भाग -22
समीना, छब्बी उस समय घृणा की आग में धधकती एक मूर्ति सी लग रही थी। मुझे लगा कि, जैसे उसने मेरी सारी चोरी पकड़ कर दुनिया के सामने मुझे एकदम नंगा कर दिया है। मुझसे कुछ बोला नहीं जा रहा था। उसका मर्दों के प्रति बरसों से भरा गुस्सा एकदम से मुझ पर ही फूट पड़ा था। मेरी गलती थी तो सिर्फ़ यह, कि एक दिन पहले मैंने उसे प्यार करते समय, उसके शरीर के ऊपरी और निचले कुछ हिस्से को फ़िल्मी हिरोइनों की तरह सर्जरी कराके खूबसूरत बनाने की बात कह दी थी। जिसे पहले मैं पत्रिकाओं में पढ़ चुका था। और सच यही था समीना कि मेरे मन में उसके लिए कोई खोट नहीं थी। मैं उसको लेकर भविष्य के जो सपने देख रहा था, उन्हीं में खो कर बस यूं ही कह दिया था। जो उसके मन में मर्दों के लिए भरी घृणा, गुबार को बाहर निकालने, विस्फोट का कारण बन गया।
उसने बड़े तीखे शब्दों में कहा, 'मैं बहुत साफ़-साफ़, बहुत अनुभव से कह रही हूँ कि, चाहे मैं होऊँ, या कोई और औरत, अगर मर्द उसके ढीले-ढाले अंगों, उसकी किसी भी बदसूरती को भी प्यार नहीं करता है, उसे खाली खूबसूरती ही खूबसूरती चाहिए, तो फिर यह एकदम पक्का है कि, वो उस औरत से प्यार नहीं करता, उससे उसे कोई लगाव नहीं है, वो उसे धोखा दे रहा है। कोई और औरत न होने तक उससे खाली अय्याशी कर रहा है बस। और सुनो बुरा नहीं मानना, तुम मेरे साथ अय्याशी ही कर रहे हो बस। और मैं भी तुम्हारे साथ अपनी कुचली हुई, दम निकलती ज़िंदगी में कुछ सांस भरना चाहती हूँ।
जैसे तुम मर्दों का खाना जब-तक औरत ठोंक-बजा नहीं लेते, तब-तक नहीं पचता, वैसे ही हम औरतों के तन-बदन में भी मर्द के लिए आग लगती है। उसको बुझाने के लिए हमें भी मर्दों के साथ की जरूरत होती है। पहले मैं इसे पाप समझती थी, लेकिन मर्दों ने ऐसे-ऐसे घाव दिए कि, मेरा मन बदल गया। अब मैं यही सोचती हूँ कि, पाप तो इस ''आग'' को ''पाप'' समझना है। अगर यह मर्दों के लिए पाप नहीं तो हम औरतों के लिए पाप कैसे है? तुम किसी भ्रम में न रहो, इसलिए ये भी बताये दे रही हूँ कि, मेरा मन कोई तुम्हारी मर्दांगनीं भोगने से नहीं बदल गया है। यह तो साहब के यहाँ पहुँचने के आठ-नौ महीने बाद ही बदल गया था।'
समीना जैसे तुम कई बार मर्दों को लेकर हत्थे से उखड़ जाती थी, छब्बी उस समय उससे कहीं हज़ार गुना ज़्यादा उखड़ी हुई बोले ही चली जा रही थी। उसने बिना रुके ही आगे कहा, 'मैं ज़िंदगी भर तन की ''आग'' को ''पाप'' ही समझती रहती, हर तरफ से ठोकर, धोखे की चोट के दर्द से आंसू बहाते-बहाते अब-तक तो मर गई होती। वो तो भला हो साहब के यहाँ मुझसे पहले से काम करने वाली उस बेचारी नशरीन का, जिसने मुझे चोरी-छिपे अपनी ज़िंदगी पर आंसू बहाते देख लिया। और फिर मेरे आंसू पोंछते-पोंछते कुछ ही दिनों में मेरी इकलौती हितैषी बन गई। वह भी बेचारी मेरी ही तरह पति, परिवार, नकली हितैषियों से धोखा, चोट खाये दर-दर भटकती, आंसू बहाती, घरों में काम करती-करती साहब के यहाँ पहुँच गई थी। बेचारी अच्छे-खासे खाते-पीते घर की थी, लेकिन दूसरी औरत के चक्कर में पड़े दोगले पति, दोगले हितैषियों के चलते घरों में नौकरानी बनी, अपमान की ज़िंदगी जी रही थी। उसी ने अपनी-मेरी सब सुनने-समझने के बाद एक दिन कहा, ''सुनो, हम-दोनों बेवज़ह ही बीते दिनों को याद कर-कर के आंसू बहा रहे हैं, आँखें खो रहे हैं । जिन मक्कार मर्दों ने हम-दोनों की ज़िंदगी आंसुओं में डुबो दी है, उन पर तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं । वो तो हमें मरा-खपा समझ कर मस्त होकर ज़िंदगी जी रहें हैं, तो हम-दोनों भी अपनी ज़िंदगी के सारे आंसुओं को सुखा कर सुख से जीते हैं।'' मुझे उसकी बात सही लगी।
