14. वो गुजरा ज़माना
सुजाता की फिलिंग के बाद दवाएं बता कर उन्हें अगले हफ्ते की अपॉइंटमेंट दे कर रौनक दोनों को बाहर गाडी तक छोड़ने आया. रास्ते में किरण ने कुछ घर का सामान खरीदा. सुजाता गाडी में ही बैठी रहीं. अब धीरे-धीरे जो लोकल एनेसथीसिया का असर कम हो रहा था तो दाढ़ और होंठ के एहसास लौट रहे थे साथ ही आ रहा था दर्द. दाढ़ में खुदाई हुयी थी खराब हिस्सा निकाल दिया गया था. अच्छा खासा घाव था. टीसने लग गया था. यही वक़्त था दर्द की दवा खाने का. सुजाता ने फ्लास्क में से गिलास में पानी निकाला और कैप्सूल खा लिया.
आज के लिए काफी मशक्कत हो गयी थी. दोपहर के एक बजने वाले थे, जब वे घर पहुंचे. सुजाता को भूख भी नहीं थी और उन्हें फिलहाल कुछ खाने से मना भी था. सो घर आते ही एक कप कोल्ड कॉफ़ी बनवा कर वे अपने कमरे में ले गयीं.
किरण लिविंग रूम में नीरू को गोद में ले कर अपने आई-पैड पर कुछ काम कर रही थी. उसने माँ को उठ कर जाते हुए देखा तो सवालिया निगाह डाली.
"मैं थक गयी हूँ. दवा का भी असर है. कॉफ़ी पी कर सो जाऊंगी. शाम तक कुछ आराम मिलेगा."
सुजाता शायद दुनिया की अकेली ऐसी हस्ती हैं जिसे चाय कॉफ़ी पी कर अच्छे से नींद आती है. वर्ना लोग चाय या कॉफ़ी से नींद को भगाते ज़रूर देखे जाते हैं.
सुजाता अंदर चली गयीं. नीरू भी सो गयी तो कनिका उसे अन्दर कमरे में सुला आयी. दोपहर का खाना तैयार था. खाना खा कर किरण वहीं लिविंग रूम में टीवी लगा कर बैठ गयी.
किरण का ध्यान टीवी में कम था, रौनक के आज इस तरह मिल जाने में ज्यादा उलझा था. कुछ काम ऑफिस से आ गये थे. दो मीटिंग्स के लिए प्लान बना कर भेजने थे, उनके लिए लोगों को सूचित करना था. सब बना कर ईमेल कर के फिर से टीवी में मन लगाने की कोशिश की.
डिस्कवरी चैनल पर खाने का कोई शो आ रहा था. किरण को खाना खाने या पकाने से ज्यादा ये खाना बनाने वाले शो पसंद हैं. जब भी वक़्त मिलता है ज़रूर देखती है. हालाँकि इनमें बनायी जाने वाली ज़्यादातर चीज़ें वो खाती नहीं. आसिफ उसे इसके लिया अक्सर छेड़ता भी था कि जिस शौक से देखती हो, बनाओ भी तो हमारा ही भला हो जाये. इस पर वह मुस्कुरा कर चुप हो जाती थी.
मगर अब तो ये सब बीते ज़माने की बातें हो गयी हैं. जब से नीरू हुयी है उसकी ज़िंदगी में से ये सारे हलके-फुल्के पल हवा ही हो गए हैं. अब तो एक ठोस उपस्थिति होती है घर में आसिफ की, एक अजीब कैफियत सी कि घर में कोई बेहद संगीन सा, मुश्किल सा किरदार, घर के मालिक की हसियत ओढ़े हर किसी के हर एक क्रिया कलाप पर कुंडली मारे बैठा है.
हँसना है तो देख लो कि कहीं वो देख तो नहीं रहा? अगर देख रहा है तो उसका मूड तो अच्छा है. क्योंकि अगर उसका मूड हंसने का नहीं हुया तो आपकी हंसी आपको भारी भी पड़ सकती है. आप को अपनी उस हंसी के लिए जल्दी ही कोई भारी भरकम कीमत, अपमान या निजी नुक्सान भी उठाना पड़ सकता है.
ये बात किरण और कनिका पर ख़ास तौर पर लागू होती थी. किरण इन बातों के बारे में सोचती तो उसे लगने लगता कि ड्राईवर और कुक इसलिए बच जाते हैं क्योंकि एक तो वे दोनों मर्द है, दूसरे ड्राईवर का नाम बख्तावर है और कुक का नाम साजिद अली.
वह अपने मन में से इस बात को निकाल देना चाहती है, मगर फिर कोई ऐसी बात हो जाती है जो फिर से इस धारणा को उसके मन में पक्का कर देती.
