17. कभी यूँ भी होता
तीन दिन बाद जब किरण ऑफिस जा रही थी फिर रौनक का फ़ोन आया.
“हेल्लो" फ़ोन ब्लूटूथ पर था. किरण खुद ड्राइव कर रही थी. ड्राईवर आज छुट्टी पर था.
“हाय किरण.” हमेशा की तरह रौनक ने कहा. और इसके बाद बावजूद कि फ़ोन उसने खुद किया था वो किरण के कुछ बोलने का इंतज़ार करता रहा था.
ये उसकी पुरानी आदत है. किरण जानती है. मगर अब वो पुरानी वाली किरण नहीं है. वो भी इंतज़ार करती रही. कुछ देर चुप्पी छाई रही. कोई कुछ नहीं बोला.
आखिर रौनक को बोलना ही पडा.
“आज मिल सकते हैं लंच पर?”
“मैं ऑफिस पहुँच कर बताती हूँ. अभी रास्ते में हूँ.”
फिर चुप्पी छाई रही. इस बार किरण को इसे तोड़ना पडा. जानती है रौनक खुद कुछ नहीं कह पाता. कितनी तो मुश्किल से कहता था और सब कहा हुआ उसका धरा ही रह गया था. अब किस मुंह से बोले?
“तुम कैसे हो? हाउ इज़ लाइफ ट्रीटीग यू?”
“मैं अच्छा हूँ. तुम?”
“मैं भी ठीक हूँ. मज़े में.” ये किरण का तकिया कलाम जैसा कुछ बन गया है पिछले कुछ वक़्त से.
फिर कुछ समझ नहीं आया दोनों को ही. किरण इस वक़्त सड़क पर थी ज़्यादा ध्यान ड्राइविंग पर था.
“ठीक है. मैं ऑफिस पहुँच कर थोड़ी देर में बताती हूँ. ओके?”
“ओके. बाय.” कह कर रौनक ने फ़ोन काट दिया.
किरण सोच में पड़ गयी. क्यूँ मिलना चाहता है रौनक अब? क्या बात करेंगें? क्या बचा है बात करने को?
जैसे बुढ़ापे में पुराने दोस्त मिलते हैं और एक दुसरे से अपने-अपने घुटनों के दर्द, डायबीटीज़ के बारे में नोट्स साझा करते हैं. क्या वैसा ही कुछ? कैसी शादी है? कितने बच्चे हैं? किस स्कूल में जाते हैं? किस क्लास में पढ़ते हैं? फिलहाल तो यही बातें कर सकते हैं. सोच कर जोर से हंसी आ गयी किरण को.
दिल को तसल्ली हुयी कि रौनक अब उस तरह से उसके दिल में मौजूद नहीं है. वो आसानी से उसके बारे में सोच सकती है और सामने आने पर बात कर सकती है. जो थोड़ी सी झिझक थी खुद को ही ले कर कि मिलने पर कहीं पुरानी जज़्बात न सर उठाने लगें वो दूर हो गयी. उसी वक़्त तय कर लिया की मिल लिया जाए. बाकी सारी बातें और उस प्रेम का इतिहास अपनी जगह, मगर रौनक जैसा दोस्त फिर नहीं मिला कभी. ऐसे दोस्त ज़िंदगी में बार-बार मिलते भी तो नहीं.
ऑफिस पहुँच कर उसने पाया कि आज कोई ख़ास व्यस्तता नहीं थी. कुछ कागजी काम पूरे करने थे. मीटिंग्स नहीं थीं. ज़ाहिर है ये काम अपनी रफ़्तार से किये जा सकते थे. उसने मेसेज कर के रौनक को एक बजे पास के ही एक रेस्टोरेंट में आने का सन्देश भेज दिया. कुछ ही मिनट में उसकी हामी का सन्देश भी आ गया.
एक बजने में पन्द्रह मिनट पहले जब वो अपनी कार ऑफिस की पार्किंग से निकाल रही थी तो एक बार ख्याल आया कि न जाए. कुछ भी बहाना कर के कन्नी काट ले. एक बार फिर दिल धड़क उठा था रौनक के नाम पर. इसी धड़कन से होने वाली किसी भी तरह की गलफ़त से बचना चाहती
थी. न तो खुद किसी पशोपेश में पड़ना चाहती थी और न ही चाहती थी कि रौनक किसी उलझन में पड़े.