तभी हम-दोनों ने अपने सुख के लिए वही रास्ता पकड़ लिया, जिस पर चल कर मक्कार मर्द सुख लूटते हैं। जब साहब की बीवी नहीं होती है तो, वो हमसे सुख लूटने में संकोच नहीं करते, तो हम-दोनों भी अपने हिस्से का पूरा सुख लेने में हिचकते नहीं। इसीलिए हम-दोनों जितना पैसा पाते हैं, जितना आराम से रहते हैं, उसका आधा भी दूसरे नौकर नहीं पाते।'
समीना मुझे उसकी बात पर भरोसा नहीं हुआ, अचम्भे से उसे देखता रहा तो वह बोली, 'विश्वाश नहीं हो रहा न, मैं जो कह रही हूँ, यही है सच, मान ले। मैं कोई तेरी बीवी नहीं हूँ कि, मुझे तेरा यह डर है कि, दूसरे मर्द के साथ मेरा सम्बन्ध जान कर तू मुझे मारेगा-डाँटेगा, घर से भगा देगा। बोलता है तो ठीक, नहीं बोलता तो ठीक, अब इन सारी बातों का मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब हम भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं, जिस पर तुम लोग।'
समीना छब्बी ने विश्वाश न करने के लिए कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं था, तो मैंने कहा, ' जब तुम ऐसे कह रही हो तो विश्वाश कैसे नहीं होगा। लेकिन ये बताओ जब साहब की पत्नी रहती है, तब तुम-दोनों क्या करती हो ?'
'अरे ये भी कोई पूछने की बात है? जैसे तुम लोग एक नहीं तो दूसरी, दूसरी नहीं तो तीसरी करते हो, वैसे ही हम भी करते हैं । वहां इतने शैडो, इतने लोग हैं, देखते नहीं क्या?'
'तुम्हें यह सब अच्छा लगता है, खुश हो यह सब करके?'
'अजीब बात है, जब तुम-लोग यह सब करके खुश रहते हो, तो हम-लोग क्यों नहीं रह सकते ?'
'लेकिन तुम्हारी एक बात समझ में नहीं आ रही कि क्या साहब इतने कमजोर, गए-बीते हैं, उनके पास पैसों, औरतों की इतनी कमी है कि वो नौकरानियों के पीछे पड़े रहते हैं, और उनकी पत्नी को घर में रहते हुए भी कुछ पता नहीं रहता, या उन्हें इस बात से कोई अंतर ही नहीं पड़ता कि पति की बाँहों में कितनी औरतें पड़ीं हैं, कौन सी औरतें पड़ीं हैं।'
'उनके पास जैसे अथाह पैसा है, वैसे ही अनगिनत एक से बढ़ कर एक ऊँची हस्ती वाली परी सी खूबसूरत औरतें भी हैं। अपने मैडम की हस्ती कम है क्या?कम खूबसूरत हैं क्या? मैं या तुम जानते नहीं क्या कि साहब के साथ कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे मस्ती करती हैं। बात तो सिर्फ मौका दस्तूर मन की होती है बस।
इसीलिए कहती हूं कि जीवन का ककहरा सही-सही पढ़, सही-सही अनुभव ले तब कुछ बोल, जैसे उनकी पत्नी अपने अनुभव से जानती हैं कि उन्हें औरतों और साहब के बीच आना है कि नहीं । वो अच्छी तरह समझती हैं कि जब उन्हें अपनी गुरुवाइन, पूजा-पाठ के चलते पति के लिए समय मिलता ही नहीं तो उसका कुछ तो परिणाम निकलेगा ही। क्योंकि वो सब समझ रही हैं, इसलिए उन्हें इस परिणाम से कोई अंतर पड़ भी नहीं रहा है । दोनों को देख कर लगता ही नहीं कि उनके यहां ऐसा भी कुछ होता है। तो जैसे उन लोगों को कोई अंतर नहीं पड़ता न, वैसे ही मुझे भी अंतर नहीं पड़ता कि मैंने तेरे साथ जीवन का कुछ समय जी लिया या साहब के साथ। मेरे लिए इतना ही मायने रखता है कि कुछ जीवन जिया बस, और इन सब के लिए नशरीन को धन्यवाद जरूर देती हूँ ....
