भाग -30
हमने देखा कि उनका मूड अच्छा-खासा खराब हो गया है। उनके जाने के बाद मैंने छब्बी से पूछा, 'अब ये नई कहानी क्या है? मुझे पहले कुछ बताये बिना अचानक सामने खड़ा कर दिया। और वो प्याज, पान, रंग की नौटंकी का क्या हुआ?'
मेरे इतना कहते ही छब्बी बोली, 'तू अगर मेरी बात मानता चलेगा, तो यहाँ जो कुछ अपना है, वह सब-कुछ आराम से ले चलेंगे। किसी तरह की चिंता, कोई डर नहीं रहेगा। तुम ये तय मान लो कि अब ये साहब को आगे करेंगी, लेकिन अब मुझे उनकी भी चिंता नहीं, बहुत देखा है उनको भी।'
समीना वह बहुत मज़बूती से यह सारी बातें कह रही थी। मुझे उसकी बातों पर विश्वाश भी था, लेकिन फिर भी मैंने कहा, 'तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। जब यहां से निकल ही जाएंगे, तब काहे का डर। अब जो इतना बोल दिया है न, तो देखो कब-तक रुकना पड़ता है। ये मोटी साहब से कह कर देखो, क्या गुल खिलाती है। सब किए-कराए पर पानी फेर दिया है तुमने।'
'सुन, मैंने कोई पानी-वानी नहीं फेरा है। हां, जैसा पहले तय था, उस तरह भागते तो जरूर किए-कराए पर ही नहीं, सब-कुछ पर पानी फिर जाता। हम दोनों की फोटो, सारी जन्म-कुंडली इनके पास हैं। हमारे भागते ही पुलिस में रिपोर्ट लिखातीं कि, हम इनके यहां ये लाखों का सामान, रुपया चोरी करके भागे हैं। तब पुलिस पकड़ कर पहले हमें कूँचेगी, फिर चोरी के आरोप में जेल में सड़ा देगी समझे। रही बात साहब की, तो देखते हैं कितना जोर लगाते हैं। आफत कर दूंगी। रोज-रोज की आफ़त से खुद ही भगा देंगे।'
समीना मुझे छब्बी की बात सही लगी। मन में आया कि, सच में अक्लमंदी की बात कर रही है।
तमाम शंकाओं के बीच दो दिन बीत गए, लेकिन कोई नौकर हमारी जगह लेने नहीं आया। अब हमें एक-एक घंटा एक-एक दिन सा बड़ा लग रहा था। उस पर सुन्दर हिडिम्बा ऐसे व्यवहार कर रही थी, जैसे हमने उनसे कुछ कहा ही नहीं है । उनका यह व्यवहार हममें और ज़्यादा खीझ पैदा कर रहा था।
तीसरे दिन मौसम शाम से ही खराब हो रहा था। घनी बदली छायी हुई थी। बीच-बीच में कुछ बूंदें पड़तीं, फिर बंद हो जातीं। बादल कभी हल्के, कभी गहरे हो रहे थे। हवा भी बहुत तेज़ थी। मुझे बड़ी गुस्सा आ रही थी, इस पानी और बादलों पर। इन्हीं के कारण बेचारा तोंदियल। मैं, छब्बी उसके बारे में देर रात तक बतियाते रहे थे। उसकी पत्नी से भी हम-दोनों ने कई बार बात की थी।
दिन में उसके घर का नंबर हमें बॉलकनी में ही उसकी पॉकेट डायरी में ही मिल गया था। जिसे मैं उसके सामान के साथ भेज नहीं पाया था। तब मेरी, छब्बी की नजर उस पर नहीं पड़ी थी।
फ़ोन पर उसकी पत्नी बेचारी रो-रो के बेहाल हुई जा रही थी। लेकिन उसने सुन्दर हिडिम्बा के बारे में जो बताया उससे हम-दोनों का गुस्सा उनके लिए कुछ कम हो गया था। उन्होंने डेड-बॉडी के साथ जिस आदमी को भेजा था, उसी के हाथ क्रियाकर्म के अलावा दो महीने की तनख्वाह भी भेज दी थी। इसके अलावा तीसरे ही दिन उसकी पत्नी को फोन करवा कर एकाउंट नंबर लिया, उसमें और पैसे डाल दिए थे। साथ ही यह भी कह दिया था कि, 'जब-तक घर का खर्च चलाने की तुम कुछ व्यवस्था नहीं कर लेती हो, तब-तक मैं काम भर का पैसा भेजती रहूंगी। कोई ज़रूरत होने पर फ़ोन कर लेना।'