यानी रौनक की परेशानी का अब भी ख्याल था उसे. क्या अब भी प्रेम बचा हुआ है? लेकिन प्रेम क्या कभी खत्म होता है?
दोनों ही सवालों के जवाब नहीं थे उसके पास. रौनक से मिलने तो जा रही थी, साथ ही ये भी कामना कर रही थी कि भूले से भी पहले जैसे संबंधों की कोई छाया भी उनके बीच न उतर आये. इसी एक पल में आसिफ का ख्याल भी आ गया. इतना कुछ हो जाने के बाद भी आसिफ के नाम पर दिल धड़क उठा किरण का. साथ ही उसकी तल्ख़ बातें याद कर के खुद को ही दिल का धडकना बुरा भी लगा. लेकिन फिर ये बात दिल को तसल्ली भी दे गयी कि कहीं कोई तार दिल का अब भी जुड़ा हुआ है आसिफ के साथ. यानी अभी उम्मीद बाकी है.
रौनक पहले से ही एक कोने की टेबल पर बैठा उसका इंतज़ार कर रहा था. उठ खडा हुआ. दोनों ने एक दूसरे को नज़र भर कर देखा. हाथ मिलाया तो किरण ने आगे बढ़ कर उसे गले भी लगा लिया. दिल नहीं धड़का. कोई हलचल नहीं महसूस हुयी उसे अपने अंदर. एक बार फिर दिल को तसल्ली हुयी कि सब ठीक है. वो रौनक से आगे बढ़ चुकी है. वैसे ये बात उसे अब नहीं सोचनी चाहिए थी. शायद वो भीतर जी भीतर इस बात को जान और मान चुकी थी. मगर आज तस्दीक हो गयी.
एक चोर उथले पानी में झाँक गया. कहीं इस तस्दीक के लिए ही तो नहीं मिलने को राजी हुयी रौनक से?
नहीं! दिल ने फ़ौरन प्रतिवाद किया. रौनक जैसा दोस्त किस्मत से मिला था. प्रेमी होने से पहले वो दोस्त था. प्रेमी होना ख़त्म हो जाने के बाद दोस्त क्यों नहीं रह सकता?
“आओ बैठो.”
रौनक ने बेहद सलीके से कुर्सी पीछे खींच कर उसे बिठाया था. इन मामलों में रौनक का कोई सानी नहीं. भापाजी ने तहजीब और जेंटलमैनली वयवहार के बीज उसमें बचपन से ही डाले हैं. कुछ इस तरह कि किसी भी स्थिति में, कैसी भी मनःस्थिति होने पर भी उसका इनसे दामन नहीं छूटता.
“थैंक यू.” कह कर अपनी साड़ी समेटती हुयी किरण बैठ गयी थी. उसके बाद रौनक भी उसके सामने वाली कुर्सी पर आ कर बैठ गया. तब तक वेटर मेनू ले कर आर्डर लेने के लिए मुस्तैद खडा हो गया.
ये रेस्टोरेंट इस वक़्त आस-पास के दफ्तरों से लंच के लिए आये लोगों से गुलज़ार रहता है. और काफी बिजी भी. सो जल्दी ही आर्डर देना होता है. जल्दी ही सर्व भी हो जाता है. किरण यहाँ अक्सर आती है अपने सहयोगिओं के साथ.
आपस में बातचीत कर के खाना आर्डर कर दिया गया. किरण ने रशियन सलाद आर्डर किया. रौनक ने पास्ता. पीने के लिए दोनों ने ही पानी को चुना. अब उनके पास एक दूसरे से बात करने के अलावा कोई चारा नहीं था. दोनों ही एक दूसरे को मिलने को बेहद उत्सुक थे और दोनों ही झिझक भी रहे थे कि बात कहाँ से शुरू हो.
मौसम के बारे में बात हो गयी. तो किरण ने पूछा, “तुम शायद यहाँ इस रेस्टोरेंट में पहली बार आये हो?’
