भाग - 4
समीना तुम मुझे हमेशा नहीं, बल्कि शुरू के दो-तीन सालों तक आए दिन ऐड़ा-टट्टू कहा करती थी। लेकिन नहीं-नहीं समीना, मैं हर वक़्त हर क्षण अपने सपने को पूरा करने के लिए बेचैन रहता था। अब-तक मैंने जितने काम किए। जितने तरह के काम किए वह सब केवल अपने सपने को पूरा करने के लिए रास्ता बना सकूं, सिर्फ़ इसलिए किए।
बाबूराम द्वारा ठगा जा रहा हूं, यह जानते हुए भी मैं अगले दिन सेठ के पास पहुंचा। क्योंकि मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं था। वहां पहुंचने पर अपने को और ठगा हुआ पाया। जानती हो मुझको जो काम दिया गया था उसमें गोदाम की चौकीदारी भी शामिल थी। बड़ी धूर्तता के साथ यह जिम्मेदारी दी गई थी। गेट से लगा एक कमरा था। जिसमें कभी पुताई नहीं कराई गई थी। स्लेटी रंग की दिवार, धूल-मिट्टी, गंदगी से चिकट काली हो रही थी। छत के बीचो-बीच एक बल्ब लंबे तार के साथ लटका हुआ था।
उससे रोशनी इतनी होती थी कि, बस किसी तरह सब-कुछ दिख जाता था। पीली मटमैली सी रोशनी। बिल्कुल वैसी, जैसी हमारे बड़वापुर में बेहद कम वोल्टेज के कारण होती थी। बात यहीं तक सीमित नहीं थी समीना, बाथरूम जाने के लिए सामने वाले दूसरे गोदाम तक जाना पड़ता था। जो करीब-करीब सौ कदम दूर था। जिसके बरामदे में इसी सेठ के यहां मजदूरी करने वाले कई मजदूर बनाते-खाते, सोते थे। वह सभी उड़ीसा के लोग थे।
दिनभर अंदर ही अंदर कुढ़ता बाबूराम को गरियाता काम करता रहा। पल भर को चैन नहीं था। मिनी ट्रकों में सामान आ-जा रहा था। सेठ दिनभर लापता था। शाम सात बजे आया, सारा रजिस्टर देखा, और जाते-जाते बोला कि, 'रात में भी कुछ ट्रकें आ सकती हैं।' मतलब की हमारी ड्यूटी चौबीस घंटे की थी। इस तरह सेठ मुझसे चौकीदारी का भी काम बिना कहे ही ले रहा था। जैसे उन मजदूरों से उस गोदाम का। जाते समय सेठ सिर्फ इतना बोला, 'काम अच्छा किया। रात में ध्यान रखना।' यह तारीफ मुझे उसकी एक और धूर्तता ही लगी।
बड़वापुर में जो धंधे में लगा रहता था, भले ही बेमन से, उसका यहां फायदा जरूर मिला था। सेठ चला गया लेकिन एक बार भी यह नहीं पूछा कि, क्या खाओगे, कहां सोओगे। न खाने को कुछ है, न कोई बिस्तर। मैं दिनभर का थका एकदम परेशान हो गया। मुंह सूख रहा था। पीने को पानी नहीं था और ना ही कोई बर्तन। वहीं पड़ी टुटही कुर्सी पर बैठा सोचता रहा कि क्या करूँ। मगर थोड़ी ही देर में भूख-प्यास ने बेचैन कर दिया तो बाहर सड़क पर आया। मगर दूर-दूर तक खाने-पीने को कुछ भी नहीं था।
अंततः मैं उन मजदूरों के पास पहुंचा। उनसे पूछा कि, आस-पास कहीं कोई होटल है कि नहीं, खाने-पीने का सामान मिलता है कि नहीं, कहीं खटिया और बिस्तर वगैरह मिलेगा कि नहीं। मगर उन सबने जो बताया उससे मैं बड़ा निराश हो गया। उन-सब ने जो जगह बताई वह काफी दूर थी। दूसरे जाने का कोई साधन नहीं था, तीसरे जाने के बाद रास्ता भूल जाने का डर अलग था। और इन सबसे पहले यह कि, थकान से पस्त मैं कहीं और जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
वह सारे मजदूर उस समय खाना बना रहे थे। उनकी रोटियां देख कर मेरी भूख आपा खो रही थी। मुंह में पानी भर रहा था। जबान अंदर ही अंदर फड़क रही थी। मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा वहीं कुछ देर खड़ा रहा तो उन मजदूरों में से एक, जो करीब पचास के आस-पास रहा होगा, ने पूछा क्या सेठ के यहां काम पर आया हूं। तो मैंने सिलसिलेवार सारी बातें बता दीं । हां खाने और बिस्तर के बारे में बड़ा जोर देकर कहा।
