Vah ab bhi vahi hai - 19 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 19

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वह अब भी वहीं है - 19

भाग -19

भाई ने जल्दी-जल्दी लिखा था कि, ''तुम-दोनों वहां ठेला वगैरह सब बेच कर वापस आ जाओ। तुम्हारी भाभी के परिवार में केवल उनकी भाभी और एक तीन साल का बच्चा ही बचा है। मां-बाप, उनका भाई और दो बच्चे एक्सीडेंट के चार दिन बाद ही चल बसे। भाभी अब भी गंभीर हैं । तीन महीने से पहले बिस्तर से उठ पाना भी मुश्किल है। बच्चा भी गंभीर है। अब इस हालत में उन्हें छोड़कर आ पाना संभव नहीं है।''

उन्होंने लकड़बग्घे को यह भी लिखा था कि, ''यदि तुम वहीं रुकना चाहते हो तो ठीक है, तब सामान मत बेचना, बस छब्बी को यहां छोड़ जाओ।'' उन्होंने एक फ़ोन नंबर भी दिया था कि, ''पत्र पाते ही इस नंबर पर फ़ोन करो।'' फ़ोन नंबर पा कर मुझे बड़ी राहत मिली कि, चलो अब बात हो जाएगी। भाई को सब बताकर कहूंगी कि, तुम खुद यहां आकर मुझे ले चलो। उससे पहले इस नारकीय कीड़े, लकड़बग्घे को पुलिस के हवाले करके, इसकी हड्डी-पसली तुड़वाओ, जेल पहुंचवाओ। इसने तुम्हारे साथ, तुम्हारी बहन के साथ विश्वासघात किया है।

मैंने पत्र को छिपा कर रख लिया कि मौका निकाल कर फ़ोन करूंगी। मगर मेरे भाग्य ने मेरा साथ नहीं दिया। मैंने पत्र को अपने ब्लाउज में खोंस लिया था। मेरी मति ही भ्रष्ट हो गई थी कि, दिमाग में यह नहीं आया कि, जब वह राक्षस किसी भी समय हवस मिटाने लगता है, कपड़े खींच-खींच कर फेंक देता है, तो ब्लाउज में छिपाया यह पत्र उससे कहां छिप पाएगा। उसी रात वह पत्र उसके हाथ लग गया।

उसे पढ़ कर उसने कहा, ''ठीक है कल फ़ोन करेंगे।'' इस पर मैंने पूछा कि, ''तुम मुझे घर छोड़ आओगे?'' तो वह चुप रहा। तो मैंने कहा, ''तुम नहीं चलना चाहते तो मत चलो। मुझे ट्रेन या बस में बैठा दो, मैं पूछते-पाछते चली जाऊंगी।'' मैंने यह भी झूठ बोला कि, ''घर में तुम्हारी गलती के बारे में कुछ नहीं कहूंगी।'' यह सुनते ही वह एकदम भड़क कर बोला, ''मैंने कोई गलती नहीं की है। मैं कोई अय्याशी नहीं कर रहा हूं। मैं तुझे प्यार करता हूं, और तुझे अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं। मैं किसी से डरता नहीं। मैं तुझे अपनी बीवी बनाकर रहूंगा। एक-दो दिन में ही तेरी मांग भर दूंगा। शादी कर लूंगा, तभी लेकर चलूंगा। मैंने कोई चोरी नहीं की जो किसी से डरूं।''

इसके बाद उसने पत्र अपने पास रख लिया। लाख हाथ जोड़ने पर भी नहीं दिया। उसने अगले दिन शाम को बताया कि, उसने भाई को फ़ोन कर दिया है कि, किराए के लिए पैसे का इंतजाम होते ही छब्बी को लेकर आएगा। वह किसी भी सूरत में मेरी बात कराने को तैयार नहीं हुआ। दो दिन बाद वह मुझे लेकर बाज़ार के लिए निकला। पहले तो बीच पर ठेला लगाने के लिए जो भी जरूरी सामान चाहिए था, वह खरीदा। फिर मेरे लिए एक सेट अच्छा सा कपड़ा खरीदा। साथ ही अपने लिए भी। श्रृंगार का भी पूरा सामान खरीदा तो मैं कांप उठी कि, यह क्या वाकई मुझसे शादी करेगा।