“हाँ. मैं खाना घर से ही मंगवाता हूँ. वैसे भी पेशेंट्स के साथ लंच करने का सवाल ही पैदा नहीं होता. मैं तो उनका खाना ही बंद करवा देता हूँ.” इस पर दोनों ने ही ठहाका लगाया.
और इसके साथ ही इन पुराने प्रेमियों के बीच की जमी हुयी हवा की बर्फ झटके के साथ टूट कर बिखर गयी. इस बिखरी हुयी बर्फ की चमक में पुराने दोस्त जिंदा हो आये.
“हाँ, अगर आये होते तो शायद हमारी मुलाक़ात पहले ही हो जाती. " किरण रोक नहीं पायी खुद को.
“हाँ, शायद.” रौनक उदास हो आया. लेकिन अगले ही पल खुद को संभाल कर बोला, “तुम अपने बारे में बताओ न. कितना तो पानी बह गया है पुल के नीचे से. कितने साल हो गए.”
“मैं क्या बताऊँ? तुम बताओ. मैं अब तक हैरान हूँ. तुम्हें डेंटल सर्जन बना हुया देख कर. तुम साइंस वाले थे और बहुत अच्छे साइंस वाले थे. लेकिन इतने बड़े बिजनेसमैन का बेटा और डेंटल सर्जन? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा. भापाजी कैसे हैं?” किरण इस बात पर वाकई बहुत हैरान थी.
उसे ये बात अभी तक पच नहीं रही थी. इसके अलावा भापाजी के उस फैसले को लेकर आज भी उसके मन पर लगी हुयी ठेस ताज़ा ही थी. उसे बहुत अफ़सोस हुया था कि भापाजी ने उसके बारे में गलत अनुमान लगाया था. रौनक से अलग होने से भी बड़ा दुःख उसे इस बात का था.
“ये बड़ी लम्बी कहानी है.”
“तो? मुझे तो जल्दी नहीं है. तुम्हें है?”
“नहीं. मैं आज क्लिनिक नहीं जाऊँगा. ”
“तो ठीक है. सुनाओ.”
कैसे कुछ ही वाक्यों में पुराने दोस्त जिंदा हो गए थे. ये दोनों में से कोई नहीं जान पाया था. वे तो बस दोस्ती को जी रहे थे. पल-पल बस पी रहे थे. एक दुसरे की आवाज़ सुनते हुए. एक दूसरे के चेहरे के भावों में डूबे हुए.
जैसे-जैसे रौनक भापाजी के साथ हुया सारा किस्सा बयान कर रहा था किरण के चेहरे के भाव दर्द और पीड़ा से भर रहे थे. वो भूल गयी थी कि इन्हीं भापाजी ने एक दिन उसका दिल किस तरह दुखाया था. रौनक भी सब सुनाता हुया उन्हीं दिनों में खो गया था.
उस पाठ को सीखने के बाद किस तरह भापाजी ने उसे अपनी मनमर्जी का प्रोफेशन चुनने की छूट दी थी और किस तरह वह आज तक पहुंचा था इसकी कहानी ज्यादा लम्बी नहीं थी. सब कुछ सुनाने के बाद उसने किरण को गहरी आँखों से देखते हुए पूछा, “अब तुम बताओ. इतने दिन कहाँ रही. क्या किया? यहाँ कैसे हो. इंग्लैंड में अपनी मम्मी के साथ क्यूँ नहीं?”
“हाँ, मैं मम्मी के साथ चली गयी थी. वहां आगे पढ़ी भी. नौकरी भी की. मगर दिल नहीं लगा. यहाँ ज्यादा अच्छी नौकरी मिल गयी तो यहाँ आ गयीं. यहाँ दिल लग गया है.”
इसमें कितना सच था कितना झूठ, ये तो किरण को खुद ही पता नहीं था. वैसे काफी कुछ तो सच ही था. दिल भी लग ही गया था. मगर दिल में घाव कितने कितने थे. ये नहीं बता पायी. बताने की कोई वजह भी तो नहीं थी. क्यूँ बताती? और क्या बताती?
रौनक चुप हो गया. समझ गया ज्यादा जानने का अधिकार खो चुका है.
