Ishq Faramosh - 19 in Hindi Love Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | इश्क फरामोश - 19

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इश्क फरामोश - 19

19. आखिर तुम्हे आना था

सुबह अभी सिर्फ अनीता ही उठी थी. भापाजी और गायत्री के लिए चाय की ट्रे लगा रही थी कि बाहर के दरवाजे की घंटी बजी. इतनी सुबह तो कोई नहीं आता. मगर हो सकता है भापाजी ने ड्राईवर को जल्दी बुलाया हो. ये सोचते हुए अनीता ने दरवाज़ा खोला तो सामने सोनिया को देख कर चौंक गयी.

एक बार को उसे लगा कि शायद आँखों को धोखा हुया है. इस घर में कई साल रहते हुए कभी इतनी सुबह अनीता ने नहीं देखा था सोनिया को. लेकिन सोनिया ही थी. वो भी नहा धो कर तैयार . साड़ी पहने हुए.

"गुड मोर्निंग भाभीजी. " अनीता जानती है सोनिया को भाभीजी कहा जाना कत्तई पसंद नहीं. मगर गायत्री ने उसे इस बात की छूट दे रखी है.

जब सोनिया बियाह कर घर में आयी ही थी तब अनीता ने उसे कई बार भाभीजी कह कर संबोधित किया तो सोनिया ने कहा था, "ये मुझे भाभीजी मत कहा करो. बड़ा देहाती जैसा लगता है. मैडम कह दिया करो."

अनीता का दिल छोटा हो आया था. इस घर को वह अपना घर ही मानती है. गायत्री ने उसका बुझा चेहरा देखा तो फ़ौरन बोलीं," नहीं अनीता, भाभीजी ही कहो. रौनक की बहनें तो दोनों ही बड़ी हैं. पूरे घर में एक तुम ही तो हो जो बहु को भाभीजी कह सकती हो. अच्छा लगता है. भाभीजी ही कहो."

फिर सोनिया की तरफ देख कर कहा था, "बेटा, मैडम में अपनापन नहीं आता. अनीता तो घर की मेम्बर है. कोई बाहर की थोड़े न है."

उस रोज़ सोनिया को मन मार कर चुप रह जाना पडा था. आज उसके चेहरे से लगा जैसे उसे ये संबोधन सुन कर अच्छा लगा है.

"गुड मोर्निंग अनिता. बच्चे और रौनक उठ गए? "

फिर कुछ सोच कर अगले ही पल पूछा, "और भापाजी और माँ?"

"जी पता नहीं. भापाजी और माँ की चाय ले कर जा ही रही हूँ. मेरे जाने पर ही उठते हैं भापाजी. माँ को बाद में उठाते हैं भापाजी."

"हाँ मुझे पता है. मैं जा रही हूँ बच्चों को उठाने. उनका दूध और हमारी चाय भी ले आना वहीं हमारे बेडरूम में. बच्चे रौनक के साथ ही सोये हैं न?"

"नहीं भाभीजी, बच्चे दादा-दादी के कमरे में सोये हैं जिद कर के. उनके लिए एक्स्ट्रा बेड लगा दिया था. आप यहीं आ जाओ. मैं भी चाय ले कर आती हूँ."

सोनिया असमंजस में थी. लेकिन जल्दी ही संभल गयी. उसे एकाएक एहसास हुआ कि ये स्थिति और भी अच्छी है. अगर रौनक का मूड अब तक ठीक नहीं भी हुआ होगा तो भापाजी माँ के सामने शांत ही रहेगा.

अनीता के साथ सोनिया को भी अपने बेडरूम में दाखिल होते देख कर भापाजी फ़ौरन लेटे से उठ कर बैठ गए और आवाज़ दे कर गायत्री को भी उठा दिया.

"भागवान, देखो आज हमारी चाय ले कर कौन आया है. भाई ये तो बड़ा अच्छा दिन चड़ेया है. बच्चों को तो मैं अब रोज़ यहीं सुलाया करूंगा. उनकी माँ जो आयेगी सुबह सुबह हमारे कमरे में."

भापाजी की खुशी फूटी पड़ रही थी. गायत्री भी उठी और सोनिया को देख कर कुछ हैरान हुयी. फिर समझ गयीं कि माँ अपने बच्चों को लेने आयी है.

