समय की नब्ज पहिचानों 3
काव्य संकलन- 3
समर्पण-
समय के वे सभी हस्ताक्षर,
जिन्होने समय की नब्ज को,
भली भाँति परखा,उन्हीं-
के कर कमलों में-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
मानव जीवन के,अनूठे और अनसुलझे प्रश्नों को लेकर यह काव्य संकलन-समय की नब्ज पहिचानों-के स्फुरण संवादों को इसकी काव्य धरती बनाया गया है,जिसमें सुमन पंखुड़ियों की कोमलता में भी चुभन का अहिसास-सा होता है।मानव जीवन की कोमल और कठोर भूमि को कुरेदने की शक्ति सी है।मेरी तरह ही,आपकी मानस भाव भूमि को यह संकलन सरसाएगा। इन्हीं आशाओं के साथ-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
मयकशी में बैठकर,कह रहे,इंशान है।
या खुदा जहन्नुम तुम्हारी,क्या कभी जन्नत हुई।।
फायलें भी मर चुकीं अरु झड़ रहे पन्ने सभी।
किन्तु मुंशिफ ने अभी तक न्याय नहीं बक्शा।।
लिख दई तहरीर इतनी,क्या मिला इससे।
बदलना उसने न सीखा,हर समय कातिल।।
खाक में मिलते दिखे सब,आस के पन्ने।
स्वास ने भी हार मानी,न्यायलय सीढ़ी।।
न्याय का औकाद ओछी,बिक गये मुंशिफ।
या खुदा तेरी इबादत,इस संसार रहना।।
कब उगा सूरज यहाँ पर,और कब का डूब गया।
इन बिचारो की खता क्याॽअब तलक जाने नहीं।।
सूर्य तो ऐसा उगाओ,जो कभी डूबे नहीं।
बस उजाला ही उजाला,हो भरा संसार में।।
कहाँ बहारों का जमानाॽ,फूल भी मुरझा रहे।
चमन का गुल्जार होना,इस तरह कठिन है।।
पत्थरों के देवता,भगवान हो गए।
रात दिन जो एक करते,वे पुजे कब आज तक।।
इंसान से कितनी बड़ी,पाषाण की प्रतिमा।
हर समय जिनकी इबादत लोग करते आ रहे।।
साथ जाती है कभी क्याॽयह इमारत स्वर्ण की।
व्यर्थ में क्यों सिर खपा,नाचीज के लाने।।
साथ कुछ जाता नहीं है,सब पड़ा रहता,यहाँ।
तूँ अकेला जायेगा,और हाथ ही खाली।।
जब हमारी याद होगी,वो समय कटना कठिन।
चैन नहिं तुमको मिलेगा,बदल कर भी करवटें।।
कर सको कुछ काम ऐसे,इस सदी के वास्ते।
नहीं भुलाये जा सकोगे,भूलना मुश्किल लगे।।
हो गया यदि कुछ अनूठा,इस चमन के वास्ते।
गीत गायेगे धरा पर,देवता भी आन कर।।
एक दिन में,बार कितने,बदलते हो मुखौटे।
हो बड़े बहरुपिये तुम,आज ही जाना तुम्हें।।
रुप इतने आप के,कैसे संभालो भला।
ये निगोड़ा एक ही तो,आज तक संभला नहीं।।
मजबूर इतना मत करो,कि मुटिठयाँ कसना पड़े।
हम तुम्हारे ही लिये तो,जी रहे है आजतक।।
मत चढ़ो इतनी ऊँचाई,संभल भी नहीं पाओगे।
जो गिरा इतने से नीचे,उठ सका नहिं आजतक।।
बहुत कुछ खोना ही पड़ता,तब कहीं मिलता है कुछ।
चाहते हो बहुत कुछ,करना नहीं कुछ चाहते।।
मस्त मौलो की जरुरत,है नहीं इस जहाँ में।
तुम निकाले जाओगे,मेहनतकशों की ये धरा।।
तुमने किया है तो यहाँ,बख्से अब नहीं जाओगे।
तुम उजागर हो गये,अपने किये के वास्ते।।
