Prerna Path - 2 in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | प्रेरणा पथ - भाग 2

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प्रेरणा पथ - भाग 2

2. विद्यादान

परिधि एक संभ्रांत परिवार की पुत्रवधू थी। वह प्रतिदिन अपने आस-पास के गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ाती थी। उसकी कक्षा में तीन चार दिन पहले ही एक बालक बब्लू आया था। बब्लू की माँ का देहांत हो चुका था और पिता मजदूरी करके किसी प्रकार अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। वह प्रारंभिक शिक्षा हेतू आया था। बब्लू शिक्षा के प्रति काफी गंभीर था। वह मन लगाकर पढ़ना चाहता था एक दिन अचानक ही उसका पिता नाराज होता हुआ आया और बच्चे को कक्षा से ले गया। वह बड़बडा रहा था, कि मेडम आपके पढ़ाने का क्या औचित्य है, मैं गरीब आदमी हूँ और स्कूल की पढ़ाई का पैसा मेरे पास नही है। इसे बड़ा होने पर मेरे समान ही मजदूरी का काम करना है। यह थोडा बहुत पढ़ लेगा तो अपने आप को पता नही क्या समझने लगेगा। हमारे पड़ोसी रामू के लड़के को देखिए बारहवीं पास करके दो साल से घर में बैठा है। उसे बाबू की नौकरी मिलती नही और चपरासी की नौकरी करना नही चाहता क्योंकि पढ़ा लिखा है। आज अच्छी अच्छी डिग्री वाले बेरोजगार है जबकि बिना पढ़े लिखे, छोटा मोटा काम करके अपना पेट पालने के लायक धन कमा लेते है। आप तो इन बच्चों को इकट्ठा करके बडे-बडे अखबारों में अपनी फोटो छपवाकर समाजसेविका कहलाएँगी परंतु मुझे इससे क्या लाभ? इतना कहते हुए वह परिधि की समझाइश के बाद भी बच्चे को लेकर चला गया।

एक माह के उपरांत एक दिन वह बच्चे को वापिस लेकर आया और अपने पूर्व कृत्य की माफी माँगते हुए बच्चे को वापिस पढ़ाने हेतु प्रार्थना करने लगा। परिधि ने उससे पूछा कि ऐसा क्या हो गया है कि आपको वापिस यहाँ आना पड़ा? मैं इससे बहुत खुश हूँ कि आप इसे पढ़ाना चाहते हैं, पर आखिर ऐसा क्या हुआ? बब्लू के पिता ने बताया कि एक दिन उसने लाटरी का एक टिकट खरीद लिया था, जो एक सप्ताह बाद ही खुलने वाला था। इसकी नियत तिथि पर सभी अखबारों में इनामी नंबर की सूची प्रकाशित हुयी थी। उसने एक राहगीर को समाचार पत्र दिखाते हुए अपनी टिकट उसे देकर पूछा कि भईया जरा देख लो ये नंबर भी लगा है क्या? मैं तो पढ़ा लिखा हूँ नही, आप ही मेरी मदद कर दीजिए। उसने नंबर को मिलाते हुए मुझे बधाई दी कि तुम्हें पाँच हजार रूपए का इनाम मिलेगा परंतु इसके लिए तुम्हें कार्यालय के कई चक्कर काटने पडेंगे तब तुम्हें रकम प्राप्त होगी। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें पाँच हजार रूपए देकर यह टिकट ले लेता हूँ और आगे की कार्यवाही करने में स्वयं सक्षम हूँ। यह सुनकर मैंने पाँच हजार रूपए लेकर खुशी खुशी वह टिकट उसको दे दी और अपने घर वापस आ गया।

उसी दिन शाम को मेरा एक निकट संबंधी मिठाई फटाके वगैरह लेकर घर आया। उसने मेरी टिकट का नंबर नोट कर लिया था। मुझे बधाई देते हुए उसने कहा कि तुम बहुत भाग्यवान हो, तुम्हारी तो पाँच लाख की लाटरी निकली है। मैं यह सुनकर अवाक रह गया। जब मैंने उसे पूरी आप बीती बताई तो वह बोला कि अब हाथ मलने से क्या फायदा यदि तुम कुछ पढ़े लिखे होते तो इस तरह मूर्ख नही बनते इसलिए कहा जाता है कि जहाँ सरस्वती जी का वास होता है वहाँ लक्ष्मी जी का निवास रहता है। यह कहकर वह दुखी मन से वापस चला गया।

