Vah ab bhi vahi hai - 26 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 26

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वह अब भी वहीं है - 26

भाग -26

उस दिन जब छब्बी रात एक बजे मैडम की मसाज वगैरह करके, सुला के, ऊपर आई तो बोली, 'सुन, बड़ी मगज़मारी, हाथ-पैर जोड़ने के बाद मोटी बोली कि, तू अकेले ही जाएगा। मैं नहीं जाऊँगी। यहां काम कौन करेगा? तेरा काम भी कल मुझे ही करना है।' छब्बी यह भी बोली कि, 'मैडम कह रही थीं कि, ऐसे फ़िल्म निर्माता यहां गली-कूचों में भरे पड़े हैं। ये सब या तो सी ग्रेड एडल्ट मूवी बनाते हैं या धोखे में रख कर पॉर्न मूवी और मार्केट में बेचकर रफूचक्कर हो लेते हैं।'

मैडम की इस बात ने मेरा और छब्बी का मन भीतर ही भीतर बड़ा खट्टा सा कर दिया था। हम-दोनों काफी देर तक इस बारे में बात करते रहे कि, जैसा सुना करते हैं फ़िल्म निर्माताओं, निर्देशकों के ऑफ़िस के बारे में वहां वैसा तो कुछ वाकई नहीं था। फिर सारी बातों को किनारे करते हुए हमने तय किया कि, अब जो होगा देखा जाएगा। बात हो गई है तो, एक बार देख लेने में क्या नुकसान है।

यहां हर आदमी दूसरे का फायदा उठाने में लगा हुआ है, यदि यह भी उठा लेगा तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा। यह मैडम भी तो हमारी मजबूरी का फ़ायदा उठा ही रही हैं। यह जानती हैं कि, हमारे जैसा मेहनती जल्दी कोई दूसरा मिलेगा नहीं, तभी तो थोड़ा नर्म पड़ीं, जाने दे रही हैं। यह उनकी चालाकी नहीं तो और क्या है कि, ऑफ़िस के काम के अलावा घर का भी सारा काम उसी पगार में कराती हैं। अहसान कि रहने, खाने की सुविधा दे रखी है।

अरे! मैडम यह क्यों नहीं बतातीं कि, घर के काम के लिए तीन-तीन स्वभिमानशून्य दास से नौकर रखतीं तो कितना पैसा देतीं। हर महिने कम से कम तीन बार गले तक दारू भर-कर जो उलट-पुलट देती हैं, लुढ़क जातीं हैं, तब डेढ़ कुंतल का तुम्हारा शरीर उठाकर कौन नौकर बेड पर पहुंचाएगा। कौन उल्टी-फुल्टी नर्क साफ करेगा। ऊपर से तुम्हारा आतंक इतना, कि तुम्हें उठाते हुए हमारी आत्मा कांपती है, कि कहीं तुम्हें अगले दिन कैमरे की रिकॉर्डिंग देख कर यह अहसास हो गया कि उठाते समय तुम्हारे शरीर के साथ हमने छेड़-छाड़ की है, तो हमारी बोटी-बोटी कटवा दोगी। और नाम-मात्र के पैसों, एक तरह से मुफ्त में छब्बी से जो स्पेशल मसाज कराती हो वह कौन करेगा। मसाज पार्लर में तो महीने में साठ-सत्तर हजार रुपये का बिल इसी का हो जाएगा। इतनी सारी मुफ्त सेवा लेने के बाद ही अगर कुछ सुविधा दे देती हैं, तो कौन सा अहसान कर देती हैं। बड़ी देर तक हम-दोनों ऐसे ही हिसाब-किताब लगाते रहे, फिर कहीं सोए।

अगले दिन सुबह दस बजे, मैं बिना छब्बी के ही उस फ़िल्म निर्माता के पास पहुंच गया। उस दिन पहले वाले दिन की तरह से लोग नहीं थे। लेकिन फिर भी काफी थे। कई महंगी-महंगी कारें खड़ी थी। मैंने रिसेप्सन पर बताया कि मुझे प्रोड्युसर साहब से मिलने के लिए बुलाया गया है। तो उसने कहा, 'थोड़ा वेट करना पड़ेगा।' मैं वहीं पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। उसने पहली बार की तरह उस दिन भी मुझे कुछ आश्चर्य से ऊपर से नीचे तक देखा था। उसकी क्या सब की नज़र एक बार मुझ पर जरूर पड़ रही थी। उस वक़्त मुझे अपने बहुत ज़्यादा लंबे-चौडे़ शरीर पर बड़ा गर्व हो रहा था।

