Vah ab bhi vahi hai - 3 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 3

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

Categories
Share

वह अब भी वहीं है - 3

भाग - 3

कहने को वह धर्मशाला था, लेकिन वास्तव में वह शराबियों-मवालियों का अड्डा था। मैं जिस कमरे में था उसमें आमने-सामने छह तखत पडे़ थे, सब के सिरहाने एक-एक अलमारी बनी थी। सफाई नाम की कोई चीज नहीं थी। अजीब तरह की गंध हर तरफ से आ रही थी। न जाने कितने बरसों से उसकी रंगाई-पुताई नहीं हुई थी। खैर बहुत थका था, तो पसर गया तखत पर। धर्मशाला का इंचार्ज बाबूराम को जानता था। इससे मुझे सिर्फ़ इतना फायदा हुआ कि, कहां पर सस्ता और अच्छा खाना मिल जाएगा, उसने यह बता दिया।

मैंने शाम सात बजे तक आराम किया। फिर खाना खाने और आस-पास का मुआयना करने की गरज से बाहर निकल गया। निकलने से पहले मैंने धर्मशाला के बाथरूम में जी भरकर नहाया था और रानी गुल भी किया था। लगा जैसे कई दिन की थकान उतर गई। हां बाथरूम की गंदगी, वहां की अजीब सी बदबू ने परेशान कर दिया था। बाहर निकलने पर एक व्यक्ति ने पानी बर्बाद न करने की नसीहत के साथ-साथ, पानी किस-किस समय आता है यह भी बता दिया।

बाहर निकला तो लगा जैसे शहर में नई रवानी आ गई है। तब की भदोही की माफिक नहीं कि, अंधेरा होते ही बिजली देवी की आवा-जाही और कटौती शुरू। और घरों में पेट्रोमैक्स, लालटेन, दीयों का टिम-टिमाता प्रकाश, और फिर नौ बजते-बजते सब घरों में सिमट गए। मैंने जब घर छोड़ा था, तब वहां लाइट की ऐसी ही बदतर हालत थी। सुनता हूं अब वहां भी लाइट आती है। हालात बदल गए हैं।

मगर यहां माया-नगरी को दिन भर की दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बाद एक और नई दुनिया की ओर बढ़ते देख रहा था। मैं कुतुहलवश इधर-उधर देखता आगे बढ़ता जा रहा था। मुख्य सड़क पर पहुंचा तो और प्रभावित हुआ। हां यह भी मेरे दिमाग में आया कि, सुबह जिन रास्तों से यहां तक आया, यहां की सड़कें उन रास्तों की तरह ज़्यादा चौड़ी नहीं हैं। बाज़ार, मकान, बिल्डिगें भी वहां सी बड़ी, विशाल और तड़क-भड़क वाली नहीं हैं।

जानती हो समीना, करीब हफ्ते भर बाद मैं यह जान पाया कि, यह तो भायखला स्लम बस्ती है। यहां मैंने अपने बड़वापुर, गोपीगंज या पूरे भदोही की तरह ज्यादातर घरों में नहीं, बल्कि हर एक घर को फैक्ट्री की तरह पाया। फ़र्क इतना था कि, भायखला में सभी जगह कालीन ही कालीन और उसके लूम नहीं थे। यहां तो तरह-तरह की चीजों की एक ही कमरे में पूरी की पूरी फैक्ट्री देखकर मैं दंग रह गया। खैर उस रात टहलते-टहलते मैं बहुत दूर निकल गया था।

जब होश आया तो वापस धर्मशाला आने का रास्ता ही भूल गया। बड़ा पूछते-पाछते किसी तरह जब राह मिली तो एक होटल पर खाना खा के वापस आया। ये नहीं कह सकता कि यह वही होटल था जिसे धर्मशाला वाले ने बताया था। वापस रास्ता ढूढ़ते समय जिसे मैं धर्मशाला कह रहा था, उसे कुछ लोगों ने कहा वो धर्मशाला नहीं। क्या है? यह पूछने पर एक नज़र मुझ पर डालकर आगे बढ़ जाते। मैं अंदर-अंदर बहुत डर गया। जब वापस पहुंचा तो धर्मशाला वाले ने घूर कर देखा। और आने-जाने का टाइम बता दिया।