सुन्दर हिडिम्बा की इस उदारता ने मेरे, छब्बी दोनों ही के मन में उनके लिए काफी जगह खाली कर दी थी। मगर इसके बावजूद हम-दोनों का निर्णय अडिग था। मेरे प्यारे तोंदियल की फ़ोन डायरी में नंबर तो आठ-दस ही थे। लेकिन बाकी पन्नों पर कई शेरो-शायरी लिखी थीं। प्यार में डूबी कुल मिलाकर बस ठीक ही थीं। पढ़ने में बढ़िया थीं। बाकी मुझे कुछ पता नहीं शायरी के बारे में। ये सब शायद उसने छब्बी को ध्यान में रखकर लिखी थीं।
समीना मैंने ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि, उसी डायरी में छब्बी की एक छोटी सी फोटो भी थी। जिसे उसने बड़ा संभाल कर रख था। छब्बी भी यही मान रही थी। उसी ने मुझे बताया था कि, मेरे वहां पहुंचने से पहले उसने छब्बी से कई बार प्यार का आग्रह किया था। कई बार उसे पकड़ने की कोशिश की थी।
लेकिन छब्बी ने उससे हर बार यही कहा, 'तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं। तुम्हारे से क्या संबंध रखना। तुम आखिर में अपने परिवार के ही होगे। और तब ना मैं इधर की होऊँगी ना उधर की। ये तो बस काम-चलाऊ वाला ही मामला होगा। एक बार को तुम्हारी बात सही मान भी लूँ कि तुम किसी भी हालत में मेरा साथ नहीं छोड़ोगे, तो भी मैं यही कहूँगी कि ''नहीं'', मैं सपने में भी नहीं सोच सकती कि मेरे कारण तुम्हारी पत्नी का जीवन बर्बाद हो, वह इस उम्र में अपने पति से हाथ धो बैठें। मैं एक परिवार को बर्बाद करने का पाप अपने सर नहीं लूँगी।''
छब्बी ने बताया इसी के बाद उसने पीछे पड़कर उससे उसकी यह फोटो मांग ली थी। फोटो लेकर उसे चूमते हुए बोला था, '' मेरी पत्नी-बच्चों के लिए तुमने मुझे चाहते हुए भी ठुकराया, तुम वाकई बहुत महान हो छब्बी, तुम्हारी फोटो मुझे कहीं भी भटकने से रोकती रहेगी ।''
मेरे सामने भी तोंदियल ने बहुत कोशिश की थी लेकिन छब्बी ने उसे हाथ नहीं रखने दिया था। छब्बी ने तभी कई ऐसी बातें बताईं जो पहले कभी नहीं बताईं थीं। जिन्हें सुनने के बाद भी तोंदियल की मन में बसी अच्छी तस्वीर को मैंने अच्छा ही बना रहने दिया।
समीना मैंने छब्बी से उन बातों का मतलब कई बार पूछा तो उसने कुछ खीझकर कहा, ' पता नहीं, तुम मर्दों का कुछ भी पता नहीं, औरतों के बारे में पता नहीं क्या-क्या सोचते हो? क्या करते हो? यहां बीवी-बच्चों से दूर सालों से अकेला रहता चला आ रहा था। उसका भी मन पता नहीं कैसा-कैसा होता रहा होगा....उसके मन की बातें वही जाने। अब वो दुनिया में है ही नहीं तो क्या सोचना इन सबके बारे में । मगर जो लिखा है डायरी में उसे पढ़ कर यही कहूंगी कि मुझे वह इतना चाहता था, इसका मुझे बिलकुल अंदाजा नहीं था।'
मैंने उसे कुछ चिढ़ाने के अंदाज में कहा, 'अंदाज़ा होता, तुम्हें यह बातें पता होतीं, तो निश्चित ही तुम उसके साथ होती। क्योंकि उसकी बातों से तुम जिस तरह भावुक हुई हो, उससे तो यही लगता है कि, वह भी तुम्हारे मन में गहरे उतर चुका था।'
यह सुनते ही छब्बी बिदकती हुई बोली, 'सुन, सच-सच बताऊँ?'
