Such was the tourism of Nawab Junagadh in Hindi Travel stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | नवाब जूनागढ़ का ऐसा होता था पर्यटन

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नवाब जूनागढ़ का ऐसा होता था पर्यटन

नीलम कुलश्रेष्ठ

सांझ होते ही झाड़-फानूस में शमाएं जलकर मुस्कराने लगती हैं, सारा महल जगमगा उठता है । नवाब अपने सामने रखे सोने से मढ़े हुक्के को गुड़गुड़ाते हुए हाथ का इशारा करते हैं । उनके इस इशारे पर रक्कासा के शरीर में जैसे बिजली तड़प उठी हो । वह अपनी अदाओं की तमाम शोखी उंड़ेलती तबलों की थाप, हारमोनियम की स्वरलहरी पर थिरक उठती है । इधर उसके पैरों की चपलता बढ़ती जाती है, उधर नवाब साकी के हाथ से जाम पर जाम अपने होठों से अंदर छलकाते जा रहे हैं । जैसे-जैसे रात गहरा रही है वैसे-वैसे उनकी आँखों के वासना के डोरे और भी लाल होते जा रहे हैं । इन्हीं डोरों के फंदों से बचने के लिये आसपास के गांव की स्त्रियों ने अपने घरों से निकलना बंद कर दिया है ।

नहीं, बिलकुल भी नहीं । चोरवाड -रिलायन्स गृप के धीरू अंबानी जी के गांव –के ‘समर पैलेस’ में ऐसा कुछ भी नहीं होता था जब नवाब जूनागढ़ यहाँ अपनी गर्मियाँ बिताने आते थे, लगता है जैसे एक स्वप्न या नवाबों की मन पर बनी एक चिरकाल से चली आ रही प्रतिच्छाया को किसी ने एक झटके से तोड़ दिया हो । चोरवाड के महल की भव्यता, उसकी शानोशौकत, उसके नवाब के समय के सोफ़े, फ़र्नीचर, पीतल के पलंग, अभ्यर्थना कक्ष के छत पर लटकते सुंदर झाड़-फानूस दीवाराकार आईनों ने नवाब के ऐश-ओ-आराम की एक प्रतिमा गढ़ी थी । महल के सारे सर्वाधिक अनूठे रंग-बिरंगे फर्श (जो कि सफेद चिप्स के टुकड़ों से जड़ा हुआ है जिस के किनारे व केंद्र हलके गुलाबी, नीले व हरे रंग के चिप्स के टुकड़ों से जड़े हुए हैं) को देखकर एक सिहरन सी हो उठी थी कि पता नहीं कितने गोरे-गोरे सुंदर पांव के घुंघरू इस फर्श पर मजबूरी में थिरके होंगे लेकिन ऐसा तो कुछ भी नहीं था, जूनागढ़ के अंतिम नवाब के समय में ।

जूनागढ़ के अंतिम नवाब थे महाबत खाँ तृतीय जिनका राज काल रहा है सन् 1919 तक । उन्हें अपने राज्य से बाहर जाना पसंद नहीं था । लेकिन प्रवृत्ति से वे पर्यटक थे इसलिये अपने ही राज्य के विभिन्न स्थानों पर बने महलों में समय बिताया करते थे । गर्मियों में अपना समय समुद्र की सरसराती ठंडी हवा के बीच बिताने के लिए उन्होंने बहुत शौक से चोरवाड के समुद्री तट पर एक महल बनवाया था सन् 1928 में जिसका नाम रखा ‘समर पैलेस’ । इस में वह हर वर्ष गर्मियों में तीन-चार महीने का समय बिताने के लिये आते थे और साथ होती थीं उनकी चार बेगमें, बच्चें, नौकर, गोली, खानसामा, सिपाही, मोटर, गाय, भैंस,बकरी यहाँ तक कि उनके प्यारे से डेढ़-दो सौ कुत्ते । गोया पर्यटन न हुआ कि जूनागढ़ का आधा राज्य ही उठकर चोरवाड के महल में आ जाता था । अब यह महल गुजरात पर्यटन निगम के अधीन है (समुद्री किनारा होने के कारण पर्यटक भारी मात्रा में यहाँ आते हैं ।)