कनिका को काम पर रखते वक़्त भी आसिफ ने उस पर एक दूसरी आया को रखने का बहुत दबाव डाला था. उसका नाम नसीमा था. लेकिन इंटरव्यू के वक़्त ही उसका रख-रखाव किरण को पसंद नहीं आया था. वह लगातार अपने बालों में खुजली कर रही थी जिससे साफ़ लग रहा था कि उसके यहाँ साफ़-सफाई नहीं थे यौर शायद बालों में जूं भी थी.
इसके अलावा वह लगातार पान-मसाला भी खा रही थी. अपने छोटे से बटुए में से निकाल कर, जो उसने अपनी ब्रा में खोस रखा था.
ज़ाहिर है किरण अपने बच्चे के लिए ऐसी आया नहीं रख सकती थी. इस बात पर आसिफ से उसकी झड़प भी हो गयी थी. इसी झड़प के दौरान आसिफ के मुंह से निकल ही गया था कि वह चाहता है ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम लोगों को वह अपने जरिये फायदा पहुंचा सके.
जब कि किरण ने कभी इस तरह से नहीं सोचा था. वह इन्सान की काबिलियत और सलाहियत के के आधार पर उसके साथ बर्ताव करती थी. ह्यूमन रिसोर्स में होने की वजह से उसे सभी तरह के लोगों को काम पर रखवाने का मौका मिलता था. उसकी कोशिश यही होती थी कि वह सही लोगों को सही काम के लिए सही जगह तक पहुंचा सके ताकि उसके मन में अपनी इमानदारी को लेकर कभी कोई ग्लानी का भाव ना आये.
अपनी निजी ज़िन्दगी में भी वो इसी तरह से निष्पक्ष होने की हिमायती थी. उसका जीवन इसी तर्ज़ पर चलता भी था. उसे अपने ड्राईवर बख्तावर या कुक साजिद से किसी किस्म की कोई शिकायत नहीं थी. दोनों के ही साथ उसके सम्बन्ध और व्यवहार बेहद आत्मीय और सम्मान जनक थे.
जबकि कनिका को लेकर यही बात आसिफ के लिए कहना मुश्किल था. वह अक्सर कनिका के लिए असहिष्णु हो जाता था. किरण को लगता भी कि वह जान-बूझ कर ऐसा करता है. मगर धीरे-धीरे वह जान गयी थी कि आसिफ ऐसा जान बूझ कर नहीं करता बल्कि वह कई तरह के कोम्प्लेक्सेस का शिकार है. जिनके चलते जाने-अनजाने उससे इस तरह की हरकतें हो जाती हैं.
मगर दुःख की बात ये थी कि बाद में अपनी गलती का एहसास हो जाने के बावजूद अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होता था. बल्कि नाजायज़ बात पर भी दृढ़ता से जमा रहता था. जो किरण के लिए बेहद दुखदायी स्थिति हो जाती थी.
आज इस वक़्त टीवी पर जो चल रहा था उससे किरण का मन पूरी तरह उचट गया था. कानों में कोई आवाज़ नहीं जा रही थी न ही आँखों के सामने कोई तस्वीर ही टिक रही थी. रौनक की वो बात रह-रह कर याद आ रही थी.
किरण कभी इस बात को भूल नहीं सकती. वो शूल आज तक मन में कहीं गहरे धंसा हुआ है. कितना तो पानी पुल के नीचे से बह चुका है. कितने तूफ़ान उसकी ज़िंदगी में उसके बाद आ चुके हैं. मगर रौनक का वो आलिंगन और वो बात आज भी ज्यों की त्यों अंदर रखी है.
रौनक् ने कहा था, "किरण, भापाजी को हमारा रिश्ता मंज़ूर नहीं है. इन्हें लगता है तुम बहुत इंडिपेंडेंट लडकी हो. घर में बंध कर जॉइंट फॅमिली में नहीं रह पाओगी और वे तो हमेशा से एक जॉइंट फॅमिली का सपना देखते आये हैं. हमें अपने रिश्ते में से ये साथ रहने की बात को निकालना होगा. "
किरण एक पल तो कुछ समझ ही नहीं पायी थी. भापाजी के सपने से किरण और रौनक के साथ रहने के सपने को टूटने का अंदेश क्यूँकर? मगर फिर जल्दी ही सारी बात समझ गयी. रौनक भापाजी का एकलौता बेटा है. जाहिर है भापाजी का संयुक्त परिवार का सपना वही तो पूरा करेगा.
