Vah ab bhi vahi hai - 11 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 11

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वह अब भी वहीं है - 11

भाग - 11

सुबह मेरी नींद तब खुली जब तोंदियल ने उठाया। उसी ने बताया कि, साढ़े सात बज गए हैं। मैं घबरा कर उठा, मेरे सामने साहब और मैडम का चेहरा नाच गया। मैंने पूछा, 'मैडम उठ गईं क्या?'

उसने कहा, 'नहीं, अभी सो रही हैं। दस बजे से पहले नहीं उठेंगी। जिस रात गड़बड़ करती हैं अगले दिन दस बजे से पहले नहीं उठतीं।'

मैं जल्दी से फ्रेश होकर तैयार हो गया। अपने कपड़े पहने और तोंदियल के कपड़ों को धोकर मशीन में ही सुखाकर वापस रख दिया। हालांकि वह नम तब भी थे। तोंदियल यह सब शांति से देखता रहा लेकिन बोला कुछ नहीं। हां इस बीच वह ढेर सारे बिस्कुट, कुछ ब्रेड, ठीक-ठाक मात्रा में नमकीन और चाय ले आया था। बॉलकनी में ही हम-दोनों ने पूरा चट कर दिया। नाश्ता अच्छा-खासा हो गया था। अब कुछ घंटों के लिए फुर्सत थी। मगर मेरा मन, दिमाग फुरसत में नहीं थे। वह घबरा रहे थे। अपनी मौत को और करीब आता देख रहे थे।

यह व्याकुलता, घबराहट, तब एकदम सातवें आसमान पर पहुंच गई, जब करीब तीन घंटे बाद सुन्दर हिडिम्बा मैडम बेडरूम से बाहर आईं और सोफे में धंस गईं। तोंदियल उनके लिए ब्लैक कॉफी बनाने चला गया। उन्होंने मुझे बुलाकर पेपर लाने के लिए कहा। मैंने सोचा मौका बढ़िया है, निकल लूंगा इसी समय। अभी तक इन्होंने मेरी ओछी हरकत देखी नहीं है। मैं कुछ देर खड़ा रहा उनके करीब सिर झुकाए, तो वह बोलीं, 'गए नहीं, क्या हुआ?'

तो मैंने सहमते हुए कहा, 'वो.... वो दरवाजा।'

'दरवाजा क्या? खुला है।'

सुनकर मैं बोला, 'जी अच्छा।' और चला गया बाहर। मन में गोली होने यानि भाग लेने की योजना लिए।

समीना मैडम का उस समय का एकदम बदला रूप भी मेरे दिमाग में धंस चुका था। वह अपने अटैच बाथरूम में नहा-धोकर, ड्रॉअर से बाल सुखाकर निकलीं थीं। उन्होंने ट्राउजर और शर्ट पहन रखी थी। जिसमें ऊपर बटन लगे थे। जो सिर्फ़ दिखाने के थे। अंदर ब्रैल्को हुक्स थे, जिन्हें बस चिपका भर देना था। बेहद हल्के पीले रंग की यह ड्रेस उन पर खूब फब रही थी। अच्छी-खासी चुस्त यह ड्रेस उनके बदन से लगभग चिपकी हुई थी। उस समय उनका चेहरा कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे कोई नई-नवेली दुल्हन रात भर जागी है, सुहागरात का सुख भोग कर आई है। थकान, रात-भर पिया संग जगते रहने के कारण कुछ सूजी आँखें, लोगों से नजरें मिलाने को संकुचाती नहीं, बिंदास आंखें। कभी बड़ा मासूम, तो कभी बड़ा कामुक सा हो रहा था उनका चेहरा।

जानती हो समीना उन पर एक नज़र जो न चाहते हुए भी पड़ गई थी, उसने एकदम से मुझे बड़वापुर भाभी के सामने ले जा कर खड़ा कर दिया था। सुहागरात के बाद अगले दिन भाभी को ऐसे ही रूप में देखा। मगर थोड़ा फर्क था। भाभी के चेहरे पर रतजगे की थकान की गाढ़ी रेखाओं के साथ-साथ शर्म-संकोच, मासूमियत की रेखाएं ज़्यादा गाढ़ी थीं। किसी के सामने आने पर वह शर्म से मानों गड़ी जाती थीं।