हमारी प्राचीन पुस्तकों जैसे कि स्कंदपुराण व विष्णुपुराण में जूनागढ़ का उल्लेख विभिन्न नामों से मिलता है । बहुत वर्ष पहले यहाँ राजपूतों का शासन था । बाद में मुहम्मद बेगड़ा के समय में इसे अपनी राजधानी बनाना चाहता था । अकबर के समय में जूनागढ़ को जीतकर मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया । इसका शासन चलाने के लिये यहाँ पर एक फौजदार की नियुक्ति कर दी गई । आगे चलकर शेर खाँ बॉबी नाम के फौजदार ने एक स्वतंत्र राज्य के रूप में इसकी घोषणा कर सन् 1747 में बॉबी वंशजों का राज्य स्थापित किया । सन् 1947 तक इन्हीं का राज्य रहा । इनके अंतिम वंशज थे महाबत खां तृतीय । महाबत खां जी के पिता थे रसूल खां जो कि फकीर बन गये थे । लोग उन्हें `औलिया नवाब` कहते थे । जब ये ग्यारह वर्ष के थे तभी रसूल खां जी की मृत्यु हो गई । जूनागढ़ शासन की देखरेख एक ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेटर करता रहा । जब महाबत खां उन्नीस वर्ष के हुए तब उन्हें शासन करने का अधिकार मिला । इन्हीं के अंतिम दीवान थे श्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के पिता शाह नवाज़ अली भुट्टो ।

चोरवाड का महल गुजरात के केशोद हवाई अड्डे से चालीस किलोमीटर दूर है । केशोद तक मुंबई से प्रतिदिन एक हवाई उड़ान है । चोरवाड रेलवे स्टेशन अहमदाबाद-वेरावल मुख्य मार्ग पर पड़ता है जहां से यह महल दस किलोमीटर दूर है । महल को चार भागों में कुछ इस तरह बनाया गया था कि चारों खंडों के अलग-अलग अपने कमरे, बावर्चीखाने थे । महल के शाही लाउंज में टहलते हुए या लॉन में या समुद्र-तट पर बैठे हुए हमेशा लगता रहता है कि इतिहास की महीन धीमी आवाज फुसफुसाकर कुछ कह रही है । उसकी बात समझने के लिये मन को और चैतन्य करना पड़ेगा । महल में बेशुमार चहल-पहल है । साथ ही एनेक्सी के कमरो में बड़े ओहदेदार ठहरे हैं । नौकर व सिपाहियों के लिये तंबू तान दिये गये हैं। कभी किसी तबेले में से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज आती है, यदि एक कुत्ता भौंकना आरंभ कर देता है तो उसके स्वर में स्वर मिलाने के लिये दो सौ कुत्ते तैयार हैं । धूप के चढ़ते ही किसी बेग़म के कमरे से गुलाब की पत्तियों के उबटन की महक बाहर सरकने लगती है, कोई बेग़म पर्दे के अंदर बैठकर बाहर बैठे जौहरी को नया हार गढ़ने का आदेश दे रही है । एक गोली उनके पैरों में आलता लगाती जा रही है । गलती से एक बूंद छिटककर बेग़म की सूरत के सच्चे मोती व जरी के काम के दुपट्टे पर गिर जाती है, बेग़म उसे अपनी आंखें तरेरकर ऐसे देखती हैं कि उसे अपनी नजर से ही भस्म कर डालेंगी ।

कोई बेग़म ख़ानसामे को डांट रही है कि रात उसके महल में नवाब खाना खाने आये तो उसने मुगलाई बिरियानी में नमक क्यों ज्यादा डाल दिया । अंदर उनकी चाकरी के लिये गोलियों का हुजूम है तो बाहर सिपाहियों का कड़ा पहरा । कोई सिपहसालार कोई फ़रमान लेकर हरम के पास से गुजर रहा होता है । अचानक एक सिपाही की जोरदार बुलंद आवाज गूंजने लगती है, ‘परेज’ । बेचारा सिपहसालार सिटपिटाकर मुंह घुमाकर खड़ा हो जाता है क्योंकि कोई बेग़म साहिबा हरम से बाहर तशरीफ़ ला रही हैं आहिस्ता-आहिस्ता। जब तक उनके नज़ाकत भरे पैरों से पायल की रुनझुन छनकती रहती है तब तक बेचारा वह दम साधे खड़ा रहता है । जब यह आवाज बंद हो जाती है तो वह खुली सांस लेकर अपने रास्ते चल देता है ।