खाना ख़त्म हो चूका था. डिजर्ट के लिए दोनों का ही मन नहीं था. रौनक ने कॉफ़ी का आर्डर दे दिया था. उसी का इंतज़ार होने लगा. दोनों चुप थे.
तभी रौनक ने कहा, “मैंने तुम्हे अभी तक नहीं बताया. मेरी शादी हो चुकी है. अरेंज्ड मैरिज. सोनिया बहुत अच्छी लडकी है. दो बच्चे हैं. जुड़वां. एक बेटा, एक बेटी. चार साल के हैं.”
बहुत कुछ कहना चाहता था. लेकिन क्या कहता? ज़िन्दगी की लम्बी-लम्बी कहानियाँ कहीं लंच करते हुए बयान की जा सकती हैं? सिर्फ एक सर्टिफिकेट की तरह शादी को अपने माथे पर तगमे जैसा सजा कर बताया जा सकता है.
“मैं भी शादी कर चुकी हूँ. बेटी है एक साल की.” बस इतना सा ही फसाना था किरण का.
इसके आगे तो भूल-भुलैया थी. जिसमें गोते खाती हुयी किरण आज कल कुछ समझ नहीं पा रही थी कि उसकी ज़िंदगी की नाव किस तरफ बह रही थी. मन में बहुत दुशंकाएं थीं. दिमाग में तनाव था. दिल इतनी बार टूट-टूट कर सख्त पत्थर जैसा हो गया था. बस उस पर दो ही लोग रुई का फाया रखते थे. नीरू और सुजाता.
ये सामने बैठा शख्स हो सकता था फाया रखने वाला. मगर किस्मत को ये मंज़ूर नहीं था. फिर अगला ख्याल था कि किस्मत को ये मंज़ूर होता तो दिल पत्थर ही क्यूँ हुआ होता?
यानी खता जाने किसकी थी और सज़ा जाने कौन पा रहा था. और खता भी कहाँ होती है किसी की? कोई भी चाह कर दिल नहीं दुखाता किसी का. दिलों की भी तो किस्मतें होती हैं, इंसानों की तरह.
भापाजी के लिए मन में जो भी मलाल था आज रौनक की जुबानी उन पर आयी भारी मुसीबत के बारे में सुन कर और उसके बाद उनके लिए गए फैसलों के बारे में जान कर धुल गया. दिल से माफ़ कर दिया उन्हें.
बिल का भुगतान रौनक ने कैश से कर दिया था. किरण उठ खड़ी हुयी.
“अब चलना चाहिए.”
रौनक भी उठा और उसी तरह बेहद आदर के साथ किरण की कुर्सी को पीछे किया और उसे आगे चलने का संकेत दिया. बाहर आ कर उसे उसकी कार तक छोड़ा. अन्दर बैठने से पहले किरण ने उसे फिर गले लगाया.
रौनक कुछ नहीं बोला तो किरण ने कहा, “ओके. रौनक. बाय.”
“बाय. किरण. फिर मिलोगी न?”
“हाँ.” सिर्फ इतना कह कर उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी. एक बार फिर भूले से उसी प्रेमिका ने उथले पानी में से सर निकाल कर उसे चौंका दिया था. किरण ने एक करारी चपत उस प्रेमिका के सर पर लगाई और गाडी का म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया.
रौनक उसकी गाड़ी को जाते देखता कुछ देर खडा रहा. फिर अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा. आज शाम उसने अपने लिए कोई अपॉइंटमेंट नहीं रखा था. शाम उसकी अपनी थी. बस वो खुद आज अपना नहीं था. किरण एक टीस की तरह बार-बार सीने में उठ रही थी. दिल कह रहा था कि उसे रोक ले. मगर किस हक से और किस हैसियत से? दोस्ती का फ़र्ज़ तो वो निभा कर चली गयी थी.
उदास रौनक नहीं जानता था कहाँ जाए. क्लिनिक जाता तो स्टाफ की सवालिया नज़रों का सामना होता. उन्हें कह के आया था आज बहुत बिजी है कोई अपॉइंटमेंट न रखा जाए. आज किसी की भी नज़र या सवाल का सामना नहीं करना है.