कमरे में जब पहुंचा, मतलब अपने तखत पर तो देखा मेरे वाले के अलावा बाकी सभी पर कोई न कोई तानकर सो रहा है। तखत पर एक दरी मात्र पड़ी थी। कमरे के बीचो-बीच पुराने जमाने के भारी-भारी दो पंखे चल रहे थे। साथ ही घर्र-घर्र की आवाज़ भी खूब कर रहे थे। तखत पर मैंने अपने बैग से तौलिया निकाल कर डाल दिया था। तकिया नहीं था। मैं कभी बिना तकिए के नहीं सोता था। सबके तखत पर नजर डाली, देखा सब तकिया लगाए थे। मैं फिर गया इंचार्ज के पास, उसने बड़ा भुन-भुना के एक तकिया दिलवाई। उससे आ रही गंध के चलते मैंने बिछाई हुई तौलिया उठाकर, तकिए पर लपेट लिया और लेट गया।

मगर समीना नींद मुझसे कोसों दूर थी। मैं घूमते हुए पंखों को बल्ब की बेहद धीमी मटमैली पीली रोशनी में देख रहा था। एक आदमी बीच-बीच में हल्के खर्राटे भी ले रहा था। वहां सो रहे सभी ने शराब पी रखी थी। बदबू पूरे कमरे में फैली हुई थी। मगर समीना जानती हो इन सबके बावजूद घूमते हुए पंखों की तरह मेरा दिमाग घर की ओर घूमने लगा। घर याद आने लगा। सबसे ज़्यादा अम्मा-बाबू और फिर बाकी लोग भी, भाभी भी। एक-एक चीज फ़िल्म की तरह चलने लगी।

कि मेरे गायब होने के कारण वहां कोहराम मचा होगा। पुलिस में भी रिपोर्ट लिखाई गई होगी। यह सब सोचते हुए दिमाग में यह भी आया कि, तमाम दोस्तों को मेरी इस योजना के बारे में पता है। उन सब से बात खुल गई होगी। यही सब सोचते-सोचते कब नींद आई पता नहीं। सुबह जब उठा तो देखा सारे तखत खाली हैं। मेरे अलावा सब जहां-जहां जाना था जा चुके थे। मैं घोड़ा बेच कर सोया हुआ था। घर पर भी, जब मैं सो जाता था तो जल्दी उठाए नहीं उठता था।

लेकिन समीना हालात देखो क्या से क्या हो जाते हैं कि, आज हर सुख-सुविधा से भरपूर इस ''रमानी हाउस'' में मेरी आँखों में नींद नहीं है। करीब चालीस घंटे से जाग रहा हूं, मगर नींद नहीं आ रही है। धर्मशाले में उस दिन घर वालों की याद आने के बावजूद गहरी नींद सो गया था, मगर पिछले चालीस घंटों से घर, छब्बी, तुम्हारी, और तमाम बातों की यादें इतनी ज्यादा तारी हैं कि, नींद नहीं आ रही है। आ रही है तो सिर्फ़ तुम सब की यादें, इस शहर में अब-तक बीते दिनों में घटी घटनाएं।

जैसे उस दिन जब धर्मशाले में उठा था, तो दिन के नौ बज चुके थे। तैयार होकर जब बाहर सड़क पर आया तो तेज भूख लगी हुई थी, तो उसी रात वाले होटल पर जाकर डट कर नाश्ता किया और फिर बसों की जानकारी करके उन जगहों के लिए निकल लिया, जहां जाकर फ़िल्मों में विलेन बनने का अपना सपना पूरा कर सकता था। यही क्रम था रोज का।

बड़ी दौड़-भाग, बाबूराम की खुशामद करते रहने पर दो महीने बाद, उसके दिए पते पर एक आदमी मिला, जिसने ठीक से बात तक नहीं की, दुत्कार कर भगा दिया था। वहां से निकलने के बाद पूरा दिन, अब भी अपने लिए पहेली बनी इस माया-नगरी में इधर-उधर भटकता रहा, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा।

हारा-जुआरी-सा रात दस बजे फिर उसी तखत पर पड़ा था। सस्ती शराब की बदबू से पूरा कमरा गंधा रहा था। उस समय तक मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाता था, इसलिए मेरे लिए बड़ी भयावह थी वह बदबू। और कोई समय होता तो मैं ऐसी जगह एक सेकेण्ड नहीं रुकता। लेकिन जुनून था अपना सपना पूरा करने का तो बराबर उस बदबू को बर्दाश्त करता वहीं रुकता रहा। अगले कई दिनों तक यही किस्सा चलता रहा, साथ ही पैसे भी खत्म होते जा रहे थे। मेरे पैसे जिस तेजी से खत्म हो रहे थे, उसी तेज़ी से मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी।