एक नया राहगीर चोरवाड से गुजर रहा है । अचानक वह अपने पीछे घुंघरूओं की रुनझुन सुनकर लालायित सा किसी युवती को देखने की आस में अपना चेहरा पीछे घुमाता है तो खिसियासा रह जाता है, पीछे कोई सुंदरी नहीं आ रही है । पीछे नवाब साहब के आठ-दस कुत्ते गर्व से झूमते नौकरों के साथ चले आ रहे हैं । उन्हें गर्व भी क्यों न हो, नवाब के वे इतने दुलारे हैं कि उन्होंने इनके गले में अलग-अलग डिजाइन के सोने के हारनुमा जड़े हुए पट्टे पहना रखे हैं । किसी-किसी में तो छोटे छोटे घुंघरू भी लगे हुए हैं ।

“श्री जरमनीदास जी ने अपनी पुस्तक ‘महाराजा’ में नवाब जूनागढ़ के लिये लिखा है कि उन्हें अपने कुत्तों की शादी बहुत ठाट-बाट से करने का शौक था । क्या यह सही बात है ?”

मेरे प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं जूनागढ़ के रिटायर्ड आई.ए.एस. व जूनागढ़ नवाब के समय के रेवेन्यू कमिशनर अस्सी वर्षीय श्री शंभुप्रसाद हरप्रसाद देसाई जो जूनागढ़ के सुप्रसिद्ध लेखक भी हैं, “यह सब अफवाहें हैं । यह जरूर है कि उन्हें दुनिया की हर नस्ल के कुत्ते पालने, उन्हें ‘ट्रेन्ड’ करने का शौक दीवानगी की हद तक था ."

" प्रसिद्द इतिहासकार डॉमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिंस ने अपनी किताब `फ़्रीडम एट मिडनाइट `में लिखा है कि ये कुत्तों की शादी में हज़ारों मेहमानों को बुलाकर लाखों रूपये ख़र्च करते थे ?"

" वह कुत्तों की शादी तो नहीं करवाया करते थे । हां, एक बार सन् 1919 में उनके नवाब बनते ही उनकी पहली शादी की गई तो उनकी मां ने ज़रूर टोटका करवाया था। एक कुत्ते व एक कुतिया के सिर पर रूमाल डालकर उन्हें माला पहनवा दी थी जिससे किसी की बुरी नज़र असली दूल्हे-दुल्हन को न लगकर उन्हें लग जाये । इसी घटना को लोगों ने राई का पहाड़ बना दिया है ।”

“मैंने सुना है कि नवाब जूनागढ़ पर्यटक प्रवृत्ति के थे ?”

“आपने बिलकुल ठीक सुना है । उन दिनों के अन्य नवाबों को शौक था कि वे लंदन जाएं, अमेरिका जाएं लेकिन इनको अपने राज्य के बाहर जाना पसंद नहीं था । वह जाड़ों में जूनागढ़ रहते थे । गर्मियों के चार महीनों में वेरावल के अपने राजेंद्र भवन में या फिर चोरवाड के समर पैलेस में रहते थे । केशोद व चौकी में दो-तीन महीने ठहरा करते थे । उन दिनों नियम था कि नवाब यदि अपनी राजधानी छोड़कर कहीं भी जाएं तो वहां की जनता को सवारी टैक्स देना पड़ता था । राजा के बाहर जाने पर जनता को जो सवारी टैक्स देना पड़ता था उन्होंने उसे माफ़ कर दिया था । इस बारे में उनका स्पष्टीकरण था कि मैं सालभर घूमता ही रहता हूँ इसलिये जनता क्यों सवारी टैक्स दे । वे जहाँ कहीं भी जाते थे तो कम से कम हजार लोग तो उनके साथ निकलते ही थे।”

“चोरवाड का महल उन्होंने चार बेग़म रह सकें इस हिसाब से बनवाया है । क्या उन्होंने चार ही शादियां की थीं?”