घर? सोनिया के घर? नहीं. वहां तो दिन में जाता ही नहीं. जिस दिन घर में रहता भी है तो दिन में बच्चों को लेकर निकल जाता है, कहीं भी, घूमने फिरने. आज बच्चों का सामना करने का भी दिल नहीं है. जाने क्यूँ लग रहा है जैसे किरण की ज़िंदगी में कही कुछ ठीक नहीं है और इसके लिए वो खुद को पता नहीं क्यूँ ज़िम्मेदार समझ रहा है.
गाडी खुद ही अपने घर यानी, भापाजी माँ के घर, याने उसके अपने घर के बाहर आ कर खड़ी हो गयी है. बेख्याली में चलता हुया अंदर आया तो दोनों बच्चे उसे देखते ही "पापा पापा" करते उससे लिपट गए हैं. भापाजी और माँ भी वहीं लिविंग रूम में मौजूद हैं.
पता लगा कि आज कल दिन में बच्चे स्कूल से सीधे यहीं आ जाते हैं. आजकल उनके लिए एक टैक्सी लगवा दी गयी है. सोनिया खुद उन्हें लेने नहीं जाती. बाद में देर शाम को उषा उन्हें लिवा ले जाती है. सोनिया दिन में अपने दोस्तों और शौपिंग वगरेह में बिजी रहती है.
इस बंदोबस्त से भापाजी खुश थे लेकिन माँ कुछ चिंतित लगी.
कह रही थी, “बेटा, सोनिया को कुछ समझा. बच्चों को इस तरह दो घरों में बाँट के रहना रोज़-रोज़ का किस्सा नहीं होना चाहिए. उनके लिए ये अच्छा नहीं है.”
रौनक ने हैरत से माँ को देखा है.
“माँ, आप क्या बात कर रही हो? उसको कोई क्या कहेगा? वो सुनती है? अब तो उसके हाथ में एक हथियार भी आ गया है. पुलिस का.”
इस बात पर कोई कुछ नहीं बोला. बात सच थी. क्या कहते? तो क्या बच्चों का भला-बुरा सोचना भी छोड़ दिया है सोनिया ने अपनी तफरीह के आगे?
लिविंग रूम में बच्चों की खिलखिलाहटों और लगातार चल रही बातों के बीच एक भारी सा कोई शब्द हर बात को दबा रहा था.
पहले से ही उखडा हुया रौनक बोल पडा, “भापाजी से कहो ये ही समझा सकते हैं सोनिया को. आखिर तो इन्हीं की पसंद है वो. मैं तो नहीं लाया लव मैरिज कर के उसको.”
ये शब्द भापाजी की तरफ ईंट की तरह फ़ेंक कर खुद ही से उखड़ा हुआ रौनक तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ कर अपने उस बेडरूम में चला गया, जहाँ अब तक उसने सोनिया के साथ दाम्पत्य निभाया था. सोनिया के नाम से अब उसे कोई अनुभूति होनी लगभग बंद हो गयी थी.
भापाजी और माँ सकते में बैठे रह गए थे. रौनक से इस तरह की बदतमीजी की कभी उम्मीद नहीं थी उन्हें. समझ गए कि घाव बहुत गहरा लगा है. तकलीफों और दर्द ने इस घर का रास्ता देख लिया था. चुप बैठे सोचते रहे कि बेटे के इस दर्द को किस तरह दूर करें. कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था.
रौनक अपने बेडरूम में पहुँच कर लेट गया. दिन में लेटने या सोने की उसे आदत नहीं. मगर आज दिल टीस रहा था. नींद ने आ कर इस टीस को कुछ कम किया. पता नहीं कितनी देर सोता रहा. देर शाम जब नींद खुली तो नीचे से हल्की-हल्की आवाजें आ रही थीं. ध्यान से सुना तो ये आवाजें भापाजी और माँ के अलावा सोनिया की भी थीं.
सोनिया? यहाँ? रौनक का नाता दोनों घरों से इस कदर हल्का हो गया था कि उसे यह भी नहीं पता था कि सोनिया खुद भी हफ्ते में एकाध बार यहाँ आने लगी थी. ये सिलसिला पिछले महीने से ही शुरू हुआ था, जबकि उन्हें शिफ्ट किये हुए लगभग छह महीने हो चुके थे. आज भी बच्चों के लेने खुद ही आयी थी और माँ ने उसे चाय के लिए रोक लिया था.
