समय की नब्ज पहिचानों 4
काव्य संकलन-
समर्पण-
समय के वे सभी हस्ताक्षर,
जिन्होने समय की नब्ज को,
भली भाँति परखा,उन्हीं-
के कर कमलों में-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
मानव जीवन के,अनूठे और अनसुलझे प्रश्नों को लेकर यह काव्य संकलन-समय की नब्ज पहिचानों-के स्फुरण संवादों को इसकी काव्य धरती बनाया गया है,जिसमें सुमन पंखुड़ियों की कोमलता में भी चुभन का अहिसास-सा होता है।मानव जीवन की कोमल और कठोर भूमि को कुरेदने की शक्ति सी है।मेरी तरह ही,आपकी मानस भाव भूमि को यह संकलन सरसाएगा। इन्हीं आशाओं के साथ-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
न्याय की कैसेॽभली औकाद होगी।
बेचकर आया यहाँ इंसाफ जो।।
जिसकी कश्ती किनारे ही डूबी हो भला।
उससे भरोसा क्या करें,लम्बे सफर।।
हर किसी मंजर से गुजरना होगा तुझे।
बरना मात खाओगे,किसी भी मोड़ पर।।
पहले ही होना था,बाकिफ तुझे।
अब पछताने में रक्खा भी क्या है।।
अब खड़े क्या सोचते हो इस तरह।
बन्दरों ने कर दिया बीरान सब।।
भूँख ने सब कुछ कराया आजतक।
क्यों न करतेॽभूँख का इंसाफ है।।
कह कर पलटतें जो,उनसे कहैं क्याॽ
सिकवा तो उनसे करें,जो बात बालें हो।।
इस सफर में हम किसे दोषी बताएँ।
बन्दरों को सौंपकर अपनी अमानत।।
झेलना तुझको पड़ेगी ये दुलत्ती।
क्योंकि बाँधे हैं गधों को ताज तुमने।।
हम खड़े नंगे,अंधेरी राह में।
शर्म फिर भी आ रही लुटते हमें।।
क्यों करो पाखण्ड भी इतना जिगर।
अंधेरे में भी खड़े,नंगे दिखाई देते हो।।
तुम देखो न देखो,अपने कारनामे रहवर।
कालिख के आईने में भी तुम्हें,अपनी शक्ल दिखेंगी।।
इंसानियत की राह पर,यदि तुम चलें।
ये धरा भी बनेगी जन्नत यहाँ।।
इक कदम भी,सोचकर रखना इधर।
क्योंकि तुम,बिल्कुल खड़े हद पर यहाँ।।
खेल में तुमने बिता दी जिंदगी सबरी
कांपते पग को,डगर आसान कब।।
बड़े ओहदे पर भी,बचकनी ये आदत।
न जाने कहाँ खत्म हो जायेगा,तुम्हारा ये सफर।।
जहाँ चारौ तरफ,लुटेरे ही लुटेरे हों।
वहाँ हिफाजत करना,बहुत है मुश्किल।।
और सब अड्डे गिरह कट पहले से।
मंदिरों में भी लुटेरे घुस गये।।
शस्त्र खाने बन गये,गुरुद्वारे ये।
गिर चुकीं मस्जिदे,गिरजा घर भी खाक में।।
कुछ ऐसा बदला है जमाने का चलन।
मुर्गियाँ भी बाँग लेती दिख रहीं।।
रात-दिन होते रहें,जिन घरों में कलह-झगड़े।
देवता तो क्याॽपलायन भूत भी करते दिखे।।
कलम-नबीसों ने ही,कलम को बदनाम किया है।
बरना,ये पेट की आग को मेंटने ही चली है।।
कलम की औकाद ओछी है नहीं।
कलम कारों की शर्म,वे-शर्म है।।
दुनियाँ रची भगवान ने,कुछ सोचकर।
इंसान ने इसको बनाया,और कुछ।।
बदलीं गई हैं शक्ल,सूरत सब यहाँ।
आदमी से हारता-सा,वहाँ लगा भगवान भी।।
नुक्श ही छोड़कर,अच्छाइयों को देखें सभी।
आदमी की क्या कहें,संसार की ये चाल है।।
जो देखते अच्छाइयाँ,छोड़कर के और सब।
आदमी केवल नहीं,वो देवता का रुप है।।
औकाद पर,आना पड़ेगा आपको।
बचन पाओगे कलम की मार से।।
हो सका तो,बच गये भगवान से।