असल में समीना मैं भूख-प्यास से इतना व्याकुल था, कि मैं चाहता था कि वह यह बोल दे कि, आज यहीं हमारे साथ खा लो और बदले में वह मुझसे पैसे ले ले। भूख-प्यास की आग कितनी बड़ी होती है समीना इसका अहसास मुझे उसी क्षण हुआ।
मैं बातों को लंबा खींचता रहा कि, वह मेरे मन की बात बोल दे। लेकिन वह नहीं बोला, तो मैंने आखिरी दांव चलते हुए कहा, 'इधर नया आया हूं, इसलिए अब कहीं नहीं जाऊंगा। रास्ता भूलने का डर है। लगता है आज किस्मत में बिना बिस्तर के भूखे-प्यासे ही सोना लिखा है। चलता हूं।' अनमना-सा मैंने फिर इधर-उधर देखा, इंतजार किया कि, कुछ जवाब मिले, लेकिन निराश हुआ और अंततः चल दिया। मगर प्यास ने ऐसा जोर मारा कि, मानो पांव मेरे स्वतः ही वापस मुड़ गए। फिर अनायास ही मुंह से निकल गया कि, 'क्या थोड़ा पानी पीने को मिल जाएगा?' समीना मेरे इतना कहने के बाद जो प्रतिक्रिया उस मजदूर और अन्य ने दी वह एकदम दूसरी थी। मैं चौंक गया।
वह मजदूर लपक कर एक जग में पानी और गिलास लेकर आया। उसके साथ उसके और भी एक दो साथी लपके थे। बड़े प्यार से उसने पानी दिया, और मैं तीन गिलास पी गया। मगर खाली पेट गले के नीचे पानी भी नहीं उतर रहा था। खैर जब पानी पी लिया तो वह मजदूर बोला, 'हम आपसे पहले ही कहने वाले थे, मगर सोचा हम मजदूरों के साथ पता नहीं आप खाएंगे-पिएंगे भी कि नहीं।'
मैं छूटते ही बोला, 'नहीं ऐसी बात नहीं है, खाने-पीने में क्या। हम सब इंसान ही तो हैं। फिर मैं भी काम ही करने तो आया हूं।'
इसके बाद फिर और बातें होतीं रहीं। तब-तक खाना बन गया और मैंने उन सब के साथ खाना खाया। इस दौरान कौन कहां का रहने वाला है यह सारी बातें हुईं। मैंने बडे़ संकोच के साथ पैसा देने की बात कही, तो उन सबने मना कर दिया। चलते समय प्लास्टिक की एक बोतल में पानी ले आया। बिस्तर के लिए उन सबने चादर दे दी। मैं जब-तक कमरे पर लौटा तब-तक मेरे शरीर में जान आ चुकी थी। फर्श पर खाली चादर बिछा कर सोना बड़ा अखर रहा था। तो मैं फिर उठ बैठा। इधर-उधर देखता रहा मगर कुछ कबाड़ के अलावा कुछ नहीं था। मैंने तौलिया निकाल लिया था। बैग को तकिए की तरह इस्तेमाल किया और सो गया। समीना थकान और नींद के कारण उस पथरीली जमीन पर पतली-सी वह चादर किसी गुलगुले गद्दे से कम नहीं लगी। लेकिन ठीक से नहीं सो सका। रातभर में तीन ट्रक आए। सामान अनलोड हुआ। सब रजिस्टर पर चढ़ाया तब सोया। समीना माया-नगरी आने के बाद वह एक ऐसी रात थी जिसमें काम, थकान, नींद के आगे एक बार को भी घर की याद नहीं आई।
इसके बाद मैंने न जाने कितनी नौकरियां कीं। अब तो बहुत-सी याद भी नहीं हैं। मगर यह पहली जो है, यह जस की तस याद है। जैसे लोग कहते हैं न कि, पहला प्यार नहीं भूलता ठीक वैसे ही। जैसे मैं छब्बी और तुम्हें एक पल को भी नहीं भूल पाता। क्योंकि छब्बी के बाद तुम ही वह हो जो मेरे दिल में कब उतर गई पता ही नहीं चला। खैर समीना इस नौकरी ने मुझे जहां मुंबई में खड़ा होने, इसे समझने और पैसा कमाने का आधार दिया, वहीं मैं यह भी मानता हूं कि, यह मेरे सपने तक पहुंचने के रास्ते में सबसे बड़ी रोड़ा भी बनी। और वह बाबूराम भी। उसके कारण मैं कुछ ऐसी आदतों का शिकार बना, जिससे अपने सपने के प्रति मेरी निष्ठा, मेरा जूनून कमजोर पड़ता गया, मैं समय से सही प्रयास कर ही नहीं पाया। उसके कारण मैंने कुछ ऐसे कारनामें किए, जिनके बारे में मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया। बिलकुल तुम्हारी ही तरह अपनी प्यारी छब्बी को भी नहीं। वह कारनामें भी इस समय मेरी आंखों के सामने नाच रहे हैं।
