TEDHI PAGDANDIYAN - 22 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | टेढी पगडंडियाँ - 22

Featured Books
Categories
Share

टेढी पगडंडियाँ - 22

टेढी पगडंडियाँ

22

निरंजन जो कङियल जवान था । निरंजन जो यारों का यार था । निरंजन जो साहसी और धाकङ था । निरंजन जो चलता तो धरती हिलती । बोलता तो आसमान लरजता था । निरंजन जब सजधज के निकलता तो लोग अश अश कर उठते थे । हर जगह जिसके चर्चे थे , उस निरंजन का ऐसा अंत होगा , किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था । हवेली मातम में डूब गयी थी । जो सुनता , हवेली की ओर चल देता । अवतार सिंह एक ही दिन में ऐसा हो गया था जैसे सदियों का मरीज हो । गुरनैब को बार बार पछतावा हो रहा था कि उसने अपने भाइयों जैसे चाचे को उस दिन अकेला कैसे छोङ दिया कि घात लगाके बैठा दुश्मन वार कर गया । उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था । मशीन की तरह से जो कोई कुछ काम बताता वह कर रहा था बिना सोचे समझे चल फिर रहा था । चन्न कौर तो पागलों जैसी हो गयी थी । इस देवर को उसने कभी देवर समझा ही नहीं । हमेशा बेटे की तरह माँ बन कर पाला था । जिस दिन ब्याह कर आई थी , यह गोदी में था । एक साल बाद गुरनैब हो गया तो दोनों ऊपर तली के भाइयों जैसे ही लगते थे । सातवें साल में जिस दिन माता अकालचलाना कर गयी तबसे चन्न कौर ही उसकी माँ हो गयी थी । आज उसी बेटों जैसे देवर की अर्थी सजी थी , चन्न कौर बार बार बेहोश हो जाती । सिमरन ननी को गोद में लिए हर आये गये के लिए चाय पानी और रोटी की व्यवस्था देख रही थी । दूर दूर से रिश्तेदार मातमपुरसी के लिए चले आ रहे थे । गाँवों के गाँव , पंचायतें जो भी सुनता दौङा आ रहा था । ऐसी कहर की मौत सुनकर कैसे न आते । औसे में सिमरन चक्करघिन्नी हुई पङी थी । सुबह ही चाय के पतीले उबल जाते । दाल सब्जी बन जाती । बङी सी तवी पर गाँव की औरतें रोटियाँ सेकती जाती । टोकरों के टोकरे रोटियाँ बनती और खिलाई जाती । कोई किसी को काम कहता न था । जिसका जितना मन होता , काम करता फिर कोई और करने लग जाता । आखिर निरंजन सबका था । सबका लाडला ।
वह मनहूस दिन बीता . फिर रात भी बीत गयी । सुबह दिन निकलते ही थानेदार फिर से आया था – सरदार साहब , घटनास्थल का मुआयना करने आये थे । किसी ने पीछे से टक्कर मारकर गिराया है फिर ट्रक ऊपर चढा दिया । आप की किसी से दुश्मनी थी या किसी पर शक है तो हमें बताइये । हम उसको छोङेंगे नहीं । अगले ही दिन हत्यारा जेल की सलाखों के पीछे होगा । हम पूरी तरह से आपके साथ हैं ।
अवतारसिंह का गला भर आया । उससे बोला न गया । उसने हाथ जोङ लिये और सिर झुका लिया । गुरनैब ने कहा – आपकी बहुत बहुत मेहरबानी थानेदार साहब पर हमें कोई मुकद्दमा लङना नहीं है । हमारी किसी से दुश्मनी भी नहीं है इसलिए इस घटना को एक हादसा ही रहने दीजिए ।
जैसी आपकी मरजी । थानेदार चला गया था ।
जसलीन पत्थर का बुत हुई बैठी थी मानो उसे कोई बात न सुन रही हो , न समझ आ रही हो । औरतें आती । उसके गले से लगकर उसे रुलाने की कोशिश करती पर वह तो किसी और ही संसार में घूम रही थी । अपनी ही सोचों में खोयी खोयी दीवार से लगी बैठी थी ।
