63. श्रेष्ठ कौन ?
“ अरे राकेश ! यह देखो, ये फूल कितने सुंदर और प्यारे है, इन्हें देखकर ही हमारा मन कितना प्रफुल्लित हो रहा है।“ यह बात शाला की क्यारी में लगे हुये फूलों को देखकर आनंद ने राकेश से कही। यह सुनकर फूल तने से बोला- देखो मुझे देखकर सब लोग मेरी कितनी तारीफ करते हैं, और मानव को मेरी कितनी आवश्यकता है। उसे जन्म से लेकर अंतिम यात्रा तक मेरी जरूरत रहती है। मैं पूजा स्थलों में परम पिता परमेश्वर के चरणों में स्थान पाता हूँ। ये सब बताते हैं कि मैं कितना श्रेष्ठ हूँ। यह सुनकर तने ने कहा- मेरी ड़ाल पर ही तेरा जन्म होता है। यदि ये न हो तो तेरा अस्तित्व ही नही रहेगा, मेरी छाल का उपयोग अनेक औषधियों के निर्माण में होता है। मेरे से टिककर ही राह के पथिक विश्राम करते हैं। इन्हीं सब कारणों से मैं तुझसे ज्यादा श्रेष्ठ हूँ। अब दोनो में अपनी श्रेष्ठ को लेकर तू तू- मैं मैं होने लगी।
एक संत प्रतिदिन दोपहर को पेड़ की छाया में विश्राम करते थे। दोनो ने उनको अपनी व्यथा बतलाई और उनसे इस विषय पर अपना निर्णय देने का निवेदन किया। संत जी ने दोनो को समझाया कि अभिमान कभी नही करना चाहिए। इससे हमारा मान कम होता जाता है। फिर भी हम अपने को दंभ में महान समझने लगते हैं। आप दोनो यह सोचिये कि जल जिसके बिना आप दोनो का जीवन संभव नही है, उसे इस बात का कभी घमंड नही हुआ कि उससे ही जीवन है। वह बिना किसी स्वार्थ के सबको लाभ पहुँचाता है और मन में कभी महानता का दंभ नही रखता है। हमें निर्विकार भाव से अपना कर्तव्य निभाना चाहिये। अब तुम दोनो खुद ही सोचो कि जल के सामने तुम क्या हो, यह सुनकर तने और फूल दोनो को अपनी गलती का अहसास हुआ और उनकी श्रेष्ठ बनने की भावना समाप्त हो गयी।
64. विनम्रता
एक शिक्षक से विद्यार्थी ने प्रश्न किया कि जब तेज आंधी तूफान एवं नदियों में बाढ़ आती है तो मजबूत से मजबूत वृक्ष गिर जाते हैं परंतु इतनी विपरीत एवं संकटपूर्ण परिस्थितियों में भी तिनके को कोई नुकसान नही पहुँचता, जबकि वह बहुत नाजुक एवं कमजोर होता है। शिक्षक महोदय ने उससे कहा कि जो अड़ियल होते हैं और झुकना नही जानते हैं वे विपरीत परिस्थितियों में टूट कर नष्ट हो जाते हैं। तिनके में विनम्रता पूर्वक झुकने का गुण होता है इसी कारण वह अपने आप को बचा लेता है। हमें भी अपने जीवन में विपरीत परिस्थितियाँ आने पर विनम्रतापूर्वक झुककर उचित समय का इंतजार करना चाहिये।
65. कर्मफल
जबलपुर शहर से लगी हुई पहाडियों पर एक पुजारी जी रहते थे। एक दिन उन्हें विचार आया कि पहाडी से गिरे हुये पत्थरों को धार्मिक स्थल का रूप दे दिया जाए। इसे कार्यरूप में परिणित करने के लिये उन्होने एक पत्थर को तराश कर मूर्ति का रूप दे दिया और आसपास के गांवों में मूर्ति के स्वयं प्रकट होने का प्रचार प्रसार करवा दिया। इससे ग्रामीण श्रद्धालुजन वहाँ पर दर्शन करने आने लगे। इस प्रकार बातों बातों में ही इसकी चर्चा शहर भर में होने लगी कि एक धार्मिक स्थान का उद्गम हुआ हैं। इस प्रकार मंदिर में दर्षन के लिये लोगों की भारी भीड़ आने लगी। वे वहाँ पर मन्नतें माँगने लगे। अब श्रद्धालुजनो द्वारा चढ़ाई गई धनराशि से पुजारी जी की तिजोरी भरने लगी और उनके कठिनाईयों के दिन समाप्त हो गये। मंदिर में लगने वाली भीड़ से आकर्षित होकर नेतागण भी वहाँ पहुँचने लगे और क्षेत्र के विकास का सपना दिखाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास करने लगे। कुछ वर्षों बाद पुजारी जी अचानक बीमार पड़ गये। जाँच के उपरांत पता चला कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में है यह जानकर वे फूट फूट कर रोने और भगवान को उलाहना देने लगे कि हे प्रभु मुझे इतना कठोर दंड क्यों दिया जा रहा है ? मैंने तो जीवनभर आपकी सेवा की है।