बोलीं,"सोनिया, सो रहे हैं अभी तो. सोने दो इनको. उठेंगें तो मैं ड्राईवर के साथ भिजवा दूंगी. मैं खुद आऊँगी कार में छोड़ने. फिकर मत कर बेटा."

सोनिया को अब मौका मिल गया अपनी बात कहने का.

"नहीं मम्मी. मैं इनको लेने नहीं आयी. मुझे तो दिल कर रहा था यहाँ आने का. इसलिए आयी हूँ. सब लोग यहीं हैं. तो मेरा दिल नहीं लग रहा था. घर बहुत सूना सूना सा लग रहा था. नाश्ता आप के साथ कर के हम लोग साथ ही जायेंगें."

"ठीक है बेटा. नाश्ते में जो बनवाना हो अनीता को बता दो. या बाहर से मंगवाना है तो आर्डर कर दो. आज सन्डे है. "

"जी मम्मी जी. सब लोग उठ जाएँ तो डीसाईड कर लेते हैं."

इस 'सब' में और तो सब उसी कमरे में थे, रौनक का उठना और नीचे आना बाकी था. और वही सोनिया के लिए चुनौती भी था. बच्चे गहरी नींद में थे. उनकी तरफ एक नज़र देख कर वह कमरे से निकल आयी.

रौनक अपने बेडरूम में लम्बी तान कर सो रहा था. अपने इस बेडरूम में इस घर को छोड़ जाने के बाद सोनिया पहली दफा आयी थी. दिल उदास हो गया. उजाड़ सा लग रहा था. फर्नीचर तो वही था मगर और कुछ भी नहीं था. सिवाय सोफे पर पड़े रौनक के कपड़ों के और एक पानी की बोतल के.

खुद रौनक भापाजी के नीले नाईट सूट में से एक पहन कर सो रहा था. अपने ही पति को उठाने के आगे बढ़ी सोनिया झिझक गयी. पिछले कई महीनों से दोनों में बहुत दूरी आ गयी थी. प्रेमी अब पति रह गया था, दोस्ती हल्की हो गयी थी.

कुछ देर खड़ी रही. फिर हिम्मत कर के आवाज़ दी, "रौनक."

रौनक ने सुना और आँखें खोलीं. सामने खड़ी सोनिया को देखा. फिर सामने दीवार पर लगी घड़ी की तरफ देखा. सात बजने वाले थे. इतनी सुबह सोनिया? इस तरह साड़ी पहन कर? उठ बैठा. फिर कल की सारी घटनाएं और खुद अपना गुस्सा याद आ गया. वापिस लेट गया. चुपचाप लेटा रहा. उसने तो कल शाम ही कह दिया था जो कहना था. अब कहने की बारी सोनिया की थी. रौनक सुनने को तैयार था. जो भी वो कहे. रौनक का अगला फैसला सोनिया की अगली बात पर टिका हुया था. वैसे भी उसने अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद लिए ही कब थे? कभी भापाजी के हिसाब से तो कभी सोनिया के हिसाब से. और अब शायद जो भी फैसला लेगा वो बच्चों के हिसाब से होगा.

"रौनक. आय ऍम सॉरी. मैंने सब लोगों बहुत परेशान किया है. अब मैं चाहती हूँ कि हम लोग वापिस यहीं रहें भापाजी और माँ के साथ." सोनिया की आवाज़ में मायूसी थी.

रौनक ने सुना और एक नज़र भर के उसे देखा. सोनिया के चेहरे पर उसे अफ़सोस नज़र नहीं आया. न ही उसकी बात से उसे भरोसा हुया कि सोनिया ये बात दिल से कह रही है. शब्दों का खोखलापन उन शब्दों में रौनक को नज़र आ रहा था. सोनिया का सर झुका हुया था. आँखें इधर-उधर देख रही थीं. जैसे कुछ चुरा लेना चाहती हों, कमरे की बंद हवाओं से.

रौनक का दम घुटने लगा. वह फ़ौरन बिस्तर से उठा और खिड़की के पास जा कर पर्दा हटाया. बाहर सुबह रोजमर्रा की अठखेलियाँ करने में मगन थी. पीछे के आँगन में फूल खिले हुए थे. बच्चों का झूला हलके हलके हिल रहा था. कुछ बुलबुलें लॉन में से चुन चुन कर शायद कीड़े खा रही थीं. दुनिया हसीन थी. मगर रौनक का दिल बुझा हुया था.

