भाग -29
मैं समझ नहीं पा रहा था कि, उसके घर वालों को कैसे सूचना दूं। उनका कोई नंबर मेरे पास नहीं था। तोंदियल अपने घर के बारे में बड़ा पर्दा रखता था। उसका मोबाइल पानी में भीग कर बेकार हो चुका था। मैं थोड़ी-थोड़ी देर में सुन्दर हिडिम्बा को फोन करता तो, वह कभी बात करतीं, कभी ना करतीं। जब कॉल रिसीव करतीं तो इतना ही बोलतीं, 'लोग पहुंच रहे हैं।'
इंतजार करते-करते आधी रात को एक पुलिस जीप आकर रुकी। उसके पीछे एक लाश वाली गाड़ी भी थी। पुलिस ने आते ही मुझसे पूछताछ की। दुकान के सब लोग जा चुके थे। पुलिस ने जो भी कानूनी नौटंकी पूरी करनी थी, की। पंचनामा भर कर डेड-बॉडी साथ लाई गाड़ी में रखवा कर चल दी। कहां के लिए, ये मुझे नहीं बताया गया। बारिश घंटे भर पहले बंद हो चुकी थी। सड़कों पर पानी भी बहुत हद तक उतर चुका था। डेड-बॉडी जाने के बाद मैंने फिर सुन्दर हिडिम्बा को फा़ेन कर सब बताना चाहा तो वह बीच में ही रोककर बोलीं, 'जानती हूं, तुम घर आ जाओ।' इतना कह कर तुरंत फोन काट दिया।
मैं किसी तरह तीन बजे घर पहुंचा। रास्ते भर मेरी आंखों के सामने प्यारे तोंदयिल के तड़प-तड़प कर मरने का दृश्य बना रहा। मेरी आंखें बार-बार भर आ रही थीं। यह सोच-सोच कर मेरा ह्रदय फटा जा रहा था कि, वह बेचारा मेरी आंखों के सामने देखते-देखते क्षण-भर में मर गया, और मैं कुछ नहीं कर सका। आखिर मेरे इस पहाड़ से शरीर का कोई अर्थ भी है क्या? या ''बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।'' क्या कबीर ने मेरे जैसे लोगों के लिए ही ये कहा था। स्कूल में मास्टर जी भी यही कह-कह कर मुझे मेरी लापरवाही, बदतमीजियों के लिए डांटते थे।
प्यारे तोंदियल को बचाने में भी मुझसे लापरवाही हुई क्या? बेचारे के घर वालों पर क्या बीतेगी। कैसे कटेगी उनकी ज़िंदगी। सुन्दर हिडिम्बा ने पता नहीं उनको बताया कि नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह कि, बेचारे की डेड-बॉडी को भेजा कहां, यह भी नहीं बता रही हैं। घर पहुंचकर मेरे दिमाग में अचानक ही आया कि, बस अब इस पिंजड़े में कुछ घंटे और हैं। तोंदियल तो मुक्ति पा गया सारे ही पिंजड़ों से। अब मैं और छब्बी भी कम से कम सुन्दर हिडिम्बा के पिजड़े से तो निकल ही लें।
मैं जब छब्बी के पास पहुंचा तो देखा वह सो रही थी। पानी ने यहां भी सब अस्त-व्यस्त किया हुआ था। छब्बी को सोता देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसी निष्ठुर, कठोर, स्वार्थी महिला है यह। वह बेचारा कितने दिन तक इसके साथ रहा। एक साथ सालों काम किया। इसने मुझ से पहले उससे कितने करीबी रिश्ते बना रखे थे, इसमें मानवता नाम की चीज ही नहीं है, इसे जरा भी दुख नहीं है। कैसे निश्चिंत हो तान के सो रही है। समीना गुस्से में उसके लिए मेरे मन में कई अपशब्द निकल गए।
दो-तीन बार आवाज़ देने के बाद वह उठ कर बैठ गई। उसने उठते ही पूछा, 'इतनी देर कहां रह गए?'
इस पर मुझे गुस्सा आ गया कि, इतनी बड़ी घटना हो गई, और यह ऐसे बात कर रही है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मैंने सीधे पूछ लिया, 'क्यों? तेरे को कुछ पता नहीं क्या?'
