Vah ab bhi vahi hai - 28 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 28

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वह अब भी वहीं है - 28

भाग -28

समीना उस समय मैं गुस्से से ज़्यादा अंदर से टूट रहा था, खुद को बड़ा कमजोर महसूस कर रहा था। मगर छब्बी एकदम टीचर की तरह बोली, 'सुन-सुन, मेरी सही-सही सुन, तुझे तेरे दोस्तों ने न चढ़ाया है झाड़ पर, और न तू झाड़ पर चढ़ा है। उन सबने भले ही तुम्हें झाड़ पर चढ़ाने के लिए ही सारी बातें कहीं थीं, लेकिन सारी बातें हैं बिलकुल सही। हां, अभी तू जो कर रहा है वह जरूर झाड़ पर चढ़ना है। मोटी के कहने पर तू चढ़ा जा रहा है, कि नहीं करनी ऐक्टिंग।

मोटी तो चाहती ही है कि, हम लोग उसके फेंके कुछ टुकड़ों के लिए पड़े रहे उसके पैरों में। अपना कुछ भी भला ना कर पाएं। तू उसकी साजिश को समझ। उसके बहकावे में न आ। और यह बात ध्यान से सुन कि आज मोटी की बातों के बाद मैंने ये तय कर लिया है कि, अब हमें यहां नहीं रहना है। यहां रहकर हम कुत्ते-कुतिया ही बने रहेंगे। यहां से जल्दी से जल्दी निकलना है। और मैं तुझको बता दूं कि, जब मैं अपने पर आ जाती हूं ना, तो मुझे ये एक मोटी क्या, हज़ार मोटी भी नहीं रोक पाएंगी।'

मैंने खीझ कर उससे कहा, 'चुप कर, ज़्यादा डींगे मत मार। बहुत देखा है तेरा भी नाटक। कितनी बार तो सारा जोर लगा लिया। निकल पाई।'

समीना मेरी इस बात पर छब्बी एकदम चिढ गई। कुछ देर चुप रह कर बोली, 'सही कह रहे हो तुम, मेरी हर कोशिश को मोटी क्षण भर में बर्बाद कर देती है। लेकिन तेरी बात ने मेरा खून खौला दिया है। अब तू भी मेरी बात ध्यान से सुन ले, मेरा भी नाम छब्बी है, आज शुक्रवार का दिन है नोट कर ले। अगले शुक्रवार तक हम इस मोटी के पिंजरे से निकल कर कहीं और होंगे। अगर मैं यह ना कर पाई, तो यहीं फांसी लगाकर मर जाऊँगी। मैं ये बात गणपति बप्पा सिद्धि विनायक भगवान की कसम खाकर कह रही हूं। उनसे मैं प्रार्थना नहीं, उनको ये बता रही हूं कि, अगले शुक्रवार तक हमें यहां से निकाल कर अपने मंदिर में दर्शन देने के लिए बुला लेना, नहीं तो मैं यहीं मर कर तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'

समीना उस समय वो इतने गुस्से में, इतनी दृढ़ता, इतने आत्मविश्वास के साथ बोल रही थी कि, मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि यह जो कह रही है, वह जरूर करेगी। मेरा मन यह सोच कर घबरा गया कि, यदि यह यहां से न निकल सकी तो ये आत्महत्या कर लेगी। फिर इस छलावे से भरी, माया-नगरी में मेरा कौन अपना होगा। एक यही तो है, जो मुझे जी-जान से चाहती है। मेरे हर सुख-दुख की सच्ची साथी बनी हुई है। ये न रही तो मैं भी कितने रह पाऊँगा ।

उस रात हम-दोनों बहुत देर तक जागते रहे। गुस्सा कम होने पर छब्बी से मैंने पूछा, 'यहां से कैसे भागेगी? कोई रास्ता है क्या? ये जो सारी गृहस्थी जोड़ी है, यहां से कैसे ले जा पाएंगे?'

