भाग - 6
समीना फिर वह दिन भी आया, जब मेरा मन सेठ के प्रति घृणा से भर गया, और मैं तन्खवाह मिलते ही रात में ही अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर रफूचक्कर हो लिया। इतनी घृणा इसलिए हुई कि, जिन मजदूरों के साथ मैंने खाया-पिया था, उनमें से एक किसी अनजान-सी बीमारी के कारण देखते-देखते तीन-चार दिन में चल बसा। बाकी मजदूरों के पास उसके संस्कार के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, तो उन लोगों ने सेठ से उधार मांगा, मगर उसने साफ मना कर दिया। ज़्यादा कहने पर फटकार भी दिया।
यह देखकर मैंने अपने पास से जितना हो सका, उतना पैसा उन सबको दिया और संस्कार के कामों में भी मदद की। इससे सेठ खफा हुआ। दो दिन बाद ताना मारते हुए उस दिन की पगार काटने के लिए कह दिया। बस इससे मेरा चित्त उससे एकदम फट गया, और मैं चल दिया उसे छोड़कर।
इधर-उधर भटकता, ठोकरें खाता, अंततः वार्सोवा पहुंचा। यहां आ कर लगा जैसे मुंबई से अलग किसी दूसरे शहर में आ गया हूं। यहां जल्दी ही एक रेस्टोरेंट में काम संभाला मगर कुछ ही दिन में भगा दिया गया। फिर एक ट्रक पर क्लीनरी करने लगा। करीब दो महीने मैं सोने का वक़्त मिलने पर इसी ट्रक पर सोया। जहां ट्रक खड़ी होती वहीं अन्य लोगों के साथ खाना बनाता, खाता। कुछ ही दिन में मेरा शरीर आधा रह गया। तकलीफों से घबराकर यह नौकरी भी छोड़कर निकल लिया। क्योंकि मुझे लगा कि, यह ट्रक तो मुझे मेरे सपने से बहुत दूर लिए जा रहा है ।
इसलिए ऐसी नौकरी खोजने लगा जिससे मुझे मुम्बई से बाहर न जाना पड़े। कई जगह भटकने के बाद एक जगह सिक्योरिटी गार्ड बन गया। चौदह-पंद्रह घंटे की ड्यूटी के बाद उस कोठी के सर्वेंट क्वार्टर में दो और नौकरों के साथ सो जाता। मालिक की नजर में हम गार्डों और नौकरों की अहमियत एक कुत्ते से ज़्यादा नहीं थी। यहां महीना भर भी नहीं बीता था कि सेठ के यहाँ जैसी एक घटना हो गई । एक नौकर दवा न हो पाने के कारण पीलिया के चलते मर गया। उसका अंतिम संस्कार जिस ढंग से हुआ उससे मेरा मन एकदम रो पड़ा।
उसकी अर्थी उठने वाली थी, मालिक का इंतजार हो रहा था, कि वह बाहर आएं तो लोग उसे ले जाएं। लंबे इंतजार के बाद वह बाहर आये और फिर हम-सब पर जैसे जूता मारते हुए बोले, 'इसे ले जाओ भाई, अभी तक यहां क्यों बने हुए हो।' अर्थी पर एक उड़ती नजर भी नहीं डाली। फिर कुछ नोट पास खड़े नौकर के हाथ में पकड़ाते हुए बोले, 'जल्दी निपटाना सब, और यहां भी कोई रहना।' वह जिस तेजी से अंदर से आये थे, उसी तेजी से गाड़ी में बैठ कर चले गए। फिर सबने मिलकर, मैं सबसे नया था तो मुझे ड्यूटी पर रहने को कहा और उस अभागे नौकर का शरीर लेकर चले गए अंतिम संस्कार के लिए।
बाद में पता चला कि, उस अभागे का दुनिया में कोई नहीं था। अपनी बीवी-बच्चे के साथ यहां चार-पांच साल पहले कमाने-खाने आया था। मगर दो साल बाद ही बीवी, उसी के साथी के साथ अपने दोनों बच्चों को लेकर भाग गई। बेचारे ने अपनी विश्वासघाती पत्नी को बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिली। तब से वह हताश-निराश जिंदगी काटते-काटते असमय ही लावारिस सा चल बसा था।
समीना उन नौकरों की विवशता बेचारगी देखकर मैं खुद को संभाल नहीं पाया। उन सबके निकलते ही मैं बहुत भावुक हो गया, इतना कि आँखों में आंसू आ गए। तभी मैंने यह तय कर लिया कि, लौट जाऊंगा अपने बड़वापुर। नहीं बनना मुझे विलेन-किंग।
लेकिन जिस तेजी से मन में यह बात उठी उसी तेजी से खत्म भी हो गई यह सोचते ही कि, आखिर किस मुंह से जाऊंगा बड़वापुर। धोखाधड़ी, चोरी, बदतमीजी सब तो करके आया हूं। वह भी अपने ही परिवार से। मुझे अब खुद पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। नफरत हो रही थी।
यहां भी जल्दी ही नौकरी करते हुए तीन महीने बीत गए। मगर मैं यह नहीं जान पाया कि, आखिर सेठ कितने काम करता है, और क्या-क्या करता है। बाकी नौकरों से पूछ-ताछ करता तो सब बड़ा घुमा-फिराकर थोड़ा बहुत बताते और साथ यह जरूर जोड़ते कि, 'भइया क्या करना है अपने को। पगार मिल रही है और सिर छिपाने की जगह भी।' यह सुनने के बाद मेरे पास चुप हो जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता था। तीन महीना पूरा हुए एक हफ्ता भी न बीता था कि, एक दिन सुबह दस बजे साहब बाहर आये और मुझे अपने साथ गाड़ी में बैठाकर चल दिए।