उनका जीवन बड़ी पीड़ादायक स्थिति में बीत रहा था। एक रात अचानक ही उन्होनें स्वप्न में देखा की प्रभु उनसे कह रहे हैं कि तुम मुझे किस बात की उलाहना दे रहे हो ? याद करो एक बालक भूखा प्यासा मंदिर की शरण में आया था अपने उदरपूर्ति के लिये विनम्रतापूर्वक दो रोटी माँग रहा था परंतु तुमने उसकी एक ना सुनी और उसे दुत्कार कर भगा दिया। एक दिन एक वृद्ध बरसते हुये पानी में मंदिर में आश्रय पाने के लिये आया था। उसे मंदिर बंद होने का कारण बताते हुये तुमने बाहर कर दिया था। गांव के कुछ विद्यार्थीगण अपनी शाला के निर्माण के लिये दान हेतु निवेदन करने आये थे। उन्हें शासकीय योजनाओं का लाभ लेने का सुझाव देकर तुमने विदा कर दिया था। मंदिर में प्रतिदिन जो दान आता है उसे जनहित में खर्च ना करके, यह जानते हुये भी कि यह जनता का धन है तुम अपनी तिजोरी में रख लेते हो। तुमने एक विधवा महिला के अकेलेपन का फायदा उठाकर उसे अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाकर उसका शोषण किया और बदनामी का भय दिखाकर उसे चुप रहने पर मजबूर किया। तुम्हारे इतने दुष्कर्मों के बाद तुम्हें मुझे उलाहना देने का क्या अधिकार है। तुम्हारे कर्म कभी धर्म प्रधान नही रहे। जीवन में हर व्यक्ति का उसका कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इन्ही गलतियों के कारण तुम्हें इसका दंड भोगना ही पडे़गा। पुजारी जी की आँखें अचानक ही खुल गई और स्वप्न में देखे गये दृष्य मानो यथार्थ में उनकी आँखों के सामने घूमने लगे और पश्चाताप के कारण उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।
66. गुरूदक्षिणा
आचार्य रामदेव के सान्निध्य में अनेक छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे, उनमें से एक केशव अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत गुरूजी के पास जाकर उन्हें गुरूदक्षिणा हेतु निवेदन करता है। गुरूजी उसकी वाणी से समझ जाते हैं कि इसे मन में अहंकार की अनूभूति हो रही है। वे गुरूदक्षिणा के लिये उसे कहते है कि तुम कोई ऐसी चीज मुझे भेंट कर दो जिसका कोई मूल्य ना हो और जिसकी कोई उपयोगिता ना हो। केशव यह सुनकर मन ही मन प्रसन्न होता है कि गुरूजी तो बहुत ही साधारण सी भेंट मांगकर संतुष्ट हो जाऐंगे। वह जमीन से मिट्टी उठाकर सोचता है कि इसका क्या मूल्य है तभी उसे महसूस होता है कि जैसे मिट्टी कह रही है कि वह तो अमूल्य है वह अनाज की पैदावार करके भूख से संतुष्टि देती है उसके गर्भ में अनेक प्रकार के खनिज एवं अमूल्य धातुऐं छिपी है इनका दोहन करके मानव धन संपदा पाता है। ऐसा भाव आते ही केशव मिट्टी को छोड़ देता है और पास में पडें हुऐ कचरे के ढेर में से कुछ कचरा यह सोचकर उठाता है कि यह तो बेकार है इसका क्या मूल्य हो सकता है वह कचरा मानो उससे कहता है कि मुझसे ही तो खाद बनती है जो कि खेतों में पैदावार को बढाने में उपयोगी होती है।
केशव उसे भी वापिस फेंक देता है और मन ही मन सोचता है कि ऐसी कौन सी वस्तु हो सकती है जिसकी कोई उपयोगिता एवं मूल्य ना हो ? उसको कुछ भी समझ में ना आने पर वह वापिस गुरूजी के पास जाता है और कहता है कि इस सृष्टि में बेकार कुछ भी नही है जब मिट्टी और कचरा भी काम आ जाते हैं तब बेकार की चीज़ क्या हो सकती है ? गुरूजी ने उसे अपने पास स्नेहपूर्वक बैठाकर बताया कि अहंकार ही एक ऐसी चीज है जो व्यर्थ है और यदि इसे अपने मन से हटा दो सफलता के पथ पर स्वयं आगे बढते जाओगे। केशव स्वामी जी का भाव समझ गया और उसने मन में प्रण कर लिया कि अब वह अहंकार को त्याग कर गुरूजी के बताए मार्ग पर ही चलेगा।
67. कर्तव्य