“उन्होंने शादियां तो नौ की थी लेकिन इस्लाम धर्म के निर्वाह के लिये जैसे ही पांचवीं शादी करते थे तो एक बेग़म को तलाक दे देते थे । उनकी एक बेग़म भोपाल की थी जो सबसे बड़ी थी । एक जाति की लड़की से भी शादी की । सिड्डी जाति सौराष्ट्र में एक राजा और एक अफ़्रीकन लड़की की शादी के बाद उत्पन्न संतानें हैं । उन्होंने कुतियाना गांव की दो लड़कियों से शादी की । सन् सैंतालीस में तो अपने ही भाई की लड़की से शादी की जो कि इस्लाम धर्म के खिलाफ थी । बस इन्हीं बेग़मों में से किसी न किसी को लेकर चोरवाड के महल में आते थे ।”

श्री देसाई जी अपनी पुरानी यादों में से एक-एक याद थमाते जा रहे हैं । “एक बार नवाब जूनागढ़ का कैंप चोरवाड में लगा हुआ था । तब कैंप के कुछ शरारती बच्चे महादेव के मंदिर को गंदा कर आये । नवाब ने उन्हीं लड़कों को बुलाकर कहा कि चलो हमारे साथ घूमने चलो और सीधे उन्हें ले जाकर उस भग्न मंदिर के पास खड़ा कर दिया और कहा पानी से इसे साफ करो । उन्होंने राज्य के अभियंता को बुलाकर तुरंत उसके पुनर्निर्माण का आदेश दिया । फिर एक कमरा बनवाकर पुजारी को भी वहां रखा । कहने का तात्पर्य है कि वे अपने आमोद-प्रमोद के दिनों में भी हिंदुओं की भावनाओं की कद्र करना नहीं भूलते थे । जब कभी वे चोरवाड आते थे तो रास्ते के एक भवानी के मंदिर पर माथा टेकते हुए आगे बढ़ते थे ।”

“कहा जाता है कि चोरवाड के महल के पास ही इसकी व मंगरोल(मांगरोळ) राज्य की सीमा थी, इसलिए सीमा भी सुरक्षा की दृष्टि से यह महल बनवाया गया । पहले क्या यहाँ सेना ही रहती थी?”

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं था । मंगरोल तो इतना छोटा सा राज्य था कि जूनागढ़ के खिलाफ सिर उठाने की सोच भी नहीं सकता था । चोरवाड की आबोहवा बहुत अच्छी है इसलिये महाराज ने इस समुद्र-तट पर महल बनवाया ।”

“चोरवाड वह सैर के मूड में आते थे तो बहुत ऐश करते होंगे?”

“यह तो है लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वे सिगरेट व शराब नहीं पीते थे । पान भी मुंह में घुमाकर थूक देते थे । सुबह की सैर व नाश्ते के बाद जूनागढ़ राज्य से आये किसी मंत्री के साथ राज्य का राजकाज देखते थे । उन्हें बाद में नाटक देखने व करने का बहुत शौक हो गया था । समर पैलेस के पास की ही कोठी में कभी-कभी वे नाटक देखते थे या स्वयं भी नाटक किया करते थे । जब शिकार खेलने जाते थे तो बहुत क्रूरता से शिकार खेलते थे । कुत्ते उन्हें बहुत प्यारे थे लेकिन यदि उनमें से कोई बिगड़ जाये तो उसे शूट करने में भी नहीं चूकते थे । बाद में शिकार के मामले में उनका हृदय-परिवर्तन हो गया ।”

