Vah ab bhi vahi hai - 17 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 17

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वह अब भी वहीं है - 17

भाग -17

पहले तो मैं समझ नहीं पाई, लेकिन जब जल्दी ही गलत ढंग से छूने, पकड़ने की कोशिश करने लगा तब उसकी मंशा समझी, और फिर समझते ही मैंने उसे धिक्कारते हुए कहा, '' बाप की उमर के हो और मुझ पर ऐसी नज़र रखते हो। आज के बाद मेरे सामने भी न पड़ना, नहीं तो मैं चिल्ला कर पूरा मोहल्ला इक्ट्ठा कर लूंगी।''

मैंने घर में मां-भाई को भी बता दिया। उन लोगों ने भी उन्हें अलग बुला कर खूब टाइट किया। अब तक रोज-रोज, लड़ाई-झगड़े, तमाम दुश्वारियों का सामना करते-करते हम सब निडर हो गए थे। यह भी समझ गए थे कि, इस दुनिया से कैसे पार पाना है। मां ने सीधे कहा, '' दुबारा मेरी लड़की की तरफ आंख भी उठाई तो बलात्कार करने की कोशिश की रिपोर्ट लिखाऊंगी। पुलिस तुम्हारी तो खाल खींचेगी ही, साथ ही तुम्हारी बीवी, बेटियों के भी सारे कपड़े खींच लेगी।'' मां का यह रौद्र रूप देख कर सिर्फ़ वह पड़ोसी ही नहीं, हम भाई-बहन भी सहम गए थे। सच ही है कि, परिस्थितियां आदमी को मोम से चट्टान, चट्टान से मोम भी बना देती हैं। मैं भी मोहल्ले में धीरे-धीरे एक खुर्राट लड़की के रूप में जानी जानी लगी।

मगर यह समाज तो विधवा, परित्यक्ता महिला को लावारिस पेड़ पर लगा एक ऐसा फल मानने लगता है, जिसे जो जब चाहे तोड़ कर खा ले। कुंवारी लड़कियों से भी कहीं ज़्यादा बदतर होती है इनकी हालत। मैं परित्यक्ता ही थी, सब यही मानते थे। और मुंह मारने के लिए न जाने कितने लबर-लबर करते मंडराते रहते थे। हालत यह हो गई कि, बिना जरूरी हुए मैं घर से बाहर न निकलती। कोई आता तो उसके सामने भी नहीं जाती। इस कठिन समय में मां से ज़्यादा मुझे भाभी का सहयोग मिला।'

समीना इसके बाद छब्बी ने और तमाम ऐसी बातें बताईं, जो मेरे जैसे कठोर आदमी को भी भावुक कर दे रही थीं। बरसों उसने कैसे घुट-घुट कर जीवन बिताया, कहां-कहां ठोकरें खायीं, कई बार कैसे खुद फिसलते-फिसलते बची, मां-बाप के गुजरने के बाद कैसे उसकी हालत और भी बदतर हुई, और फिर उसके बाद दिल को एकदम झकझोर देने वाली एक घटना उसके साथ कैसे हुई? उसने बड़ी गहरी सोच में डूबते हुए कहा, ' एक बार घर पर, दूर के रिश्ते का फुफेरा भाई, जो मेरी ही उमर का था, आकर रुका। दो-चार दिन बाद उसने भाई से कहा कि, '' कब-तक हम-लोग ऐसे छोटे-मोटे काम धंधे में ज़िंदगी खपाते रहेंगे, चलो मुंबई चलते हैं, वहीं कमाते हैं। किस्मत, मेहनत साथ दे गई, तो वहां आदमी बनते देर नहीं लगेगी।'' पहले तो भाई ने मना किया, लेकिन पैसे की चमक के चलते अंततः वह मान गए। हर तरह से जितना हो सकता था, पैसा इकट्ठा कर फुफेरे भाई के साथ वह, भाभी, मुझको लेकर देवी मुम्बाआई की नगरी मुंबई आ गए।

फुफेरे भाई ने कुछ चीजें पहले से ही साध रखी थीं। उसके मुहल्ले का एक आदमी था यहां, उसी के जरिए एक चाल में रहने, फिर काम का भी जुगाड़ हो गया। काम शुरू करने से पहले सब लोग सिद्धि विनायक मंदिर जाकर भगवान गणपति के दर्शन भी कर आए। देवी मुम्बाआई के मंदिर जा कर वहां भी शीश नवा आये।

