Vah ab bhi vahi hai - 20 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 20

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वह अब भी वहीं है - 20

भाग -20

मारे खुशी के वह भाई के गले से लगकर फफक-फफक कर रो पड़ी। भाई को अंदर ला कर बैठाया। पहले तो भाई इस बात पर गुस्सा हुआ कि, उसको फ़ोन क्यों नहीं किया? वह कितना इधर-उधर भटकता रहा। उसे कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा। आज भी संयोग से ही एक पुराने साथी ने बताया। फिर छब्बी ने जब रो-रोकर अपनी आप-बीती बताई और यह भी कहा कि, अब जो भी हो, वह इस नियति को स्वीकार कर चुकी है, उसे पति मान चुकी है, उसके बच्चे की मां बनने जा रही है। इसलिए अब तुम भी हमारी इस स्थिति को नियति का खेल समझकर इस रिश्ते को स्वीकार कर लो, तो भाई भड़क उठा।

उसने कहा, '' ऐसे धोखेबाज को मैं एकदम सहन नहीं कर पाउँगा। उसने रिश्ते का खून किया है, कलंकित किया है। मुझसे इतना बड़ा झूठ बोला कि, तुम बिना बताए किसी के साथ भाग गई तो हम एकदम टूट गए कि, तीन बहनें तो पहले ही भाग गईं, रही-सही कसर तूने भी पूरी कर दी। ऐसे दगाबाज को तू भी अपना पति मान बैठी है।''

छब्बी ने भाई के हाथ-पैर जोड़ कर खूब समझाया। रो-रोकर समझाया कि, ''आखिर अब उसे कैसे छोड़ सकती हूं? इस बच्चे का क्या करूं? इसे मार तो नहीं सकती ना। यह न होता तो मैं अब भी तुम्हारे साथ चल देती, मुझे उसके हाथों भरा यह नकली सिंदूर पोंछते एक सेकेण्ड की भी देर न लगती, लेकिन अब तो यह सब सोचने से पहले इस मासूम जान की सोचने पड़ रही है। इसे किसके नाम पर दुनिया में लाऊँगी, आखिर इसकी क्या गलती ? ''

समीना बच्चे के चलते भाई का दिल अंततः पसीज गया। मगर गुस्सा कम नहीं हुआ। शाम को भाई का उसके दबंगई से बने पति से खूब झगड़ा हुआ। उसे उसने खूब अपमानित किया, लताड़ा। मगर पति ज्यादा कुछ नहीं बोला, तो मामला ठंडा पड़ गया। लेकिन भाई ने दोनों के लाख कहने के बावजूद चाय-नाश्ता, खाना-पीना कुछ नहीं किया। जाते-जाते यह कह कर गया कि, ''सारे रिश्ते-नाते खत्म। अब तुम-दोनों जीवन में कभी मुंह मत दिखाना। छाया भी नहीं। घर पर यही बताऊंगा कि, तुम-दोनों मिले ही नहीं। मां तीन लड़कियों का भागना बर्दाश्त नहीं कर पाई और मर गई, अब ऊपर से तेरा यह हाल।

मैं यह सब अब एकदम बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हूं। सामने रहा तो कुछ अनर्थ हो सकता है। इसलिए अब ये पक्का मान लो कि घर वाले तुम-दोनों के लिए मर गए, और तुम-दोनों घर वालों के लिए।'' लाख मिन्नतों के बाद भी, भाई बार-बार भर आ रही अपनी आंखों को पोंछते-पोंछते चला गया। दोनों ने उसे रोकने की हर कोशिश की लेकिन वह नहीं माना।

समीना, छब्बी ने आगे जो बताया वह और भी ज्यादा पीड़ादायक था। उसने कहा कि, 'इसके बाद घर वालों से कोई संपर्क नहीं हो सका। नकली पति से मुझे तीन साल के अंदर दो बेटे हुए। उसका धंधा भी खूब चल निकला था। जीवन अच्छा बीतने लगा था। लेकिन घर की याद मन को बराबर कचोटती रहती। देखते-देखते दोनों बच्चे चार-पांच साल के हो गए। अब-तक मैं उसे तन-मन से पति मानने लगी थी, जी-जान से चाहने लगी थी। उसे नकली से पूरी तरह असली मान लिया था।

लेकिन कहते हैं न कि नकली आखिर तक नकली ही रहता है, कभी असली बन ही नहीं सकता, और बनाने की कोशिश की तो बर्बादी ही मिलती है तो मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जीवन में ऐसा भयानक तूफ़ान आया कि पल-भर में सब-कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो गया, तिनका-तिनका बिखर गई मेरी जिंदगी। हुआ यह कि एक दिन अचानक ही वह सारा काम-धंधा बंद कर घर पर ही बैठ गया। बोला, ''यहां से मन ऊब गया है, इस धंधे से भी। कहीं और चलकर कुछ और करते हैं।'' मैंने उसे बहुत समझाया कि, '' इतना अच्छा चलता काम-धंधा बद न करो । ये अच्छा नहीं है।'' लेकिन वह नहीं माना।

धंधा बंद करने के बाद भी दिन-भर गायब रहता। फिर दस-बारह दिन बाद अपने एक मित्र का नाम लेकर बोला कि, ''उसकी बीवी अस्पताल में भर्ती है। आज दिन में उसके पास रुकने वाला कोई नहीं है, तू चली जा।'' उस मित्र का घर के सदस्य की तरह आना-जाना था। पूरे परिवार को मैं अच्छी तरह जानती थी, उनकी समस्यायों को भी, उसकी बीवी की बीमारी को भी। तो मैं बिना ना-नुकुर किए चली गई वहां। दोनों बच्चों को घर पर ही छोड़े गई कि, हॉस्पिटल में कहां ले जाऊँगी। उस समय मुझे कहने भर को भी अहसास नहीं था कि हॉस्पिटल के लिए निकलते ही मेरी बर्बादी का तूफ़ान शुरू हो जाएगा।