“ मैं रात भर सो न सका और अपने आप को कचोटता हुआ सोचता रहा कि बब्लू को शिक्षा से वंचित रखकर मैं उसके भविष्य के साथ खिलवाड कर रहा हूँ। मैने सुबह होते होते निश्चय कर लिया था कि इसको तुरंत आप के पास लाकर अपने पूर्व कृत्य की माफी माँगकर आपसे अनुरोध करूँगा कि आप जितना इसे पढ़ा सके पढ़ा दे उसके आगे भी मैं किसी भी प्रकार से जहाँ तक संभव होगा वहाँ तक पढ़ाऊँगा।“ परिधि ने उसे वापिस अपनी कक्षा में ले लिया और वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा।

बीस वर्ष उपरांत एक दिन परिधि ट्रेन से मुंबई जा रही थी। रास्ते में टिकट निरीक्षक आया तो उसे देखते ही उसके चरण स्पर्श करके बोला, माँ आप कैसी है ? परिधि हतप्रभ थी कि ये कौन है और ऐसा क्यों पूछ रहा है? तभी उसने कहा कि आप मुझे भूल रही है, मैं वही बब्लू हूँ जिसे आपने प्रारंभिक शिक्षा दी थी। जिससे उत्साहित होकर पिताजी से अथक प्रयासो से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आज रेल्वे में टिकट निरीक्षक के रूप में कार्यरत हूँ। परिधि ने उसे आशीर्वाद दिया एवं मुस्कुरा कर देखती रही। उसके चेहरे पर विद्यादान के सुखद परिणाम के भाव आत्मसंतुष्टि के रूप में झलक रहे थे।

3. लक्ष्य

रामनगर शहर का एक युवक गोविंद, मनमौजी किस्म का व्यक्ति था। वह एक सफल व्यापारी बनकर धन एवं मान सम्मान पाने की लालसा रखता था। उसने अपने जीवन में कई तरह के व्यवसाय करने का प्रयास किया परंतु अपने स्वभाव के अनुसार कुछ समय बाद ही वह उस व्यवसाय को छोडकर किसी दूसरे क्षेत्र में कार्यरत् हो जाता था। इस प्रकार उसका काम आधा अधूरा रहकर उसे भारी आर्थिक हानी उठानी पड़ती थी। उसके साथियों ने उसको ऐसी जीवनशैली बदलने का सुझाव दिया परंतु वह इसे अनदेखी करके अपना सारा धन गँवा बैठा और आर्थिक बदहाली की हालत में आ गया ।

एक रात उसने सोचा मेरा जीवन तो व्यर्थ हैं। मैं एक असफल व्यक्ति हूँ जो कि किसी भी व्यवसाय में न धन कमा पाया और न ही मान सम्मान प्राप्त कर सका। मुझे अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेनी चाहिये इस विचार से वह नदी की ओर चल पडा। उसे रास्ते में एक संत ध्यान में लीन बैठे दिखे। उसके मन में विचार आया कि मैं मृत्यु पथ पर तो जा ही रहा हूँ मरने से पहले इनका दर्शन लाभ ले लूँ। ऐसा विचार करके वहाँ पर उनके ध्यान समाप्ति का इंतजार करने लगा। ध्यान समाप्ति के पश्चात स्वामी जी ने उससे आगमन का प्रयोजन पूछा तब उसने स्वामी जी को अपने विषय में पूरी बातें विस्तारपूर्वक बता दी।

महात्मा जी उसकी बातें ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। वे बोले कि तुम्हारी सोच सिर्फ यहाँ तक ही सही है कि इंसान को जीवन में उल्लेखनीय कार्य करके अपनी पहचान अवश्य बनाना चाहिये परंतु इसे पाने का तरीका तुम्हारा पूर्णतः गलत था। तुम तो बिना लक्ष्य का निर्धारण किये ही आगे बढते रहे जिस कारण तुम दिग्भ्रमित होकर कही भी नही पहुँच सके। तुमने अपने जीवन का अमूल्य समय बेवजह नष्ट किया और अब मृत्यु की बात सोचकर और भी गलत दिशा में कदम बढ़ा रहे हो। तुमने अपने लक्ष्य को पाने के लिये कितनी साधना की ? यह जीवन अमूल्य है एवं प्रभु की दी हुई सर्वोत्तम कृति है, तुम वापस जाओ और अपने पैतृक व्यवसाय में ही अपनी सफलता का लक्ष्य निर्धारित करके कड़ी मेहनत एवं कठोर परिश्रम से उसे प्राप्त करो।