हर सजा के वास्ते,मैं तो यहाँ मंजूर हूँ।
जहन में जिंदा रहूँगा,भूल सकते तुम नहीं।।
तुम कसर छोड़ो नहीं,मेरी मिटाने हस्तियाँ।
पर मुझे विश्वीस है,तुम मिटा सकते नहीं।।
किये जो बार पीछे से,तुम्हारी हरकतें ओछी।
अगर है हौसले तुम में,जरा कुछ सामने आओ।।
तुम्हारे ये जख्म गहरे,कभी-भी मर नहीं सकते।
जब भी मरना होगा,सरेआम मारेगे।।
तुम्हारीं हरकतें ऐसीं,गुजारे होंऐगे कैसे।
तुम्हें चैलेन्ज देते है,तुम्हारे राज छीनेंगे।।
तुम्हारे कायदे झूँठे,तुम्हारे वायदे झूँठे।
तसल्ली है नहीं अब तो,तुम्हारा तख्त पलटेंगे।।
जुर्म करले बालो को,सजा मिलती है जरुर।
नियम है कुदरत का,हर किसी के वास्ते।।
जो चला विपरीत होकर.नियति ने बख्सा नहीं।
बच सका नहिं न्यायकर्ता,हो भला चाहे खुदा।।
हमें चाँद न समझ,जो धब्बों से भरा है।
कब-कब टिका है अंधेरा,सूर्य उगने पर भला।।
दूर्वीन मगा लो,तुम्हारी आँखे बहुत कमजोर है।
दाग मिलने से रहे,सूर्य के चहरा भलाँ।।
ये छली है बहुत ही,सब कोई भी तो जानता है।
जान कर भी तो इसे,सब कोई ही तो छलता रहा।।
छली जिंदगी पर,कोई भी विश्वास नहीं करता।
पर कभी-कभी तो ये बाबन से विराट होती है।।
बुरे दिनों में,अपने भी पराये होते है।
वो सोने के हार भी,मोर ने निगले कभी।।
क्या कहे किस्मत की खूबी,बुरे दिन आये जभी।
उछल कर जल में समा गयी,मछलियाँ वे भी भुंजी।।
कभी सोचा नहीं था,कि हम रहेगे पीछे।
हमारी समझ ने हमको,यहाँ धोका दिया पूरा।।
पेट की ये अंतड़ी,गीत गाती है अभी।
पर किसी के सामने,हाथ फैलाए नहीं।।
है नहीं कोई यहाँ,भूँख की पैमास भी।
बादशाहे या मंजूरे,पेट खाली सभी के।।
जब कभी भड़की है,इनके पेट की आग।
बुझाने जो कोई दौड़ा.वही झुलसा हुआ पाया।।
पूज्य पिता और माता जी का,मैं आभारी जीवन से।
सब कुछ तो उनका है वंदे,भरम करें सब मेरे पर।।
चाचा-चाची उभय अग्रजों का तो ऋणी सदां से हूँ।
श्री चरणों में नत शिर मेरा,सदां-सदां ही रहा करे।।
यह कृति उनको समर्पित,श्रद्धा के अवतार रहे।
पल-पल मेरा उनको अर्पण,सदां-सदां ही रहे सदां।।
कंजूसियाँ भी किस लिये,दावतों में जहाँ बफर।
तौलते तौला औ मासा,मय खाने में बैठकर।।
तेरी कला को नमन है,ओ कलावर शत-शत यहाँ।
पुज रहे जो,पत्थर के भगवान,का भगवान है।।
सिर्फ देखो ना बुलन्दी,करिश्मा बुनियाद का।
जो जिगर पर ले खड़ी है,मंजिले दर मंजिले।।
हौसले गहरे अगर,तो छू सकोगे फलक को।
छू लिया है धूल ने भी,हौसलों से आसमां।।
तुम बनाते जा रहे हो,मंजिले दर मंजिले।
उस खुदा से भी क्या ऊँचे,हो सकोगे तुम कभी।।
गर मिटाना है तुझे भी,दर्द का ये शिल-शिला।
बदल ले हर खुशी में तूँ,दर्द की औकात को।।
खून भी पीते रहे और,नौंचते रहे चाम को।
जिगर को पूँछो जरा वह,किस तरह जीता रहा।।
