12. एक घर हो हमारा
सोनिया का हाथ पकडे हुए नीचे उतर कर जब रौनक लिविंग रूम में पहुंचा तब तक भापाजी और गायत्री खाना खा चुके थे और डाइनिंग टेबल से उठ ही रहे थे. भापाजी सीधे जा कर सोफे पर बैठ गए, गायत्री हमेशा की तरह अपने बाथरूम में गयीं.
उनकी जब से रूट कैनाल ट्रीटमेंट हुयी है वे हर खाने के बाद अपने दांत साफ़ करती हैं. फ्लॉस तो ज़रूर ही करती हैं. बहुत तकलीफ उठाई है गायत्री ने इस दांत में दर्द के मारे. अब बहुत एहतियात बरतती हैं. कभी-कभी कह भी उठती हैं, "बेटा डेंटिस्ट हो तो भगवान को भी सोचना चाहिए कि इसको दर्द न दो इतना. कम से कम दांतों में.”
उनकी इस बात पर सब हंसते हैं. सब से जायदा तो रौनक और कहता है, “भगवान मुझे कहते हैं कि पहले घर वालों पे हाथ साफ़ कर लो. ख़ास कर माँ के दांतों पर. तो बाहर वालों के साथ गड़बड़ नहीं होगी. और बदनामी का डर भी नहीं होगा कि डॉक्टर अच्छा नहीं है कमाई भी अच्छी होगी. इसलिए आप को तो खुश होना चहिये कि आप बीमार हो कर भी बेटे के काम ही आ रही हो."
नकली गुस्से से गायत्री बेटे को एक धौल जमा देती है इस बात पर.
अभी सोनिया ने वहां रुकने में थोड़ी झिझक दिखाई तो रौनक ने उसका हाथ थपथपा कर अपने साथ भापाजी के सामने वाले सोफे पर उसे बिठा लिया.
कुछ देर चुप्पी छाई रही. भापाजी खाने के बाद कुछ सुस्त लग रहे थे. वैसे भी सुबह से इस झमेले में लगे हुए थक तो गए थे. लेकिन खाने के बाद की दोपहर की पहले ही लेट हो चुकी झपकी को फिलहाल कुछ देर के लिए और टाल कर सोनिया से बात करने के लिए रुके हुए थे. ये काम बहुत ज़रूरी था.
इससे पहले की आज की अपनी नाकामी से निराश हो कर सोनिया फिर कोई उल जुलूल हरकत कर निकले और फिर पूरा घर किसी मुसीबत में आन पड़े.
उन्हें लगा गायत्री को अंदर गए देर हो गयी है. तो बेटे से बोले, “रौनक देखा बेटा, देख तो ज़रा अपनी माँ को. देर लगा दी इतनी. क्या हो गया?”
रौनक उठने ही वाला था कि गायत्री अन्दर से आती हुयी दिखाए दे गयीं. अहिस्ता-अहिस्ता चलती वे भी भापाजी के बगल वाले सोफे पर बैठ गयीं. खासी थकी हुयी लग रही थीं. सर के बाल भी उड़े-उड़े से ही हो रहे थे. शायद आज की उलझन में वे खुद को आइने में देखना ही भूल गयी थीं. वर्ना गायत्री हमेशा टिपटॉप रहती हैं. अपने गिरते हुए स्वस्थ्य और बढ़ती हुयी उम्र के बावजूद.
बैठते हुए उन्होंने हल्की सी हाय की, पीठ को सोफे से टिकाया और घुटनों पर हाथ फेरे. अनीता को जो सामने ही डाइनिंग टेबल से खाने का सामान और बर्तन संभाल रही थी कहा, "बेटा अनीता, चाय पिला दे सबको और जो केक बनाया था कल वो भी ले कर आना.”
रौनक खिल उठा. उसे माँ का बनाया हुया सादा स्पंज केक बहुत पसंद है.
"वाह माँ! केक. कल नहीं खिलाया किसी ने मुझे.”
“कल देर से बनाया था. मैं जल्दी सो गयी थी. अनीता को याद नहीं रहा होगा.”
कुछ देर फिर चुप्पी छाई रही. कल रात और आज सुबह की सारी बातें सभी के मन-मस्तिष्क पर एक बार फिर से छा गयी थी.
आखिर भापाजी ने चुप्पी तोडी.
“ सोनिया बहु. जो भी हुया अच्छा नहीं हुया. हम सब ने गलतियाँ की. और अब वक़्त आ गया है कि हम सब अपनी-अपनी गलतियां सुधारें.”
सोनिया एकदम चौकन्नी हो गयी. उसे लगा कि अब उसे भापाजी की डांट पड़ेगी. उसकी पुलिस में की गयी शिकायत को लेकर. वह कुछ बोलना ही जा रही थी कि रौनक ने उसके हाथ पर दबाव बढ़ा कर उसे रोक दिया.
समान्यतया वह रौनक के इस तरह के इशारों पर खामोश नहीं रहती मगर सुबह जो उसका पासा पलटा था पुलिस चौकी में उसके बाद से वह कुछ खिन्न भी थी और परेशान भी. अपने अगले कदम के बारे में कुछ तय नहीं कर पायी थी. इसलिए भी और भापाजी के सामने उसकी बोलती बंद हो ही जाती थी. वह चाह कर भी बोल नहीं पायी.
“सोनिया बहु, गलतियाँ हम सब ने की. तूने तो सिर्फ उनका जवाब ही दिया.”
इस पर सोनिया कुछ नहीं कह पायी. मगर भापाजी के खुद को बहु कहने पर उसे खासी हैरानी हुयी. वे हमेशा उसे बेटा ही कहते थे. आज उसके लिए संबोधन में हुए इस बदलाव ने उसे एक ही पल में बदले हुए हालात और रिश्तों का हवाला दे दिया.
भापाजी आगे बोले. “अब हमें आगे का देखना है कि हम आगे कैसे चलें. जो हो गया उस पर मिट्टी डाली जाए. आगे का देखा जाए. तो बहु मैं आपसे ही पूछता हूँ कि आप क्या चाहते हो?"
सोनिया कुछ बोलने को हुयी फिर चुप हो गयी. सब उसका मुंह देखने लगे. तीन जोड़ी आँखें उसी के चेहरे पर टिकी थीं. जो असमंजस में घिरा था. एक मन कहता था कि अलग होने की बात को साफ़-साफ़ कह दे. दूसरी तरफ दिमाग कह रहा था कि क्या ऐसा कहना इस वक़्त ठीक होगा? मगर सवाल उससे किया गया था तो उसे बोलना तो पड़ेगा.
जिस ठसके और दबाव के साथ पति से कहती थी उसी तरह से सास-ससुर के सामने नहीं कह पायी.
सिर्फ इतना बोली, “आप रौनक से ही पूछ लीजिये. ये जानता है मैं क्या चाहती हूँ."
“नहीं, बहु. हम आपसे पूछ रहे हैं. आप को ही सीधे हमें बताना होगा. आप रौनक की पत्नी हैं इस नाते से हमारी बहु हैं. इस घर के बच्चों की माँ हैं. आप को अपनी बात कहने का पूरा-पूरा हक है. उसी हक से आप अपनी बात सीधे हमसे कहिये. इस बात में रौनक को बीच में मत लाइए. रौनक हमारा बेटा है, वो हमसे अलग नहीं. आप हमारी बहु हैं. आप का हर हक आपको दिया जाएगा. निश्चिंत रहें ये घर उतना ही आपका भी है जितना रौनक का.”
सोनिया इस के बाद कुछ कह नहीं पा रही थी. बहुत कम ऐसा होता था कि भापाजी उसे बहू कहते थे. वे हमेशा ही उसे बेटी या बेटा कह कर ही संबोधित करते थे. मगर आज जितनी बार भी उसे संबोधित किया, बहु कह कर ही किया.
आज सुबह के बाद वह खालिस बहु हो गयी थी. इससे दो बातें उसके सामने साफ़ हो गयी थीं. एक तो भापाजी ने उसके अस्तित्व को बहु के तौर पर आज पूरी तरह स्वीकार कर किया था. ये बात सुखद भी थी और दुखदायी भी.
आज के बाद उसका रुतबा बहू का होने वाला था भापाजी के मन में. सो बेटी होने के या कहलाने के नाते जो छूट उसे अब तक मिलती आयी थे वो अब आइन्दा नहीं मिला करेगी. ये बात वो जान और समझ गयी थी.
भापाजी के ख़ास लाड और स्नेह से वन्चित कर दी जायेगी. एक दूरी हो जायेगी उसके और भापाजी के बीच. हालाँकि इस बात का उसे ज्यादा दुःख नहीं था. लेकिन सुबह के बाद से एक डर उसे सता रहा था कि कहीं रौनक भी उससे दूर न हो जाये.
भापाजी के इस बयान के बाद कि उसका बहु होने का रुतबा बरकरार रहेगा उसे इस मामले में तो सुकून हो गया था. उसे लगा कि भापाजी के इस फैसले के बाद रौनक के मन में उन दोनों के रिश्ते को लेकर कोई शक नहीं पैदा होने पायेगा. मगर ये बात उतनी ही बचकानी थी जितनी बचकानी हरकत उसने पुलिस में झूठी रिपोर्ट लिखवा कर की थी. अब उस लग रहा था कि रौनक जल्दी ही उसकी इस हरकत को भूल कर पहले उसे पूरी तरह माफ़ कर देगा.
झिझकते हुए वह बोली थी, “भापाजी मैं चाहती हूँ हम लोग यहाँ आस-पास ही अलग घर ले कर अलग से रहें. मेरे दोस्त आते हैं. अब बच्चों के दोस्त भी आया करेंगे. आपको दिक्कत होगी. आप दोनों के ही आराम में खलल पड़ेगा. ऊपर भी आते हैं मेरे मिलने वाले तो लिविंग रूम से हो कर आते हैं. मम्मी के आराम में दिक्कत होती है.”
भापाजी को लगा वे बहु को खामखाह ही बचकाना समझ रहे थे. वो तो दूर तक के बारे में सोचती है. उसकी बात में उन्हें दम भी नज़र आया. वे तो वैसे भी सोच कर ही बैठे थे कि बेटे-बहु को अलग घर में रहने के लिए कहना है. अपने ही बेटे पर क्षोभ भी हुया कि इस आसान सी बात को ठीक से समझे बिना ही उसने सोनिया की बात का मान नहीं रखा और इतनी बड़ी मुसीबत घर भर के लिए कर डाली.
“तो बेटा, ये बात मुझे कहनी थी. तेरे माँ-बाप की जगह इस घर में हम दोनों है. गायत्री तो कहती ही है कि लड़कियां अपना घर खुद चलाना बसाना चाहती हैं. बहु को अपने अरमान पूरे करने का हक दो."
गायत्री अब तक चुप थीं.
अब बोलीं, "ठीक ही तो कहती है सोनिया. तुम लोग घर देखो. ज्यादा दूर नहीं लेना. आप भी छाबड़ा जी इनकी मदद करोगे. अपने बन्दों से कहो इनके लायक घर पास में ही ढूंढें. और आप जी, जितना पैसा कम पड़ेगा आप लगाओगे. मेरे बच्चों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए."
गायत्री पति को छाबड़ा जी बहुत कम ही कहती थी. लेकिन जब कहती थी तब उनकी बात ब्रह्म-वाक्य होती थी. उस पर विवाद या सवाल नहीं किया जा सकता था. सोनिया को वे हमेशा सोनिया ही कहती थी. न बेटा, न बहू, न बेटी.
भापाजी ने हँसते हुए कहा, “जी मैडम जी. आप ने कह दिया तो बस हो गया समझो.”
सोनिया हैरान थी. इतनी बड़ी बात थी और पांच मिनट में सारा मामला सुलझ गया था.
क्या वो इतने सालों से इस परिवार में रहते हुए भी इस परिवार को समझ नहीं पायी थी? फिर रौनक की जिद्द का ख्याल आया. वो ही कहाँ उसकी बात सुन रहा था?
वो सोच रही थी उसे पहले ही ये बात भापाजी और माँ से कर लेनी चाहिए थी. मगर अब तो हो चूका था जो होना था. आइंदा इस बात का ख्याल रखेगी. जानती है कि खुशकिस्मत है. इतना प्यार करने वाला पति और परिवार है. फिर भी दोस्तों की बातों में आ कर ऐसी ग़लती कर बैठी. शर्मिदा थी सो कुछ नहीं बोली. चुपचाप आँखें नीचे किये बैठी रही.
तभी अनिता चाय की ट्रे ले कर आ गई.
सोनिया ने फ़ौरन बहु होने का बीड़ा उठा लिया. सब के लिए उनके हिसाब से चाय बना कर दी. केक के पीस काट कर प्लेट में रख कर दिए.
रौनक देख रहा था सोनिया ने शादी के बाद के शुरुआती दिनों को छोड़ कर कभी घर में इस तरह के काम नहीं किये थे. लेकिन आज भी उसे याद था कि भापाजी की चाय में सिर्फ नीम्बू डलता है, माँ की चाय में खूब सारा दूध और दो चमच चीनी और खुद उसकी चाय में थोडा सा दूध और आधा चमच चीनी.
केक का टुकड़ा उसका सबसे बड़ा. भापाजी का उससे छोटा और माँ के लिए बस पतली सी एक स्लाइस. यानी ऐसी बुरी भी नहीं है सोनिया. उसने चैन की सांस ली. खतरा टल गया था इस घर से.
अगले कई दिन बहुत सरगर्मी के रहे थे. बहुत छानबीन के बाद नॉएडा के ही सेक्टर साठ में एक चार बेडरूम का अपार्टमेंट लिया गया. मार्किट में इन दिनों मंदी थी सो काफी कम किराये पर ये घर मिल गया.
गायत्री चाहती थी कि अपार्टमेंट खरीद लिया जाए मगर भापाजी ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए किराए पर लिया. और सोनिया को खुली छूट दे दी गयी कि वो जैसा चाहे अपने घर के लिए इंटीरियर और फर्नीचर वगरेह खरीदे. जैसा चाहे सजाये.
इस मामले में रौनक ने भी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसकी दो वजहें थीं. पहली तो वो अपने काम में ही काफी व्यस्त रहता था. दूसरे इस घर बदलने के पूरे मामले के वह दिल से पक्ष में नहीं था तो उसके मन में इसको लेकर कोई उत्साह ही पैदा नहीं हो रहा था. बच्चे अभी किसी भी बात को समझने के लिए छोटे थे. वे बस इस बात से खुश थे कि वे एक नए घर में रहने जा रहे हैं. वहां जा कर वे दादा-दादी को मिस करने वाले हैं या नहीं, ये अभी उन्हें नहीं पता था.
अलबत्ता सोनिया बेहद खुश थी. और उसके दोस्त भी बहुत खुश थे. उन्हें लग रहा था कि उनका दांव कामयाब रहा था. वे नहीं जानते थे कि उनका दांव तो उल्टा पड़ गया था. ये दांव तो उनके उस दांव के जवाब में भापाजी ने खेला था. जो दुनियादारी और कारोबार के माहिर खिलाड़ी थे. उनके दांव के खाली जाने की संभवना नहीं के बराबर थी.
सोनिया दिन रात नए घर की तामीर में लगी थी. सुबह ही वहां पहुँच जाती . सारा काम अपनी देख रेख में करवाती. पन्द्रह दिन में ही घर रंगाई पुताई के बाद सारी फिटिंग्स, टेलीफोन, इन्टरनेट, टेलीविज़न की सुविधाओं के साथ-साथ लेटेस्ट रसोई के गजेट्स से सज कर तैयार था.
इस बीच वह रोजाना एक-एक दो-दो कर के अपने और रौनक के कपड़ों से भरे सूटकेस और दूसरा निजी सामान ले जाती रही थी. बच्चे इन दिनों पूरी तरह उषा की मेहरबानी पर रह रहे थे. दादी तो थी ही उषा पर नज़र रखने के लिए और उषा भी बच्चों की बहुत प्यार से देखभाल करती थी.
और फिर एक दिन आ ही गया जब सोनिया ने रौनक से कहा कि घर तैयार है, वे जब चाहे वहां शिफ्ट कर सकते हैं. यही बात रात के खाने पर उसने भापाजी से भी कह दी. वे सुन कर कुछ नहीं बोले. खाने के बाद उन्होंने अपने पंडित जी को फ़ोन कर के अगले रविवार को गृह प्रवेश की पूजा के लिए पूरी तैयारी के साथ आने को कह दिया. सोनिया से सीधे कुछ नहीं कहा मगर वो सब देख सुन रही थी और बेहद खुश थी.
माँ गायत्री का चेहरा सपाट था. वहां कोई भाव या भावुकता नहीं थी. मगर भापाजी ने छिप कर दो बार अपने आंसू टिश्यू से पोंछ लिए थे. ये रौनक से छिपा नहीं रहा था. इन दिनों एक बात अच्छी हुयी थी कि रौनक भी रात के खाने तक अपना क्लिनिक का काम निपटा कर घर आ जाता था. उसे लगता था जितने दिन भापाजी माँ के साथ रह रहा हैं उन दिनों का भरपूर लाभ उठाया जाए. भापाजी को आंसू पोछते देख उसका दिल उदास हो गया.
“भापाजी हम लोग इंडिया गेट पर आइस क्रीम खाने कितने दिनों से ही नहीं गए हैं. आज चला जाए. क्या कहते हैं?”
भापाजी का उदास चेहरा खिल उठा. बच्चों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. “इंडिया गेट, इंडिया गेट". गायत्री ने अनीता को अन्दर से अपनी शाल लाने को कहा. गर्मी हो या सर्दी, पूरा साल गायत्री शाम के वक़्त देर से बाहर निकलें तो कंधे ढक कर निकलती हैं. गठिया की बीमारी ने ये एहतियात उन्हें सिखा दी है.
सोनिया ने बच्चों के उल्लास को ढकने की कोशिश की तो रौनक ने कहा, “उन्हें तो शोर मचाने दो यार. वे तो खुश हो लें.”
उसके इस वाक्य में छिपा हुआ तंज़ सोनिया नहीं देख पायी. मगर गायत्री की अनुभवी आँखों और कानों ने पकड़ लिया. उन्होंने आँखें तरेरते हुए बेटे को शांति से डांटा. और एक हल्की सी चपत उसके सर पर लगा दी. सोनिया ये सब कुछ नहीं देख पायी.
गृह प्रवेश की पूजा हुयी. एक अच्छी खासी दावत भी दोस्तों रिश्तेदारों को दी गयी. खासा हंगामा रहा. इसी हंगामे के बीच भापाजी और माँ खुद रौनक, सोनिया और दोनों बच्चों को अपनी गाडी में उनके घर में पूजा के अगले दिन नाश्ते के बाद छोड़ कर आये. उस दिन सभी ने छुट्टी रखी. बच्चों की स्कूल से, भापाजी अपने दफ्तर नहीं गए और रौनक ने क्लिनिक बंद रखा.
वापिस आ कर भापाजी चुपचाप लिविंग रूम में बैठ गए. पिछले कई दिनों से वे बात-बात पर आँखें गीली करते और पोंछते रहते थे. गायत्री को अंदेशा था वे आज भी वैसा ही करेंगे. ऐसे में उनको गायत्री की बहुत ज़रुरत होती है. चाहते हैं कि उनके पास ही बैठी रहें और बातचीत करती रहें. लेकिन आज ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
कुछ देर शांत ही बैठे रहे. फिर अचानक उठे.
“चलो क्लब चलते हैं. आज वहीं लंच भी करेंगे. पूरा दिन वहीं रहेंगें.”
पूरा दिन क्लब में बिता कर, गपशप मार कर देर शाम गए डिनर भी चेम्सफोर्ड क्लब में कर के घर आने का भापाजी का पुराना शगल था. जिसे वे रौनक के बच्चों के होने के बाद लगभग भूल ही गए थे.
आज इस तरह पुराना शगल पूरा करने पर आमादा भापाजी को देख कर गायत्री की आँखें नम हो गयीं. समझ गयी घाव गहरा लगा है. दरअसल भापाजी अपनी जवानी में संयुक्त परिवार में नहीं रह पाए. वो दिन ग़ुरबत के दिन थे. शरणार्थी शिविरों के एक-एक कमरे के टेंट में रहने के दिन थे. मुश्किलों के दिन थे.
जब तक घर में बरकत आयी माता-पिता चल बसे थे. बहनें अपने-अपने घरों की हो गयी थीं. एक भाई था उसको पढ़ाया लिखाया, इंजिनियर बनाया तो वो अमरीका में जा कर बस गया. तीन बेटियों के बाद जब बेटा हुआ था तो उस पल से ही भापाजी एक संयुक्त परिवार का सपना देखते आये थे. जो आखिरकार टूट ही गया था.
ज़ाहिर है वे इस बात से बहुत खुश नहीं थे. मगर जितना दुखी हो चुके थे उससे ज्यादा दुखी हो कर अपनी या गायत्री की तबीयत भी खराब नहीं करना चाहते थे. घर में चार सदस्यों के चले जाने से जो मायूसी छा गयी थी, उसमें अपने दुःख से इजाफा भी नहीं करना चाहते थे.
इसका बेहतर तरीका यही था कि घर की खामोशी को दिन में ना झेला जाए. दिन क्लब में ही बिताया जाए. गायत्री तो जहाँ भापाजी जाएँ साथ जाती ही हैं. सिर्फ ऑफिस को छोड़ कर. सो वे भी अन्दर से अपना पर्स उठा लाई. क्लब में वे भापाजी के साथ नहीं बैठतीं. उनका अपना एक फ्रेंड सर्किल है. वहां रमी, ब्रिज या बिंगो कुछ भी हो वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं.
उस शाम घर में सिर्फ अनीता को छोड़ कर कोई नहीं था. उषा भी सोनिया और बच्चों के साथ नए घर में चली गयी थी. ऊपर का फ्लोर जो दिन भर बच्चों के शोरोगुल और कामों से गुलज़ार रहता था,जहाँ उनका सामान बिखरा रहता था. वहां अब सिर्फ फर्नीचर था. खाली अलमारियां थीं. बाथरूम में खाली शेल्फ थे. सब के निजी सामान नए घर में जा चुके थे.
गायत्री और भापा जी तो क्लब चले गए थे अपना गम भुलाने. मगर अनीता के लिए इस घर के अलावा और कोई जगह नहीं थी. हरयाणा के एक गाँव से कई साल पहले दिल्ली आयी विधवा अनीता के गाँव में भी अब कोई नहीं बचा था.
जब यहाँ आयी थी तो किसी घरेलू काम करने वाले अपने एक रिश्तेदार के संयोजन से भापाजी के घर में संयोग से ही पहुँच गयी थी और तब से यहीं है. इस घर ने उसे अपना लिया है. घर के एक सदस्य की ही तरह रहती है और सब की देखभाल करती है. खाना बनाने में पारंगत है और खाना पकाने की शौक़ीन भी.
घर में सब को खुश रखने वाली और सबसे खुश रहने वाली अधेड़ वय की अनीता ने रौनक को अपनी आँखों के सामने बड़े होते देखा है. फिर शादी करके सोनिया भी आयी और शादी के एक साल होते न होते जुड़वां अदिति और अम्बर भी आ गए.
परिवार को फलते फूलते देख रही अनीता आज अकेली बैठी बेहद उदास है. खाना भी नहीं बनाया. गायत्री कह कर गयी थीं वे लोग खा कर आयेंगे. अनीता खाना खा ले. पहले जब भी शाम को अकेली अनीता ही होती थी शाम के खाने पर तो वह सात बजे ही अपनी पसंद के आलू के परांठे बना खा कर टेलीविज़न के सामने जम कर बैठ जाती थी.
आज न उसने खाना खाया न टीवी लगाया. चुपचाप बाहर के लॉन में बैठी रही. घर के सन्नाटे को सुनती बाहर के शोर से अपना गम कम करने की कोशिश करती रही.
भापाजी और गायत्री जब गाडी से उतरे तो उसे होश आया. ड्राईवर ने कब गेट खोल कर गाडी अंदर लगाई थी उसे पता नहीं चला था.
दोनों के पीछे-पीछे अंदर आयी. ड्राईवर से गाडी की चाभी ली. गेट अन्दर से बंद किया. बेडरूम में जा कर गायत्री को दवा दी. दोनों के लिए रात का पानी रखा और कुछ नहीं चाहने पर अपने कमरे में आ कर देर तक लेटी हुयी सोने का इंतजार करती रही.
भूख लग रही थी लेकिन रसोई में जा कर दूध तक पीने का मन नहीं हुआ. आखिरकार यूँ ही सो गयी.
वो रात बहुत सूनी-सूनी सी जागती रही उस घर में. एक-एक कमरे का जायजा लेती रही. उसमें सोये पड़े लोगों के चेहरों पर नींद में भी छाई मायूसी को देखती. खाली कमरों के सायों में भूतों के बसेरे के अंदेशे को परखती रही.