सोनिया शायद इस आमंत्रण का इंतज़ार ही कर रही थी. वह फौरन रुक गयी. वे लोग बातों में लग गए थे. बच्चे तब तक थक कर भापाजी और माँ के बेडरूम में सो गए थे.
माँ ने अनीता को चाय के लिए कहा और सोनिया को बताना ही चाहती थी कि रौनक भी वहीं है और ऊपर सो रहा है. तभी सोनिया पहले बोल पडी.
"भापाजी मैं रौनक के बारे में आप से बात करना चाहती हूँ."
भापाजी और माँ दोनों ही चौंक गए. अब क्या शिकायत हो गयी बहुरानी को? अब तो सब इसके मुताबिक ही हो रहा है. क्या सचमुच ही उनके बेटे को अपनी गृहस्थी संभालनी नहीं आयी?
भापाजी फ़ौरन बोले, "हाँ जी बहु रानी. बोलो जी. क्या बात है?"
"भापाजी रौनक बहुत उखड़े से रहते हैं. घर में रहते ही नहीं. बहुत देर से घर आते हैं और घर पर खाना तो बिलकुल छोड़ ही दिया है. सुबह ब्रेकफास्ट करते हैं और फिर देर रात को आ कर सो जाते हैं. कोई बात नहीं, कुछ नहीं. बस बच्चों से बात करते हैं सुबह या छुट्टी के दिन. मुझसे बिलकुल उखड गए हैं. आप ही समझाओ रौनक को."
सोनिया लगातार बोले चली जा रही थी. भापाजी और माँ सुन रहे थे. आखिर वो चुप हुयी तो कुछ देर चुप्पी छाई रही.
आखिरकार भापाजी बोले, "देखो बेटा जी. आप अलग रहना चाहते थे. हमने आपका अलग रहने का इंतजाम कर दिया. अब वो आपकी गृहस्थी है, आप अच्छे से संभालो. हम अब बूढ़े हो गए हैं. हमें अपने मामलों में मत डालो. मियाँ बीवी के मामले में वैसे भी बड़ों को नही पड़ना चाहिए. इस मामले में आप को अपने दोस्तों से सलाह लेनी चाहिए. यंग लोग हो. आप लोग बेहतर जानते हो."
सोनिया को उनकी ये बात अच्छी नहीं लगी.
"भापाजी आप तो मुझे ही दोष देने लगे. मैंने क्या किया है? मुझसे तो बोलते ही नहीं. मैं भी चुपचाप उनका मुंह देखती रहती हूँ. कुछ बोले तो पता चले कि क्या बात है."
अब माँ बोली, "बेटा, चुप रहने वाले की चुप्पी में बड़ी बातें होती हैं. तुम समझो. क्या पता उसे तुम्हारी कोई बात पसंद न हो. और वो तुम्हें कह कर तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता हो."
"पर मेरा दिल तो चुप रहने से ज्यादा दुखता है."
"बच्चे. आप रौनक के साथ पांच साल से हो. आप को पता होना चाहिए कि उसका दिल किस बात से दुखता है. आप का पति है वो."
"तो मैं भी तो पत्नी हूँ. उसे पता होना चाहिए कि मेरा दिल किस बात से दुखता है. मेरा ख्याल रखना चाहिए उसको."
अब भापाजी बोले, "बहुरानी, वो मेरा बेटा है इसलिए मैं उसकी तरफदारी नहीं कर रहा. लेकिन आप को भी उसको समझना होगा. दो घरों में वक़्त बिताता है. डॉक्टर है. काम करता है. थक जाता है. नहीं दिल करता होगा उसका बातचीत करने को. आप उसे समझो. दिल लगाने के लिए कुछ करो. घूमो-फिरो. फिल्म देखो. जैसे यहाँ रहते हुए जाते थे."