न उन्होंने बताया और न ही मेरी पूछने की हिम्मत हुई कि, कहां चल रहे हैं? उस तरह की लंबी और बड़ी गाड़ी में मैं पहली बार बैठा था। वह ऑडी की एस.यू.वी. थी। तब आज की तरह आम नहीं थी। मैं ड्राइवर की बगल की सीट पर बैठा था। साहब पीछे अपने शैडो के साथ। जब गाड़ी रुकी तो मैंने अपने को उफान मारती विशालकाय लहरों वाले समुद्र के तट पर पाया। वहां तीन गाड़ियां पहले से खड़ी थीं। छह-सात लोग भी आसपास ही खड़े थे। साहब के गाड़ी से उतरते ही सब ने उन्हें घेर लिया और हाथ मिलाया। इनमें से तीन महिलाएं भी थीं। सब अंग्रेज़ी में बतिया रहे थे। जिसका मतलब मैं समझ ले रहा था। वो मेरे ही बारे में बात कर रहे थे।
साहब के कहने पर वह सब बार-बार मुझे ऊपर से नीचे तक देख रहे थे। फिर जल्दी ही गाड़ियों के आसपास तीन-चार फोल्डिंग कुर्सियां ड्राइवरों ने निकाल कर रख दीं। साहब और कई लोग साथ बैठ गए। फिर देखते-देखते कई कैमरे स्टैंड पर लग गए और जो तीन महिलाएं थीं, उन के सामने कई बॉक्स रख दिए गए थे। उन तीन महिलाओं में से दो काफी लम्बी-चौड़ी भारी शरीर की थीं, तीसरी महिला छरहरे बदन की, और सबसे लंबी थी। आदमियों में वहां सबसे लंबा मैं था और महिलाओं में वह, बल्कि कई पुरुष भी उससे छोटे थे। फिर जल्दी ही वह एक गाड़ी की आड़ में चली गई। बाकी दोनों महिलाएं भी गईं। इसी बीच एक आदमी एक एक्स.एल. साइज स्ट्रॉली बैग वहां रख आया। तीनों महिलाओं ने बेहद चुस्त जींस और टी-शर्ट पहन रखी थी। एक की टी-शर्ट स्लीव-लेस थी। जिससे उसके भारी-भरकम शरीर की ही तरह उसके भारी स्तन झांक रहे थे।
समीना यह सब देखकर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा था। सारा ताम-झाम देख कर मैं समझ गया कि साहब फ़िल्म निर्माण से ही जुड़े व्यक्ति हैं । अब मैं किसी दिन इनसे निवेदन करूंगा कि मुझे कोई छोटा-मोटा ही रोल दे दें या दिला दें । मैं खुशी के मारे एकदम पगला उठा था कि, जिसे ढूढ़ रहा था वह मिल गया। साथ में कोफ्त यह भी हुई कि, इतने दिनों से साहब के यहां काम कर रहा हूं, और साहब को जान भी नहीं पाया। जबकि आए दिन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग आते रहते हैं । मुझे लगा कि, यही समुद्र तट वह स्थान होगा, जहां से मेरे विलेन-किंग बनने की शुरुआत होगी।
इसी समय अनायास ही मुझे ना जाने क्यों दादी की अक्सर कही जाने वाली यह कहावत याद आ गई कि, 'कोखी मां बच्चा गऊंवाभर ढिंढोरा।' मैं उस खिली धूप में भी सपने देख रहा था। मन में समुद्र की लहरों की तरह सपने उफान मार रहे थे। मैं मंजिल से अपने को बस उतना ही दूर पा रहा था, जितनी दूर उस समय हम लोगों से समुद्र की लहरें थीं। जो हम-लोगों से मात्र पचास कदम पहले तक आ-आ कर तट को बार-बार गीला कर रही थीं।
तट पर हम लोग जहां थे, वहां से लगभग दो सौ मीटर पहले काफी भीड़ और चहल-पहल थी। साहब ने काम में कहीं कोई बाधा न आए, इसलिए एकदम दूर भीड़ से अलग अपना ताम-झाम फैलाया था। उत्साह और जोश में मैंने अपने साथ आए ड्राइवर से पूछ लिया कि यह जगह कौन सी है। तो उसने मुझ पर ऐसे नज़र डाली मानो मैं कोई अजूबा हूं। बोला, 'अरे! चौपाटी वीच नहीं जानते।'
वह कुछ और बोलता कि, तभी जो व्यक्ति स्ट्रॉली बैग ले गया था, वह लगभग दौड़ता हुआ आया और मुझे साहब के पास बुला ले गया।
मेरे पहुंचते ही उन्होंने कहा, 'सुनो तुम्हारी कुछ फोटो खींची जाएगी। मगर इन कपड़ों में नहीं, ये तुम्हें तैयार कर देंगे।'
साहब की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि, पास खड़ा एक आदमी बोला, 'आओ।' मुझे लेकर वह उसी गाड़ी के पीछे पहुंचा जहां वह महिलाएं थीं, स्ट्रॉली बैग था और फोल्डिंग कुर्सियां थीं। जिनमें से एक पर वह छरहरी महिला बैठी थी। मगर मैं उसका एकदम बदला रूप देख कर दंग रह गया। वह एक मछुवारिन की वेश-भूषा में थी। कछाड़ मारकर घुटने से ऊपर धोती पहनी हुई थी। जिस पर नीले, पीले, लाल रंग की प्रिंट थी।