भाग - 9
मेरे यह कहते ही उन्होंने क्षण-भर को मुझे देखकर कहा, 'सुबह आ जाएंगे। तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है।'
उनकी इस बात ने मेरी सारी आशाओं को पैदा होते ही खत्म कर दिया।
इस बीच कोई कॉल आ गई और मैडम फ़ोन पर लग गईं। सोहन मुझे लेकर लॉबी में आ गया। मुझे समझाते हुए बोला, 'घबड़ाने की जरूरत नहीं, मैडम बहुत अच्छी हैं। वो काम करने वालों को अपने परिवार के सदस्य की तरह रखती हैं। उन्होंने कह दिया तो सामान सुबह आ जाएगा।'
मैंने कहा, 'लेकिन मैं इस समय क्या पहनूंगा ?'
‘अगर तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मेरी एक लुंगी साफ रखी है, तुम आज काम चला सकते हो। खाना-पीना तो सब साथ है ही ।'
मतलब साफ था कि, मेरे निकल भागने के सारे रास्ते साहब और इस हिडिम्बा, उन्हें मैं सुंदर हिडिम्बा कहूंगा, ने बंद कर दिए थे। अंदर ही अंदर खीझ कर मैंने पूछा, 'और सोएंगे कहां?' तो सोहन ने कहा, 'बॉलकनी इतनी बड़ी है कि, उसमें चार लोग सो सकते हैं। वहीं पर सोना।' मैं कुढ़ कर रह गया और कोई रास्ता भी नहीं था। तोंदियल मुझे लेकर बॉलकनी में पहुंचा, बॉलकनी वाकई बड़ी थी। लेकिन इतनी नहीं कि वहां चार लोग सो सकें। मैंने तोंदियल से कहा तो वह बड़ी ठंडी आवाज में बोला, 'ये मुंबई की बॉलकनी है, अपने यूपी की नहीं । मैंने तो कम कहा था, इसमें छह लोग सो सकते हैं।'
इसी के साथ तोंदियल ने क्षण-भर में बता दिया कि, वह यू पी में सोनभद्र के पास एक स्थान दुध्धी का रहने वाला है। सुन्दर हिडिम्बा के यहां आठ साल से काम कर रहा है।
बॉलकनी के एक तरफ के आधे हिस्से की रेलिंग ऊपर छत तक मिली थी। वहीं लकड़ी की छोटी-छोटी दो अलमारियां थीं। उन्हीं में से एक को खोलकर उसने एक तौलिया, एक लुंगी निकाल कर मुझे पकड़ा दी और खुद के लिए एक पाजामा-कुर्ता निकाल लिया। फिर मुझे बॉलकनी में ही रुकने को कह कर लॉबी से लगे एक टॉयलेट में चला गया। और जब लौटा तो नहा-धोकर, कपड़े चेंज करके आया। आते ही मुझे भी भेज दिया। मैं भी नहा-धोकर आ गया। बड़ी राहत महसूस हो रही थी। दिन भर की उमस भरी चिप-चिपी गर्मी से कुछ राहत मिली तो भूख सताने लगी थी।
बॉलकनी में तोंदियल ने दो दरियाँ बिछा दी थीं। उन पर साफ़-सुथरा चादर और तकिया भी था। तोंदियल को शांत बैठा देखकर मैंने सोचा इससे पूछूं कि, खाने-पीने का भी कुछ है कि, खाली नहा कर बैठ गया। बड़वापुर में होता, तो ऐसे में बाबू जी बोलते, 'खाय कै ठिकान नाहीं, नहाए तड़कै।' मैंने मुंह खोला ही था कि, अंदर से मैडम ने सोहन तोंदियल को आवाज़ दी। वह आवाज़ सुनते ही बंदरों की तरह फुर्ती से उठकर चला गया, और मैं बंदरों सा मुंह बाए उसे देखता रहा। मगर कुछ ही सेकेण्ड में तोंदियल ने मुझे आवाज़ दी।
मैं पहुंचा तो देखा मैडम भी कपड़े चेंज कर सोफे पर दो-तीन कुशन के सहारे पसरी हुई थीं। गहरे जामुनीं रंग का एक गाउन पहन रखा था। जो सिल्क का था और खूब ढीली-ढीली छोटी-छोटी बाहें थीं। इतनी छोटी कि उसे स्लीव-लेस ही कहना ठीक है।
गाउन उनके घुटनों के कुछ इंच ऊपर तक ही था और बीच से दो-तीन इंच तक अलग हटा हुआ था। वहां से लेकर, नीचे तक उनकी बेहद गोरी, मांसल टांगें चमक सी पैदा कर रही थीं। तोंदियल की तरह मैं भी सिर नीचे किए खड़ा था। मगर लाख कोशिशों के बाद भी मेरी आंखें रह-रह कर उनकी चमक बिखेरती टांगों पर फिसल ही जातीं। मैं अपने को बड़ी सांसत में महसूस कर रहा था। वहां से जल्दी से जल्दी हटने की सोच रहा था कि, कहीं वह मुझे अपने बदन को देखते हुए न देख लें।
समीना अगर तुम सामने होती तो यह सुन कर तुरंत यही कहती कि, 'तुम जैसे मर्द होते ही ऐसे हैं, औरत देखी नहीं कि, लबर-लबर करने लगे।' और तब मैं कहता, 'जरा अपनी भी कहो, औरतें कभी ऐसा नहीं करतीं क्या ? या ये मर्द ही साले उनका बेड़ा गर्क करते हैं।' खैर सुन्दर हिडिम्बा ने मुझे फिर पहले की ही तरह झटका दिया।