स्वामी जी के निर्देश पर गोविंद वापस शहर आकर अपने पैतृक व्यवसाय में रूचि लेने लगा। उसकी कडी मेहनत और पक्के इरादे से उसका व्यवसाय चमक उठा जिससे धनोपार्जन के साथ साथ उसे र्कीर्ति भी प्राप्त होने लगी। इसलिये कहा जाता है कि व्यक्ति को जीवन में सफल होने के लिये अपने विवेक से लक्ष्य का निर्धारण करके उसे प्राप्त करने की दिशा में सतत प्रयासरत रहना चाहिये।

4. उत्तराधिकारी

मुंबई में एक प्रसिद्ध उद्योगपति जो कि कई कारखानों के मालिक थे, अपने उत्तराधिकारी का चयन करना चाहते थे। उनकी तीन संताने थी, एक दिन उन्होने तीनों पुत्रों को बुलाकर एक मुठठी मिट्टी देकर कहा कि मैं देखना चाहता हॅँ कि तुम लोग इसका एक माह के अंदर क्या उपयोग करते हो। एक माह के बाद जब पिताजी ने तीनों को बुलाया तो उन्होने अपने द्वारा किये गये कार्य का विवरण उन्हें दे दिया। सबसे पहले बड़े पुत्र ने बताया कि वह मिट्टी किसी काम की नही थी इसलिये मैनें उसे फिंकवा दिया। दूसरे पुत्र ने कहा कि मैंने सोचा कि इस मिट्टी में बीजारोपण करके पौधा उगाना श्रेष्ठ रहेगा। तीसरे और सबसे छोटे पुत्र ने कहा कि मैने गंभीरता पूर्वक मनन किया कि आपके द्वारा मिट्टी देने का कोई अर्थ अवश्य होगा इसलिये मैने तीन चार दिन विचार करने के पश्चात उस मिट्टी को प्रयोगशाला में भिजवा दिया जब परिणाम प्राप्त हुआ तो यह मालूम हुआ कि साधारण मिट्टी ना होकर फायर क्ले ( चीनी मिट्टी ) है जिसका औद्योगिक उपयोग किया जा सकता है। यह जानकर मैने इस पर आधारित कारखाना बनाने की पूरी कार्ययोजना तैयार कर ली है।

उस उद्योगपति ने अपने तीसरे पुत्र की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते हुये उसे अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी बना दिया और उससे कहा कि मुझे विश्वास है कि तुम्हारे नेतृत्व एवं कुशल मार्गदर्शन में हमारा व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करेगा। मेरा विश्वास है कि तुम जीवनपथ में सभी को साथ लेकर चलोगे और सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचोगे। मेरा आशीर्वाद एवं शुभकामनाँए सदैव तुम्हारे साथ है। बेटा एक बात जीवन में सदा ध्यान रखना कि जरूरी नही कोई बहुत छोटी चीज छोटी ही हो। मिट्टी का क्या मोल ? लेकिन तुम्हारी तीक्ष्ण बुद्धि और विचारशीलता ने मिट्टी में भी बहुत कुछ खोज लिया। जीवन में सफलता पाने के लिये यह आवश्यक है कि हम छोटी से छोटी चीज के अंदर समाहित विराटता को खोजने का प्रयत्न करें।

5. निस्वार्थ सेवा

कुछ वर्ष पूर्व गुजरात राज्य में भीषण अकाल पड़ा था जिसमें मानव के साथ साथ जानवर भी भोजन के अभाव में काल कलवित हो रहे थे। इसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव गो वंश पर हो रहा था क्योंकि उनके रखवाले मालिक ही जब स्वयं अपनी व्यवस्था नही कर पा रहे थे, तो वे पालतू गायों के लिये चारे की व्यवस्था कैसे करते ? ऐसी विकट परिस्थितियों की जानकारी राजकोट के सांसद द्वारा जबलपुर के अपने कुछ मित्रों को दी गयी। इससे द्रवित होकर उन्होने एक रैक रेलगाडी का चारे से भरकर गो माता की सेवा के लिये भेजने का संकल्प लिया। रेल विभाग द्वारा रेल वेगन एवं किराया आदि इस पुनीत कार्य के लिये माफ कर दिया गया। परंतु समय सीमा भी दो सप्ताह की दी गयी थी।