वो इसी तरह खडा हुया काफी देर तक बाहर देखता रहा. इतनी देर कि उसे भूल ही गया कि वो कहाँ है और क्या चीज़ उसके दिल को लगातार चुभ रही है. सोनिया उसके जीवन का मूल आधार बन चुकी थी लेकिन खुद सोनिया ने ही सब तबाह कर दिया. और अब फिर से रौनक को उसी तरह से पा लेना चाहती है. वो घर जो इतने प्यार और दुलार से उसे संभाले हुए था, उसको ठोकर मार कर चली गयी थी. आज फिर उसी घर में लौट आना चाहती है.

रौनक इसमें क्या कर सकता है? ये घर तो भापाजी और माँ का है. और वो घर सोनिया का है. खुद रौनक का घर कहाँ है? शायद ये एक कमरा ही रौनक का है. इसमें अब वो किसी को शामिल नहीं करेगा. एक ही पल में सारी तस्वीर साफ़ हो गयी उसके सामने.

"देखो सोनिया. अब तुम यहाँ वापिस कैसे आ सकती हो?"

"क्यों? मैं बहु हूँ आज भी. हम पहले की ही तरह यहाँ रहेंगें. "

"नहीं. अब कुछ भी पहले जैसा नहीं होगा. हाँ. मैंने ये कहा था कि तुम अगर सुबह हमें लेने आओगी तो हम तुम्हारे साथ तुम्हारे घर आ जायेंगें. सो उस वादे को मैं पूरा करता हूँ. बच्चों को उठा लो. मैं भी आता हूँ नीचे. फिर तुम्हारे घर चलते हैं."

"यहाँ नहीं रह सकते? भापाजी ने मना कर दिया है क्या?"

"नहीं. मैं मना कर रहा हूँ."

"क्यों?"

"मैं इसका जवाब देना ज़रूरी नहीं समझता. किसी दिन तुम्हें खुद ही समझ आ जायेगा."

इस पर सोनिया चुप हो गयी. फिर भी उसी तरह खड़ी रही. तो रौनक बोल पडा.

"अब जाओ नीचे. बच्चों को तैयार करो. मैं भी कपडे पहन कर आता हूँ."

"माँ ने कहा है नाश्ता करने के लिए. "

"तो ठीक है. तुम लोग नाश्ता कर के आ जाना. मैं तुम्हारे घर जा रहा हूँ. मुझे तैयार हो कर क्लिनिक जाना है."

"ये तुम बार-बार मेरा घर क्यूँ कहते हो? वो तो हम चारों का घर है."

"ये भी तुम नहीं समझ सकतीं. ये घर हम छह लोगों का था. आज भी है. वो सिर्फ तुम्हारा है. तुमने उसे बनाया है."

सोनिया को कुछ-कुछ समझ आने लगा था. रौनक, चुप्पा रौनक, खामोश प्यार करने वाला रौनक, खामोशी से ही गुस्सा भी करना जानता था. उसकी इस खामोशी को झेल कर ही इस नदी को पार करना होगा. चुपचाप सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गयी. बेडरूम से बच्चों के बातें करने और भापाजी के ठहाकों की मिली-जुली आवाजें आ रहा थीं.

अंदर जाते-जाते ठिठक गयी. लगा वहां न जाए तो ही अच्छा है. बच्चों और दादा दादी के बीच उसका क्या काम है? रसोई में अनीता आलू उबालने की तैयारी कर रही थी. उसे देख कर खुश हो कर बोली, "बच्चों ने बोला आलू के परांठे खायेंगें. कितने दिनों के बाद आज बनाऊँगी. भापाजी माँ तो कभी नहीं खाते आलू के परांठे. आज तो सब खायेंगें. आप भी खाओगी न भाभीजी? रौनक भैया भी?"

"रौनक के लिए पैक कर देना. वो मेरे घर जा रहे हैं. तैयार होना है. क्लिनिक जाने के लिए. "

"जी भाभीजी. आप चलो अन्दर मैं आपकी चाय ले कर आती हूँ. "

सोनिया बिना कुछ बोले लिविंग रूम में आ कर सोफे पर बैठ गयी. इस घर में आज उसे पहली बार मेहमान होने का आभास हुया. अनीता ने चाय की ट्रे उसके आगे रखी तभी रौनक नीचे आया. बिना उसकी तरफ देखे बाहर निकल गया. एक बार सोनिया का दिल किया उसे चाय के लिए कहे. फिर ख्याल आया वो तो खुद इस घर में मेहमान है. रौनक उसके घर जा रहा है. वहां चाय मिल जायेगी उसे. उषा है.