अमूमन मुंबई वालों का जैसा व्यवहार होता है, अपने नौकरों के प्रति, उससे एकदम उलट उन्होंने करीब-करीब आत्मीयता दिखाते हुए पूछा कि, 'किचेन में सारा सामान है, तुम लोग खाना बनाना चाहोगे या बाहर से मंगवा दूं।' उनका यह कहना था कि, मैंने सेकेंड भर की भी देरी किए बिना कहा, 'जी मंगवा दीजिए।'
मुझे डर था कि, कहीं तोंदियल यह न कह दे कि बनाएंगे। इसके चक्कर में मुझे भी बेकार जूझना पड़ेगा। सुबह से ऐसे ही काम कर-कर के जान निकल रही है। मेरी बात सुनते ही उन्होंने अपना मोबाइल उठाया और ऑर्डर कर दिया। अमरीकन शैली की अंग्रेजी में कही गई उनकी बातें मेरे पल्ले नहीं पड़ीं। फिर उनका इशारा समझकर हम दोनों बॉलकनी में आ गए।
यहीं मुझे यह पता चला कि, तोंदियल भी यही चाहता था। और मेरे काम से खुश था। फिर हम-दोनों लेट कर इधर-उधर की बातें बतियाते रहे। करीब पौन घंटे बाद कॉलबेल बजी। तोंदियल बिना कुछ कहे उठ कर चला गया दरवाजा खोलने। करीब दो मिनट बाद उसने मुझे आवाज़ दी तो मैं भी अंदर पहुंच कर डाइनिंग टेबिल पर खाना लगाने में उसकी मदद करने लगा।
प्लेटों में दो रोस्टेड चिकन, बड़ी प्लेट में ढेर सारा फ्राइड राइस, उसी तरह सीख कबाब देख कर मैंने सोचा तीनों के लिए काफी हैं। मेरा मुंह बार-बार पानी से भर जा रहा था। भूख तो तेज लगी थी ही, ऐसा स्वादिष्ट खाना देख कर पेट एकदम खौलने लगा। मैडम खाना खाने के लिए जल्दी बोलें यही सोचने लगा। मन ही मन उनके गुणगान किए जा रहा था कि, कितनी भली महिला हैं। इस कलियुग में वो भी इस माया-नगरी में ऐसी दूसरी महिला कहां मिलेगी?
समीना तभी एक और काम हुआ, जिससे मेरा मन बल्लियों उछलने लगा।
तोंदियल ने एक बहुत ही महंगी शराब की बोतल लाकर टेबिल पर रख दी। साथ में क्रिस्टल ग्लास की गिलास। पानी की बेहद चिल्ड बोतलें। आइस क्यूब्स भी। यानी वह सब-कुछ जो एक शानदार डिनर के लिए हो सकता है। डिनर जब लग गया तो तोंदियल ने मैडम को बुलाया। मेरे मन में लपालप बत्तियां जलने लगीं कि, आज जीवन में इतने शानदार टेबिल, बर्तनों और एक अपनी तरह की बेहद खूबसूरत, बेहद बिंदास महिला के साथ बैठकर खाना खाऊंगा। बिजली की तेजी से एक और बात मन में कौंध कर गुम हो गई कि, साहब के बजाय यह मैडम ही मुझे नौकरी पर रख लें तो अच्छा है।
इस बीच मैडम एक हाथ में ज़ाम लिए, आकर कुर्सी पर बैठ गईं। कुर्सी इस ढंग से तिरछी कर ली कि, वहां से वह टी.वी. भी देख सकें। हाथ में ज़ाम और अच्छी-खासी सुर्ख हो चुकीं उनकी आँखों से साफ़ था कि, वो पिछले आधे-पौन घंटे से पी रही थीं, और अब उनका गाउन, कुछ ज़्यादा ही बेपरवाह हो चुका था।
उनके बैठ जाने पर तोंदियल ने डाइनिंग टेबिल के ठीक ऊपर लगी, फैंसी लाइट को ऑन कर दिया। उसमें कई रंग के कम रोशनी के बल्ब थे, जिनकी लाइट टेबिल पर ही पड़ रही थी। कमरे की बाकी सारी लाइट्स ऑफ कर दीं । हाँ फर्श से थोड़ा ऊपर लगीं, कुछ लाइट्स जल रही थीं। मैंने कैंडिल लाइट डिनर के बारे में सुना था, मगर टेबिल लाइट डिनर देख रहा था, और करने की खुशी भी महसूस करने वाला था।
मन व्याकुल हो रहा था कि मैडम शुरू करें, हम-लोगों को भी खाने को कहें। तभी उन्होंने हल्के से ''हूं'' कहा, मैं कुछ समझूं कि इसके पहले ही तोंदियल किचेन से एक बड़ी पॉलिथीन लेकर बॉलकनी की ओर चल दिया। जाते-जाते मुझे भी इशारे से बुला लिया।
मैं पहुंचा तो वह दरी पर बैठ चुका था। मैं भी बैठ गया। तोंदियल ने पॉलिथीन से दो डिब्बे निकाल कर उन्हें खोला, जिसे देखते ही मैं आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरा, कहीं खजूर या किसी पेड़ में अटका नहीं। मेरे चिथड़े बदन की तरह मेरे सारे सपने भी टूट कर इधर-उधर बिखर गए।