Nainam chhindati shstrani - 50 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 50

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 50

50

सुम्मी व माँ के दिल की धड़कनें हफ़्ते भर तक कैसी धुकर-पुकार करती रहीं थीं !असहज हो गए थे दोनों माँ –बेटी ! एक सप्ताह तक परिणाम की प्रतीक्षा की प्रतीक्षा करना उन दोनों के लिए एक लंबी प्रतीक्षा की सज़ा थी | ऊपर से पापा के नकारात्मक संवाद घर भर को बोझिल करते ---सो अलग !एकसुम्मी की सफ़लता पर माँ, बेटी पड़ौसन सूद आँटी ही थीं जो ‘लेडी विद द लैंप’सी माँ-बेटी के अंधकार में रोशनी भरती रहतीं | आखिरकार परिणाम सामने आ गया | 

डेढ़ सौ प्रत्याशियों में से केवल दो का चयन किया गया था | सच में ! कमाल ही हो गया था | सुम्मी की सफ़लता पर माँ, बेटी को भरोसा तो था परंतु इतनी बड़ी सफ़लता तो अप्रत्याशित ही थी | इतनी फैशनेबल और मॉडर्न लड़कियों में से केवल दो लड़कियों में सुम्मी आ जाएगी, यह सुम्मी व उसकी माँ ने भी नहीं सोचा था | पापा की नज़रों में एक छोटे शहर में पलने वाली, एक साधारण सी लड़की !अब सूद आँटी की पापा को चिढ़ाने की बारी थी | 

“हवा में झूलता सपना सच हो गया, मेरी बेटी का ---“सुम्मी की माँ फूली नहीं समा रहीं थीं | 

“ज़रूरी नहीं होता कि बड़े शहर के बच्चे ही ‘स्मार्ट व टेलेंटेड’हों | अरे!हमारी बच्ची ऐसी होती तो सूद साहब उसके आगे-पीछे घूमते | भाई साहब ! बच्ची की कदर करिए फिर देखिएगा कैसे आपका नाम रोशन करेगी | ”

पापा भी बहुत खुश थे और अब अपने स्नेहिल संवादों से बिटिया को दी गई अपनी लताड़ की झाड़ -पोंछ करके उसकी लल्लो-चप्पो करने में लगे थे | कितनी जल्दी रंग पलटती है ज़िंदगी ! चढ़ते हुए सूरज को सब सलामी देते हैं, क्या पापा भी उनमें से थे ?वो तो पिता थे जो हर तपन में बच्चों के सिर पर छाया किए रहता है | इस समय समिधा का भी सूरज सातवें आसमान पर था | माँ-बेटी दोनों ने मन से ईश्वर का शुक्रिया अदा किया और इस प्रकार समिधा के काम का ‘श्री गणेश’ हो गया | 

इस काम के साथ ही समिधा ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी में एम. ए करने का भी निर्णय ले लिया था | माँ अलग रहते-रहते थक गईं थीं, घर की स्थिति अब पहले से दृढ़ हो गई थी | उनके पति की अच्छी खासी तरक्की हो चुकी थी अत: उन्होंने भी अब अपनी नौकरी छोड़कर अपने पति व बिटिया के पास रहने का निश्चय कर लिया | 

किन्नी का छोटा भाई निन्नू अब कॉलेज में बी.एस.सी कर रहा था और राजवती बीबी अपना दूध का व्यापार करते हुए अपने बेटे के सुदृढ़ भविष्य की प्रतीक्षा कर रहीं थीं | उन्हें अपने योग्य बेटे से बहुत अपेक्षाएँ थीं | समय अपना काम करने में व्यस्त था और अपनी धुरी पर घूम रहा था | 

दूरदर्शन में समिधा का एक वर्ष पूरा हुआ ही था कि उसका स्थानांतर बंबई कर दिया गया | अब वह यहाँ सहज महसूस करने लगी थी, कई लोगों से उसकी मित्रता हो गई थी | साल भर में उसने कुछ नया सीखा था –यूँ उसके लिए अच्छा ही था नया स्थान, नए लोग, बहुत कुछ और नया सीखने के अनेकों अवसर ! परंतु उसके पास माँ-पापा के साथ रहने का अवसर भी तो बड़े होने के बाद आया था | पापा दिल्ली से उनके पास आते-जाते रहते थे, उन दिनों पापा मेहमान से ही लगते | अब एक छत के नीचे पारिवारिक चकर-चकर से ‘घर’ की संवेदना उभरती थी | 