मैंने कहा, 'बता।' तो वह बोली, 'तेरे अलावा मन में कोई उतर ही नहीं पाया। वह इतने दिनों से साथ काम कर रहा था, तो बस ऐसे ही एक लगाव हो गया था। एक हंसी-मजाक का रिश्ता सा बन गया था। आखिर दो लोग एक जगह काम करते हुए, कब-तक चुप रह सकते हैं।'
मैंने जब देखा कि छब्बी को यह बातें अच्छी नहीं लग रहीं, तो मैंने बातें बदल दीं । मगर तीसरे दिन भी हो रही वह बूँदा-बांदी बंद नहीं हुई थी।
ग्यारह बजे थे कि सुन्दर हिडिम्बा ने एक काम बता कर फिर वहीं जाने को कह दिया जहां तोंदियल के साथ भेजा था। मैंने आना-कानी की। जाना नहीं चाहता था। छब्बी भी नहीं चाहती थी कि मैं जाऊं। तोंदियल की घटना मेरी आंखों के सामने घूम ही रही थी। एक बार फिर वही काम, वही जगह, वही बारिश। कुछ बदला था तो सिर्फ सुन्दर हिडिम्बा के तेवर। वह हमेशा से एक-दम अलग बहुत तीखे थे। अंततः मुझे जाना पड़ा।
बारिश भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। उस दिन की तरह तेज़ नहीं थी, लेकिन दोपहर बाद से लगातार होने लगी थी।
मैं किसी तरह काम करके जब लौटा तो रात के नौ बजे चुके थे। बिल्डिंग के सामने एक पुलिस जीप और एंबुलेंस खड़ी थी। इंस्पेक्टर के ही पास सुन्दर हिडिम्बा, साहब के कुछ आदमी खड़े थे। सुन्दर हिडिम्बा के ऊपर साहब का ड्राइवर छाता ताने खड़ा था। मगर साहब कहीं नहीं दिख रहे थे। इससे मुझे राहत मिली, क्योंकि मैं उन्हें देखकर ही घबराता था।
यह सब देखकर मैं अंदर-अंदर परेशान हुआ कि आखिर मामला क्या है? छब्बी कहां है? वह क्यों नहीं दिख रही है। तमाम आशंकाओं की आंधी लिए मैं सुन्दर हिडिम्बा के करीब गया। उन्होंने मुझे देखते ही बड़े गुस्से में कहा, 'तुमने बड़ी देर कर दी। तुम्हारी गैर-ज़िम्मेदारी, लापरवाही के कारण आज पूरे शेड में करंट आ गया। छब्बी ने भी ध्यान नहीं दिया। लापरवाही की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यह तुम लोग समझते क्यों नहीं?'
यह सुनकर मैं घबरा उठा, कि आखिर ये कहना क्या चाह रही हैं। छब्बी कहां है? वह क्यों नहीं दिख रही है। आवेश में आकर मैंने कहा, 'ऊपर जाकर छब्बी से पूँछता हूँ कैसे क्या हो गया? मैंने तो सब ठीक से लगाया था।'