अब छब्बी कुछ सशंकित होती हुई बोली, 'क्यों क्या हुआ? मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो काम-धाम करके आई और सो गई। आज मोटी से जल्दी छुटकारा मिल गया तो बारह बजे ही ऊपर आ गई थी।'
'मोटी ने तेरे को कुछ भी नहीं बताया?'
'नहीं, बात क्या है, बताओ ना।'
यह सुनकर पहले मैंने मोटी को भद्दी-भद्दी कई गालियां दीं। फिर बेचारे तोंदियल के बारे में सब बताया।
यह सुनकर छब्बी रो पड़ी कि, 'बेचारा जी-तोड़ मेहनत करता था। अपने परिवार के लिए जान दिए रहता था। ये मोटी लाख परेशान करती थी, लेकिन बेचारा कभी पीठ पीछे भी एक शब्द नहीं बोलता था।'
छब्बी रोती जा रही थी, उससे जुड़ी एक-एक बात बोलती जा रही थी। लेकिन मैं चुप, बस सोचता रहा तोंदियल के बारे में। करीब-करीब बीस-बाइस घंटे से जागते और काम करते रहने के कारण थकान से मैं बिल्कुल पस्त हो रहा था। घंटों से भीगे कपड़े पहने रहने के कारण हालत और खराब थी। मैं कपड़े बदल कर लेटने लगा तो, छब्बी चाय और खाना के लिए बोली लेकिन मैंने मना कर दिया।
मगर वह नहीं मानी, चाय और कुछ मठरी ले आई। मैं खाली चाय पी कर लेट गया।
अगले दिन सप्ताहांत था और मोटी की छुट्टी। मगर हमारी नहीं। मैं उनके जल्दी से जल्दी उठने का इंतजार कर रहा था, जिससे उनसे पूछूं कि, डेड-बॉडी कहां भेजी? मैं करीब तीन घंटे आराम कर चुका था। वह दिन हमारी योजनानुसार वहां से भाग निकलने का भी दिन था। मगर मैंने देखा कि छब्बी एक शब्द भी उसके बारे में नहीं बोल रही है।
मैंने सोचा कि, इस लोक से तोंदियल के चले जाने से इसका इरादा बदल तो नहीं गया है। यह सोचने के बाद भी मैंने उससे कुछ पूछा नहीं। सुन्दर हिडिम्बा नौ बजे सो कर उठीं तो मैंने उनसे बात की। अपने काम के बारे में वह वहीं फ़ोन करके पता कर चुकी थी, जहां मुझे भेजा था।
उन्होंने मेरे प्रश्न का बड़ा सीधा-सपाट सा उत्तर दिया कि, 'पोस्टमार्टम के बाद कल डेड-बॉडी उसके घर भिजवा दी जाएगी। उसके परिवार को सूचना दे दी गई है।' तुरंत ही मुझे यह भी काम सौंप दिया कि, अगले दिन बेचारे तोंदियल का, मेरे प्यारे तोंदियल का सारा सामान पहली कोरियर से भेज दूं। यह आदेश सुनकर मैंने सोचा जब कल-तक रहूंगा तब भेजूंगा ना।
वैसे भी तू इतनी तनख्वाह उसे या हम सब को देती ही कहां है, कि हम कुछ सामान खरीद सकें।
बेचारा पेट तुम्हारे टुकड़ों पर भर लेता था। सारी जमा-पूंजी घर भेज देता था। अपनी कमाई का अपने पर सिर्फ़ तंबाकू के मद पर ही खर्च करता था। दो सेट कपड़ों के अलावा उसका सामान है भी क्या। साहब के फेंके हुए कपड़ों से ही ज़्यादातर काम चला लिया करता था। बेचारे का कल जाने का मन बिल्कुल नहीं था। मगर तूने उसे जबरदस्ती भेज कर मौत के मुंह में भेज दिया।
मन में आया कि पूछूँ, हे पत्थर-दिल महिला, कुछ पैसे भी उसके घरवालों के पास भेजोगी कि नहीं। लेकिन हिम्मत नहीं कर पाया। मगर तभी सुन्दर हिडिम्बा ने खुद ही पार्सल की बात पूरी करके, दो महीने की तनख्वाह भी मनी-आर्डर करने का काम सौंपा ।