तो जब प्यार का इज़हार किया था, जब साथ रहने की बातें की थीं दोनों ने तब रौनक ने भापाजी के सपने के बारे में क्यूँ नहीं सोचा? जब भापाजी उसे अक्सर अपने ऑफिस में लंच पर बुला लेते थे तब उसे क्यों नहीं बताया गया कि ये लंच उसके इम्तिहान थे जहाँ ये देखा जाना था, चुपके से कि किरण उनके घर की बहु बनाने लायक है कि नहीं.
किरण का दिल एक झटके में टूट गया था. रौनक ने उसे आलिंगन में ले कर अपने टूटे दिल का हाल सुनाना चाहा था तो उसने उसे रोक दिया. सिर्फ इतना बोली, "मुझे मेरे घर छोड़ दो. यहाँ रास्ते में उतर कर न तो तुम्हारी बेईज्ज़ती करूंगी ना ही अपना तमाशा बनाऊँगी."
रौनक ने गाडी आगे बढ़ी दी थी. उसका घर आया तो बिना उसकी तरफ देखे किरण ने कहा था, "गुडबाय. अब हम कभी नहीं मिलेंगे. "
रौनक उसे देखता रहा था. कुछ कह नहीं पाया था. वह जब घर के अन्दर चली गयी तो वह भी आगे बढ़ गया था. उसके बाद बहुत से हालात बदले थे. कई तूफ़ान उनके घर में आये थे. जिनके चलते खुद रौनक की राह बदल गयी थी. आज वो कारोबारी नहीं था भापाजी की तरह, बल्कि एक सफल डेंटल सर्जन था.
उसके कई साल बाद सोनिया से उसकी अरेंज्ड मैरिज हुयी थी. किरण के बाद लम्बे समय तक उसकी ज़िंदगी में कोई लडकी नहीं आने पायी थी. सोनिया को पा कर वह खुश था. बच्चों को पा कर और भी. मगर पिछले कुछ महीनों से उसके हालात बदल रहे थे. सोनिया की महत्वाकांक्षा सर उठाने लगी थी और उसी के चलते उस रविवार रौनक पुलिस चौकी का वह छोटा सा गद्न्ला सा फ्लैट भी देख आया था.
उस गुडबाय के बाद भी किरण और रौनक का अक्सर आमना-सामना हो जाता था, कहीं न कहीं. दोनों के कॉमन फ्रेंड बहुत थे. मगर अब दूरी बना कर रखते. न तो रौनक ने ही ना किरण ने ही इस दूरी को पाटने की कोई कोशिश की.
रौनक के लिए भापाजी की इच्छा सर्वोपरि थी. किरण के लिए रौनक का उस इच्छा को इतना मान देना कि अपनी ज़िंदगी को ही दांव पर लगा देना उसके आत्म-सम्मान की अवहेलना थी. सो दोनों तरफ से तय हो गया था कि वे एक दूसरे के लिए नहीं बने थे. एक समझौते की तरह वे एक दूसरे से दूर चले गए थे.
किरण की माँ को इस दोस्ती या रिश्ते की कभी भनक भी नहीं लग पायी थी. जब तक बात कुछ बढ़ती और वह सुजाता से रौनक को मिलवाती, उससे पहले ही भापाजी का फरमान जारी हो गया था.
रौनक की एक और याद ताज़ा धुले दुपट्टे की तरह तहा कर संभाल कर रखी हुयी है किरण ने अपने मन के तहखाने में, खुशबु से भीगी हुयी याद.
उसने अहिस्ता से इस दुपट्टे को उठाया. बरसों से समेत कर रखा ये दुपट्टा आज भी उतना ही गहरा लाल था. जितना पहले दिन हुया था जब रौनक ने कहा था, "किरण तुम्हें शायद बुरा लगे मगर मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ. मैं तुम्हें सिर्फ एक दोस्त की तरह नहीं देखता. मुझे बार-बार ये ख्याल आता है कि मैं तुम्हारे साथ अपनी पूरी ज़िन्दगी बिताना चाहता हूँ. अब इसे प्यार कहो या जो भी. तुम सोच कर बताना. "
इतना कह वो चुप हो गया था. उन दिनों किरण सैंट स्टीफेंस से इंग्लिश ओनर्स कर रही थी. थर्ड इयर में थी. रौनक हिन्दू कॉलेज से बी.एस.सी. कर रहा था. वे स्कूल की दोस्ती को उसी तरह निभा रहे थे. अक्सर मिलते थे. कभी भी. कहीं भी. जहाँ भी. जितना भी वक़्त मिलता. बैठते. दुनिया जहान की बातें करते जो वक़्त के साथ उनके बढ़ती उम्र, उनके हालात और परिपक्वता के साथ परिपक्व हो रही थीं.