छब्बी बोली, 'देख, अगर ये गृहस्थी आड़े आई, तो मैं इसको भी यहीं लात मार कर चल दूंगी। और तू भी इसके मोह में न पड़, समझा।

यहां से निकलकर जो भी करेंगे, इससे अच्छा ही करेंगे और जब अच्छा करेंगे, तो ऐसी एक नहीं चार गृहस्थी बना लेंगे। अरे! अपने साथ कौन सा लड़का-बच्चा हैं जो काम नहीं चलेगा। जरूरत पड़ी तो भूखों रह लेंगे। पानी पी-पी कर कई दिन जिंदा रहे हैं। आदत है इसकी। पानी नहीं मिलेगा, तो बिना उसके भी कई दिन निकाल देंगे। बस तू साथ न छोड़ना। क्योंकि पानी बिना तो मैं रह लूंगी कई दिन, मगर अब तेरे बिना नहीं रह पाऊँगी एक भी दिन। और तुझको ऐसे हार कर बरबाद होते भी नहीं देख पाऊँगी समझे। मर्द है, मर्द की तरह जी। अपना रास्ता अपने हाथ बना। दुनिया में कोई किसी के लिए रास्ता बना के नहीं देता कि, ले भईया मैंने सड़क बना दी, अब तुम चलो।'

समीना, मैंने सोचा यह औरत होकर इतना हिम्मत कर सकती है तो मैं क्यों नहीं? आखिर मैं भी बड़वापुर का मर्द हूं। उस बाप की औलाद हूं, जिसने अपने दम पर अपना सारा व्यवसाय खड़ा किया। पूरा परिवार चलाया। एक समय साइकिल पर बर्तन बेचने का भी काम किया। नाना अचानक मर गए तो चार-पांच साल उनका भी घर संभाला। तीन सालियों की शादी तक की। सालों को काम-धंधे से लगाया।

दुनिया ताना मारती, 'सहुवा तो सारी कमइया ससुरारी में पाथे देता।' उनके चरित्र पर लांक्षन लगाया गया कि सालियों से अवैध संबंध बना रखे हैं। सबको रखैल बनाए है, इसीलिए खर्च करता है सहुवा। मगर बाबू जी पर ऐसे लांक्षनों का भी कोई असर नहीं पड़ा। वह अपनी धुन में लगे रहे। अंततः दुनिया ने सच स्वीकार किया कि, साहू वैसे आदमी नहीं हैं, जैसा उन्हें कहा जा रहा है। उनके साथ अन्याय हो रहा है। और फिर बाबू जी ने अपनी वह जगह, सम्मान पा लिया जिसके वह हकदार थे।

समीना उसकी बातों से मुझे इतनी हिम्मत मिली कि मैंने उसी समय छब्बी की तरह तय किया कि, चाहे जो हो जाए, इसी हफ्ते यह पिंजरा तोड़ कर हर हाल में भागना है। उसी समय हम-दोनों ने एक फुल प्रूफ प्लान बना लिया। तय हुआ कि, जब सुन्दर हिडिम्बा सप्ताहांत घूमने जाएंगी, तो उनके जाने के कुछ देर बाद उन्हें फोन किया जाएगा कि, छब्बी को खून की उल्टी हो रही है। हॉस्पिटल ले जाना जरूरी है, नहीं तो यह मर जाएगी। तब सुन्दर हिडिम्बा गार्ड से कह देंगी कि हमें जाने दें।

सुन्दर हिडिम्बा गार्ड को चेक करने के लिए जरूर कहेंगी। इससे निपटने का भी हमने रास्ता निकाला कि, छब्बी प्याज को थोड़ा उबाल लेगी। जिससे वह थोड़ा पिलपिले से हो जाएँ। फिर उसे मुंह में रख कर थोड़ा और कुचल कर निगल लेगी। इसके बाद पान, कत्था, चूना और थोड़ा सा लाल रंग भी मुंह में डाल लेगी। इससे जो पीक बनेगी वह सब निगल जाएगी। एक-दो पत्ती तम्बाकू भी। इससे उलटी जरूर होगी। तब कत्था, रंग में रंगे प्याज के जो कतरे गले-गले से गिरेंगे, उन्हें देखकर ऐसा लगेगा मानो आतें फट गई हैं । उनके टुकड़े उल्टी के साथ बाहर आ रहे हैं। यह प्लान हम-दोनों को जबरदस्त लगा। सप्ताहांत का इंतजार होने लगा। हम-दोनों को एक-एक दिन काटना भारी लग रहा था।