मैं और मेरी बहनों ने जब ज़्यादा छेड़ा तो, उनकी आंखें भर आई थीं। तब अम्मा ने उन्हें अपनी बाहों में भर कर, प्यार से उनके माथे को चूमा, फिर प्यार भरी झिड़की हम सबको देते हुए कहा था, 'अच्छा, अब बहुत हो गया, काहे हमारी प्यारी-दुलारी पतोह का परेशान किए हो तुम सब।' तब बड़की दीदी भी उन्हीं संग हो ली थीं। हम सबने हंसते हुए अम्मा को भी चिढ़ाया था। मगर यहां मैडम के चेहरे पर बिंदासपना और कामुकता ज़्यादा टपक रही थी। जिसे देखकर किसी में भी कामुक विचार उफ़ान मार सकते थे। कम से कम मेरे मन में तो उस समय यही भाव आए ही थे। जब कि गर्दन पर साहब की छूरी बराबर गड़ी ही जा रही थी।

खैर समीना भागने का मेरा प्रयास जारी रहा, नीचे वॉचमैन से मैंने पेपर लेने के साथ ही बाहर दो मिनट के लिए जा कर कुछ सामान लाने की बात कही तो वह पूछताछ पर ऊतर आया। पहले कभी नहीं देखा, किसके यहां आए हो? जैसे प्रश्न दागने लगा तो मैं मन मसोस कर कन्नी काट कर चला आया ऊपर। मैडम के सामने टेबल पर पेपर रखा। वो टी.वी. पर न्यूज़ देखते हुए कॉफी सुड़क रही थीं। कोई बिजनेस चैनल चल रहा था। जो चार-पांच पेपर मैं नीचे से ले आया था, उनमें भी कई बिजनेस के ही लग रहे थे।

मैं फिर बॉलकनी में आया। तोंदियल बाई के साथ-साथ सफाई में लगा हुुआ था। बाई कब आई यह मैं जान नहीं पाया। मगर बेहद मज़बूत शरीर की बहुत फुर्तीली थी। बिजली की तेज़ी से काम निपटा रही थी। दोपहर होते-होते वह काम-धाम निपटा कर, खाना बना के चली गई। शाम को उसे फिर आना था। इस बीच मैडम फ़ोन पर बराबर बतियाती रहीं, फिर करीब तीन बजे तैयार होकर कहीं चली गईं। लेने के लिए एक शानदार गाड़ी आई थी। जिसका ड्राइवर साफ-सुथरी ड्रेस में था। मैडम ने बाहर जाते समय सफेद जींस और आर्मी कलर की टी-शर्ट पहन रखी थी। जाते समय उनका ब्रीफकेस कार में रखने के लिए मैं पीछे-पीछे गया था। उनके बेहद चुस्त कपड़ों से उनके अंदुरूनी उभार साफ-साफ पता चल रहे थे। उन्होंने ऐसे बेतुके ढंग से कपड़े पहने थे कि, देखने वाले को तुरंत मालूम हो रहा था कि, उन्होंने कोई अंदरूनी कपड़े नहीं पहने हैं।

समीना मैं पूरे विश्वास से कहता हूँ कि, तुम सामने होती तो मेरी यह बात सुनकर यही कहती कि, ' तुम सारे मर्दों का यही हाल है, औरत दिखी नहीं कि, लार टपकाने लगे। आँखों से तो उसके कपड़ों में घुस ही जाते हैं, ख्यालों में बार-बार उसकी इज्जत लूट के ही रहते हैं।' लेकिन नहीं समीना, उस समय मेरी नज़र जरूर पीछे से उनके कसे हुए बड़े नितंबों और आपस में टकराती मोटी जांघों पर थी, लेकिन मैं दिमाग में भागने की एक योजना को अंतिम रूप दे चुका था कि, जब मैडम के न रहने पर निकलूंगा बहाना बनाकर तब वॉचमैन जरूर जाने देगा। आखिर वो किससे पूछने की बात करेगा। मैं अपनी योजना की उधेड़-बुन लिए वापस ऊपर पहुंचा, कुछ देर बाद तोंदियल से कहा कि, 'कल से सिगरेट नहीं पी, सुर्ती भी तुम्हीं से ले कर खा रहा हूं। सोच रहा हूं जाकर ले आऊं।'