किरण ने वह रात सोचों में डूबते तैरते काटी । यह निरंजन गया तो गया कहाँ । वह तो जाना ही नहीं चाहता था । हमेशा सात बजते ही भाग जानेवाला निरंजन उस दिन नौ बजे तक भी उसके साथ था । दोनों कितने खुश थे । आज उन्होंने अपनी नयी कोठी में प्रवेश किया था । उस दिन जागती आँखों से उन्होंने कितने सपने देखे थे । सवा नौ बजे जब निरंजन जाने के लिए उठा तो किरण कितना उदास हो गयी थी । निरंजन जब अपने मोटरसाइकिल पर बैठ कर अपने घर की सङक पर चला तो वह उसे दूर तक जाते हुए देखती वहीं खङी रह गयी थी । वहाँ से हवेली मुस्किल से सात मिनट के रास्ते पर होगी । ये रास्ते में रह कहाँ गया । घर क्यों नहीं पहुँचा । इन सब ख्यालों में घिरी किरण ने सारी रात आँखों में निकाल दी । सवेरे चार बजे उसकी आँख लग गयी और वह गहरी नींद सो गयी ।
अचानक उसने देखा – निरंजन ने सुर्ख लाल रंग का कुरता पाजामा पहना है । नीले रंग की पगङी बाँध रखी है । कहीं जाने के लिए तैयार खङा है ।
ये लाल कपङे क्यों पहने हैं कहीं जा रहे हो क्या
हाँ , जा तो रहा हूँ । जाना पङेगा पर जल्दी लौट आऊँगा ।
किरण ने पकङने के लिए जैसे ही हाथ बढाया , उसका हाथ दीवार से जा टकराया । दर्द से बिलबिलाते हुए उसकी आँख खुल गयी । एक हाथ से दूसरे हाथ को मलते हुए उसने घङी देखी । दीवार घङी सवा आठ बजा रही थी ।
हे रब्बा , मैं इतनी धूप चढे तक सो रही थी । वह पलंग छोङकर उठ बैठी । किससे पूछे । किसे कहे कि निरंजन घर पहुँचा या नहीं । वह कपङे उठाकर नहाने चली गयी । जल्दी से दो लोटे पानी ऊपर डालकर उसने फटाफट कपङे पहने । पाँव में चप्पल फँसाती वह घेर की ओर चल पङी । बसंत और देसराज सुबह दूध लेकर हवेली गये होंगे । उन्हीं से पता चल सकता है कि निरंजन रात कहाँ रह गया था ।
घेर की हालत देखकर तो वह और भी घबरा गयी । घेर के दरवाजे खुले हुए थे । एक बाल्टी में दूध निककला पङा था । बाकी गाय – भैसों का दूध निकाला ही नहीं गया था । उसने बसंत और देसराज को कई आवाजें लगायी पर कहीं से कोई जवाब नहीं मिला । घबराकर वह वहीं बिछे फोल्डिंग पर बैठ गयी । कितनी देर बैठी । उसे एक पल युग जैसा लग रहा था । अब ये दोनों लङके कहाँ गायब हो गये । करीब आधा घंटा बैठकर वह कोठी में लौट आयी । अब क्या करे । किससे पूछने जाये ।
रोटी बनाने का उसका मन न किया । एक कप चाय पीकर उसने दोबारा घेर का चक्कर लगाया पर अभी तक कोई लौटा न था । घबराहट के मारे उसका बुरा हाल था । किसी काम में उसका मन न लगा । पूरे दिन में घेर के वह चार पाँच चक्कर लगा चुकी थी । हवेली कैसे जाय । कभी गयी ही नहीं । रास्ता तक नहीं पता उसे । करे तो क्या करे । पाँच बजे घेर से साइकिल के गिरने की आवाज आई तो वह भागी । बसंत आ गया था ।
बसंत कहाँ थे तुम दोनों । दरवाजे खुले छोङ धार निकालते निकालते कहाँ गायब हो गये थे । जवाब में कोई उत्तर न देकर बसंत बच्चों की तरह बिलख बिलखकर रो पङा ।

बाकी कहानी अगली कङी में...