एक दिन बाबूराम किसी को लेकर फिर आया धर्मशाले पर, तो मैं लपक के उसके पास पहुंचा। सारा किस्सा बताकर हाथ-पैर जोड़ा कि, 'भइया मदद करो, इस बेगानी दुनिया में एक तुम्हीं अपने हो। धर्मशाले का खर्चा बहुत है, कोई कमरा दिलवा दो सस्ता-मद्दा और काम भी, नहीं तो भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।' जानती हो समीना इस पर वह बोला, 'ठीक है, करता हूं कुछ, लेकिन रहने का जुगाड़ इतनी आसानी से नहीं हो पाएगा। कल सुबह आठ बजे आऊंगा, तैयार रहना।'

सच कहूं समीना तो उस वक़्त मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं था कि, वह कुछ करेगा। मुझे वह उन दलाल ड्राइवरों की तरह लगा जो ग्राहक फंसा कर होटल या धर्मशाला तक पहुंचा कर वहां से कमीशन भी लेते हैं। मगर तब उस पर यकीन करने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता भी नहीं था, सो मैं सुबह सात बजे ही तैयार हो उसका इंतजार करने लगा। मगर वह साढ़े आठ बजे तक भी नहीं आया तो मैंने सोचा धोखेबाज ने धोखा दे दिया, चलूं खुद ही कहीं देखता हूं। मगर कहां? यह प्रश्न मन में आते ही मेरे सामने फिर अंधेरा था। कहाँ जाऊं? किसके पास जाऊं? इस धोखेबाज के अलावा और किसी को जानता भी तो नहीं। एक बार फिर मेरे मन में उन सारे दोस्तों के लिए खूब गालियां निकलने लगीं, जिन्होंने मेरे साथ मजाक किया था। फर्जी पते, फोन नम्बर दिए थे। मगर अचानक ही बाबूराम ने सामने आकर पूरा दृश्य बदल दिया।

आते ही बोला, 'घंटे भर से जाम में फंसा था इसीलिए देर हुई, आओ चलो!'

मैंने पूछा, 'कहां?' तो बोला, 'जहां बताऊंगा कुछ समझ पाओगे। जानते हो कुछ यहां के बारे में।' तो मैंने कहा 'नहीं।'

इस पर उसने बिदक कर कहा, 'तो जहां चल रहा हूं वहां चलो। अपने धंधे की खोटी करके आया हूं समझे।'

इसके बाद वह मुझे लेकर मानखुर्द गोवंडी पहुंचा। एक पुरानी सी बिल्डिंग थी। कुछ गोदाम सा लग रहा था। अंदर वह आधे घंटे किसी से बात कर के लौटा और बोला, 'देख तू बड़ा भाग्यशाली है। यहां किसी को इतनी जल्दी नौकरी-वौकरी मिलती नहीं। मगर तू अपनी ओर का आदमी है, तो मैंने पूरा जोर लगा कर तेरे लिए बड़ा रिक्वेस्ट किया, तो सेठ तैयार हुआ। तेरे को यहां जितना माल आता है, उसका हिसाब रखने का है। साथ ही तेरे रहने का भी यहीं इंतजाम है।'

फिर उसने मुझे सेठ से मिलाया था। सारी बातें पक्की हुईं। उसने वापस मुझे एक बस-स्टॉप पर छोड़ा और बोला, 'आज का दिन धर्मशाला में ही काटो। कल अपना सामान वगैरह लेकर सेठ के पास सवेरे पहुंच जाना।'

इतना कहकर वह चला गया। मैं काफी देर तक बस-स्टॉप पर एकदम गुड़बक की तरह खड़ा रहा। समझ नहीं पा रहा था कि, यह नौकरी करूं या अपना सपना पूरा करने की कोशिश करूं। बाबूराम जाते-जाते दो हज़ार रुपए और ले गया यह कहके कि, 'जिसके कहने से तुझे यह नौकरी मिली है, उसके लिए कुछ खाने-पीने को ले जाना है।'

समीना मैं अपने को एकदम ठगा हुआ महसूस कर रहा था। आखिर मैंने निर्णय लिया कि चलो यह नौकरी करता हूं। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है । पहले कुछ महीने इस अबूझ पहेली बनी, माया-नगरी को समझ-बूझ लूं, फिर अपने सपने की ओर कदम बढ़ाऊं। नहीं तो रोज कोई न कोई ठगता रहेगा, और मैं एक दिन सड़क पर खड़ा भीख मांग रहा होऊंगा या मुंह लटकाए हारा जुआरी-सा अपने बड़वापुर जाने के लिए किसी ट्रेन पर सवार होने को विवश हो जाऊंगा।