कलम से बचना कठिन होगा प्रिये।।
सोच लो जर में नहीं है जर कीई।
वो गई हैं कहाँॽकिसके साथ में।।
गिर चुका है आदमी कितना यहाँ पर।
इश्क इतना मग्न है पर,मंकूहा से।।
भूँख और शम्शीर में,नहिं फर्क कोई।
मारतीं दोनों,दिखीं कुछ एक अंतरों से।।
साथ में कोई न साथी,हम अकेले है भलाँ।
याद आयेगे,मगर हम मंजिलो को बहुत दिन।।
जिंदगी एक खुली किताब है,पर।
कभी तुमने पढ़ने की कोशिश की क्याॽ।।
जिंदगी को पड़ना बहुत आसान है।
यदि उसे तरतीब से पढ़ा जावे तो।।
जिन्होंने जिंदगी को,तरतीब से पढ़ा भर है।
वे आसानी से पार हो गये।।
जिन्होंने पढ़ी भी है,वे भी समझ नहीं पाये ठीक से।
बिना पढ़े,कैसे जान पाओगे,जिंदगी की किताब।।
फूल फूलते हैं इतने,न जाने किसकी याद में।
फूल को फूलने दो,तोड़ो नहीं साथी।।
कलियों को मसलना तो अच्छी बात नहीं।
उन्हें फूल कर,फूल तो बनने दो जरा।।
इतने मायूस क्योंॽजनाजा देखकर।
क्या सोचते होॽये जिंदगी का मुकाम है।।
जिंदगी का जब सफर पूरा होआ।
फिर उसे आराम करना,क्या बुराॽ।।
घेर कर के क्यों खड़े,हो अब उसे।
आराम करने बी न दोगें,चैन से।।
जिंदगी को,जिंदगी भर,खूब ही ढोता रहा।
बस अभी सोया यहाँ,चैन से सो जाने दो।।
क्यों दिखाते हो हमें,खूँसने इस कफन को।
होलियाँ हम खूँन की ही,खेलने आये।।
है हनीं यहाँ,खून की कोई कमी।
सन्-सनातीं गोलियाँ,भी आनकर यहाँ बुझ गयी।।
बम दिखाकर,क्या डराते हो हमें।
रोज खेलें जा रहे है,बालकों के खेल ज्यौं।।
सुख-दुःखों का मेल है ये जिंदगी।
दो भाग में देखी गई,रोज शिक्के की तरह।।
प्यारा लगा है सुख,दुःख के बाद ही।
है नहीं पहिचान कोई,एक दूजे के बिना।।
जिंदगी को भोगते सब ही रहे।
पर किए बस हाथ दो-दो,आदमी ने।।
सहम जाती है कभी,सच्चाई भी सौ झूठ से।
पर गिरा क्याॽआजतक उसका बजूद।।
वे भलां कुछ भी कहें,कहते रहैं।
समय के हर आईने में,बद सदाँ बद ही रहेगें।।
दोस्त होना अति कठिन है,सोच लो ये दोस्तो।
क्या कभी देखा है कसके,दोस्ती की निकष पर।।
लग रहीं हो,जो भलाँ ही,बहुत गहरी आपको।
डुबो देते चंद शिक्के,चंदपण में दोस्ती।।
खुदा हाफिज था जो तुम पार हो गये।
बरना इन्होंने,अपनी करनी में कसर नहीं छोड़ी।।
ये कितने भले हैॽतुम्हें पता नहीं है।
इन्होनें हजारों कश्तियाँ,साहिल पर डुबोई है।।
जिंदगी एक यात्रा थी जो पूरी हो गई।
फिर बताओ ये मातमी ध्वनि क्योंॽ।।
सोच लो इक तूफान ये जिंदगी।
कुछ समय आकर,यहाँ से चल भयी।।
पत्रकार हो या वे-पैंदी के लोटा।
कभी इधर,कभी उधर,लुढ़कने में,देर नहीं लगती।।
यार कुछ तो सही पहिचान बनाओ अपनी।
क्यों बिक रहे होॽभटा-भाजी की तरह।।
तुम अपनी जगह रहो,तो-कीमत होगी।
चाहते हो वो भी,भड़भूँजें की दुकान पर।।
क्या कभीॽवहाँ भी न्याय,मिल पायेगा।
मुंशिफ बने हों जहाँ पर,सातिर लुटेरे।।
इस शिकन से तो,सभी को दिख रहा है।
ये बुढ़ापा है,रंगों में बाल कब तक।।
गेसुओं का रंग,रंगत रात भर की।
मोर-झड़ में,झाँकता है ये बुढ़ापा।।
दे रहे धोखा,रंगे इन गेशुओ से।
कह रहा है तन,सभी बूढ़ी कहानी।।