दर्द का ऐहसास केवल,जान सकते दर्द से।
इसको संभाल ही रखो,ये कसौटी है फकत।।
बैठकर उस ताज पर,भूँखे दिखे वे आज भी।
इन बिचारो के अभी-भी,वे निबाले छीनते।।
मौज,मस्ती,जश्न के,बेयर हाउस फुल यहाँ।
आज के वातावरण पर,क्या विचारा है कभी।।
हो सकीं है मौंथरी,तलबार की ये धार भी।
जोर-जर-जुल्मों के आगे,कलम तो झुकती नहीं।।
क्या कभी भूलें भुलैंगे,आपके ऐहसान ये।
जिंदगी की हर तमन्ना,आपने पूरी करी।।
नहिं बिकेगे कुर्सियों के मोल में,यह भूल है।
क्या कभी हीरे बिके है,शाक के बाजार में।।
जहर ही पीते रहे हम,पीढ़ियों से आज तक।
जहर ही अमृत हमारा,नहीं पिए,अमृत कभी।।
हम जिये है अरु जियेंगे,आग के घर बैठकर।
तुम भलां पंखा हिलाओ,ये तुम्हारा काम है।।
ये नसीहत है तुम्हें,इस कलम को मत छेड़ना।
डूब जायेगा जहाँ,इसकी उगलती बूँद में।।
पके आम से भी मीठे हैं, ये गम।
छोड़ने को मन न करता,बार-बार चूसकर।।
इन कश्तियों,पर नाज हो तुमको भलाँ।
पार तो हमने किये,सातो समंदर तैरकर।।
डूबती देखीं गयीं,ये कश्तियाँ कई बार तो।
कर दिया छोटा समंदर,तैर कर इन पैर से।।
जो लिखा,कुछ भी लिखा,अपना लिखा।
मत करो शंका जरा,कोई उधारु है नहीं।।
जी सको जैसे जियो,इन चार दिन के दौर में।
दर्द पी हंसते रहो,पर अश्क टपकाना मना है।।
तुम इन्हें यौ ही उड़ेलो,कीमती ये अश्क है।
पी लिये थे सप्त सागर,अश्क की एक बूँद ने।।
अबतक छुपाकर के रखा,तुमकों गुनाहों की तरह।
कर दिये टुकड़े दिलों के,नशतर्रो से काट कर।।
जिंदगी में आँसुओं से कीमती,कुछ भी नहीं।
ये नहीं तो कुछ नहीं,वे जिंदगी ही अश्क है।।
देख लो सारा जहाँ ही,गमों में डूबा हुआ है।
खूब ही छिर-छिर बरसते,ये रहें है बादले।।
मंजिल हमारी,तुम्हारी और उनकी एक ही।
समझने की जरुरत है,रास्ता होते जुदा।।
कभी-कभी इंसान भी,हैवान होता है।
खुदा ने भी नहिं बनाया था,इसे यह सोचकर।।
बक्त की तासीर को,समझो तो,जरा।
तुम भलां रुके रहो,बक्त गुजर जाता है।।
बड़ी मुश्किलों से तुम्हें,ये मंजिर मिला है।
तुम इसे यूँ-ऐसे,क्यों गवाते हो भलाँ।।
अति किसी की भी हो,अच्छी नहीं होती।
बर्फ भी तो आग की तासीर देती है।।
रखो तो सब्र,रातें लम्बी नहीं होतीं।
निश्चय है यहीं,सूरज सुबह निकलेगा।।
तुम्हारा सोच कर चलना,तुम्हें मंजिल थमाएगा।
सोच लो इन लिवासों पर,अनेकों रंग है किनके।।
दोस्तो से तो लगा,दुश्मन भले हैं।
मारते तो हैं,मगर नहिं इस कदर से।।
डुबोते है बीच में,दुश्मन हमेशां।
दोस्तों ने ला किनारे पर डुबाया।।
डूबते यदि बीच में,नहिं दर्द होता।
डूबने का दर्द है,बस साहिले पर।।
इंसान से पहिचान तेरी है खुदा।
चल रहा है इसी से संसार तेरा।।
इंसान को तूँने बनाया,मानते है तूँ बड़ा।