मगर तोंदियल ने फिर एक झटके में मेरी योजना पर पानी फेर दिया। उसने कहा, 'मैडम को फ़ोन कर के बता दो। वो वॉचमैन को बोलेंगी तभी जा पाओगे।'

मैंने खीझकर कहा कि, 'ऐसा तो मैंने कहीं और नहीं देखा।' तो वह बोला, 'यहां नौकरों पर इतनी पाबंदियां, इतने पहरे हैं, तभी तो इस बिल्डिंग में नौकर आज तक कोई कांड नहीं कर पाए। इस छह माले की बिल्डिंग में नीचे चार ऑफ़िस हैं, ऊपर बारह परिवार रहते हैं। सभी बेहद अमीर हैं, और रहस्यमयी भी। कौन क्या काम करता है किसी को पता नहीं। एक से एक महंगी गाड़ियों में बड़े संदिग्ध लोगों का आना-जाना लगा रहता हैं। हां यहां से दो नौकर जरूर रहस्यमय ढंग से गायब हो चुके हैं। कहां गए उनका कुछ पता नहीं चला। उनके परिवार वाले रो-पीट कर रह गए।'

तोंदियल की इस बात ने मुझे और भयभीत कर दिया। मैं हताश होने लगा, अंदर ही अंदर कुढ़ता, सहमता समय काटने लगा। मुझे लग रहा था कि, मैडम को सब पता चला गया है। वह साहब को बताने गई हैं, और साहब चुपचाप मरवाकर कहीं फिंकवा देंगे। किसी को कानों-कान खबर तक नहीं होगी। मेरे पीछे तो कोई रोने वाला भी नहीं है। मेरा अंतिम संस्कार तक नहीं होगा। आखिर करेगा भी तो कौन ? इतना बड़ा परिवार होकर भी नहीं है। किसी को पता ही नहीं है, कि मैं कहां हूं। सब तो मुझे न जाने कब का मरा समझ कर त्याग चुके हैं। मेरी कमीनी हरकतों ने मुझे सब की नज़रों से एकदम गिरा ही नहीं दिया, बल्कि उनमें अथाह घृणा ही घृणा भर दी है।

सच समीना मैं वास्तविक जीवन में तो थोड़े ही समय में विलेन-किंग बन ही गया था। जैसे पिक्चरों में विलेन सबकी घृणा का पात्र बनकर आखिर में बे-मौत मारा जाता है, मुझे भी अब अपना वही हश्र सामने नज़र आ रहा था।

तोंदियल के साथ खाना-वाना खाकर ड्रॉइंगरूम में ही हम-दोनों मैडम की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए सोफे पर पसर कर टी.वी. देख रहे थे। मेरा मन मौत की सजा पाए अपराधी सा हो गया था। जिसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। इसका फायदा तोंदियल उठा रहा था। वह अपनी पसंद का चैनल देख रहा था। उस विदेशी चैनल पर एक अंग्रेजी फ़िल्म चल रही थी, उस पर रह-रह कर कामुक दृश्य आते और तोंदियल गौर से देखता। यह तो तय था कि वह केवल फ़िल्म के दृश्य ही देख रहा था, उसके बोल मेरी तरह उसके भी पल्ले नहीं पड़ रहे थे।

हम-दोनों को अंग्रेजी आती ही कितनी थी? उसकी हरकत देख कर मन में खीझ पैदा हो रही थी। सोचा साला बुढ़ाने लगा है, मटके जैसा पेट लिए घूमता है। मगर औरतों का पक्का रसिया है। जैसे दीया बुझने से पहले ज़्यादा भभकता है, वही हाल इसका भी हो रहा है। खीझ जब ज़्यादा बढ़ गई तो मैंने उससे पूछ ही लिया कि, 'पिक्चर का एक भी डॉयलॉग समझ रहे हो क्या?'