मैंने रोकने, सच जानने की कोशिश की तो बिगड़ कर बोला, ''देख तू अब-तक अच्छी तरह यह समझ चुकी होगी कि, मैंने जो तय कर लिया है वह करके रहूंगा। तुम ना मानी तो यहीं बीच सड़क पर काट डालूंगा।'' मैंने सोचा घर पहुंच कर इससे कहूंगी कि शादी नहीं करूंगी। तुझे मुझसे अपनी हवस मिटानी थी, वह तू इतने दिनों से मिटा ही रहा है। अब जब-तक भाई के पास नहीं चलेगा, तब-तक कुछ और मनमानी नहीं करने दूंगी। घर पहुंची तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था कि मैंने रास्ते में शादी करने से इंकार करने की हिम्मत कैसे की?

मेरा गला कसकर पकड़ के वह किच-किचाता हुआ बोला, ''देख मुझे ज़्यादा परेशान मतकर, नहीं तो यहीं, अभी जिंदा जला दूंगा।'' उसके खूंखार चेहरे ने मुझे एकदम तोड़ दिया। लेकिन मैं अब कमजोर नहीं दिखना चाहती थी, इसलिए गुस्से से कांपती हुई उसे अपनी शारीरिक ताकत का अहसास कराने की भी कोशिश की ।आँखों में आंसुओं को नहीं गुस्से को भरने दिया। इससे वह और गुस्साते हुए मेरा मुंह दबा कर कई गालियां देता हुए बोला, ''सुन, शादी आज ही होगी और यहीं होगी। मैंने कुछ लोगों को बुलाया है, वो हमारी शादी में शामिल होंगे।''

इसके घंटे भर बाद ही उसके तीन दोस्त आए। दो महिलाएं भी थीं । उन दोनों ने मुझे फटाफट तैयार कर दिया। वह कमीना भी अपने लाए नए कपड़े पहन कर तैयार था। उन औरतों ने मेरा श्रृंगार कर एक तरफ बैठा दिया। उसके दोस्त ही खाने-पीने का भी सामान लाए थे। सारी तैयारी हो रही थी कि, तभी एक और दोस्त, पंडित लेकर आ गया। उसी ने चाल में हम-दोनों की गुड्डे-गुड़िये की तरह शादी करवा दी।

उसने सारे दोस्तों को इस तरह समझा-बुझा रखा था कि, किसी ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि, तुम्हारी तो शादी हो रही है, फिर तुम्हारी आंखों से आंसू क्यों झर रहे हैं। कई बार यह सोचा कि, इन सबसे कहूं कि, मुझे इस धोखे से बचा लो। इस दरिंदे से बचा लो। लेकिन सबके सब जिस तरह उसके साथ व्यवहार कर रहे थे, उससे हिम्मत ही नहीं पड़ी। औरतें तो उससे बराबर चुहुलबाजी किए जा रही थीं। गुड्डे-गुड़ियों की सी इस शादी में जब उसने मांग में सिंदूर भरने के लिए हाथ बढ़ाया तो मैं सिहर उठी। चक्कर सा आ गया।

मैं अपनी जगह लुढ़क ही जाती यदि पीछे बैठी महिला ने मुझे संभाल न लिया होता। उसके गिरोह ने हर तरफ से घेर कर शादी की नौटंकी करवाई, फिर उसके अगले भाग की भी तैयारी की। मेरे लिए सुहाग सेज सजा कर चले गए, जो मेरे लिए एक बार फिर अंगारों से भरा बिस्तर ही था। जिस पर उस लकड़बग्घे ने मुझे उस पूरी रात नोच-नोच कर खाया।'