जब शाम को लौटी तो घर की हालत देखकर मुझे लगा मानो मुझ पर वज्रपात हो गया है। बिलकुल वैसा ही जैसा लकड़बग्घे द्वारा चाक़ू के दम पर चाल में पहली बार इज्जत लूटने पर हुआ था। जिसे जी-जान से अपना पति मानने लगी थी, जिसके लिए अपने भाई घर को भी छोड़ दिया था, वह मेरे दोनों बच्चों और काफी सारा सामान लेकर गायब था। कागज का एक टुकड़ा यह लिखकर छोड़ गया था कि, ''अब हमारा तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं रहा। मैं अपने बच्चों को, अपने साथ ले जा रहा हूं। मेरे पीछे आने या ढूंढ़ने की हिम्मत नहीं करना।''

समीना इस तरह उस लकड़बग्घे ने छब्बी की दुनिया न जाने क्या सोच कर एक बार बसाई, फिर अचानक ही उजाड़ दी। उसने रो-रो कर मुझ से कहा, 'उस कमीने ने कलेजा चीर देने वाला जैसा दर्द पहली बार धोखे से इज्जत लूट कर दिया था, उससे कहीं ज्यादा तोड़ देने वाला दर्द मुझसे मेरे बच्चे छीन कर, मेरे बसे-बसाये घर को उजाड़ कर दिया।'

समीना जल्दी ही छब्बी को खोली भी छोड़नी पड़ी। बात फैलते देर नहीं लगी और नोचने वाले पीछे पड़ गए, साथ ही भूखों मरने की भी नौबत आ गई। भाई की तरह उसे भी एक मंदिर में शरण मिली। उसने करीब दो हफ्ते एक मंदिर के बरामदे में गुजारे। वहीं आने वालों से जो प्रसाद मिल जाता उसे खाकर काम चलाया। देखते-देखते एकदम कमजोर हो गई।

एक दिन देर रात खूब तेज आंधी-पानी आई। बरामदे की चौड़ाई कम थी, इसलिए छब्बी बहुत देर तक बुरी तरह भीगती रही। एक झोले में जो दो-चार कपड़े थे, वह सब भी भीग गए। हफ्तों की भूख-कमजोरी, रात-भर भीगे रहने, तेज़ हवा से उसकी तबियत खराब हो गई। बेसुध वहीं ज़मीन पर पड़ी रही।

सुबह पुजारी आये। उसकी हालत देख कर कुछ और लोगों की मदद उसे चाय-नाश्ता करवाया। उसकी हालत सम्भली तो उन्होंने अपनी पूजा संपन्न कर उससे बातचीत शुरू की। छब्बी ने उन्हें अपनी राम-कहानी बता कर काम दिलाने की विनती की। पुजारी जी को छब्बी की हालत पर बड़ी दया आई। वो उसे अपने घर लेते गए। कहा, '' जब-तक कोई कायदे का काम नहीं दिलवा देता हूँ, तब-तक तुम यहीं रहो।''

घर के एक कोने में सोने की जगह दे दी। छब्बी उनके घर का कामकाज संभालने लगी। पुजारी जी ने उसकी मेहनत, ईमानदारी की कड़ी परीक्षा ली। उसके शत-प्रतिशत सफल होने पर उसे एक बड़े बिजनेसमैन के घर नौकरी दिलवा दी। पुजारी जी भी एक छोटे बिजनेसमैन थे। बड़े साधु स्वभाव के थे। इस दूसरी नौकरी में छब्बी ज़्यादा दिन नहीं रह पाई, क्योंकि मालिक का एक लड़का उसकी इज्जत के लिए बड़ी समस्या बन गया था।

इस तरह छब्बी एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे के यहां होते-होते अंततः साहब के यहां नौकरी पा गई, तब से वहीं थी। वह बताती थी कि, पति की धोखाधड़ी से वह बहुत टूट गई थी। बच्चों की याद आते ही उसका कलेजा फट जाता था। उसने बहुत कोशिश की उस क्रूर धोखेबाज़ पति को ढूंढ़ने की, लेकिन वह नहीं मिला।

घर से भी चिट्ठी-पत्री का कोई रास्ता नहीं था। एक बार साहब ने कोशिश की तो, भाई ने कहा, ''हम उसे नहीं जानते। वह मर गई है हमारे लिए।'' साहब के बहुत जोर देने पर उसने छब्बी से इतनी ही बात की, ''भूल कर भी अपना काला मुंह लेकर यहां मत आना। यहां सब यही जानते हैं कि तू वहीं मर-खप गई।''

समीना, छब्बी रो-रो कर यही पूछती थी कि, 'बताओ मेरी क्या गलती है? एक दरिंदा चाकू की नोंक पर मुझे लूट लेता है। जबरदस्ती बीवी बना लेता है। बच्चे पैदा कर देता है। फिर धोखे से मेरे कलेजे के टुकड़े बच्चों को लेकर भाग भी जाता है, तो मैं क्या कर सकती थी। उस दरिंदे को कोई कुछ नहीं कहता। मेरी, भाग जाने वाली तीनों बहनों से तुलना कैसे हो सकती है?'