मेरी बात सुन कर वह क्षण भर को पलटा, मुझ पर एक नज़र डाली और फिर देखने लगा टी.वी.। मैं उत्तर की प्रतीक्षा में था।

तभी वह बोला 'तुम समझ रहे हो क्या?'

'नहीं मैं तो नहीं समझ रहा। तुम अपनी बताओ।'

तो वह बोला 'डॉयलाग समझने की जरूरत ही क्या है? जो देखना है, वह दिख रहा है, और अच्छी तरह समझ में भी आ रहा है बस।'

कुछ क्षण चुप रह कर मैंने कहा, 'घर पर होते, तो लोग कहते राम-नाम पर ध्यान देने की उमर हो रही है, ई सब का देख रहे हो।'

मेरी इस बात पर वह थोड़ा तमक कर बोला, 'अरे! भाई घर पर होता तो यह सब देखता ही काहे। नौकरी के चक्कर में बरसों से इसी शहर में कट रही है ज़िंदगी। कमाई इतनी होती नहीं, कि परिवार साथ रख सकूं। बीवी-बच्चों से बिना मिले ही साल-साल भर बीत जाते हैं। आखिर हम भी इंसान हैं, हमारा भी मन करता है बीवी के साथ समय बिताने का। मगर पेट की आग, बच्चों की ज़िम्मेदारी के आगे सारी इच्छा मारनी पड़ती है। मन पत्थर का करना पड़ता है।

वहां साला इतना कुछ है ही नहीं कि, घर गृहस्थी चल सके। यहां कमाई न करूं तो बच्चों को पढ़ा नहीं सकता। अरे! अपनी ज़िंदगी में तो कुछ कर नहीं पाया या करने लायक ही नहीं हूं। कम से कम बच्चे तो पढ़ लें, ताकि उन्हें मेरी तरह धक्के न खाना पड़े। यही सोच कर पड़ा हूं यहां। रही बात यह सब देखने की तो भाई मर्द हूं। कौन मर्द होगा जो यह सब नहीं देखता होगा या जिसके मन में औरत पाने की इच्छा न होती होगी। फिर हम जैसे लोग तो उन अभागों में से हैं, जिनकी यह इच्छा मौत तक उनका साथ निभाती है, क्योंकि यह कभी पूरी ही नहीं होती। और जब पूरी नहीं होती तो चाहत बनी ही रहती है।'

समीना मेरा मन उखड़ा हुआ तो था ही, मैंने उसे और छेड़ते हुए कहा, 

'मगर तुम्हारी यह इच्छा कैसे अधूरी रहेगी भाई। तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं। बिना पास जाए तो बच्चे नहीं हुए।'

मेरी इस बात पर तोंदियल एकदम बिफर पड़ा। बोला, 'बडे़ नासमझ हो भाई। क्या फालतू बातें करते हो। बीवी के पास मैं ही जाता हूं, बच्चे मैंने ही पैदा किए हैं। किसी और ने नहीं। अरे! मैं तो बात कर रहा था बीवी के साथ निश्चिन्त होकर, बेधड़क होकर समय बिताने की। इन पिक्चरों में, यहां इन शहरों में बड़े-बड़े खाए-पीए, अघाए लोग जिस तरह बे-अंदाज होके साथ मिलते हैं, उस तरह मिलने का मौका हमें कभी नसीब होता है क्या?