इस अभियान से जुडे सभी सेवकों ने यह प्रण लिया था कि वे चारे, भूसे को गांव गांव जाकर इकट्ठा करके नियत समय पर उसे भेज देंगे। जब उन्होने गो माता की रक्षार्थ भूसा दान देने का अनुरोध किया तो क्षेत्र के हर छोटे बडे किसान ने अपने दिल और आत्मा से इसका स्वागत करते हुये मुक्त हस्त से दान देना प्रारंभ कर दिया। उन्होने रेल्वे स्टेशन तक भूसा पहुँचाने का बीडा भी अपने कंधो पर ले लिया, और एक सप्ताह के अंदर ही रेल्वे का पूरा प्लेटफार्म भूसे के ढेर से भर दिया। हम सभी यह देखकर बहुत प्रसन्न थे परंतु जब भूसा वेगनों में भरा गया तो पूरा भूसा भरने के बाद भी आधी वेगने खाली थी यह मालूम होते ही हम सभी के चेहरो पर हवाइयाँ उडने लगी कि अब इतना भूसा और कहाँ से आयेगा हम जितना प्रयास कर सकते थे उतना कर चुके थे हम सभी निराशा से भरकर इस पर चिंतन कर रहे थे परंतु मन में कही न कही एक उम्मीद की किरण अवश्य थी कि इस पुनीत कार्य में निस्वार्थ भाव से सेवा का उद्देश्य अवश्य पूरा होगा।

शाम का समय हो गया था तभी साइकिल पर एक दानदाता भूसे का गट्ठा लेकर आया और उसने वह भूसा वेगन में डाल दिया। वह हम लोगों के पास आकर बोला कि ईश्वर करे आपका यह निस्वार्थ मनोरथ पूरा हो ऐसी भावना व्यक्त करके वापिस चला गया। हम उसे दूर जाते हुये देख रहे थे। अंधेरा घिर आया था मैने अपने साथियो से कहा कि देखो ये दूर छोटी छोटी टिमटिमाती हुयी रोशनीयाँ जैसे इसी तरफ आती हुयी महसूस हो रही है। इसके कुछ देर बाद ही एक के बाद एक भूसे से भरी बैलगाडीयाँ आने लगी और वे स्वयं ही भूसे को वेगनों मे भरने लगे हम यह देखकर भौंचक्के रह गये कि चार पाँच घंटे के अंदर ही पूरे वेगन भूसे से ठसाठस भर चुके थे। हम उस साइकिल से आने वाले दानदाता के बारे में विचार कर रहे थे जैसे कोई देवदुत आकर हमारी निराशा को आशा में बदलकर चला गया हो। दूसरे दिन ही रेल्वे ने उस रेलगाडी को गुजरात के राजकोट शहर की ओर रवाना कर दिया। हम लोग भी प्रसन्नता पूर्वक यह सोचते हुये रवाना हुये कि निस्वार्थ भाव से किये गये संकल्प अनेको कठिनाइयों के बाद भी पूरे होते हैं।

6. असली सुंदरता

जबलपुर के महाविद्यालयों में ग्रीष्म ऋतु का अवकाश होने वाला था। छात्रावास में रहने वाली छात्राएँ अपने अपने घर जाने की तैयारी कर रही थी। एक दिन मेंहंदी लगाने वाला कालेज के सामने से जा रहा था, छात्राओं ने उसे रोककर अपने अपने हाथों में मेंहंदी लगवाना शुरू कर दिया। इस प्रकार 15 से 20 छात्राओं ने अपने हाथों पर विभिन्न प्रकार से मेंहंदी लगवाई। अब उनमें आपस में एक प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गई कि किसके हाथ सबसे सुंदर दिख रहें हैं। वे आपस में किसी निर्णय पर नही पहुँच सकीं तभी एक शिक्षिका वहाँ से गुजर रही थी। उन सबने मिलकर उनसे निवेदन किया कि हम लोगों के हाथों को देखकर आप यह बतायें कि सर्वाधिक सुंदर किसका हाथ है।