यह सुनकर मुझे बड़ी राहत मिली, कि चलो इस पत्थर-दिल ने इतना ध्यान रखा। मैं वहां से हटने ही वाला था कि, बाकी जो काम बताएं हैं वह करूं। सुन्दर हिडिम्बा का प्रोग्राम तय था। और हमारा भी, वह एक घंटे बाद ही निकलने वाली थीं । इसके बाद हम-दोनों भी। मैं सोच रहा था कि बस, अब कुछ ही समय और इस घर में, फिर मैं और छब्बी आजाद होंगे। अपनी दुनिया अपने हिसाब से बनाएंगे। मगर समीना तभी छब्बी ने वो कर दिया, जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी।
उसने सीधे-सीधे सुन्दर हिडिम्बा से कह दिया कि, 'भाई से कुछ दिनों से बात हो रही है, वह जिद किए बैठा है कि, हम-दोनों वहीं घर आ जाएँ। वहीं पर कुछ काम-धंधा करके ज़िंदगी चलाएं। वह अपनी ससुराल में रहेंगे, क्योंकि वहां कोई रहा नहीं। दोनों जगह वह नहीं संभाल पा रहे हैं। इसलिए अब हम वहीं जा कर रहेंगे। हम आज ही जाना चाहते हैं।'
समीना छब्बी की बातों ने मानो सुन्दर हिडिम्बा के करेंट लगा दिया हो। चार बातें सुनाते हुए बोलीं, 'वहां क्या कर लोगों तुम लोग। यहां तुम्हें क्या परेशानी है?'
छब्बी ने बिना दबे बल्कि उन पर हावी होने की कोशिश करते हुए कहा कि, 'यहाँ हमें कोई परेशानी नहीं है, लेकिन अब हम अपना परिवार बसाना चाहते हैं। लड़के-बच्चे पैदा करना चाहते हैं। हमें भी अपने बुढ़ापे का इंतजाम करना है। हमें और नहीं रहना इस शहर में। अपने घर में जो भी होगा, अच्छा होगा। कम से कम अपने मन से जी तो सकेंगे।'
छब्बी की बात उन्हें मिर्च सी लगी। बिदकती हुई बोलीं, 'बच्चे क्यों नहीं पैदा करती। मैंने रोका है क्या? और ये वहां कौन सी फ़िल्म में काम करेगा?' छब्बी दबने के मूड में बिलकुल नहीं लग रही थी। तुरंत बोली, 'हम इतने महंगे शहर में बच्चे पैदा नहीं करेंगे। यहां उन्हें क्या खिलाएंगे-पिलाएंगे, क्या पढ़ाएंगे-लिखाएंगे। खुद रहने का ठौर नहीं, उन्हें कहां रखेंगे। वहां इस तरह की कोई समस्या नहीं होगी। और इसे भी वहां काम-धंधा करना है। विलेन-सिलेन नहीं बनना है। इसने भी हाथ जोड़ लिया है इन-सब बातों से। चाहें तो आप पूछ लें इसी से। आपके सामने ही है।'
अब-तक मैं अपने को संभाल चुका था। मोटी ने जैसे ही मेरी तरफ देखा मैंने भी बेहिचक कह दिया, 'जी हां, यह ठीक कह रही है। इसका भाई बहुत दिनों से बार-बार कह रहा है। मेरा भी मन इस शहर से बहुत ऊब गया है। हमने तय कर लिया है कि अब वहीं रहेंगे।'
समीना सुन्दर हिडिम्बा ने हम-दोनों को समझाने, हड़काने, लालच, आदि हर तरह से रोकने का जितना प्रयास किया। हम उतना ही ज़्यादा अपनी बात पर अड़ते गए।
अंततः उन्होंने जब यह समझ लिया कि अब हमें किसी तरह रोका नहीं जा सकता तो बोलीं, 'वैसे तो एक महीने की नोटिस पर ही तुम-दोनों जा सकते हो। लेकिन इतना ऊब गए हो तो ठीक है। तीन-चार दिन में कोई आ जाए तो चले जाओ।'