समीना यह सब कहते हुए छब्बी गुस्से से काँप रही थी, वह पूरी तरह अपना आप खो चुकी थी। उसकी हालत को देखते हुए, मैं अपने को जज्ब करता हुआ उठा, और उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया, वह सुबुक-सुबुक कर रो पड़ी। अपने शरीर को मेरी बांहों में एकदम ढीला छोड़ दिया था। उसे लेकर मैं सोफे पर बैठ गया। चुप कराने लगा। उस समय छब्बी की मन की बातों ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया था।
उसको लेकर जो सपने मैंने बुने थे, वह एक झटके में उधड़ गए थे। पहले तो उस पर मुझे बड़ी गुस्सा आई थी कि, पतियों के धोखे की आड़ लेकर, चाहे जितने ही मर्दों के साथ सोने को सही बताने पर तुली हुई है, ऊपर से सारे मर्दों को मक्कार, धोखेबाज, अय्याश भी कहे जा रही है। लेकिन उसकी बातों का मर्म समझते ही, उसके दुख का अहसास करते ही मुझे उस पर बड़ी दया आ गई।
मैंने सोचा कि इसने जो किया, जो कर रही है, उसके लिए इसे गलत कहना ही गलत है। मैंने उसे चुप कराकर पानी पिलाया, फिर बड़ी देर तक दोनों चुपचाप सोफे पर ही पड़े रहे। नींद आने पर उसे भी अपनी बांहों में समेटे-समेटे मैं सो गया। वह भी बिल्कुल शांत रही और मेरी छाती में मुंह छिपाकर, यूं सो गई मानों कोई नन्हीं-मुन्नी बच्ची हो।
अगले दिन मेरी नींद उसकी आवाज़ पर खुली। वह चाय लिए खड़ी थी, उसका यह रूप देखकर मैं बड़ा अचकचा सा गया। तुरंत उठकर उससे चाय ली, उसके चेहरे को देखने लगा। अपनी तरफ ऐसे देखते पा कर वह एकदम हंस पड़ी और बोली, 'क्या ? ऐसे क्या देख रहे हो, चल चाय पी, रात गई, भूल जा सब। मैं बेवजह ही तेरे पर गुस्सा उतार बैठी। कई दिन से बच्चों की बड़ी याद आ रही थी, बस संभाल नहीं पाई खुद को।' यह कहते-कहते वह अपनी चाय लिए बगल में बैठ कर पीने लगी। उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि, यह वही छब्बी है जो कुछ ही घंटे पहले गुस्से से आग-बबूला हुई सारे मर्दों को धोखेबाज, अय्याश, मक्कार कह कर गरिया रही थी, और फिर एक मर्द की ही गोद में शांति, सुरक्षा का अहसास लिए निश्चिन्त हो कर सो गई थी। और अब मर्द के लिए ही चाय लेकर आई है, उसे सोते से जगा कर उसके साथ ऐसे हंसते हुए चाय पी रही है, मानों कुछ हुआ ही नहीं है। चाय खत्म होने तक मैं कुछ बोला नहीं, वही बीच-बीच में कुछ न कुछ बोलती रही।
मैं नहा-धोकर तैयार हुआ ही था कि, साहब का एक खास आदमी दो बड़े लिफाफे लेकर आ गया। उसे छब्बी को देकर बोला, 'इन्हें संभाल कर रख दो, जब मैडम आएं तो उन्हें दे देना।'मैंने उसे नमस्कार किया तो वह ख़ास अंदाज में एक आँख कर दबा बोला, 'तुम सही हो भाई, खूब मजे की ज़िंदगी है तुम्हारी।' मैंने उसके हाथ जोड़ लिए, तो उसने उसे पकड़ते हुए कहा, 'अरे ! मैं मजाक कर रहा था। हम नौकरों की ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी होती है, क्यों छब्बी?'
छब्बी ने उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा, 'नौकर की ज़िंदगी होती है न, साहबों के लिए, मालिकों के लिए, अपने लिए थोड़ी ना।' वह जल्दी में था तो ज़्यादा बातें नहीं हुईं, दो मिनट में ही चला गया।
मैडम तीन हफ्ते बाद जब अपनी विदेश यात्रा पूरी कर वापस आईं, उसके पहले हम-दोनों ने न सिर्फ़ खूब ऐश की, बल्कि भविष्य के लिए तमाम योजनाएं बनाईं। मगर मैडम के आने के साथ ही उन सारी योजनाओं पर करीब-करीब पानी फिर गया। पहली तो इस योजना पर कि, मैडम कैमरे में तीन हफ्ते की हम-दोनों की ऐश को देखकर नौकरी से निकाल बाहर करेंगी। फिर हम-लोग अपने हिसाब से कुछ और काम करेंगे। लेकिन मैडम ने कभी इस बारे में बात तक नहीं की। मानो कि, वह इसे हम-दोनों का व्यक्तिगत मामला मानकर बोलना ही नहीं चाहती थीं। हमारा इंतजार बेकार गया कि वो कुछ कहें।
मैडम विदेश से एकदम बदली-बदली सी लौटी थीं। ना जाने कौन सी एक्सरसाइज, कौन सी दवाई, खाना-पीना खाया-पिया था कि, अपना मोटापा आधा कर लिया था। नई हेयर-स्टाइल और एकदम चमकती-दमकती त्वचा से वह अपनी उम्र को पांच-छह साल पीछे कर चुकी थीं। आते ही वह काम-धाम में ऐसे जुट गईं, कि मानो दुनिया भर का काम उन्हें ही करना है, और समय बहुत कम है।