छोटी-छोटी बातों पर माँ-पाप का मुँह फुला लेने का अंदाज़ सुम्मी को बड़ा प्यारा लगता | थोड़ी देर बाद ही माँ बरामदे में चाय और नाश्ते की ट्रे के साथ मुस्कुराती हुई नमूदार हो जातीं | थोड़ी ही देर में तीनों किसी बात पर ठहाके लगा रहे होते | अब उन सबको ‘परिवार’ होने का एहसास हो रहा था | ज़िंदगी आदमी को किन-किन मोड़ों पर घुमाती रहती है और आदमी चकरघन्नी सा उसमें घूमता रहता है | अब सुम्मी के स्थानांतरण की चर्चा गरमाहट में थी | माँ-पाप दोनों ही नहीं चाहते थे कि वह बम्बई जाए पर यहाँ पर भी सूद आँटी-अंकल ने उसका साथ दिया | 

शाम के समय द्फ़्तर से आने के बाद जब पूरा परिवार बरामदे में बैठा चाय पर समिधा के बंबई जाने, न जाने पर बहस करता तभी सूद पति-पत्नी उनके पास आकर चर्चा में शामिल हो जाते | कई दिनों की लंबी चर्चा के बाद आख़िर समिधा का बंबई जाना निश्चित हो गया | हाँ, माँ उसके रहने, खाने-पीने का प्रबंध करने उसके साथ बम्बई जाएँगी, यह तय किया गया | 

‘चलो, पापा उसके बम्बई जाने के लिए माने तो सही, माँ को कुछ दिनों बाद पापा के पास वापिस भेज देगी‘समिधा ने सोचा | 

समिधा को बम्बई दूरदर्शन के कैम्पस में ही दो कमरों का एक क्वार्टर मिल गया था जिसे देखकर माँ व समिधा बहुत प्रसन्न थीं | माँ-बेटी कार्य-ग्रहण करने की तिथि से चार दिन पहले ही बम्बई पहुँच गए थे | जिससे खाने-पीने की व्यवस्था सब अच्छी प्रकार हो सके | कैम्पस की दीवार से सटा हुआ शॉपिंग कॉम्प्लेक्स था | माँ ने समिधा के पड़ौसियों से बातें कीं और जानकार संतुष्ट हुईं कि समिधा के पड़ौसी सभ्य व सुसंस्कृत थे | यह एक बँगला परिवार था, नया शादीशुदा जोड़ा !पति प्रबीर बोस दूरदर्शन में तकनीकी विभाग में काम करते थे | माँ उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुईं और अपने साथ लाए गए मिठाई के डिब्बों में से एक डिब्बा प्रबीर की पत्नी निबेदिता को दे आईं | किसी भी कठिनाई के समय पड़ौसी ही सबसे पहले काम आते हैं, रिश्तेदार तो बाद में पहुँचते हैं | 

दोनों ने सोचा, अगले दिन सुबह सुम्मी की रोज़मर्रा के इस्तेमाल के लिए खरीदारी का काम शुरू किया जाएगा | एक प्रकार से एक नई गृहस्थी बसानी थी | घर में किस चीज़ की आवश्यकता नहीं पड़ती!माँ समिधा से भी अधिक उत्साहित थीं| रात में दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे | पुरानी बातें, किन्नी व बीबी तथा उनके साथ बिताए क्षणों को याद करके हँसी आती रही कभी उदासी पसरती रही, कभी आँखों में आँसू भी आए | खाना खाने के बाद दूरदर्शन के कैम्पस में चक्कर भी लगाया | एक नई सुबह की प्रतीक्षा में न जाने कितने बजे नींद ने समिधा को अपनी आगोश में लिया, उसे पता ही नहीं चला | 

माँ रात को न जाने किस प्रहर में सोई, अवश्य ही उनकी आँखों के सामने बिटिया के उज्जवल भविष्य के सपने तैरते रहे होंगे | वे जीवन-आकाश में अपनी बेटी को नए पंखों के साथ उड़ते देखना चाहती थीं | लेकिन –होनी को कुछ और भी मंज़ूर था | उस रात माँ जो सोईं तो उनके जीवन में कभी सुबह आई ही नहीं | सुबह की प्रतीक्षा में माँ ने आँखें जो बंद कीं, वे बंद ही रह गईं, सपनों से भारी आँखें !समिधा के मन में कालिमा पसर गई | फटी-फटी आँखों से वह माँ के शव को आँखें फाड़े देख रही थी | 