जब-तक यहां रहते हैं, तब-तक तो किसी तरह से मिलना छोड़ो सोचने का भी मौका नहीं होता। और घर पर वहां न इतना बड़ा मकान है, और न ही ऐसा माहौल कि, बीवी के साथ अकेले निश्चिंत होकर समय बिता सको। पहुँचो तो बच्चे घेरे रहते हैं। छोटका लड़का जब-तक मैं रहता हूं, तब-तक वह रात में भी चिपका रहता है। फिर होता क्या है कि, सबके सोने का इंतजार करो।

रात एक-डेढ़ बजे तक तो इस इंतजार में ही नींद खराब होती है। फिर बच्चे को धीरे से अलग करो कि जग न जाए। कहीं कोई बत्ती न जल रही हो, कोई जाग न जाए। किसी तरह की कोई आवाज़ न निकलने पाए। इतनी बातों का बोझ लेकर पांच-छह मिनट घुचुर-पुचुर करके फिर मुंह दाब के सो जाओ। ये मिलना कोई मिलना है।

बीस साल हो रहे हैं शादी के, चार बच्चे हैं, लेकिन आज तक हम-दोनों ने रोशनी में पूरा नहीं देखा है एक दूसरे को। ये नहीं की हम चाहते नहीं। घर का माहौल, हालात सब ऐसे हैं कि घुट-घुट कर कट गई इतनी ज़िंदगी। और अब इस उमर में आने के बाद तो और भी खत्म ही है सब। और तुम बताओ, तुम कितनी बार खुल के मिले हो बीवी से। कल जिस तरह मैडम के कपड़े हटा कर उनको देखा, उससे तो लगता नहीं कि, तुम्हारी हालत कहीं मुझसे अलग है। तुम्हारी नज़रें बताती हैं कि, तुम कहीं मुझसे ज़्यादा बद्द्तर हालत में हो।'

समीना मैडम वाली बात सुनते ही मानो मेरे पूरे शरीर में हज़ार बोल्ट का करंट दौड़ गया हो। मैं हक-बकाया सा बोला, 'क्या अनाप-सनाप बोले जा रहे हो। मैंने क्या देखा मैडम को। ऐसा किया होता तो वह मुझे छोड़तीं सुबह। तुम्हीं ने बताया था, यहां कैमरे लगे हुए हैं।' मैं आवेश में कुछ ज़्यादा तेज़ बोल गया था। मगर तोंदियल एकदम ठंडा रहा और बोला, 'भाव मत खाओ। मैडम अभी तक शायद इसलिए नहीं बोलीं क्योंकि हो सकता है कि, अभी तक उन्होंने कैमरे की रिकॉर्डिंग देखी ही न हो। जब उनको जरूरत महसूस होगी तब देखेंगी। कभी-कभी हफ्तों नहीं देखतीं। भाग्यशाली हो और प्रार्थना करो कि कल की रिकॉर्डिंग वो कभी न देखें। देखो उमर और अनुभव में तुमसे बहुत आगे हूं। मेरी बात पर नाराज होने की बजाए ध्यान दो। समझ के काम करो। नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे। अरे हम भी बीवी-बच्चों से दूर रहते हैं, लेकिन कंट्रोल करना पड़ता है भाई।'

तोंदियल को जब मैंने कई बातें छिपाते हुए बताया कि, अभी तो मैं छड़ा हूं, अविवाहित हूँ तो उसने एक नज़र मुझ पर डाली और टी.वी. देखने लगा। करीब दो मिनट का, एक गरमा-गरम दृश्य जब देख लिया, तब उसने जेब से चुनौटी निकाल कर चुटकी भर तम्बाकू मुंह में दबाई और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला, 'लो खाओ। कल की उल्टी की बदबू दिमाग में ऐसी घुसी है कि, अभी तक गई नहीं। तम्बाकू सूंघ कर दर्जनों बार छींक चुका हूं, तब भी नहीं। ऐसे गाढ़े व़क्त में यह बड़ा काम आती है भाई।' मैंने भी चुटकी भर सुर्ती होटों के पीछे दबाई और तोंदियल को टी.वी. पर अगले गरमा-गर्म दृश्य के लिए इंतजार करता हुआ छोड़ कर बॉलकनी में आ गया।