वे कभी अपनी मोटर में चोरवाड आते थे, कभी अपनी प्राइवेट रेलगाड़ी में बैठकर आते थे । तब चोरवाड स्टेशन पर बेग़मों के डिब्बों के आगे कहार चांदी की पालकी लेकर खड़े हो जाते थे । श्री देसाई बताते हैं, “एक बार चोरवाड का कैंप उठा तो मेरी ड्यूटी थी । एक ओहदेदार नवाब को खुश करना चाहता था । उसने गांव वालों को हुक्म दे दिया कि सामान ढोने के लिये चालीस बैलगाड़ी भेज दो । गांव वालों ने सोचा कहीं बैलगाड़ी कम न पड़ जायें, वे एक सौ बीस बैलगाड़ी लेकर गये । नवाब साहब जब महल के बाहर निकले तो बैलगाड़ी का कारवां देखकर हतप्रभ रह गये । जब उन्हें पता लगा कि उन्हीं का सामान वे जूनागढ़ पहुंचाने के लिये आये हैं तो उनका पारा चढ़ गया । उस ओहदेदार को बुलाकर डांटा- जब हमारी ट्रकें हैं तो क्यों इन्हें परेशान कर रहे हो ? तुरंत उन्होंने अपने सेक्रेटरी सरदार सिंह को बुलाकर कहा कि किसानों को खान और बैलों को घास खिलाकर विदा कर दिया जाये । साथ ही किसानों को एक किलो गाठियां (एक प्रकार का गुजराती नाश्ता) भी दे दिया । एक बार वे रेलगाड़ी से जूनागढ़ लौट रहे थे लेकिन जब उन्हें पता लगा कि उनकी प्यारी गाय कपिला नहीं आई है तो गाड़ी उन्होंने वही रुकवा ली । जब गाय खटारे में बिठाकर वहां लाई गई, तभी रेलगाड़ी चलनी आरंभ हुई ।”

सन् 1939 में गुजरात भीषण अकाल की चपेट में था । सर शंभुप्रसाद एच. देसाई की ड्यूटी कुतियाना (कुतियाणा) में थी । इन्होंने जनता से चंदा इकट्ठा करके वहां जरूरी सामान की दुकान खोली । केशोद में वल्ली मुहम्मद खां (परवीन बॉबी के पिता) नियुक्त थे । उन्होंने भी इनकी तरह राहत के लिये एक दुकान खोलने की योजना बनाई व उद्घाटन के लिये नवाब महाबत खां को बुलाया जो कि उन दिनों वहीं पर्यटन के लिये आये हुए थे । उद्घाटन मंच पर बैठते ही जब नवाब साहब को पता लगा कि दुकान क्यों खोली जा रही है तो तुरंत ही उठकर अपने महल में आ गये । वे गुस्से व क्रोध में कहने लगे कि इस राज्य का राजा मैं हूँ और बुरे दिनों में अपना पेट भरने के लिये जनता चंदा दे, मेरे लिये शर्म की बात है । दूसरे दिन ही जूनागढ़ राज्य की तरफ़ से ज़ रूरी सामान की जगह-जगह दुकानें खुल गईं।

नवाब साहब के उन्नीस बच्चे थे । एक बार वे समुद्री लहरों की हवाओं के बीच ख़ुशनुमा वातावरण में सुकून फरमा रहे थे, तभी अचानक उनका एक बच्चा मर गया । अपने ख़ानदान के नियम के अनुसार उन्हें तीन दिन महल के बाहर रहना था, बड़ी समस्या था । तब वे अपनी बेग़मों व अन्य बच्चों सहित चोरवाड के एक सेठ के यहां रहे थे ।

ये थीं नवाब महाबत खां के बाह्य जीवन की बड़ी-बड़ी बातें, लेकिन उनके निजी जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों को ‘क्लिक’ करते रहे हैं अपने कैमरे में श्री शांतिभाई भट्ट, फ़ोटोग्राफ़र जूनागढ़ नवाब के पुराने फ़ोटोग्राफ़र जिन्हें उनकी बेगमों, बेटियों के चेहरे देखने की बतौर फ़ोटोग्राफ़र खुशनसीबी हासिल थी । इनका आज भी जूनागढ़ में भट्ट फ़ोटोग्राफ़रर्स के नाम से स्टूडियो मशहूर है ।