सप्ताहांत के एक दिन पहले मोटी ने मुझे और तोंदियल को एक काम से नवी मुंबई भेज दिया। उस दिन दोपहर बाद से ही बारिश शुरू हो गई थी। पहले धीरे-धीरे हुई, बीच में कई बार बंद भी हो गई, लेकिन शाम को लौटते समय तेज़ होने लगी। कुछ देर तो इतनी तेज़ हुई कि, लगा जैसे यह बारिश इस नगरी की माया खत्म कर देगी। सब बहा ले जाएगी सागर में। सड़कों पर पानी घुटनों से ऊपर बह रहा था।

अच्छा यह हुआ था कि, मेरी मोटर-साइकिल खराब थी। हम बस से ही गए थे। वापसी में बस एक जगह स्टापेज पर रुकी तो वहीं बंद हो गई। ड्राइवर ने बहुत कोशिश की, लेकिन वह दुबारा स्टार्ट नहीं हुई। मजबूरन सारी सवारियां उस पानी में ही उतरीं और फुटपाथ पर घुटनों तक पानी में अगले साधन की तलाश में आगे बढ़ चलीं।

मैंने और तोंदियल ने भी पैंट जितनी ऊपर खींच कर चढ़ा सकते थे, चढ़ा ली। तोंदियल ने अपनी चप्पल भी हाथ में ले ली। चमड़े की चप्पल वह पानी में नहीं भिगोना चाहता था। लेकिन मैं अपनी सैंडिल पहने रहा।

मैंने सोचा यार पैरों में कुछ लग गया तो मुसीबत हो जाएगी। सैंडिल खराब होती है, तो हो। तोंदियल और मैं दुकानों के एकदम किनारे-किनारे सट कर चलने लगे। तोंदियल आगे-आगे चल रहा था। हम पचास कदम ही आगे चले होंगे कि तोंदियल एक दुकान के बाहर रखे, एक स्टैंड से चिपक गया। उसके मुंह से ओं-ओं कर घुटी-घुटी आवाजें निकलने लगीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि, वह करेंट की चपेट में आ गया है।

बारिश अब भी हो रही थी। मैं तोंदियल को बचाने के लिए तड़प उठा। लकड़ी, प्लास्टिक, रबर का कुछ भी ऐसा सामान नहीं मिल रहा था, जिससे मैं उसे छुड़ाने की कोशिश करता। दुकान के अंदर से भी लोग उसको बचाने के प्रयास में लग गए। मगर संयोग से उनके पास भी उस बारिश में करंट से बचाने के लिए तत्काल कुछ नहीं मिल पा रहा था।

सब हड़बड़ाए से इधर-उधर करते रहे, बल्कि खुद को सुरक्षित रखने को लेकर ज़्यादा सजग हो गए। मुझे कुछ नहीं सूझा तो व्याकुल होकर उस दुकान से पहले वाली दुकान पर थोड़ा बाहर रखे एक पैक कार्टन को उठाया और पूरी ताकत से तोंदियल पर फेंका, तोंदियल इससे आगे को गिर गया। करेंट की चपेट से वह बाहर आ गया था। मैं जल्दी से उसके पास पहुंचा, उसे देखा तो मेरे होश उड़ गए। लोगों ने मुझे और उसे घेर लिया था। सब हॉस्पिटल ले जाने के लिए बोलने लगे।

लेकिन उस बारिश में नदी बन चुकी सड़क पर कोई साधन नहीं मिल पाया। ना एंबुलेंस ना पुलिस आई। मैंने सुन्दर हिडिम्बा को भी फोन किया तो वह इतना ही बोलीं कि, 'ठीक है, भेजती हूं किसी को।' तभी मन में आया कि, साहब होता तो कहता, 'देख लो, वहां जो हो पाए कर लो। मैं बिजी हूं।''

मैं तोंदियल को हॉस्पिटल ले जाने के लिए तड़प कर रह गया। लेकिन कुछ कर नहीं सका। दुकान के ही एक आदमी ने कुछ ही देर बाद उसकी नब्ज देख कर बता दिया कि, अब मेरा तोंदियल जीवन की सारी मुसीबतों से मुक्ति पा चुका है। दुकान वाले से मैंने तोंदियल के शरीर को ढंकने के लिए कोई चादर मांगी, तो उसने चादर ही की साइज का एक बड़ा सा कपड़ा दिया। उसी से मैंने उसे ढंक दिया। सुन्दर हिडिम्बा को फिर बताया कि, अब तोंदियल नहीं रहा। तो उन्होंने 'हूं' करके फ़ोन रख दिया।