किरण को भी लगने लगा था कि रौनक अगर ज़िंदगी से चला गया तो ज़िंदगी वीरान हो जायेगी. उसके दिन ख़ास तौर पर छुट्टियों के दिन रौनक के इर्द-गिर्द ही घूमते थे.
उस दिन और उसके अगले दिन, फिर उसके भी अगले दिन वो रौनक के बारे में ही सोचती रही थी और पाया था कि रौनक सही कहता था. उन्हें अपनी ज़िन्दगी एक दूसरे के साथ बिताने के बारे में कुछ करना चाहिए.
उस एक दिन और उस एक बात के बाद कुछ ऐसा हुआ कि किरण और रौनक दोस्तों से प्रेमी बन गए. किरण के दिल में रौनक को मिलने को लेकर जो उत्साह रहता था वह रातोरात एक तड़प में बदल गया था. कई बार वह समझ नहीं पाती इस बदलाव को. क्या सचमुच पहले से ही वो रौनक के साथ इसी तरह का प्रेम का रिश्ता चाहती थी और चूँकि रौनक की तरफ से कोई पहल नहीं हुयी थी इसलिए अपनी भावनाओं को दबा कर बैठी थी. रौनक के इंतज़ार में. क्या सचमुच? ये ऐसा सवाल था जिसका जवाब बहुत मुश्किल था. कम से कम किरण के पास तो इसका जवाब नहीं था.
ऐसा नहीं था कि किरण के आसपास लड़कों की कमी थी. उसके खासे दोस्त थे. कॉलेज में, सोसाइटी में, स्कूल के ज़माने के भी. रौनक के अलावा भी. मगर किसी से ऐसी घनिष्ठ मित्रता नहीं थी जैसी रौनक के साथ थी. रौनक के साथ कुछ अलग ही बात थी. यानी मन में पहले से ही कुछ ख़ास था रौनक के लिए. अब समझ पा रही थी.
वे लोग पहली की ही तरह अक्सर मिलते. मगर अब रिश्ता बदल गया था. जगह और मौका देख कर आलिंगन बध्द भी होते, किस भी करते मगर प्यास अधूरी रह जाती. फिर से मिलने की, जल्दी जल्दी मिलने की तड़प बनी रहती.
रौनक एक दिन उसे भापाजी के ऑफिस भी ले गया. भापाजी से मिलाया. वे किरण को बेहद प्रभावी और प्रेममय व्यक्तित्व वाले इंसान लगे. इसके बाद अक्सर वे दोनों जब ऑफिस के आस-पास वाले इलाके में होते तो ऑफिस आ जाते. भापाजी के साथ घंटा आधा घंटा बैठते, चाय पी जाती और दुनिया जहान की बातें होतीं. शाम गहराने लगती तो भापाजी रौनक को आदेश देते कि वह किरण को उसके घर छोड़ कर अपने घर चला जाए.
दो बार उन्होंने किरण और रौनक को अपने क्लब में लंच पर भी बुलाया. एक बार किरण को अकेले भी बुलाया. इस दौरान वे किरण के बारे में अक्सर जानकारी लिया करते. उसकी पढ़ाई, रूचि, विचार, दुनिया के बारे में राय वगैरह के बारे में विस्तार से बातें होतीं.
बातूनी भापाजी जब किरण से बात करते तो ज़्यादातर श्रोता बन जाते. कई बार जोश में आकर किरण अपने मन के उदगार कहती चली जाती और उसे पता भी न चलता कि वह अकेली ही कितनी देर से बोले चली जा रही है. उसे बड़ा अच्छा लगता. यूँ लगता जैसे कि भापाजी उसे अपने घर की बहु बनाने की तैयारी कर रहे हैं.
वह जोश से और भी उत्साह के साथ अपने विचार उनके साथ शेयर करती. नयी-नयी बातें दुनिया और साहित्य के बारे में उन्हें बताती. वे भी उत्साह के साथ सुनते. उसे लगता ही नहीं था जैसे वो किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति के साथ बात कर रही हो. वे उसे हमउम्र ही लगते.
यही तो भापाजी की खासियत थी. वे बच्चे के साथ बच्चा बन जाते हैं, किशोर के साथ किशोर, युवा के साथ युवा, बूढ़े के साथ बूढ़े. स्त्री के साथ स्त्रियोचित बातें करने में भी उनका कोई सानी नहीं.
लेकिन किरण के साथ वे थोड़ी सी दूरी भी बना कर रखते. एक बार उससे उसके विचार पूछते और फिर उसका धारा-प्रवाह बोलना सुनते. साहित्य की तेजस्वी विद्यार्थी किरण वाद-विवाद की यूनिवर्सिटी चैंपियन थी. दिल खोल कर हर विषय पर पक्ष और विपक्ष दोनों में बोलती.