एक गरीब महिला अपने बेटे के साथ नदी से लगी हुई रेल्वे लाइन के ब्रिज के पास झोपड़े में रहती थी। एक दिन रात में दो बजे के आसपास तेज आवाज हुई जिससे उसकी नींद खुल गई वह देखने के लिए उठ बैठी कि यह अजीब सी आवाज किस बात की है। उस समय वर्षा ऋतु का मौसम था और तेज बरसात हो रही थी। वह यह देखकर चौक गई कि नदी पर बना रेल्वे का ब्रिज नदी के प्रवाह के कारण आधा झुककर टूट गया था। यह देखते ही उसकी नींद गायब हो गई और उसके होश उड़ गये क्योंकि आधा घंटे के बाद एक ट्रेन को वहाँ से गुजरना था। उसने तुरंत अपने बेटे को उठाया और इस घटना के बारे में बताया अब दोनो के मन में यह चिंता हो रही थी कि बीस पच्चीस मिनिट के बाद वहाँ से निकलने वाली गाड़ी को कैसे रोका जाए अन्यथा वह गंभीर हादसे की शिकार हो जायेगी और सैकडों लोगो को जान माल से हाथ धोना पड़ेगा।
ट्रेन को रोकने का एक ही उपाय था कि लाल रोशनी इस प्रकार से बताई जाए ताकि ड्राइवर सचेत होकर गाड़ी को रोक दे, परंतु यह कैसे हो वे मन ही मन सोच रहे थे। वृद्धा के मन में आया कि उनकी जो खटिया है उसको जलाकर उसकी जो लाल रंग की साड़ी है उसको हिला हिला कर दिखाया जाए उस रेल्वे लाइन के पास एक टीला था और वे दोनो बिना समय गंवाए अपनी खटिया को खींचकर टीले पर ले जाते है। उसमें आग लगाकर उसको ऊँचा करके उसकी रोशनी में एक डंडे में साडी लपेटकर इस प्रकार हिलाना शुरू किया कि ड्राइवर को वह नजर आ जाये और वह सावधान हो जाए।
रात के अंधेरे में गाडी अपनी दु्त गति चल रही थी तभी ड्राइवर और उसका सह चालक दोनो ने यह दृश्य देखा और सह चालक ने ड्राइवर से कहा कि लगता है कोई डाकुओ का गिरोह यहाँ पर क्रियाशील है और रात्रि का लाभ उठाकर ट्रेन को रोकना चाहते है। ट्रेन का ड्राइवर उससे सहमत नही था उसने स्वविवेक से ट्रेन को रोकने का निर्णय लेकर इमरजेंसी ब्रेक लगाकर ट्रेन को रोक दिया। ट्रेन रूकते ही वह महिला और उसका बेटा खुशी से पागल होकर दौडते हुए जाकर ट्रेन के ड्राइवर को आगे होने वाली संभावित दुर्घटना से अवगत कराते है।
अब चालक दल यह सुनकर ट्रेन से उतरकर नीचे आता है, और दस फीट आगे जाने के बाद ही टूटे हुये पुल को देखता है तो उनके होशोहवास गायब हो जाते है और वो महिला और उसके बेटे के प्रति उनके चरणों में प्रणाम करते हुए आभार व्यक्त करते है। ट्रेन में सवार यात्रियों को जब यह पता चलता है कि इन दो लोगो के कारण आज उनकी जान बच गई तो उन्हें अकल्पनीय खुशी होती है और वे सच्चे दिल से माँ बेटे के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी दुआएँ देते है। जब इस घटना की खबर रेलमंत्री को मिलती है तो वे अभिभूत होकर उन दोनो का सम्मान करते हुए लड़के को रेल्वे में नौकरी प्रदान कर देते है।
68. संत जी
नर्मदा नदी के तट पर एक संत अपने आश्रम में रहते थे। उन्होंने अपने आश्रम को नया स्वरूप एवं विस्तार करने की इच्छा अपने एक व्यापारी शिष्य को बताई उस शिष्य ने अपनी सहमति देते हुए उन्हें इस कार्य को संपन्न कराने हेतु अनुदान के रूप में अपनी दो हीरे की अंगूठीयाँ भेंट कर दी। यह देखकर संत जी प्रसन्न हो गये और उन्होंने दोनों अंगूठियों की सुंदरता को देखते हुए उन्हें संभालकर अलमारी में रख दी।
एक दिन एक भिखारी जो कि अत्यंत भूखा एवं प्यासा था उनके पास भोजन की इच्छा से आया। संत जी ने उसे भोजन के साथ साथ मिठाई देने हेतु अलमारी खोली और उसमें से एक डिब्बा निकालकर उसे दे दिया। उस भिखारी ने घर आने पर डिब्बा खोलकर देखा तो उसके एक कोने में हीरे की अंगूठी चिपकी हुई थी। यह देखकर वह चौक गया और तुरंत संत जी के पास आकर उन्हें इसकी जानकारी देते हुए उनके चरणों के पास अंगूठी रख दी और बोला कि यह आपकी वस्तु है जो कि धोखे से मेरे पास आ गई थी।
यह सुनकर संत जी कुछ क्षण के लिए मौन हो गये और चिंतन करने लगे कि यह भिखारी कितना गरीब है परंतु इसका मन कितना उज्जवल एवं विशाल है। यह ईमानदारी और नैतिकता का साक्षात उदाहरण है। मैं अपने आप को संत मानता हुआ भी इस अंगूठी की सुंदरता में उलझ गया और इसी कारण मैंने उस अंगूठी को बेचा नही। मुझे अभी अपने आप को और अधिक निर्मल करने की आवश्यकता है।