शांतिभाई उन छोटी-छोटी बातों की रील अपने स्टूडियो में खोलते जाते हैं । “नवाब साहब चौमासे के दिनों में जूनागढ़ में उमराव मंज़िल या सरदार बाग में रहा करते थे । गर्मियों में चोरवाड आने पर दिन भर की तफ़रीह के कारण रात में उन्हें नींद नहीं आती थी । उनके दो सेवक जीवहरि व विक्रम बापा उनके पीतल के पलंग के आजू-बाजू बैठकर रात-रात भर कहानी-किस्से सुनाते जाते थे । सुबह उनकी एक गोली कांसे की कटोरी में तेल डालकर एक चांदी का रुपया तैयार रखती थी । वह सुबह बिस्तर से खड़े होते ही उसमें अपना चेहरा देखते थे फिर यह रुपया किसी फ़कीर को दान कर दिया जाता था । छह बजे हलका नाश्ता लेकर सैर को निकल जाते थे । दिल आया तो घूमने के लिये घोड़ा लिया या मोटर या पैदल ही घूमने निकल पड़े । वापस आकर नाश्ता करते थे व काली गाय का दूध पीते थे क्योंकि उनको किसी वैद्य ने कहा था कि काली गाय का दूध ख़ून को स्वस्थ रखता है ।”

“क्या चोरवाड में उनकी बेगमें बहुत हिल-मिलकर रहती थीं?”

“क्या सौतनों में कभी प्यार हुआ है?” शांतिभाई एक हंसी हंस देते हैं । “किसी बेग़म का एक कुत्ता भी दूसरे के हिस्से में नहीं जा सकता था । नवाब को राज्य से दस प्रतिशत प्रिवीपर्स मिलता था जिस में बेग़म , बच्चे, गाय, बैल, घोड़े सिपाहियों के खर्चा हिस्सा बंधा हुआ था । सबकी देखरेख का विभाग अलग था ।”

“जब वे चोरवाड आते थे तो मनोरंजन का उनका साधन क्या था ? क्या नाचने-गाने वालियां... ?”

“तौबा, तौबा, वे इन सब बातों से बहुत दूर थे । हाँ, लेकिन शादी कुछ मुसलमान, एक सिड्डी व एक अरेबियन स्त्री से की थी । उन दिनों तो समझिये ये महल गुलज़ार रहता था । कभी कोई सर्कस वाला आ रहा है, कभी सिड्डी लोगों से ढोल बजवाए जा रहे हैं, सिनेमा करवा रहे हैं या अपने ही प्रोजेक्टर से कोई फ़िल्म देख रहे हैं । वे यहाँ पर सुथार, लुहार, जौहरी को भी लेकर आते थे, पता नहीं कब किसकी ज़रूरत पड़ जाये ।”

श्री भट्ट अपने ज़ेहन में घूमती इतिहास की परछाइयों में जैसे गुम होते जा रहे हैं । मुझे लगता है मैं जल्दी-जल्दी उन छायाओं को अपनी कलम में कैद कर समेट लूं...महल के पास वाला समुद्र-तट बेहद ख़तरनाक है । नुकीली चट्टानों के बाद गहरी-गहरी खाइयां हैं । कोई आदमी इसमें नहा नहीं सकता. चोरवाड के इस तट पर जाकर हमने खाइयों से ऊपर की तरफ़ उछाल मारती ऊपर आकर शेषनाग से फन फैलाती सिर पटकती खूँखार लहरों की भयावहता देखी है। जैसे  ही हम समुद्र किनारे गए तो एक सुरक्षा गार्ड सीटी बजाता पास आ गया ,"आगे मत जाइये। "

समुद्र-तट पर आकर भी उसके पानी में नहाने का शौक पूरा न हो तो नहाने की आस दबी रह जायेगी, इसलिये नवाब साहब ने तट पर फ़्रांसीसी तकनीकी का ‘सी वॉटर पूल’ बनवाया था, जिस तरह चोरवाड महल भारत में एकमात्र महल है जो समुद्र-तट पर बना है उसी तरह ऐसा ‘सी वॉटर पूल’ भी किसी तट पर देखने को नहीं मिलेगा जिसमें ‘ट्रेप सिस्टम’ द्वारा पानी आता-जाता रहता है ।

कभी इसी पूल में नवाब साहब के बेटे किलोल किया करते थे । यदि दिल हुआ तो महल में होने वाले तमाशे देख लिये या बेडमिंटन, टेबिल टेनिस खेल लिया या फिर समुद्र में स्टीम लांच या हैंडिल वाली नाव में बैठकर आपस में प्रतियोगिता ही कर ली ।

इसी पूल में नवाब कभी जलकुकड़ी, कभी बत्तख, यहां तक कि मगर भी पाला करते थे । एक बार एक मगर के पैदा होते ही उसकी नाक में उन्होंने शौकिया सोने की लौंग पहना दी थी ।

“उन्हें मगर का शिकार करने का बहुत शौक था लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे मूड में हो और मगर साहब तालाब से निकलकर कहें, ‘हुजूर ! हम हाज़िर हैं, हमें मार डालिये ।’ इस लिये उन्होंने एक प्राचीन तरीका अपनाया हुआ था । महल के आसपास के घुना (बड़ा तालाब) में शिकार खेलने जाते तो कुछ बाघरी [देवीपूजक ]लोग देखते थे, बाद में उन्होंने अपनी कंपनी भी बना ली थी । तब भोपाल वाली बेग़म हाथ में पैसों से बंधा रूमाल लेकर बैठती थीं । जिसका काम उन्हें पसंद आता उसकी तरफ वह रूमाल उछाल देती थीं ।” बता रहे हैं चोरवाड के वयोवृद्ध नवाब साहब के मुलाजिम दाना माह ।

“और कोई यादगार घटना?”

दानाभाई का इंटर्व्यू  अब जीप में जारी है क्योंकि रेलवे स्टेशन पहुंचना है। मेरा परिवार उसमें सामान रख चुका है ।

“जब नवाब घूमने निकलते थे तो रास्ते में उन्हें कोई चीज़ जैसे बकरी या कुछ पसंद आ जाता था तो यदि मालिक को बेचना मंजूर हो तो उसके बताये दामों से अधिक दाम देकर खरीद लेते थे ।”

“ऐसे तो कभी उनका किसी स्त्री पर भी दिल आ सकता था ?”

“क्या मालूम ?” दानाभाई अपने पोपले मुंह से रहस्यमयी हंसी हंसकर मुंह पर ताला लगा लेते हैं, “वैसे हमें तो उनकी भोपाल वाली बेग़म सबसे अच्छी लगती थीं । बहुत कड़क व कायदेवाली स्त्री थीं ।”

चोरवाड स्टेशन पर रेलगाड़ी की सीटी सुनाई दे रही है । मेरा आखिरी प्रश्न है, “उनका कोई खास शौक था ?”

“उन्हें सच्चे मोती वाली व सोने की ज़री की पगड़ी बांधने का बहुत शौक था ।”

आखिर गाड़ी आ ही गई है । एक क्षण को लगता है शाही धुन के साथ नवाब महाबत खां अपनी गाड़ी से सच्चे मोती व ज़र के काम की पगड़ी लगाए उतरेंगे । सारा स्टेशन उनकी जय-जयकार से गूंज उठेगा, लेकिन नहीं, ये गाड़ी तो हमें ले जाने आई है, आज के पर्यटकों को जो अकेले हैं, अपना-अपना सामान भी कंधे पर टांगे हैं । उस राजमहल से दूर जा रहे हैं जो कि अब तक अपने सौंदर्य से अभिभूत किये था । जिसे दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि समुद्र की कोई उन्मत्त लहर मचलकर अपनी पूरी उछाल के साथ अपने हलके नीले रंग में ही उसका पथरीला तन, मन भिगोकर वापस समुद्र में लौट गई है ।

पता नहीं कौन सी नीतियों के कारण यह पर्यटन स्थल बंद कर दिया गया था । अमिताभ बच्चन के प्रमोट करने पर गुजरात की तरफ़ पर्यटकों का सैलाब उमड़ा है. आज भी समझ में नहीं आता कि ऐतहासिक महत्व के इस सुंदर महल की धरोहर को क्यों गुजरात सरकार सम्भाल नहीं पाई ?आज भी यू ट्यूब पर शौकिया लोग इस टूटे फूटे महल के फोटोज़ डाल रहे हैं।

- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

kneeli@rediffmail.com