भाग एक :
वो कागज़ की कश्ती
मरुस्थल की तपती सुनहरी रेत पर जब आकाश में घिर आये स्लेटी बादल अपने आगोश में लेने की कोशिश करती तो रेत के गुब्बार भी शांत होकर धरती पर बिछ जाते, वातावरण में ठंडी हवा के झोंके जन-जन के तन को ही नहीं बल्कि मन को भी शीतल कर जाते, बूंदों से सराबोर स्लेटी घुंघराले बादल आखिर धरती पर बिछी रेत को आगोश में लेने की लुका-छिपी में आखिर बरस ही पड़ते | तपती रेत में छन्न-सी शांत होकर गर्म हवा के झोंके आसमान की ओर उछालती | आसमान बादलों की मार्फ़त ठंडी हवाएं भेज कर गर्म हवाएं एकमेक होकर अंतत: ठंडी हवाएं बन जाती, मिटते की सौंधी-सौंधी खुश्बू मेघना के घर की सलाखों वाली खिड़की से लहरा कर प्रवेश करती | नन्हीं मेघा घुटरूं-घुटरूं चल कर दरवाजे की चौखट तक आ जाती और वर्षा की बौछार से चौखट के बाहर ढलान पर इकट्ठा हुए वर्षा के पानी पर अपने नन्हीं हथेली मारती “ छपाक ” और उसकी तोतली जुबान से निकलता “ताता-थैया”
“ अरे बहू ! इस टपूकड़ी को अंदर ले लो, भीग जायेगी” मेघना की दादी ड्योडी पर बैठी मेघना को अपने ही अंदाज़ में पुकारती |
“ ये मेघना भी ना, इसे भी मिट्टी की खुश्बू से ही पता चला जाता है कि बाहर बारिश हो रही है ” नीलम नन्हीं मेघना को गोद में लेकर उसकी गीली नन्हीं हथेलियों को अपने आँचल से पोंछ देती |
उस दिन भी तो झमाझम बारिश हो रही थी | ईंटों के घर पर पड़ी टीन की छत पर बारिश की मोटी बूँदें गिरकर नाद कर रही थी | प्रसव पीड़ा में तड़पती नीलम उन बूंदों में संगीत सुनने का प्रयास कर रही थी | बाहर खड़ी एम्बूलेंस तक पहुँचना भारी लग रहा था | ड्योडी से दालान और दालान से एम्ब्यूलेंस के दरवाजे तक ननद मीशू के सहारे पहुंचते-पहुंचते भीग गयी थी | उसी रात मेघना का जन्म हुआ था और रवि ने उसका नाम मेघना रखा दिया था |
मेघना का बारिश से अच्छा रिश्ता बन गया था | बारिश के मौसम में वो नाच उठती थी | छत पर जाकर बारिश में नहाना उसे अच्छा लगता था |
“ माँ ! अपने यहाँ तालाब नहीं होते ” मेघना भीग कर आती तो अपना फ्रॉक उतार कर फर्श पर फेंकते हुए कहती | नीलम भी असमंजस में पड़ जाती कि ये लड़की तालाब की बात कैसे करती है |
“वही तालाब माँ ! जिसमें नहाते है और रामू तो उसमें कागज़ की कश्ती बना कर भी तैराता है | अरे मेरी हिन्दी की किताब में लिखा है |”
नीलम हो-हो करके हंस देती और फिर एकदम से उदास हो जाती | ये रेगिस्तानी सुनहरी रेत भी तो कितनी प्यासी है | टनों पानी पी जाती है वर्षा का लेकिन एक भी गड्ढा नहीं होने देती अपनी काया पर | कैसे तालाब बने, कैसे पानी भरे, कैसे कोई कश्ती चलाए | नीलम के दर्द उभर आते | कितनी दूर गाँव से चली आई रवि से शादी करके और फिर पीछे मुड़कर अपने मायके ही नहीं गयी | माँ बचपन में ही चली गई थी, बापू ने दूसरी शादी कर ली थी | चाची के सहारे पली | रवि से दाम्पत्य सूत्र में बंधी तो सारे गम पी गई इस बालू रेत की तरह | गम का कोई गड्डा नहीं छोड़ा | उसने लपक कर मेघना को गोद में उठा लिया और जोर से चूम लिया |
1972 में युद्ध के बादल मंडराए थे | सीमाओं से युद्ध विमान इस गाँव की सीमा में आते और बम वर्षा करके चले जाते | मई-जून की तपती दोपहरी काटे नहीं कटती | रातों को ब्लैक आउट किया जाता | सायरन की आवाजें वातावरण में भय घोलती | मेघना पापा की गोद में दुबक जाती | मकानों की खिड़कियाँ के शीशे थरथरा उठते | मेघना नहीं जानती थी युद्ध क्या होता है ? क्यों होता है | सरकार ने सुरक्षा के लिए घरों के सामने खाई खोद दी थी | हर घर के आगे एक खाई थी | घर-चौराहे पर दो खाईयां एल के आकार में थी | रेगिस्तानी बालू रेत का छद्म आवरण हट गया था | धरती की छाती पर ना जाने कितने गड्डे बन गए थे | जब सायरन बजता तो इन गड्डों में छिपने की हिदायत दी गई थी | धरती की छाती में बम की थरथराहट को जज़्ब करने अद्भुत क्षमता होती है | जब सायरन बजता तो रवि नन्हीं मेघना को गोद में लेकर भागा करते |
युद्ध के बादल छंटे तो जून की तपिश कम हुई | मानसून के बादलों की आवाजाही शुरू हो गयी थी | जुलाई का मौसम मिट्टी की सौंधी खुशबू से शुरू हुआ था | सावन का महीना शुरू होते-होते झमाझम बारिश होने लगी थी | धरती की छातियों पर बनी खाइयां पानी से लबालब भर गयी | मेघना के घर के सामने की खाई तालाब जैसी बन गई थी | मेघना ने घर से बाहर निकल उसमें छलांग लगा दी- “ छपाक्क !! ” कमर तक पानी में भीग कर मेघना दूर से चिल्लाई- “ पापा ! आपको नाव बनानी आती है ” देखो वो श्वेता भी चला रही | मेघना पानी से लबालब कूद कर बाहर आई |
रवि ने मेघना की गणित की कॉपी का पन्ना फाड़ा और बना डाली | मेघना उसको लेकर दौड़ी और उस छोटे से तालाब में अपनी नाव चला दी |
आज मेघना ताली बजा बजा कर नाव को चलता देख रही | दूर खड़े उसके पापा मुस्कुरा रहे थे | युद्ध के बाद शान्ति की चमक उनके चेहरे पर थी | नन्हीं मेघना को कागज़ की नाव खुशी थी |
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