शिक्षिका ने देखा कि कुछ ही दूरी पर एक प्याऊ लगा हुआ है जिसमें लगभग 20 वर्षीय एक लड़की वहाँ बैठकर आत्मीय एवं प्रेम भाव से प्यासे लोगों को पानी पिला रही है। उसके चेहरे पर संतुष्टि का भाव दृष्टिगोचर हो रहा था। शिक्षिका ने लडकियों को कहा कि देखो तुम्हारे सामने वह लडकी कितना कृत संकल्पित होते हुये निस्वार्थ सेवाभाव से इतनी भीषण गर्मी में हर आने जाने वाले प्यासे को पीने का पानी उपलब्ध कराकर उनकी प्यास बुझा रही है। तुम लोग मेंहंदी लगाकर सिर्फ बाहरी सुंदरता के विषय में सोच रही हो। उसे देखो वह मन से कितनी सुंदर है। शिक्षिका ने कहा कि उनके हाथ सुंदर होते हैं जो मन में सेवा का भाव रखते हुये अच्छे कार्य करते हैं। यही जीवन की सफलता का उद्देष्य एवं रहस्य है।

7. श्रममेव जयते

मुंबई महानगर की एक चाल में रमेश एवं महेश नाम के दो भाई अपनी माँ के साथ रहते थे। रमेश अपनी पढ़ाई पूरी करके शासकीय सेवा में शिक्षक के पद पर चयन का इंतजार कर रहा था। वह बचपन से ही पढ़ाई में काफी होशियार था और शिक्षक बनना चाहता था। महेश का बचपन से ही शिक्षा के प्रति कोई रूझान नही था वह बमुश्किल ही कक्षा दसवीं तक पढ़ पाया था। वह क्या काम करता था इसकी जानकारी उसके घरवालों को भी नही थी परंतु उसे रूपये की तंगी कभी नही रहती थी।

एक दिन अचानक पुलिस उसे पकड़ कर ले गई। रमेश और उसकी माँ को थाने में पहुँचने पर पता चला कि वह एक पेशेवर जेबकतरा है। यह सुनकर उनके पाँव तले जमीन खिसक गई। वे महेश की जमानत कराकर वापस घर लौट आये। माँ ने उससे इतना ही कहा कि यदि तुम यहाँ रहना चाहते हो तो यह घृणित कार्य छोड़ दो। बेटा क्या कभी तुमने सोचा कि जिसक जेब काटी उसके वह रूपये किस काम के लिये थे, हो सकता है कि वह रूपये उसकी माँ के इलाज के लिये हों, उसकी महीने भर की कमाई हो या फिर उसकी त्वरित आवश्यकता के लिये हों। उन्होने नाराजगी व्यक्त करते हुये उससे बात करना भी बंद कर दिया।

महेश अपनी माँ और भाई से बहुत प्यार करता था। उनके इस बर्ताव से उसे अत्याधिक मानसिक वेदना हो रही थी। वह आत्मचिंतन हेतु मजबूर हो गया और इस नतीजे पर पहुँचा कि बिना मेहनत के आसानी से पैसा कमाने का यह तरीका अनुचित एवं निंदनीय है। उसने मन में दृढ़ संकल्प लिया कि अब वह यह काम नही करेगा बल्कि मेहनत से पैसा कमाकर सम्मानजनक जीवन जियेगा चाहे इसके लिये उसे छोटे से छोटा काम भी क्यों ना करना पड़े तो वह भी करेगा। दूसरे दिन से उसकी दिनचर्या बदल गयी थी, उसने एक चौराहे पर बूट पालिश का काम शुरू कर दिया था। यह जानकर उसकी माँ अत्यंत प्रसन्न हुयी और बोली कि कोई भी काम छोटा नही होता है। अपनी मेहनत एवं सम्मानजनक तरीके से कमाये हुये एक रूपये का मूल्य मुफ्त में प्राप्त सौ रूपये से भी अधिक रहता है।

8. चापलूसी

सेठ पुरूषोत्तमदास शहर के प्रसिद्ध उद्योगपति थे। जिन्होने कड़ी मेहनत एवं परिश्रम से अपने उद्योग का निर्माण किया था। उनका एकमात्र पुत्र राकेश अमेरिका से पढ़कर वापिस आ गया था और उसके पिताजी ने सारी जवाबदारी उसे सौंप दी थी। राजेश होशियार एवं परिश्रमी था, परंतु चाटुरिकता को नही समझ पाता था। वह सहज ही सब पर विश्वास कर लेता था। उसने उद्योग के संचालन में परिवर्तन लाने हेतू उस क्षेत्र के पढ़े लिखे डिग्रीधारियों की नियुक्ति की, उसके इस बदलाव से पुराने अनुभवी अधिकारीगण अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे। नये अधिकारियों ने कारखाने में नये उत्पादन की योजना बनाई एवं राकेश को इससे होने वाले भारी मुनाफे को बताकर सहमति ले ली। इस नये उत्पादन में पुराने अनुभवी अधिकारियों को नजरअंदाज किया गया।

