीं था |
मैं भी आलसन बनती जा रही थी | जिसको अहमदाबाद के छोटे से घर में घर के छुटपुट काम करने के लिए ही सुविधा थी,ऊपर से माँ जी की बीमारी !
उसे अलीगढ़ में आकर बड़ा आनंद आ रहा था |मैं कूलर की ठंड में पड़ी माँ व मामी जी से गप्पें मारते-मारते न जाने कब निदिया रानी के आगोश में पहुँच जाती |
वैसे पिनपिन करती कि कभी गाँव का आनंद नहीं लिया लेकिन गाँव के धूल भरे रास्तों में मेरी हालत पस्त हो जाती |
इसलिए शरीर के आराम को मैंने ज़्यादा ज़रूरी समझा और उस आनंद को लेने से चूक गई जो वास्तव में मैं उन दिनों
उठा सकती थी |
अहमदाबाद आने के बाद जब मैं फिर से उसी दो कमरों वाले फ़्लैट में बंद हो गई तब मुझे अफ़सोस हुआ कि
अवसर मिलने पर भी मैं क्यों वह आनंद न ले सकी जो बच्चे लेकर आए थे ?
शायद ,यह शरीर का आलस्य था | जब बच्चे अपनी मस्ती की बातें करते ,मैं उनका मुँह ताकती रहती |
मुझे समझ में आया कि अवसर मिलने पर उसका लाभ लेना भी उतना ही आवश्यक होता है जितना अवसर मिलना |
लेकिन मैं अपना सुनहरा अवसर गँवा चुकी थी और बच्चों ने उसे भरपूर एंजॉय किया था |
अब बरसों से ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करती रह गई जो आज तक पूरी नहीं हुई |
अब कभी यदि अवसर मिला भी तो शरीर का साथ देना कठिन होगा |
सो---जब मौका मिले,अवसर का लाभ लेकर प्रकृति के साथ जुड़ने में ही समझदारी है |
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती