असली गरीब
कानपुर के एक कसबे में रेती नामक रोड पर नई सफेदी से चमकते हुए घर के आगे एक छोटा बगीचा था। जिसमे कुछ खुशबू बिखेरते फूल और सब्जियाँ लगी नजर आती थी। पशुओ से बचाने के लिए उस बगीचे में ऊँची बाड़ लगी हुई थी लेकिन छत तक जाती हुई बेल घर की शोभा ज्यादा बड़ा रही थी।
उसी मकान के एक तरफ ऐसा भी मकान था। जहाँ दीवारों पर उखड़ी हुई सीमेंट, रंग छोड़ते दरवाजे दिख रहे थे। अगर घर के दरवाजे खोल दिए जाए तो खाली आँगन दिखता था। जिसे देखकर ये अंदाजा लगता था कि घर में सुख-सुविधाओं के नाम पर कुछ मूल- भूत चीज़ो के इलावा कुछ नहीं था।
उपन्यासकार डा. प्र्शांत अत्यंत निर्धन तो नहीं थे परन्तु उनकी आमदनी मानो बस ना के बराबर ही थी। उनकी आर्थिक स्थिति से बस दिनचर्या की कुछ जरूरते ही पूरी हो पाती थी। मगर फिर भी अपने लेखन से कुछ धन कमा ही लेते थे। अपने परिवार को दो वक्त की रोटी के इलावा लेखक साहब कोई खास सुख-सुविधा नहीं दे पाते थे। उनको अन्दर ही अन्दर ये महसूस होता था कि वो बच्चो को अच्छी शिक्षा तो दूर पोषण युक्त भोजन भी नहीं दे पा रहे थे ।
उनकी श्रीमती जी भले ही कोई शिकायत ना करती हो लेकिन कई बार उनकी आँखों में दर्द जरूर छलकता था। दो जोड़ी नए कपड़ो के लिए भी प्रशांत जी के दो लड़के, एक लड़की और नीलम जी त्योहारों का इंतज़ार करते और कई बार तो वे त्यौहार भी उनको नए कपडे नहीं दिला पाते थे। ये जानते हुए भी की डा. प्र्शांत जी के इस लेखन से कुछ सम्मान तो जरूर है मगर परिवार का पालन-पोषण वो ठीक से नहीं कर पा रहे है, वे अपनी लेखन को जारी किये हुए थे।
पर समय ने करवट ली और अपनी गरीबी से तंग आकर कुछ आगे बढ़ने की सोचने लगे । बचपन से पड़ने लिखने में तेज़ प्रशांत बाबू को उनके मित्र राजीव ने एक नेक सलाह दी राजीव उनके बचपन के मित्र थे । अक्सर स्कूल साथ जाना साथ खेलना और पढ़ना दोनों की शैतानियाँ भी साथ -साथ होती थी। लेखक साहिब के पिताजी से कई बार साथ-साथ जम कर डांट भी खाई थी।
वैसे तो राजीव जी पेशे से वकील है और व्यक्तित्व के मिलनसार है पर उनकी धर्म-पत्नी जी का स्वभाव कुछ खास अच्छा नहीं है जिस कारण उनके घर किसी का ज्यादा आना-जाना नहीं है। स्वयं वकील साहब भी पत्नी को बिना बताए ही अपने बाहर के काम खुद ही निपटा लेते है।
प्रशांत जी भी उनके घर आने-जाने से कतराते है इसलिए राजीव जी खुद ही उनसे मिलने के लिए आते-जाते रहते है। अपने बचपन के सहपाठी की सलाह से प्रशांत जी को डॉक्टरी करने की बात अपने लिए उपयुक्त लगी और वो अपने लेखन के काम से थोड़ा दूरी बनाते हुए डॉक्टरी की पढ़ाई में जुट गए। कई मुश्किलों के बाद वो कामयाब भी हो गए।
डॉक्टरी तक पहुँचने के लिए उन्हें कई परेशानियाँ उठानी पड़ी। कभी किताबो के लिए कभी दाखिले की फीस के लिए पैसे जुटाने मे जो कष्ट उनको झेलना पड़ता उसके बारे में क्या ही कहा जाए। हालात तो तब खराब हो गए जब डॉक्टरी की पढाई के लिए वो समय निकलने लगे तो जो दो-चार कोड़ी वो कमाते थे वो भी हाथ से जाने लगी।
अपने परमेश्वर को सही दिशा में देख कर श्रीमती जी मन में संतोष कर लेती और बच्चों को भी सुनहरे भविष्य के सपने दिखा कर समझा लेती। अतः उनकी पत्नी और बच्चो के सहयोग से ये रास्ता भी कट गया।
जल्द वो दिन भी आ गया जब कामयाबी हाथ लगी। पुराने दिनों को याद करते हुए प्रशांत जी को कई बार दिल भारी- भारी सा लगता और वो सोचते थे कि अपने लेखन की वजह से मुझे ज्ञान का अनुभव तो हुआ पर मै उसको सही दिशा नहीं दे पाया।
धीरे-धीरे नकारात्मक विचारो ने उनके मन में घर बना लिया और सोचने लगे कि लेखन के काम से बस कुछ खुश किस्मत चंद लोग ही अपनी इच्छाएँ पूरी कर पाते है। पहले तो दो वक्त की रोटी के इलावा कोई सुख सुविधा नहीं थी। मगर चिकित्सक बनने के बाद वो अपना अतीत भूल कर नए भविष्य के सपने संजोते थे।
प्रशांत जी की मेहनत और लगन के साथ साथ उनकी समझदारी और व्यवहार से जल्द ही उन्होंने शहर में नामी डॉक्टरों के बीच अपनी जगह बना ली। धीरे-धीरे काम के अनुभव से उनकी चिकित्सा में ओर भी निखार आता गया। जो लोग पहले प्रशांत जी को आँखे दिखाते थे अब वो भी उनके साथ अदब से पेश आते है। अब प्रशांत जी के पास अपना एक क्लिनिक भी हो गया और आलम यह हो गया कि जो लोग क्लिनिक नहीं आ पाते थे वो प्रशांत जी को घर बुला कर इलाज करवाने लगे।
प्रशांत जी ने डॉक्टरी में इतना नाम कमा लिया कि शहर के कई डॉक्टर उनसे सलाह मशवरा ले लेते थे। अब प्रशांत जी के मित्रों की संज्ञा में बड़े-बड़े लोग शामिल हो रहे थे।
खैर अब वो दिन गए जब डॉक्टर प्रशांत जी अपने लेखन की रॉयल्टी भी नहीं पा सकते थे क्योकि पुस्तकों की रॉयल्टी या तो प्रकाशक हड़प जाते अथवा प्र्शांत को उनके हक से कम ही मिलता वैसे प्रशांत बहुत सीधे थे इसलिए प्रकाशकों से लड़ाई कर अपना हक लेना उन्हें नहीं आता था। तब उनकी सोच उनके बल से ज्यादा बलशाली थी। दो-चार रूपये के लिए सड़को पर लड़ने से अपनी प्रतिष्ठा को दाग लगाने से अच्छा है चुप रह कर सामने वाले का मुँह काला किया जाए।
अतः गरीबी में उनका जीवन बीत रहा था। इसी गरीबी में जैसे-तैसे उन्होंने चिकित्सा की पढ़ाई पूर्ण की और डॉक्टर बन गए। जब वे चिकित्सा के क्षेत्र में आए तो कुछ लोगों ने उन्हें इसके जरिए पैसा कमाने का तरीका बताया।
पहले तो डॉक्टर साहब संकोच करते और अपने पुराने दिन याद करते हुए सोचते की पहले के मुकाबले अब काफी कुछ मिल गया है। अब धन का लालच बेकार की बात है परन्तु कुछ ऊँचे लोगो की संगत में प्रशांत जी ने वो कदम उठाने शुरू कर दिए जिसके लिए उनका दिल पहले गवाही नहीं देता था।
अब प्रशांत जी लोगों की बातों में आकर मरीज से मोटी फ़ीस वसूलने लगे। वे किसी भी निर्धन पर दया नहीं करते और पूरा चिकित्सा खर्च लेते। उन्होंने लोगो की भलाई का काम तो छोड़ वरन जो लोग उनको इलाज के लिए घर बुलाते उनसे अलग मोटी फीस वसूल करने लगे। अब डॉक्टर साहब के सपने लालच से भरे हुए हो गए और वो ऊँचा मकान और रसूक के सपने देखने लगे।
समय की ऐसी करवट देखकर प्र्शांत की पत्नी बहुत दुखी हुई। श्रीमती नीलम जी अत्यंत दयालु थी। नीलम जी को अब अपने पति-देव के सपनों से डर लगने लगा था और वो सोचने लगी कि स्थिति को कैसे संभाला जाए।
पति की गरीबों के साथ यह निर्दयता देख एक दिन जब प्रशांत जी अपने काम से छुट्टी ले कर घर पर पत्नी जी के साथ चाय की चुस्की ले रहे थे तब नीलम जी ने पहले तो इधर-उधर की बाते करते हुए माहौल को थोड़ा गंभीर बनाया और तब वे बोली – “वास्तव में हम गरीब ही ठीक थे।“ यह सुनकर प्रशांत जी ने अचानक से श्रीमती जी की ओर अपनी भौहे सिकोड़ते हुए देखा। अपनी बात पूरी करते हुए श्रीमती जी बोली हमारे दिल में कम से कम सबके लिए दया तो थी। सब लोग हमे तब भी सम्मान की नजरो से देखते थे। किसी को हमारे घर आने के लिए कुछ उपहार की आवश्यकता नहीं लगती थी। वो खाली हाथ भी हमसे केवल दो मीठे बोल के लिए चले आते थे।
अपनी बातों को जारी रखते हुए और प्रशांत जी का ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर करते हुए वह फिर बोली। मगर अब समय बदल गया है। मानो ऐसा लगता है कि अब ये सम्मान हमारा नहीं हमारे धन और वैभव का हो रहा हो। पुराने सब लोग अब मिलने से कतराते है और आपके नए मित्र जो खुद को सबसे ऊपर समझते है वो दोनों हाथ भर कर आते है।
प्रशांत जी के मित्र वास्तव में उपहार नहीं बल्कि अपने काम के लिए लोभ लाते थे। नीलम जी फिर बोली - हमारे पुराने साथी जिन्होंने कठिन समय में हमारा साथ दिया वो अब दूर हो गए है। वास्तव में उनके लिए अब हमारे पास दया नहीं बची है उस दया को खोकर तो हम कंगाल हो गए। हमने शहर में नाम, धन और रसूक तो बहुत कमा लिया परन्तु हम अपनी मानवता को खो चुके है। अब हम मनुष्य ही नहीं रहे।
पत्नी की मर्मस्पर्शी बात सुनकर डा. प्र्शांत को आत्मा-बोध हुआ उनके चेहरे के भाव से वो जो लेखन के वक़्त उनका ह्रदय और सोच थी वो वापस लौटती दिखाई दे रही थी।
डा. प्र्शांत को लगा कि मैं हमेशा अपने आप को ज्ञानी समझता रहा पर सही वक़्त पर सही मार्ग जो मुझे मेरी पत्नी ने दिखाया है उससे वो मुझसे कही आगे निकल चुकी है।
उन्होंने अपनी पत्नी से कहा - तुम सच कह रही हो। लोभ में आकर अपनी मानवता को खोकर मैने एक अपराध किया है । व्यक्ति धन से नहीं, मन से धनी होता है। तुमने सही समय पर सही राह दिखाई अन्यथा हम अमानवीयता की गहरी खाई में गिर जाते तो कभी उठ ही नहीं पाते। अब सही समय आ गया है कि मैं अपने जीवन में सुधार की ओर अग्रसर हो जाऊ।
पहले तो लेखक बाबू ने अपनी पत्नी का धन्यवाद किया और उन्ही के सामने यह प्रण लिया कि जीवन के आगे के रास्ते में वो लोभ का साथ छोड़ कर मानवता का साथ देंगे।
कथा निहितार्थ
जब मनुष्य अपनी मानवीयता की मूल पहचान से डिगने लगता है। तो सामाजिक नैतिकता तो खंडित होती ही है। वह स्वयं भी भीतर खोखला हो जाता है। क्यूंकि ऐसा उनकी पवित्र संस्कारशीलता बलि चढ़ चुकने के बाद ही होता है।