बाबूराम हर पांचवे-छठे दिन वहां आता रहता था। मैंने नौकरी के दूसरे दिन ही सेठ से कुछ पैसे उधार मांगे थे जिससे कि, चारपाई, बिस्तर, खाने-पीने की चीजें इकट्ठा कर सकूं। लेकिन जानती हो समीना उसने बड़ी बेरूखी से मना कर दिया। बल्कि यह कह सकते हैं कि, अपमानित भी किया था। हालांकि मेरे पास उस समय ज़रूरत भर के पैसे थे, लेकिन मैंने सुरक्षा की दृष्टि से मांगे थे, जिससे वक़्त जरूरत पर पैसा कम न हो।
सेठ के इंकार करने पर वही पैसा काम आया। यदि वह पैसे न होते तो मुझे साथ लाए गहनों को बेचना पड़ता। मगर मैंने फिर भी एहतियात बरती और केवल एक मामूली सा गद्दा, तकिया, चारपाई, चादर, मच्छरदानी और जरूरत भर के कुछ बर्तन ले आया। सारी शर्म-शान छोड़कर उन्हीं मजदूरों को साधा, उन्हें पैसा दिया। और दो महीने तक उन्हीं लोगों के साथ खाना-पीना चलता रहा। जब दो महीने के बाद एक महीने की तनख्वाह मिली तब मैंने खाना बनाने आदि का बाकी का इंतजाम किया।
समीना यह सारी वह बातें हैं, जो तुम्हें कभी नहीं बताई थीं। क्योंकि संकोच होता था कि कैसे बताऊँ यह सब, मैं डरता था कि तुम गुस्सा न हो जाओ। पहली करतूत बाबूराम की याद आ रही है। नौकरी करते हुए पूरा एक महीना बीत चुका था। तनख्वाह मिली नहीं थी। एक दिन बाबूराम रात करीब नौ बजे अपना ऑटो लेकर आया। ऑटो की आवाज़ सुनकर बाहर निकला तो देखा बाबूराम ऑटो से एक एयर-बैग निकाल रहा है।
उसी के पीछे एक मुश्किल से अठ्ठारह-उन्नीस साल की लड़की सलवार सूट पहने खड़ी है। देखने में वह अच्छी-खासी, लंबी-चौड़ी थी। गोदाम के बाहर की धीमी रोशनी में मैं उसे ठीक से देख समझ पाता कि, तब-तक बाबूराम बैग और लड़की को लिए सामने आ खड़ा हुआ और बोला, 'अरे! यार अंदर भी आने दोगे या यहीं खड़ा रखोगे।'
मैं उसकी इस बात से एकदम अचकचा गया और उन्हें अंदर बुला कर चारपाई पर बैठाया। फिर उत्सुकता भरी नजर से बाबूराम को देखा। उसने मुझे बैठने को कहा तो एक टूटा-फूटा स्टूल जो मैंने रखा था, उस पर बैठ गया। मैं तुरंत यह जान लेना चाहता था कि, आखिर यह महिला कौन है? और बाबूराम इतनी रात गए यहां क्यों ले आया है। मैं कुछ पूछता कि उसके पहले ही बाबूराम बोला, ' विशेश्वर परेशान न हो, तुम्हारी तरह ये भी मेरी दोस्त है। बस रातभर के लिए तुम्हारी मदद चाहिए।'
मैंने क्षणभर में यह सोचते हुए कि, इसने मेरी मदद की है, चलो, जो हो सकेगा करते हैं। उससे तुरंत कहा, 'हां, मेरे लायक जो हो बताइए।' तो वह बोला, 'असल में हम-दोनों यहीं रात-भर रुकना चाहते हैं। मेरे घर पर कुछ दिक्कत है, बहुत लोग हैं।' तो मैंने कहा, 'ठीक है, रातभर की ही तो बात है, रुकिए। बिस्तर जमीन पर लगा लेते।'
घर में उसके किस तरह की दिक्कत है, मुझे समझते देर नहीं लगी। बड़वापुर में मेरे कुछ दोस्तों को महीने में कई बार यह दिक्कत होती थी। मांगने पर मैं उनकी भी मदद करता था। वह सब मुझको भी अपने खेल में शामिल होने के लिए बुलाते, मैं मना करता तो कहते, 'का मरदवा, कइसन मनई हऊए तू, एइसन बढियाँ-बढियाँ हसीना बोलावत बाटिन और तू भागत हऊए।' मगर मेरी नज़र में यह गलत था, तो मैं दोस्ती निभा कर चल देता था।
बाबूराम ने भी मेरी हां सुनते ही कहा, 'मुझे तुम पर पूरा यकीन था यार, कि तुम मना नहीं करोगे। अच्छा इनसे तुम्हारा परिचय करा दूं, ये तराना हैं, इन्हें सब तमन्ना भी कहते हैं।' मैंने नमस्ते में हाथ जोड़ लिए तो उसने भी मुस्कुराते हुए नमस्ते किया।