"भापाजी. मैं तो बहुत कहती हूँ. कहता है फिल्म में बच्चों को लेकर कहाँ जाएँ? मैं कहती हूँ बच्चे घर पे छोडो. तो कहता है अकेले रह जायेंगे. अब दादा-दादी तो हैं नहीं घर पे."
"बात तो ठीक ही कहता है. " माँ बोली.
"हां आप तो यहीं कहेंगीं. आप का बेटा है रौनक. मैं तो परायी बेटी हूँ न. " सोनिया को मौका मिल गया था दिल की भड़ास निकालने का.
यही उसकी सबसे बड़ी समस्या थी. भापाजी जानते थे इस बात को. समझ गए थे. लेकिन इसे कैसे समझाएं सोनिया को? ये नहीं जानते थे. वे नहीं चाहते थे बेटे का घर बिगड़े. इसीलिए जैसे ही बात बिगड़ने लगी उन्हें अलग घर में सेटल कर दिया. मगर अब? इस नए मसले का क्या हल हो?
नीचे हो रही बातचीत के छुटपुट अंश रौनक के कानों में पड़ रहे थे. भापाजी और माँ की मीठी आवाज़ के बीच सोनिया के तल्ख़ शब्द भी उसे सुन रहे थे. न चाहते हुए भी नीचे आ गया. आख़िरी वाक्य सुन लिया था. अपने आपे में नहीं रह पाया.
"डोंट यू डेयर टॉक टू माय पेरेंट्स लाइक दिस."
"मैंने क्या कहा है? सच ही तो कह रही हूँ. कहाँ रहते हो आजकल ? बताओ यहाँ सब के सामने? किसके साथ चक्कर चल रहा है तुम्हारा?"
रौनक के कानों से गुस्से के मारे धुंआ निकलने लगा. इसी सोनिया के लिए भापाजी और माँ से कई बार डांट खाई है रौनक ने. यही सोनिया उसके सामने ही उनका अपमान कर रही थी. और अब ये आरोप? रौनक के धैर्य का बाँध टूट गया. भापाजी के सामने इतना अपमान उसका कभी नहीं हुआ था.
भापाजी और माँ भी सन्न से रह गए थे. कुछ ही पलों के भारी सन्नाटे के बीच सभी ने अपने अपने दिलों की बढ़ी हुयी धडकनों को सुना.
भापाजी ने बात संभालनी चाही, "तुम्हें गलतफहमी हुयी है बहुरानी. रौनक यहीं आता है रात को. खाना खा कर ही जाता है. हमें अच्छा लगता है. तुम्हारी माँ ने कहा भी है इसे कई बार कि सोनिया के घर जाओ. मगर ......." उनके शब्द मुंह में ही थे. जब सोनिया चीख पडी.
"हाँ. हाँ. आप क्यूँ चाहेंगे कि बेटा बहु के साथ बैठे. आप तो मेरा घर ही उजाड़ रहे हैं."
अब इस के बाद रौनक नहीं रह पाया. उसने आगे बढ़ कर सोनिया को बांह से पकड़ा और लगभग घसीटते हुए बाहर ले गया.
"तुम घर चलो अभी मेरे साथ. आज फैसला कर लो. मैं इस सारी खींच-तान से तंग आ गया हूँ. मुझे ये चिखचिख नहीं चाहिए. "
सोनिया उसके तेवर देख कर कुछ डर गयी थी.
"यहीं बात कर लो. क्या करनी है. बच्चे अन्दर है. सो रहे हैं. उनको लेकर जाना है."
"बच्चे अपने घर में हैं. बाद में आकर ले जाऊँगा. तुम चलो इसी वक़्त. मेरे माँ भापाजी का और अपमान मैं नहीं देख सकता. और तुम तो आज के बाद यहाँ कभी आना भी मत. समझीं."
सोनिया ने रौनक के ये तेवर आज तक नहीं देखे थे. रौनक खुद हैरान था. उसके अंदर आज ये आग कैसे भड़क गयी थी?
या शायद कई दिनों से अंदर ही अंदर सुलगता लावा था जो आज फट गया था. इसके फटने में किरण से फिर से हुयी मुलकात ने भी अपना एक अंश का योगदान दिया था इस बात से रौनक अनजान नहीं था. मगर आज ये ज्वालामुखी फट ही गया था.