इस उत्पादन के संबंध में पुराने अधिकारियों ने राकेश को आगाह किया था कि इन मशीनो से उच्च गुणवत्ता वाले माल का उत्पादन करना संभव नही है। नये अधिकारियों ने अपनी लुभावनी एवं चापलूसी पूर्ण बातों से राकेष को अपनी बात का विश्वास दिला दिया। कंपनी की पुरानी साख के कारण बिना सेम्पल देखे ही करोंडो का आर्डर बाजार से प्राप्त हो गया। यह देख कर राकेश एवं नये अधिकारीगण संभावित मुनाफे को सोचकर फूले नही समा रहे थे।

जब कारखाने में इसका उत्पादन किया गया तो माल उस गुणवत्ता का नही बना जो बाजार में जा सके। सारे प्रयासों के बावजूद भी माल वैसा नही बन पा रहा था जैसी उम्मीद थी और नये अधिकारियों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये थे। उनमें से कुछ ने तो यह परिणाम देखकर नौकरी छोड़ दी। राकेश अत्यंत दुविधापूर्ण स्थिति में था। यदि अपेक्षित माल नही बनाया गया तो कंपनी की साख पर कलंक लग जाएगा। अब उसे नये अधिकारियों की चापलूसी भरी बातें कचोट रही थी।

राकेश ने इस कठिन परिस्थिति में भी धैर्य बनाए रखा तथा अपने पुराने अधिकारियों की उपेक्षा के लिए माफी माँगते हुए, अब क्या किया जाए इस पर विचार किया। सभी अधिकारियों ने एकमत से कहा कि कंपनी की साख को बचाना हमारा पहला कर्तव्य है अतः इस माल के निर्माण एवं समय पर भेजने हेतु हमें उच्च स्तरीय मशीनरी की आवश्यकता है, अगर यह ऊँचे दामों पर भी मिले तो भी हमें तुरंत उसे खरीदना चाहिये। राकेश की सहमति के उपरांत विदेशो से सारी मशीनरी आयात की गई एवं दिनरात एक करके अधिकारियो एवं श्रमिकों ने माल उत्पादन करके नियत समय पर बाजार में पहुंचा दिया।

इस सारी कवायद से कंपनी को मुनाफा तो नही हुआ परंतु उसकी साख बच गई जो कि किसी भी उद्योग के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। राकेश को भी यह बात समझ आ गई कि अनुभव बहुत बड़ा गुण है एवं चापलूसी की बातों में आकर अपने विवेक का उपयोग न करना बहुत बड़ा अवगुण है और हमें अपने पुराने अनुभवी व्यक्तियों को कभी भी नजर अंदाज नही करना चाहिये क्योंकि व्यवसाय का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नही होता यदि व्यवसाय को भावना से जोड़ दिया जाये तो इसका प्रभाव और गहरा होता है।

9. नकलची

दुबई के एक रेस्टारेंट में, मैं अपने मित्र रमेश के साथ बैठा हुआ अपने छात्र जीवन की भूली बिसरी यादों के बारे में बातें कर रहे थे। उसे वह दिन अच्छे से याद था जब परीक्षा में अधिकांश छात्र नकल कर रहे थे और वह नकल ना करने के सिद्धांत पर अडिग था। उसका सोचना था कि नकल करके पास होने से अच्छा तो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना है और दुर्भाग्यवश ऐसा ही हुआ वह वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया। उसने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार कर मन लगाकर अध्ययन करना प्रारंभ किया। इसके बाद वह आगे की कक्षाओं में हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता गया। अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद वह दुबई आ गया और अपनी ईमानदारी और कठोर परिश्रम से आज वहाँ की एक विख्यात कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है।