लेकिन उसे क्या अपना पति फिर मिलेगा? पति तो मिल जायेगा. लेकिन वो प्रेमी जो उसकी हर अदा पर पलक पांवड़े बिछाए रहता था, वो मिलेगा? शायद नहीं. रौनक पिछले कुछ महीनों में जैसे अंदर से बुढ़ा गया है. उसके चेहरे पर झुर्रियां नज़र आने लगी हैं. आँखों के किनारों पर कौवे के पाँव नज़र आने लगे हैं. सोनिया की हिम्मत ही नहीं होती अब उसे कुछ कहने की. एक वक़्त था इन छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ लिया करती थी रौनक से. ये दूरी कभी हटेगी? नहीं जानती.

क्या दोस्तों की सलाह मान कर इतनी बड़ी गलती की है उसने? ये दोस्त अब क्या साथ दे पाएंगे उसका? कहीं उसका घर टूट ही न जाए? सिहर उठी सोनिया. नहीं जैसे भी हो अपने घर को बचाना है. अब उसकी सारी उम्मीद भापाजी और माँ पर टिक गयी थी.

रौनक तैयार हो कर क्लिनिक के लिए निकला तब तक सोनिया बच्चों के साथ नहीं लौटी थी. उषा ने उसे ब्रेड और आमलेट का नाश्ता करवा दिया था. क्लिनिक आया तो बारह बजे तक कुछ सोचने की फुर्सत नहीं मिली.

बारह बजे आखिरी पेशेंट को देख कर वह क्लिनिक से निकल गया. रेस्टोरेंट में जूस पीते हुए किरण का इंतजार करता बैठा रहा जो ठीक एक बजे दरवाजे से अंदर दाखिल हुयी. उसे देखते ही दिल में एक लहर सी उठ गयी.

"कैसी हो."

इससे पहले की औपचारिकतायें आँखों में ही निपटा ली थीं दोनों ने.

"अच्छी. तुम?"

"अच्छा"

"अच्छा?" किरण जोर से हंस पडी. वो भी हंस पडा.

ये उन दोनों का पुराना सिलसिला था. किरण सोच में पड़ गयी. क्या फिर से उन दोनों का रिश्ता उसी लीक पर आने लगा है जहाँ से छूटा था? नहीं. ऐसा नहीं हो सकता. फिर याद आया कि वो तो पन्द्रह दिन बाद जा रही है मुल्क छोड़ कर. अच्छा ही है. यहाँ अब कुछ नहीं बचा.

"अच्छा, सुनो रौनक मैं फाइनली इंग्लैंड ही जा रही हूँ. मेरा मतलब है. शिफ्ट हो रही हूँ. मैंने वहीं ट्रान्सफर भी ले लिया है. अब वहीं रहूंगी."

"ओह." रौनक का दिल बुझ गया.

कुछ देर दोनों चुप रहे.

"और तुम्हारा पति? उसका काम भी वहीं है?" सिर्फ इतना ही जानता था कि किरण का एक पति है. वो भी इस नाते से कि किरण ने बताया था कि उसकी एक बेटी है.

"नहीं. मेरी शादी ख़त्म हो गयी है."

"आय ऍम सॉरी. किरण." रौनक का दिल और बुझ गया. किरण के साथ ये क्या हो गया?

"मी टू." और कुछ नहीं बोल पायी.

"कुछ बताना चाहोगी?" और क्या कहता?

"नहीं. वो सब कुछ नहीं. आज शायद हम आख़िरी बार मिल रहे हैं. आज का दिन यादगार होना चाहिए. अच्छा अच्छा खाना खायेंगें. अच्छी अच्छी बातें करेंगें. "

रौनक ने उसकी आँखों में छिपे हुए आंसू देख लिए थे. खुद उसका दिल कर रहा था जी भर कर रो लेने को. आज सोनिया ने बेशर्मी की एंतेहा कर दी थी. उसका वो बेशर्म झूठा चेहरा एक बार फिर आँखों के आगे घूम गया. यहाँ किरण थी सामने, टूटे हुए दिल के साथ सामान और ज़िंदगी समेट कर देश छोड़ कर दूसरे देश को जाती हुयी.