किसी तरह सोनिया को लेकर ड्राइव कर के घर पहुंचा. उषा ने दरवाज़ा खोला तो सोनिया बेडरूम में दाखिल होते ही बाथरूम की तरफ बढ़ी.
रौनक ने उसका हाथ फिर से पकड़ा और बिठा दिया. खुद उसके सामने खडा रहा. आज उसके अंदर जो उबाल आ रहा था उसे वो झेल नहीं पा रहा था.
"मेरी ये बात आज कान खोल कर सुन लो. मैं पहली बार और आख़िरी बार कह रहा हूँ. तुमसे शादी मैंने भापाजी और माँ के कहने से की थी. तुम मेरी पसंद बाद में बनी. पहले उनकी थी. और अगर इसी तरह बनी रहना चाहती हो तो अपनी ये छोटी-छोटी मक्कारियां तुम्हें छोड़नी होंगीं. और अगर नहीं तो तुम आज़ाद हो. आज ही मैं यहाँ से हमेशा के लिए चला जाता हूँ. बच्चे पहले से ही वहीं हैं. तुम्हें पूरी इज्ज़त के साथ जितना चाहोगी अलिमोनी दे कर तलाक हो जाएगा. उसके बाद तुम आज़ाद हो. लेकिन अगर मेरी पत्नी के तौर पर रहना चाहती हो तो जिस तरह हम सब तुम्हारी इज्ज़त करते हैं और तुम्हारी बातों का मान रखते हैं तुम्हें भी रखना होगा. हम में से किसी की भी बेइज़्ज़ती अब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा. मैं भापाजी नहीं हूँ. और मेरी सीमा आज टूट गयी है. "
इसके बाद वह ख़ारिज हुया सा बेड के सामने रखे सोफे पर बैठ गया. सोनिया की ऑंखें फटी पड़ रही थीं. उसके हाथ पाँव ठन्डे पड़े हुए थे. वो कुछ बोल नहीं पा रही थी.
रौनक ने कुछ देर सोचा और फिर कहा, "मैं अपने घर जा रहा हु. आज रात बच्चे और मैं वहीं रहेंगे. सुबह तक सोच कर तुम अपना फैसला कर लो. अगर चाहती हो कि हम लोग तुम्हारे साथ इस घर में रहें तो सुबह वहां नाश्ते पर आ जाना और हम लोग तुम्हारे साथ आ जायेंगें. अगर नहीं आओगी तो हम समझ जायेंगें. मैं पैकर्स और ट्रक भेज दूंगा. हमारा सामान भिजवा देना. "
ये कह कर रौनक बाहर निकल आया. भापाजी और माँ उसी तरह लिविंग रूम में चुपचाप बैठे हुए मिले.
बच्चे अभी ही सो कर उठे थे. उनींदे थे. अनीता उन्हें दूध दे कर उनके सामने बैठी पीने के लिए मना रही थी.
रौनक भी आ कर बैठ गया. कुछ देर चुप रह कर बोला, "माँ, हमारे कपडे तो शायद होंगें, आज रात के लिए. नए ब्रश हैं या मैं ले कर आऊँ?"
माँ ने कुछ समझा और कुछ नहीं. "बेटा, ये दोनों तो अक्सर यहीं रहते हैं आजकल. इनका तो बहुत सामान कपडे वगेरह यहाँ हैं. तेरे लिए भापाजी का नाईट सूट तेरे कमरे में भिजवा देती हूँ. ब्रश हैं घर पे. वो भी भिजवाती हूँ."
इसके साथ ही दोनों की सवालिया निगाहें रौनक की तरफ उठी रही थीं. सवाल पूछा नहीं था मगर जवाब की दरकार थी.
रौनक ने कहा, "मैंने सोनिया को कल सुबह तक फैसला करने को कहा है. अगर वो यहाँ हमें लेने आयी तो ठीक, नहीं तो हम तीनों में से कोई वहां नहीं जायेगा. "
धप्प से कोई एलियन सी चीज़ लिविंग रूम की हवा को थाम कर बीचोंबीच रखी नक्काशीदार काफी टेबल पर बैठ गयी, अगली सुबह तक के लिए.