समीना, छब्बी यह बताते-बताते फूट-फूट कर रो पड़ी थी। मैंने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया। ऐसा नहीं था कि इस ढोंग-भरी नकली शादी से उसके दुखों का अंत हो गया था। उसे जीवन साथी मिल गया था। नकली तो आखिर नकली ही होता है। उसने बताया कि, 'उस दरिंदे ने दो-दिन खूब प्यार किया। घर पर ही रहा। उसके बाद तीसरे दिन ही मुझे साथ लेकर चौपाटी बीच पहुँच गया। ठेले पर अपना काम शुरू कर दिया। यह ठेला भैया ने काम शुरू करने की तैयारी की शुरुआत करते हुए बनवाया था। चौपाटी पर वह मुझे पगहा की तरह बांधे रहा, उसका भाग्य बड़ा अच्छा था। शाम होने से पहले ही सारा सामान बिक गया।

मैं भी भीतर-भीतर कुछ राहत सी महसूस कर रही थी। उस रात थक कर चूर होने के कारण हम-दोनों गहरी नींद में सोए थे। वह मेरे साथ पति की ही तरह व्यवहार कर रहा था। लेकिन मैं उसके साथ मज़बूरी में लगी हुई थी। जो मेरे व्यवहार में साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था। काम शुरू किये हफ्ता-भर भी नहीं हुआ था कि, एक दिन अचानक ही वह चाल छोड़-छाड़ कर धरावी के पास एक खोली में आ गया।

अब चौपाटी बीच के बजाए दूसरी जगह ठेला लगाने लगा। वह बराबर मुझे साथ लिए रहता। इतना प्यार जताता कि, कभी-कभी मेरा मन पिघल जाता। मैं थकने की बात करती तो कई बार मेरे हाथ-पैर भी दबा देता। तब मैं समझ न पाती कि इसका क्या करूँ। जगह बदलने पर मैंने पूछा कि, ''यह बात भैया को बताई कि नहीं।'' तो बोला, ''देखो, अभी वो परेशान हैं । यह सब बता कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहता। मैंने उन्हें बता दिया है, कि हम-दोनों धंधा संभाले हुए हैं, आप परेशान न हों।''

मैंने कहा, '' एक बार मेरी बात करा दो।'' तो हमेशा की तरह वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अगले दो-तीन महीने में उसके व्यवहार ने मुझ में अपने लिए अंततः जगह बना ही ली। सोचा यह वाकई सिर्फ़ हवस के लिए ही मेरे पीछे नहीं पड़ा था। सच में प्यार करता है, तभी इतना चाहता है। केवल हवस होती तो अब-तक इसका मन भर गया होता, और यह कहीं और मुंह मार रहा होता।

मन में आया कोई तो सहारा चाहिए ही। कब-तक कटी पतंग की तरह मैं इधर-उधर भटकती रहूंगी। ऐसे तो ना जाने कहां जाकर गिरूंगी। जबरदस्ती ही सही, अगर यह ईमानदार पति बनने को तैयार है, तो बंध जाती हूं इसी की डोर से। धीरे-धीरे मैं उसके प्रति नम्र होती चली गई और जब चौथे महीने ही पेट में बच्चा आ गया, तो मैं और भी उसकी होकर रह गई। वह बड़े प्यार से मेरी देखभाल कर रहा था। समय से डॉक्टर के यहां, मेरे सारे चेकअप करवा रहा था।'

समीना ऐसा नहीं है कि, अब छब्बी के जीवन में सब अच्छा चलने लगा था। उसने बहुत सुबुकते हुए बताया था कि, जब उसके पेट में बच्चा सात महीने का हो गया था, और वह अपनी खोली में अकेली टी.वी. देख रही थी, तभी एक दिन दोपहर में किसी ने दरवाजा खट-खटाया, छब्बी ने खोला तो सामने अपने भाई को पाकर वह आवाक रह गई। भाई भी उसे शादी-सुदा, माँ बनने की हालत में देख कर हक्का-बक्का हो गया।