भापाजी और किरण के संवाद बेहद दिलचस्प होते जो रौनक सुनता और कभी कभी सोच में पड़ जाता. वो समझ नहीं पाता था कि भापाजी क्यूँ किरण के साथ इतना समय बिताते थे. एक दिन जल्दी ही उस पर यह राज़ खुल ही गया.
किरण के घर परिवार के बारे में भी भापाजी ने बातों बातों में जानकारी हासिल कर ली. सिंगल माँ की एकलौती बेटी है. किरण की माँ के बारे में भी उन्हें जल्दी ही सारी जानकारी मिल गयी. वे सुजाता के व्यक्तित्व से भी प्रभावित थे. शायद काम के सिलसिले में एकाध बार उनका सुजाता से मिलना हुआ था. एक कारोबारी का एक सरकारी उच्च अधिकारी से मिलने जैसा औपचारिक मिलना.
फिर एक दिन जब रौनक उसे फिल्म के लिए मिलने वाला था और वो तैयार हो कर घर से निकलने ही वाली थी कि रौनक का फ़ोन आया.
"थैंक गॉड. तुम घर से निकली नहीं हो." वो ज़माना मोबाइल फ़ोन का नहीं था.
"नहीं, बस निकल ही रही हूँ."
"नहीं मत निकलो. फिल्म कैंसिल. भापाजी ने मुझे बुलाया है ज़रूरी काम से. मैं कॉलेज से सीधे ऑफिस ही जा रहा हूँ. जल्दी फ्री हो गया तो फ़ोन करूंगा. शाम को टाइम रहा तो मिलेंगे." कह कर रौनक ने फ़ोन रख दिया था.
साइंस का विद्यार्थी होने के नाते उसके शाम तक प्रैक्टिकल होते थे, जबकि किरण दोपहर में ही फ्री हो कर घर आ जाती थी. एक दो बार उसने रौनक से कहा भी था कि जब उसको भापाजी का कारोबार ही संभालना है तो क्यूँ साइंस पढ़ कर वक़्त और दिमाग खराब कर रहा है. जिस पर उसने हर बार यही कहा था कि उसे साइंस बहुत पसंद है. इसलिए पढ़ रहा है. जब तक भापाजी काम संभाल ही रहे हैं और उसे कारोबार में आने को नहीं कहते वह आगे पढ़ता ही रहेगा.
रौनक ऐसा ही था. भापाजी की बात सब से पहले. वे जो कहें पत्थर की लकीर. शायद अब कुछ बदल गया हो. गंभीर हो गया है. सफल डेंटिस्ट है. खूब नाम और दाम कमा रहा है.
एक मुस्कान आ गयी किरण के चहरे पर. लेकिन अगले ही पल उस शाम की याद ताज़ा हो आयी.
करीब एक घंटे बाद रौनक का फ़ोन आया और उसे उसके घर के पास ही एक रेस्टोरेंट में मिलने को कहा.
वो पहुँची तो रौनक वहां पहले से ही मौजूद था. जान गयी कि उसने यहाँ आ कर ही उसे फ़ोन कर के बुलाया था. आज तक वह कभी किरण के घर नहीं आया था. इसकी मुख्य वजह यही थी कि किरण दिन में हमेशा घर पर अकेली ही होती थी. सुजाता तो शाम देर तक घर आ पाती थीं. रौनक नहीं चाहता था कि कोई उन्हें ले कर किसी भी तरह की चर्चा या गप्पबाजी करे.
किरण कुछ हैरान तो थी, फिल्म का प्रोग्राम कैंसिल कर के अब इतनी जल्दी यहाँ रौनक का मिलने आना. कोने की एक मेज़ पर बैठा वह कुछ परेशान लग रहा था. किरण ने रौनक की तरफ मुस्कुरा कर देखा तो वह और भी गंभीर हो गया.
किरण चुपचाप उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गयी. कुछ बोलने को मुंह खोला तो उसका मूड देख कर चुप हो गयी. पूछना चाहती थी कि ऐसा क्या ज़रूरी काम था भापाजी को. मगर उसका गंभीर चेहरा देख कर लगा कि वह खुद ही बताये तो अच्छा.
किरण को ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा. खुद से ही जूझता हुया रौनक बोल तो रहा था मगर उसकी आवाज़ और उसके लफ्ज़ खोखले से लग रहे थे किरण को. लग रहा था ये जो आदमी सामने बैठा बोल रहा है इसे तो वो कत्तई नहीं जानती. ये वो रौनक था ही नहीं, जिसे वो स्कूल के ज़माने से जानती थी. जो उसका जिगरी दोस्त था. ये तो कोई और ही आदमी था, अनजान चेहरा, अजनबी आवाज़ और सूनी आँखें.
मगर वो बोल रहा था. एक एक शब्द चबा-चबा कर बोल रहा था. सब कुछ रट कर आया था. बहुत तैयारी के साथ वहां आ कर बैठा था.
"किरण. आज मुझे भापाजी ने हमारे बारे में बात करने के लिए बुलाया था. बहुत लम्बी बात हुयी. मुझे भापाजी ने हमारे परिवार के बारे में वे सब बातें बताईं जो मैं आज तक नहीं जानता था. सब बातों के बाद उनका कहना है कि मेरी और तुम्हारी शादी नहीं हो सकती. मैं उनका इकलौता बेटा हूँ. और वे हमेशा से ही एक जॉइंट फॅमिली का सपना देखते आये हैं. जिस तरह से उन्होंने तुम्हे परखा है उनका मानना है कि तुम बेहतरीन लड़की हो. जिसकी भी ज़िंदगी में आओगी उसका जीवन सफल हो जाएगा. लेकिन तुम हमारे घर के माहौल के साथ एडजस्ट नहीं कर पाओगी. तुम खुले माहौल में खुली तरबीयत पा कर बड़ी हुयी हो. आज़ाद ख्याल भी हो और बहुत उत्तम और खुले विचार भी रखती हो. शुरू में कुछ वक़्त एडजस्ट कर भी लोगी तो बाद में ऊब जाओगी. हमारे घर की जॉइंट फॅमिली में बहु की तरह नहीं रह सकोगी. जिस तरह का माहौल हमारे परिवार में है, वो तुम्हारा दम घोट देगा. इसलिए हम दोनों की और हमारे घर की खुशी के लिए यही बेहतर है कि हम इस रिश्ते को यहीं रोक दें. आगे ना बढ़ाएं. "
चुप हो कर रौनक ने एक बार किरण को देखा था. वह गुमसुम थी. सकते में थी. न कुछ सोच पा रही थी. न कुछ बोल सकती थी. एक टक रौनक का चेहरा देख रही थी. जो झूठा सा हो आया था. वही रौनक था जिसने एक दिन उसके सामने ज़िंदगी साथ बिताने का प्रस्ताव रखा था. वही रौनक था जो आज उसे कह रहा था कि उसके घर में किरण का गुज़ारा नहीं हो पायेगा.
दोनों बातें उसी एक ही आवाज़ में उसी एक ही मुंह से सुन चुकी किरण को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपना चेहरा कहाँ छिपाए. अपना टूटा हुआ दिल लेकर कहाँ जाए.
कुछ देर जड़ हुयी बैठी रही. पांवों में ताकत ही नहीं बची थी कि उठ सकें. रौनक ने पानी का गिलास उठा कर उसे पकडाने की कोशिश की. उसकी हमदर्दी देख कर किरण की निराशा और हताशा गुस्से में बदल गयी. वह फ़ौरन उठी और बाहर की तरफ चल दी.
टेबल पर कुछ रुपये फ़ेंक कर फ़ौरन रौनक भी उसके पीछे लपक आया. वो बाहर आयी तो उसने किरण का हाथ पकड़ कर रोकने की कोशिश की.
"कुछ तो बोलो किरण. कुछ कहो यार."
किरण ने उसका हाथ झटक दिया. क्या कहना था? क्या बोलना था? जो जवाब रौनक को देने थे वो तो उसने पहले ही कह दिए थे.
वो तो भापाजी का बेटा था. आज से वो किरण का दोस्त नहीं था. प्रेमी तो हरगिज़ नहीं था. दिल में से धुंआ ही धुंआ उठ रहा था. आँखें इस धुंए की ताब से जल रही थी. गले में तेजाब की जलन थी.
"प्लीज, गाडी में बैठ जाओ. प्लीज किरण. तुम्हें घर छोड़ कर आऊँगा. प्लीज. मेरी ये आखिरी बात मान लो. आज के बाद कुछ नहीं कहूँगा तुम्हें."
किरण ने उसकी तरफ देखने की कोशिश भी नहीं की. क्या देखती? ये तो वो रौनक ही नहीं था. और उसकी आँखों में इस वक़्त बला की जलन थी. कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. समझ गयी थी इस वक़्त अकेली घर जाना बहुत मुश्किल होगा. पैदल के लिए दूर था. और ऑटो नहीं कर पायेगी. बात करें लायक जुबां ही नहीं रह गयी थी उसके मुंह में.
चुपचाप गाडी में बैठ गयी थी. रास्ते में रौनक ने कुछ कहना चाहा तो किरण ने कहा, "अब कुछ मत कहो. रास्ते में उतर कर न तो खुद और न ही तुम्हें बेईज्ज़त करना चाहती हूँ."
घर आ गया था तो एक वाक्य कह कर उतर आयी थी. और फिर मुड़ कर नहीं देखा था रौनक को.
"अब हम कभी नहीं मिलेंगे रौनक. "
रौनक उसे रोकना चाहता था. कुछ कहना चाहता था. कोई तसल्ली देना चाहता था. शायद कहना चाहता था कि उसका दोस्त अभी है रौनक के अंदर.
लेकिन किरण ने तय कर लिया था. आज उसने प्रेमी तो खोया ही था. अपनी ज़िन्दगी एक सबसे कीमती रिश्ता, एक बेहतरीन दोस्त भी खो दिया था. किरण की ज़िन्दगी में जो कमी उस दिन आयी थी वो कभी पूरी नहीं हुयी. आज तक बनी हुयी है.
मगर आज रौनक का इस तरह मिलना? कुछ समझ नहीं पा रही. एक ऐसे वक़्त में रौनक का मिलना जब उसकी ज़िंदगी एक बार फिर लगभग बिखर जाने की कगार पर खड़ी हुयी है. किरण न कुछ सोचना चाहती है न कुछ बोलना.
शायद रौनक भी कुछ समझ नहीं पा रहा. तभी तो कोई बातचीत नहीं हुयी उनके बीच. सुजाता और किरण को जब गाडी तक छोड़ने आया तब भी कोई ख़ास बात नहीं हुयी. न उसने पूछा किरण की मौजूदा ज़िंदगी के बारे में और न ही अपने बारे में कुछ बताया.
वैसे ये निजी बातें सुजाता के सामने हो भी नहीं सकती थीं. सुजाता किरण के दोस्तों के बारे में ज्यादा जानती नहीं थीं. और रौनक का तो उन्हें नाम तक याद नहीं था. ऐसे में आज की इस मुलाकात को एक सामान्य सी मुलाक़ात बनाये रखना ही बेहतर था. जो रौनक ने किया था, बिना जाने कि किरण भी यही चाहती थी.
एक बार फिर रौनक के लिए वही भावनाएं उसके मन में उठने लगी थीं जिन्हें किरण ने बहुत सख्त दिल हो कर फ़ौरन दबा दिया.. नहीं, उसे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना. वो खुद शादीशुदा है. अपनी शादी से पूरी तरह निराश नहीं हुयी है. हालाँकि दिल बहुत उदास है, दुखी है. मगर एक हल्का सा धागा अभी तक उम्मीद के सहारे टिका हुया है कि शायद वक़्त के साथ आसिफ को अपनी गलती का एहसास हो जाए और उसकी शादी की गाडी पटरी पर लौट आये. फिलहाल तो ये हिचकोले खाती हुयी ही चल रही थी.
लेकिन एक बात तय थी. किरण अब इस वक़्त उम्र के इस पड़ाव पर, जीवन के इस मोड़ पर एक दोस्त की कमी बहुत बुरी तरह से महसूस कर रही थी. रौनक का इस तरह अचानक मिल जाना उसे प्रकृति का एक संकेत लग रहा था कि शायद रौनक फिर एक दोस्त की तरह उसकी ज़िंदगी में लौटने के लिए ही आया है.
तभी तो गाडी में उनके बैठने के बाद रौनक ने अपना विसिटिंग कार्ड अहिस्ता से उसके हाथ में थमा दिया था और कहा था, "आंटी को कोई भी किसी भी तरह की प्रॉब्लम हो तो इसमें मेरा पर्सनल नंबर है. मुझे उस पर कॉल करना. एनी टाइम. 24 घंटे में से किसी भी टाइम. एंड यस थैंक यू फॉर मीटिंग अगेन. बाय."
और मुस्कुरा कर उसकी आँखों में देख कर उसे विदा कहा था. किरण ने भी उसकी आँखों में झाँक कर जवाब में कहा था, "बाय."
वहां किरण को प्रेमी तो नहीं, बिछड़ा हुआ दोस्त ज़रूर नज़र आ गया था. जिसके इस जनम में फिर से मिलने की उम्मीद सपने में भी नहीं की थी.
जब दिल टूटा था तो कुछ दिन चुपचाप रोई थी. फिर उठ कर फाइनल इयर के एग्जाम में जुट गयी थी. तीन महीने बाद जब इम्तिहान ख़त्म हुए थे. तब छुट्टियाँ मनाने माँ के साथ शिमला चली गयी थी. वहीं सुजाता को इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी से प्रोफेसर के पद के लिए प्रस्ताव मिला था.
इसकी तैयरी वे काफी समय से कर रही थीं. दो महीने के नोटिस के बाद माँ बेटी दोनों इंग्लैंड चली गयी थीं. अगले चार साल किरण वहीं रही. आगे की पढ़ाई की. साहित्य में मास्टर्स शुरू की लेकिन एक साल के बाद उसमें मन नहीं लगा. तो उसे छोड़ दिया.
छित-पुट नौकरिया भी कीं. लेकिन मन कहीं नहीं लग रहा था. फिर एक दिन ख्याल आया ह्यूमन रिसोर्स में मास्टर्स करने का. एडमिशन आसानी से हो गया. तो वही कर लिया. और फिर लौट कर भारत आ गयी. क्यूंकि यहाँ उसे एक बहुत अच्छी नौकरी मिल गयी थी.
उसका मन इंग्लैंड में नहीं लग रहा था. माँ के साथ होने के बावजूद. मन अभी तक संभल नहीं पाया था. दो और पुरुष मित्र बने लेकिन ये रिश्ते लम्बे नहीं चल सके. कहीं कोई कमी हर वक़्त सालती रहती थी. दोस्त लगभग नहीं के बराबर ही रहे वहां इंग्लैंड में भी और यहाँ भारत में भी.
पुराने दोस्तों से पूरी तरह कट गयी थी. इस डर से कि कहीं रौनक से फिर सामना न हो जाए. फिर चार साल का इंग्लैंड प्रवास बीच में आ गया. इसने दोस्तों से छूटने में बहुत मदद की. वापिस भारत आयी तो काम में लग गयी. सहयोगी में से ही वक़्त बे वक़्त कोई दोस्त का रोल निभा जाता था.
सुजाता ने बेटी को वहीं रोकने की कोशिश की लेकिन जल्दी ही समझ गयीं कि उसका मन इस माहौल में नहीं लगेगा. भारत में भी वैसे कोई नज़दीकी रिश्तेदार नहीं था. मगर भारत उसका जन्म का देश था. कई मामलों में किरण अपनी माँ से अलग है और माँ इस बात को समझती है.
सुजाता बहुत आज़ाद ख्याल हैं. लेकिन किरण परम्पराओं में खासा विशवास रखती है. सुजाता ने इन चार साल में परिपक्ब हो चुकी किरण को जितना समझा उसके अनुरूप उन्हें भी लगा कि ये लडकी भारत में ही खुश रहेगी.
सो जब जॉब मिल गया और जॉब प्रोफिएल भी बहुत अच्छा था तो उन्होंने उसे रोका नहीं. शुरू में किरण अपने गुडगाँव वाले फ्लैट में रही. मगर जल्दी ही उसे कंपनी की तरफ से नॉएडा में एक तीन बेडरूम का अपार्टमेंट मिल गया.
कुछ साल इसी तरह गुज़र गए थे. किरण अपनी ज़िंदगी में जम गयी थी. सुजाता वहां इंग्लैंड में पैर जमा चुकी थी. साल दो साल में एक दुसरे के देश में आ कर माँ बेटी मिल लेती थीं. शादी के बारे में कभी सुजाता ने किरण पर कोई दबाव नहीं साला. वे तो इस बारे में बात ही नहीं करती थी. खुले विचार और आजाद दिमाग की सुजाता इंग्लैंड की नागरिक बन कर और भी उदार हो गयी थी. उन्हें लगता कि जब चाहेगी उनकी बेटी शादी करना, तब खुद ही उन्हें बता देगी.
उसी दौरान किरण की मुलाकात आसिफ से हुयी थी. जो उसे बहुत पसंद आया. उसके विचार खुले हुए भी थे और परम्परा से बंधे हुए भी. वह सभी धर्मों का समान आदर करता था. कम से कम उस वक़्त ऐसा प्रभाव उसने किरण पर डाला था. पत्रकार था. टेलीविज़न की अच्छी नौकरी थी.
कुल मिलाकर किस्सा यूँ हुया कि किरण को उससे प्रेम हुआ और जल्दी ही दोनों ने शादी कर ली. शादी के लिए सुजाता भारत आयी थीं. मगर किरण के साथ नहीं रही थीं. दो महीने अपने गुडगाँव वाले फ्लैट में ही रहीं. और अपनी बेटी की नयी शादी की खुशी देख कर वापिस चली गयीं. उन के दिल को तसल्ली हुयी थे कि आखिर कार बेटी को प्रेम मिला था और वह अपनी नयी ज़िंदगी में रच बस रही थी.