शुरुआत ठीक रही, दोनों को भायखला में एक छोटी सी होजरी कंपनी में काम मिल गया। भाभी और हमने दो बड़े घरों में काम ढूंढ़ लिया। हम चारों की कमाई घर पर होने वाली कमाई से काफी ज़्यादा थी। आगे की योजना यह थी कि चौपाटी बीच पर खाने की चीजों के दो ठेले लगाएंगे। जिनमें एक नॉनवेज का होगा दूसरा वेज का।

नॉनवेज में बोनलेस चिकेन को मासलेदार बेसन में डीप फ्राई कर देशी, तीखी इमली की चटनी में दिया जाएगा। वेज ठेले पर उड़द की दाल के बड़े खट्टी-मीठी दही में दिया जाएगा। बीच पर आने वालों को यह देशी तड़का जरूर भाएगा। यह फुफेरे भाई की योजना थी, जो हम सबको सही लग रही थी। सभी लोग जल्दी-जल्दी से पैसा इकट्ठा करके काम शुरू करने की कोशिश करने लगे। काम भर का पैसा इकट्ठा भी हो रहा था। तीन महीने में ही खूब कंजूसी करके अच्छी-खासी रकम इकट्ठा हो गई थी।

इसी बीच आई एक भयानक विपत्ति ने पलक झपकते ही सब-कुछ एकदम उलट-पुलट कर रख दिया। भाभी के घर से एक मनहूस खबर आई। उनके मां-बाप, भाई-भाभी और बच्चे, एक पूजा स्थल के वार्षिक मेले में गए थे। लौटते समय ड्राइवर को न जाने क्या हुआ कि, एक ट्रक से आमने-सामने की टक्कर हो गई। जिससे मां-बाप की तो मौके पर ही मौत हो गई और बाकी सब बुरी तरह घायल हो गए।

सूचना मिलते ही भाई-भाभी चले गए। हड़बड़ी, घबराहट, भाभी की अंदर तक बेध देने वाली रुलाई ने हमें कुछ सोचने-समझने का मौका ही नहीं दिया। सूचना मिलते ही सब लोग अपने-अपने काम से दोपहर से पहले ही लौट आए थे। भैया-भाभी के जाने के बाद मैं दिन भर रोती पड़ी रही चाल में। एक साथ इतनी बड़ी मुसीबत से कलेजा फट गया था, मन में यह भी बार-बार आ रहा था कि, भगवान कभी हमारे परिवार की पलभर की खुशी क्यों नहीं देख पाते। कितनी उम्मीदों के साथ पैसा इकट्ठा किया जा रहा था। वह सारे पैसे पल-भर में निकल गए। लेकिन तब भी मुझे अहसास नहीं था कि मुझ पर अभी और जो विपत्तियां आने वाली हैं, यह सब तो उसकी शुरुआत भर है।

उस रात को कुछ भी बनाया-खाया नहीं। फुफेरा भाई जो भाई को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने गया था, वह रात करीब नौ बजे जब लौटा तो किसी ढाबे से खाना भी ले आया था।

उसी की बहुत जिद पर थोड़ा-सा खा सकी। जमीन पर बिछे बिस्तर पर लेटी थी। ज़िंदगी के एक-एक कठोर पल याद आ रहे थे। मां-बाप, जीवन का सबसे बड़ा धोखा शादी। यह सारी बातें रह-रह कर आंखों में आंसू भर देतीं, जो पलकों की कोरों से धीरे-धीरे ढुलक कर कानों को भी भिगो रहे थे।

फूफेरा भाई खा-पी कर एक कोने में ऐसे सो गया था जैसे घर में कुछ हुआ ही नहीं। मैं ऐसे ही रोते-कलपते बहुत देर रात तक जागती रही। गला सूखता महसूस हुआ तो उठ कर पानी पिया और फिर लेट गई। इसके बाद न जाने कब नींद आ गई। यह नींद तब खुली जब मेरी उजाड़ सी थोड़ी-बहुत बची दुनिया भी लुटने वाली थी, और मैं विवश कुछ नहीं कर सकती थी, सिवाय खुद के लुटने की पीड़ा से आंसू बहाने के।