साफ दिखता है बुढ़ापे का नजारा।
आ गया तो फिर नहीं,रोके रुका है।।
दे रहे इस्तीफा,देखा अंग सारे।
ये बुढ़ापा है,इसे स्वीकार कर लो।।
तुम्हारीं सब करामातें,सभी ने जान लीं फिर से।
सलीका नहिं बदल पाया पुराना,आजतक तुमने।।
तुम्हारी ही बदौलत है,हमारी हालतें ऐसी।
कसर कुछ भी नहीं छोड़ी,हमें बरबाद करने में।।
सहारा कौन देता है,समय गर्दिश का आने पर।
पहल से जानते हम है,पराय होयगे अपने।।
नहिं कमजोरियाँ इतनीं,जितनी सोचते तुम हो।
भले ही सड़ गया मूंसल,धान तो कूट ही लेगा।।
किनारे ही चले होगे,कभी क्या धार को काटाॽ।
बच्चों का खेल नहीं है,हकीकत लेख का लिखना।।
तपा जो हौंसले तप लें,बना फौलाद है सच में।
भलाँ ही टूट सकता है,मगर झुकना नहीं सीखा।।
चल पड़ोगे जब,मुकाम आ ही जाऐगा।
राह आसान होती है,बढ़ते कदम के आगे।।
सोचा था,जो बीत गये दिन,लौट कभी नहीं आयेगे।
किन्तु पुराना बक्शा खोला,तो देखा सब रक्खे है।।
इंसानित के लिये तो,इंसान मरे है।
हैवान तो सच में जिंदा ही कहाँ है।।
मर्दों में रहोगे तो,मर्दानिगी होगी।
जो जुर्रत,ताली फटकार में कहाँ।।
आदमी होना बड़ी बात है,सजन।
बहुत सारे जी रहे,मुर्दे की तरह।।
छप रहा है बहुत पर,चंद टकोले।
प्रकाशक भी बिक गये है आजकल।।
बुढ़ापे की नजाकत पर,जवानी को शर्म आती।
मगर तुम हो जो-गजब ही ढाय जा रहे।।
तुम अभी भी नहीं बदल सके अपने को।
आदमी बन भी न पाये,धाम में बुढ़े भये।।
उम्र का अंतिम किनारा,तुम नहीं संभले अभी।
व्यर्थ का बकबास करते,बात बजनीं है नहीं।।
सभी तो सीखते आये,नियति की पाठशाला में।
सीखना है यहाँ सबकुछ,पेट से नहिं अकल आती।।
अकलबंदों की फजीहत,मर्खों की भीड़ में।
दर्द होता है जिगर,हालत लखकर देश की।।
भीड़ का माहौल है,संभल कर चल लो जरा।
कब किधर मुड़ जाये,यह तय दिशा कोई नहीं।।
इस भरे संवाद में,क्या ठिकाना कबॽकिधरॽ
हाथ का परिचम कहाँ तक,साथ देता रहेगा।।
जिंदगी भी एक आफताब है।
यदि उसे करींने से तरासा तो।।
अपने लिये तो,सभी जीत रहे है।
मगर औरो को जियो,तो जिंदगी है।।
जिंदगी का आनंद,बालपन में ही है।
बुढ़ापा तो ढोने के लिये है केवल।।
जियो तो,शेरों की तरह ही जियो।
बरना,कुत्तों की मौत ही मारे जाओगे।।
मंजिल दर मंजिल खूब चला।
जरा आराम किया तो लोग रोने लगे।।
राहों में हमें,भटकाने की खूब कोशिश कीं।
मगर हम जो थे,गये ही नहीं उन राहों पर।।
उनसे तो लोग,वैसे ही डरते है।
सताए तो भले लोग ही जाते है।।
हिलना-डुलना तो होती है गति जनाब।
पर आप तो रहे सिर्फ पैंडल की तरह।।
कितना सजाओगे,इन्हें रंगत देकर।
मगर,वो चमक आना तो मुश्किल है।।
खैर,तुम्हारी सारी हरकतें माँफ है।
अगर आप मानवी राहों पर फिर से चलें।।
वो जमाना था,अब गुजर गया।
चंद पैसों में तो,अब बच्चें भी नहीं मानते।।
अबतक तूँ खूब दौड़ा,कस्तूरी मृग की तरह।
मगर तूँने अपने आपको,कभी सूँघा भी।।
सम्पर्क सूत्र-गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा डबरा(ग्वा,म.प्र.)
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