‘ऐसा भी हो सकता है क्या?ऐसे भी इस दुनिया से कोई चला जाता है क्या ?माँ को तो मेरी सारी शॉपिंग करनी थी !ऐसे कैसे बिना कुछ बोले।बिना कुछ कहे ।बिना कुछ बताए कोई इस प्रकार अपनी बेटी को छोड़कर जा सकता है ?’समिधा बेहोश हो गई थी | अभी तो उस स्थान के बारे में वह परिचित भी नहीं थी ।न ही अपने सहयोगियों से !ऐसे कठिन समय में श्री एवं श्रीमती बोस ने अपनी छोटी बहन के समान समिधा को संभाला | 

ताज़े रिश्तों को कभी-कभी अचानक ही कैसी परीक्षा देनी पड़ जाती है ! कैम्पस में हा-हाकार मच गया | कैम्पस के सारे लोग इकक्ठे हो गए | किसीको कुछ समझ में नहीं आ रहा था, क्या किया जाए ? युवा समिधा ने जीवन की वास्तविकता को इतनी जल्दी, इतने करीब से पढ़ लिया | बिना किसी पूर्व खटखटाहट के जीवन की शाश्वत सखी मृत्यु अपने साथ उसकी माँ को भगाकर ले गई थी | उस समय समिधा की मनोदशा किसी पागल के समान हो गई थी | 

माँ के शव को मुर्दाघर में रखा गया और समिधा के पिता को फ़ोन किया गया | वे सूद अंकल के साथ एक दिन बाद बम्बई पहुँचे तब माँ का संस्कार किया गया | भारतीय संस्कारों से रची समिधा की सुहागिन माँ को पति के हाथों से मुखाग्नि प्राप्त हुई| समिधा के पिता उसको लेकर दिल्ली आ गए थे | वे चाहते थे कि अब बेटी उनके पास ही रहे | लेकिन इससे कोई लाभ न था | जाने वाले के साथ ज़िंदा लोगों का जीवन समाप्त नहीं हो जाता, वह तभी समाप्त होता है जब उसका समय सुनिश्चित होता है | इस युवा उम्र में चंचल समिधा माँ के अचानक न रहने से प्रौढ़ बन गई थी | 

माँ के साथ वह एक ऐसी नाज़ुक बेल थी जो माँ रूपी वृक्ष के सहारे ऊँचाई पर पहुँचने के लिए ललक रही थी | वृक्ष कट अथवा सूख जाने से जैसे एक लता की स्थिति बन जाती है, कुछ ऐसी ही दयनीय स्थिति समिधा की हो गई थी | अभी तो वह पूरी तरह से फली-फूली भी नहीं थी कि लटककर मुरझाने लगी | 

परिस्थितियों को समझते हुए दूरदर्शन से समिधा को एक माह बाद ‘जॉयन ‘करने की अनुमति मिल गई | स्वाभाविक था, पापा बुझ गए थे | वैसे वे काफ़ी समय दिल्ली में अकेले ही रहे थे परंतु अब पत्नी के साथ रहने से उन्हें जो आराम व चैन मिल रहा था, उसका तो कोई मुक़ाबला ही नहीं था | पहले उनका खाना ‘पंजाब दी हट्टी ’ से आ रहा था अब उनकी पत्नी रसोई से लगी खाने की मेज़ पर उनकी रुचि का गरमागरम खाना परोसती थीं | 

परंतु ‘घर का सुख ‘उनके भाग्य में ही नहीं था | उन्होंने अपने आपको फिर पुराने ढर्रे में ढाल लिया | समय गुज़रने के साथ समिधा को भी अपने बारे में सोचना था | 

“पापा ! मैं बम्बई अपने काम पर जाना चाहती हूँ | ”समिधा को मिला एक माह का अवकाश अब समाप्त होने लगा था | 

समिधा के रहने से पापा थोड़ी राहत महसूस करते थे परंतु आज नहीं तो कल समिधा के बारे में सोचना ही होगा, यह सोचकर उन्होंने बुझे मन से ही सही समिधा को बम्बई जाने की इजाज़त दे दी | 

“काम में मन लगेगा तो धीरे-धीरे सहज हो जाएगी, कौन जानता है ज़िंदगी कैसे-कैसे नाच नचाती है | ”सूद अंकल व आँटी समिधा के लिए बहुत दुखी व चिंतित रहते थे | उदासी से घिरी समिधा ने बम्बई पहुँचकर अपना काम शुरू कर दिया | भविष्य उसके समक्ष काँटे भरे ढेरों प्रश्नचिन्ह लेकर ढीठ बना खड़ा था |