रात करीब दो बजे मुझे लगा मानो मेरे पेटीकोट का नारा किसी ने खर्र से खींच कर खोल दिया है। नींद में ही मेरा हाथ पेट पर पेटीकोट की तरफ बढ़ा ही था कि, मुझे मानो हज़ार वोल्ट का करंट लगा। मेरे हाथ पेटीकोट को छू ही पाए थे कि, किसी ने बिजली की तेज़ी से उसे मेरे तन से खींच कर अलग कर दिया। मेरे मुंह से उतनी ही तेज़ चीख भी निकली, लेकिन ठीक उसी तेजी से एक सख्त हाथ ने मुंह दबा दिया। इतना कस के दबाया कि, मेरी चीख मुंह में ही घुट कर रह गई। जिस तेज़ी से मुंह पर हाथ पड़ा था, उसी तेज़ी से पूरा मानव शरीर मेरे तन को दबोच चुका था। मैं छटपटा भी नहीं पा रही थी। उस मजबूत इंसान के शिकंजे में मैं पूरी तरह जकड़ चुकी थी।

मैंने छोटे से बल्ब की टिम-टिमाती रोशनी में उस आदमी को जब पहचाना, तो मेरे होश उड़ गए। मुझे लगा मानों पूरी दुनिया मुझ पर टूट पड़ी है। पूरी दुनिया ही मुझे नोच रही है। विश्वास का ऐसे भी खून होगा, यह मैं कल्पना भी नहीं कर पाई थी। सोते में मेरे तन को उघाड़ कर, उसे मेरा फुफेरा भाई ही दबोचे हुए था।

पीठ में उसने ऐसा छूरा घोपा था कि मैं हतप्रभ थी, विरोध ही भूल गई, एकदम निर्जीव सी उसके नीचे पड़ी रही कुछ क्षण। वह भी पूरा बदन उघाड़े था। मेरे तन पर सिर्फ़ ब्लाउज ही था। तंद्रा वापस आते ही जब मैं फिर तड़पी बिल-बिलाई, तो उसने रसोई वाला चाकू मेरी गर्दन पर रख दिया। और एक-एक शब्द चबाते, राक्षस की तरह आंखें निकालते हुए बोला, ''जरा भी आवाज़ निकाली तो गर्दन रेत दूंगा।'' डर के मारे मुझे पूरी चाल ही घूमती सी लगने लगी।

उसने जानवरों सा मेरे तन को नोंचना-झिंझोड़ना जारी रखा। जरा भी आवाज़ निकलने पर चाकू की नोंक चुभा देता। जानवरों सा जब अपनी हवस शांत करके वह किनारे बैठा तो भी चाकू पकड़े रहा। दर्द, चोटों से परेशान उससे छूटते ही मैं उठी, कुछ ऐसे जैसे बरसों बाद बेड़ियों से मुक्ति मिली हो। बचपन से ही अपने जिस मान-सम्मान, स्वाभिमान की रक्षा के लिए, हर सांस में लड़ती उसे बचाती चली आ रही थी, उसके इस तरह तार-तार होने से बिला-बिला उठी थी।

उठते ही बिजली की फूर्ती से एक झन्नाटेदार थप्पड़ पास ही बैठे विश्वाश के नाम पर घिनौने कलंक फुफेरे भाई को जड़ दिया। उसने ऐसे हमले की शायद कल्पना भी नहीं की थी, असावधान था सो लुढक गया एक तरफ। मैं उसे और पीटने के लिए झपटी बिना यह ध्यान दिए कि, वह अभी भी चाकू पकड़े हुए है। उसने पल-भर में संभलते हुए उठ कर मुझे दबोच लिया। उसकी जकड़ में मैं फिर विवश हो गई।

उसने खींच-खींच कर कई थप्पड़ मुझे जड़ दिए। वह इतने तेज़ थे कि मैं एकदम पस्त हो गई। न जाने कितने तारे आंखों के सामने नाच गए थे। सिर, पूरा बदन झनझना गया था। वह मुझ पर अपनी पकड़ और मज़बूत करते हुए मेरे शरीर के पीछे पहुंच गया। उसने दाएं हाथ से शिकंजे की तरह गर्दन जकड़ रखी थी। फिर किच-किचाते हुए गंदी-गंदी कई गालियां दीं। यह धमकी भी कि, अगर मैंने अपनी जबान खोली, अपना विरोध बंद न किया तो वह गला काट देगा। लाश किसी गटर में डाल देगा। और भाई को बता देगा कि वह बिना बताए किसी के साथ भाग गई।