मुझे लग रहा था, जैसे मैं उन लोगों के बीच कोई बेहद खास व्यक्ति हूं। बड़े लंबे इंतजार के बाद प्रोड्यूसर डायरेक्टर मिले। वही रूखा व्यवहार, वही जल्दबाजी। तमाम बातें जल्दी-जल्दी बोल दीं। जिनमें से बहुत सी मेरे पल्ले ही नहीं पड़ीं। केवल इतना ही समझ सका कि, दो दिन बाद वार्सोवा में शूटिंग शुरू होगी, वहीं पहुंचना। और बातों के लिए दूसरे आदमी के पास भेज दिया गया। उसने वार्सोवा के उस जगह का पता दिया जहां पहुंचना था। और कुछ पन्ने दिए कहा, इसे रट डालना। आगे जब-तक कहा न जाए तब-तक दाढ़ी और बाल नहीं कटवाना। मैंने कहा ठीक है। लेकिन तभी मन में आया कि इसने सारी बात कह दी, लेकिन पैसों का तो नाम ही नहीं लिया तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। बड़ी देर से मन ही मन उबल रहा था, तो मैंने सीधे-सीधे पैसे की बात पूछ ली। इस पर उसने कुछ देर घूरने के बाद कहा, ' देखिए ऐसा है कि, अभी हम कन्वेंस और फूडिंग का ही पेमेंट करेंगे। बाक़ी फ़िल्म के रिलीज होने के बाद ही होगा।' मैंने कुल अमाउंट पूछा तो वह बड़ी उपेक्षा के साथ बोला, 'यह फ़िल्म के बिजनेस पर ही डिपेंड करेगा।' उसकी इस बात ने मुझे और परेशान किया।

मैंने तपाक से पूछ लिया कि, 'यदि फ़िल्म ना चली तो?' यह सुनते ही वह बड़ी रोष-भरी आवाज में बोला, 'ये आप कैसे कह सकते हैं कि फ़िल्म नहीं चलेगी।' उसके गुस्से ने मुझे चुप करा दिया। फूडिंग, कंवेंस का भी उसने क्लीयर कर दिया कि, जिस दिन शूटिंग चलेगी उसी दिन मिलेगा। बुझे मन से मैं लौट आया सुन्दर हिडिम्बा के पिंजरे में। मैडम सामने पड़ीं तो उन्हें सब बताना पड़ा। मैंने कई बातें तोड़-मरोड़ कर बताईं या बताई ही नहीं। लेकिन फिर भी उनके ताने व्यंग्य की मार से बच नहीं सका।

रात में छब्बी ने वह कागज देखे जिसमें लिखे डायलॉग मुझे रटने थे। मैंने छब्बी को सारी बातें सच-सच बता दी थीं। उससे वह भी बड़ी निराश हुई थी। मगर आखिर तय यही हुआ कि, अब जो भी है, कदम बढ़ाया है, तो पूरा चला ही जाए। सारे डायलॉग पढ़ने के बाद छब्बी बोली, 'साले ये कौन सी फ़िल्म बना रहे हैं। ऐसे डायलॉग वाली फ़िल्म तो परिवार, बच्चे देख ही नहीं सकते।'

मैंने कहा, 'हां, मुझे भी लगता है कि, यह कोई एडल्ट फ़िल्म ही है।'

मैंने उस दिन यह भी मार्क किया कि, छब्बी फ़िल्मी दुनिया के बारे में मुझसे कहीं ज़्यादा स्पष्ट समझ रखती है।

दो दिन बाद मैं तय समय से पहले ही वार्सोवा के पते पर पहुंच गया। वह एक बड़ा भारी मकान था। बहुत बड़े सिक्योरिटी पिकेट में गार्ड बैठा मिला। बाउंड्री से लगी कई कारें खड़ी थीं। कुछ कारें अंदर पोर्च में भी खड़ी थीं। आस-पास भी बड़े-बड़े मकान थे। मुझे वहां सन्नाटा सा दिख रहा था। मन में संदेह पैदा हो रहा था कि, यह क्या गोरख-धंधा है। कहा था कि यहां फ़िल्म की शूटिंग होगी, और यहां तो ऐसा कुछ दिख ही नहीं रहा है। धड़कता दिल लिए मैं गार्ड के पास पहुंचा, तो वह मेरी जिराफ सी लंबाई को सिर उठा कर देखने लगा, मैंने उसे बताया कि बात क्या है।

तो वह बोला, 'ओह... अच्छा तो रुकिए दो मिनट।' फिर इंटरकॉम पर बात कर उसने मुझे अंदर भेज दिया। वहां एक बरामदे में बैठने को कहा गया।

वहां पड़ी बहुत कुर्सियों में से एक पर मैं बैठ गया। तभी एक आदमी अंदर से निकला और मुझे देखकर वापस चला गया। उसके दरवाजा खोलने पर अंदर एक बड़ा कमरा दिखा, वह ड्राइंगरूम सा दिख रहा था। मेरे अलावा वहां एक और आदमी भी बैठा था। करीब डेढ़-दो घंटे के भीतर दर्जन भर लोग आ गए। इनमें लड़कियां-औरतें भी थीं। कुछ हाई-फाई दिखने वाले लोग दरवाजा खोल-खोल कर सीधे अंदर ऐसे चले गए, मानो वह उन्हीं का घर हो।

बारह बजते-बजते प्रोड्यूसर-डायरेक्टर दोनों आ धमके। उनके आते ही वहां माहौल में मानों करंट दौड़ गया हो। बरामदे में बैठे लोग खड़े हो गए थे। मैं भी खड़ा हो गया उनके सम्मान में। फिर एक-एक कर बरामदे में बैठे कई लोग अंदर बुला लिए गए। मेरी धड़कनें भी मुंबई की शेयर मार्केट की तरह ऊपर-नीचे होती रहीं।