एक दिन में जितना दिल डूब सकता था आज डूब चूका था. अब सिर्फ इस दिल का सहलाना ही बाकी था. सो ये काम रौनक करेगा. किरण के दिल पर कुछ मरहम लगाने का.

उसे याद था किरण को ढाबे का खाना बहुत पसंद था.

"सुनो. किरण. आज यहाँ खाना नहीं खायेंगे. तुम्हें अगर कहीं और भी जाना है तो वहां फ़ोन कर दो कि आज नहीं आओगी."

किरण ने चौंक कर उसकी तरफ देखा तो उसने हाथ जोड़ कर याचना के स्वर में कहा, "प्लीज, अब तुम जा ही रही हो इंग्लैंड. अब कब मिलना होगा तुमसे?"

इसके बाद किरण क्या कहती? वैसे भी उसे कहीं जाना तो था नहीं. घर ही जाना था. सन्डे था. आजकल ऑफिस नहीं जा रही थी. वीसा लग चुके हैं. टिकेट आ चुकी है. पैकिंग चल रही है. जो भी काम था घर जा कर ही करना था.

हंस कर बोली, "चलो कहाँ चलना है? तुम भी क्या याद रखोगे?"

रौनक ने मेज़ पर एक पांच सौ का नोट रखा और दोनों बाहर निकल आये. तय हुया कि किरण के ड्राईवर को घर भेज दिया जाए. रौनक ही किरण को घर छोड़ देगा.

उस दिन किरण और रौनक का कॉलेज दोनों के बीच लौट आया था. बस इतना फर्क था कि मोटर साइकिल की जगह कार थी. प्रेम की जगह दोस्ती थी. खाना वही था. ढाबे का. दाल मखनी, आलू गोभी, मिर्च और प्याज, लस्सी. चुरा कर लिए जाने वाले चुम्बनों की जगह एक दूसरे का हाथ था. और थी एक दबी सी चाह, फिर मिलने की. जो दोनों जानते थे कि शायद अब पूरी न हो.

जब रौनक ने गाड़ी किरण की बिल्डिंग के बाहर रोकी तो बहुत देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला. आखिरकार किरण ने कहा, "मैं चलती हूँ. तुम अपना ख्याल रखना. भापाजी से कभी मेरा ज़िक्र हो तो मेरा प्रणाम उन्हें ज़रूर देना."

"हाँ." इतना ही कह पाया. फिर खुद को संभाला और बोला, "जाने से पहले एक बार मिलोगी नहीं? एक बार? मुझ से वो रिश्ता तो नहीं रह गया लेकिन सच बताओ मैं पूरी तरह बाहर हो गया हूँ क्या तुम्हारे मन से?"

किरण मुस्कुरा पडी. "नहीं. तुम हमेशा वहीं हो. रहोगे. वो जगह सिर्फ तुम्हारी है. वहां न कोई आया न गया. अब मिल कर क्या होगा? हम जो हैं यही हमारा सच है. अगर कोई और सच होता तो आज तुम इस तरह मुझे मेरे घर के बाहर गाड़ी से नहीं उतार रहे होते. ये सच हम बहुत पहले से एक्सेप्ट कर चुके हैं. अब कोई नयी बात क्यों?"

"ठीक है. लेकिन एक बात मैं करूंगा. तुम्हें एअरपोर्ट मैं छोड़ कर आऊँगा. मंज़ूर?"

किरण ने आँख उठा कर नज़र भर कर कई पलों तक उसे देखा.

"हाँ, मंज़ूर. तुम बहुत मुश्किल बातें करते हो. बिलकुल नहीं बदले."

"बदल जाता तो रौनक कैसे रहता?"

किरण ने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा तो रौनक ने दूसरे हाथ से किरण के उस हाथ को समेट लिया.

"कैन आय?" रौनक ने आखिरकार पूछ ही लिया.

किरण ने अपने दूसरे हाथ से उसके कंधे को छुआ और एक चुम्बन उसके गाल पर दे कर गाडी से बाहर निकल आयी. उसका दूसरा हाथ फिसलता हुया उसके साथ तो आ गया लेकिन रौनक के दोनों हाथों की गर्माहट उसमें बसी हुयी थी.