वह आज भी कहता है यदि मैं उस दिन नकल करके पास हो जाता तो जीवन में इतनी तरक्की नही कर पाता क्योंकि वह नकल करना मेरी आदत बनकर स्वभाव में आ जाती और मेरा बौद्धिक विकास एवं नैतिक चरित्र अवरूद्ध हो जाता। उसे आज भी अपने पिंटू सर की बातें याद है। वे कहा करते थे कि नकल करने में भी अक्ल की जरूरत होती है। एक बार परीक्षा में पंडित जवाहरलाल नेहरू की जीवनी पर प्रश्न आया तो एक नकलची ने उनकी जगह पर महात्मा गांधी की जीवनी लिख दी। कोई भी नकल क्यों करता है क्योंकि पढ़ाई करने में उसका मन नही लगता है और परीक्षा में पास होना चाहता है नकल करके पास हुआ जा सकता है परंतु आज तक कोई भी नकल करके प्रथम श्रेणी प्राप्त नही कर सका है। ऐसा व्यक्तित्व जीवन के वास्तविक धरातल पर आने वाली कठिनाईयों से जूझने में असफल रहता है। इसलिये हमेशा ध्यान रखना कि जीवन में नकल करके पास होने से अच्छा तो परीक्षा में अनुत्तीर्ण होकर पुनः प्रयास करना है। यही जीवन की सफलता का मूलमंत्र है। जीवटता एवं जिजिविशा के साथ संघर्ष करें, आगे बढ़े और अपने लक्ष्य को प्राप्त करें।

10. सुबह का भूला

राजकुमार अपनी पत्नी दो बेटों एवं अपने माता पिता के साथ अपने दो कमरों के मकान में बड़ी कठिनाई से रहता था। उसका बड़ा बेटा बारह बरस का था जो कुछ समझदार हो गया था, छोटा अभी सात बरस का ही था। राजकुमार की पत्नी बहुत महत्वाकांक्षी थी। वह अपना एकाधिकार चाहती थी। वह प्रायः अपने पति से कहा करती थी कि या तो किसी बड़े घर की व्यवस्था करो या फिर माता-पिता के अलग रहने का प्रबंध कर लो ताकि सारी समस्याओं का हल निकल आए। उसकी हमेशा की इस बात से परेशान होकर एक दिन उसने अपने माता पिता से इस कठिनाई के विषय में चर्चा की। बेटे की परेशानी को देखते हुये उन्होंने सहर्ष ही वृद्धाश्रम में रहने की सहमति व्यक्त करते हुये कुछ दिन पश्चात् वहाँ चले गये।

राजकुमार के दोनों बेटे दादा दादी के चले जाने से बहुत उदास हो गये क्योंकि वे उन्हें बहुत प्यार करते थे। अवकाश के दिन वह उन्हें अपने दादा दादी से मिलवाने ले गया। वे जाकर उनसे लिपट गये। फिर उन्होंने अपने दादा-दादी से पूछा कि वे यहाँ रहने क्यों चले आए। दादा-दादी से कोई उत्तर देते नहीं बना। उन्होंने कहा कि यह तुम अपने पापा से ही पूछ लेना। घर आकर दोनों बेटे अपने माता-पिता के पीछे पड़ गये तो पिता ने उन्हें समझाया कि घर छोटा होने के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा।

रात को जब सब लोग सो रहे थे तब भी उसके बड़े बेटे को नींद नहीं आ रही थी। वह सोचते-सोचते रोने लगा। उसकी सिसकियां सुनकर उसकी माँ की नींद खुल गई। उसने बेटे से रोने का कारण पूछा पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया, तब माँ ने उसके पिता को जगाया। पिता ने भी अपने बेटे से जब पूछा तो वह बोला- मैं दो कारणों से रो रहा हूँ। मुझे बहुत दुख हो रहा है। आप तो अपने पिता जी के अकेले पुत्र हैं फिर भी आपको उन्हें घर छोटा होने के कारण वृद्धाश्रम भेजना पड़ा। हम तो दो भाई हैं हमें तो आपको और भी जल्दी वृद्धाश्रम भेजना पडे़गा और फिर जब मेरी संतान होगी तो वह मुझे भी इसी प्रकार वृद्धाश्रम भेज देगी। न तो मैं आपको वृद्धाश्रम भेजना चाहता हूँ और न ही मैं स्वयं वृद्धाश्रम जाना चाहता हूँ। यही सोच-सोचकर मुझे रूलाई आ रही है। उसकी बात सुनकर उनकी आँखें खुल गईं और वे अपने माता-पिता से क्षमा माँगते हुये उन्हें वापस अपने घर ले आए। हमारे रहने की जगह कितनी भी छोटी हो पर हमें अपने दिल को बड़ा रखना चाहिए।