हो नहीं सकती कभी,इंसान बिन पहिचान तेरी।।
है अगर इंसाफ की कोई तराजू।
वह मिलेगी तो,सिर्फ इंसान के घर।।
यदि दिलों में एकता के भाव जागे।
न्याय के दरबार की फिर कहाँ जरुरत।।
मानते सब में बराबर है खुदा।
इंसान होना तो बड़ी सी बात है।।
मैं चला अपनी तरह से,राह अपनी।
मंजिलो को पा लिया मैंने सही में।।
और की राहों पै चलना,कौन मुश्किल।
खुद बना तूँ राह,चलकर के दिखातो।।
लकीर का फकीर नहीं,तो हौसला दिखा।
क्या बनाई पर्वतों को काटकर के राह तूँने।।
इंसान हो,तो टूटकर भी मिल रहो।
अन्यथा जीवन में कुछ है ही नहीं।।
सुबह का भूला जो लौटे शाम तक।
तो उसे भूला,नहीं कहते कभी।।
दीप नहीं जो एक झौंका से मिटे।
फूटकर ज्वालामुखी,क्या कभी रुक सका।।
झूँठ के बाजार अब लगने लगे।
रह गया ईमान,कौन में धरा।।
आज तक तुमनें बुझाई,मोमबत्ती फूँक से।
भूल मत जाना कभी,इस अतिशे-कहि सार को।।
मिल सको उनसे मिलो,जो आजतक लुटकर जिये।
लूटकर जीना किसी का,बहुत ही आसान है।।
चल पड़ों इक बार तुम,उम्मीद के पुल बाँधकर।
मंजिले भी हारकर आसान सी हो जायेगी।।
है नहीं हम वो पथिक,भूलकर मत सोचना।
क्या झुका है ये फलक,अंजाम के परिणाम से।।
जिंदगी भर जो तपा,वो बेश-कीमती हो गया।
बिनमरे,किसको,कहीं भी,भूलकर जन्नत मिली।।
झड़ गये वे फूल,मिल गये खाक में।
एक दिन वो ही शमां में झुक-झुक झूमते।।
जुर्म की औकाद कितनी हो गई जर-जर यहाँ।
ये धरा फटती नहीं और आसमां गिरता नहीं।।
हाथ फैलाए खड़े ये हडिडयां मंजर लिये।
सहम कर,संसार की साँसे थमी है आज भी।।
तुम हमारे और हम तुम्हारे,जानते अंजाम साब।
जब तुम्हारी सह मिली तो,कर दिये वो काम सारे।।
कमाल है तुम्हारे तर्जेबंया का जनाब।
सुनकर सामने बाले के,सब पखेक उड़ गये।।
इस तरह से व्यर्थ का,आराम करना छोड़दें।
तो लगेगा बहुत सुन्दर,जिंदगी का हर सफर।।
औरतें अबला नहीं है,भूलो पुरानी बात ये।
आज तक तो,जिंदगी संग्राम में अब्बल रहीं।।
औरतें पीछे नहीं है,आज भी हर बात में।
सौर्य उनसे,लखो इतिहास के पन्ने भरे।।
पगले,तेरा ये हाल क्या,सीरी-फराद-सा।
ता उम्र पीता रहेगा,आँसू ये खून के।।
सागर से पूँछो नीर या,आँसू भरे है कौन के।
उत्तर मिलेगा,नारियाँ भरती रहीं मुझको सदाँ।।
औरतां जो,सो करे,औरतें है औरतें।
इनको मनाना अति कठिन,संग्राम का संग्राम है।।
इक जरा-सा काम तो,संभला नहीं है ठीक से।
सल्तनत का बोझ ये,कैसे उठा सकते भलां।।
इतने बिगड़ते तो नहीं,गर खून होता,खून-सा।
धरती दरकती सी लगी,सरमां रहा है आसमां।।
इंसान की इंसानियत पर,जिंदगी ये होम दी।
मर-मर के बनाते रहे,हम भी वतन को आजतक।।
जब खून ये कातिल बना,अपने भी खून से।
इस लिये होता नहीं,तुं पर भरोसा आज भी।।
जबसे तुम्हारी चाल ये,हद से बेहद हो गई।
चल रहें है लोग सब,तुमसे किनारा ही किये।।
आऐ है हम,आजतक,सच का दामन थामते।
आज भी हम थामते,सच तुम्हारा,सच,जो होता।।
नाचना जो है तुम्हें,ध्यान की कर साधना।
टूट नहिं पाए कभी-भी,लक्ष्य का संधान वो।।
पैर की थिरकन अलग,संग कटिका मटकना।
नृत्यिका के ध्यान बस,वो शीश की गागर रही।।
गुप्तगू में हो मगन,तब भार भी नहिं भार है।
हो डगर कितनी भी लम्बी,निकलती आसान से।।
भेद कोई है छुपा क्याॽहमारा और तुम्हारा।
बढ़-बढ़ कर बातें वहाँ करो,जहाँ जन्नत कोई नहीं।।
आज के माहौल में,व्यस्तता इतनी बढ़ी।
याद नहिं रहते है वादे,याद करके,याद भी।।
तदवीर,तकदीर से भी कहीं,बड़ी होती है।
कभी-कभी निशाने लग जाते है,खाली हाथ सभी।।
बनी राहों पर चलना,कोई कमाल नहीं है।
राहें बना कर चलों,तो चलना है,चलना।।
गर तुमने औरों के लिये,कुछ राहें बना दी।
वो राहें तुम्हें,कभी मरने नहीं देगीं।।
वो अगरबत्ती भी जलाकर,खुशबू देती है।
क्या उसका जलना,जलना हैॽअमर होना नहीं।।
आज भी लोग उन फूलों को,याद किया करते है।
झड़-झड़ कर भी जिन्होनें,महकाए है चमन।।
जब तुम्हें मालूम ही है,हमारीं सारी बातें।
फिर ज्योतिषी बनने का,दावा क्यों भलां।।
जरा सब्र करो,ये जन्नत भी यहाँ आयेगी।
ये आसमां भी तो,भरोसे पर ही टिका है।।
मानो न मानो पर किसी की बात,सुनो तो जरा।
इस तरह की हुज्जत से,कभी कोई बात नहीं बनती।।
असफल होने की तो कहीं,कोई बात नहीं।
जब तुम्हें भगवान ने आँख,कान और बुद्धि दी है।।
तुम अँधे,गूँगेऔर बहरे भी नहीं हो।
फिर अपनी बात ब-खूबी क्यों नहीं कहतेॽ।।
रुके रहना, क्या जीवन की नियती है।
निरंतर चलना ही तो जीवन है।।
सफर तय होगा तभी,चलती रहे ये कश्तियाँ।
हर भंवर के मोड़ का,साहिल,ठिकाना तो नहीं।।
मैं खड़ा चौराहे पर,मारग दिखाता आपको।
ये तुम्हारी मौज है,आपका जाना किधर।।
लाल,पीली,हरी बत्ती,तीन रंगी बर्तिका।
आप समझो या न समझो,मार्ग का संकेत मैं।।
वाकिफ नहीं था अभी तक,मैं निजी पहिचान से।
आपका आना हुआ,क्या आईना बनकर यहाँ।।
आज तक जाना नहीं,जा रही कश्ती किधर।
हर भंवर के मोड़ पर,साहिल बने है आप तो।।
महज जहाँ स्यारो का बोलना सिर्फ था।
आकर खड़ा है सामने,टाबरों का ये शहर।।
किसे मालूम था,कि ये भीराने भी आबाद होगे।
उल्लुओं के बसर का,क्या नजारा होयेगा।।
तजुर्बे तो खूब है हमको,मगर।
है कठिन ये राह चलना जिंदगी।।
अपने से ही हार रहे है।
औरों की औकाद नहीं थी।।
पगडंडी पर भी नहिं भटके,लेकिन भाई।
अपने ही मौजे में आकर भूल रहे हैं।।
कुदरत भी हैरत में पड़ जाती है मियाँ।
जब कहीं इंसान भी,हैवान बनता।।
घुट-घुटकर मरना तो,जिंदगी है नहीं।
खट से मरना ही तो,सही जिंदगी है।।
खुशनसीब है जो तूँ,यहाँ न रुका।
अरे तेरी मंजिल तो बहुत लम्बी है जिगर।।