Taapuon par picnic - 85 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | टापुओं पर पिकनिक - 85

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टापुओं पर पिकनिक - 85

एयरपोर्ट की अफरा- तफरी में तो किसी को कुछ नहीं सूझा पर अब व्यवस्थित होकर कारों में बैठकर हाईवे पर आते ही मधुरिमा की मम्मी सब कुछ जानने के लिए तड़प उठीं।
तेन और बेटी तनिष्मा उनके साथ इसी कार में थे जिसे सिद्धांत चला रहा था। मम्मी के बार - बार पूछने पर तेन ने बताया कि जिस दिन उन्हें इंडिया के लिए चलना था ठीक उसी दिन कंपनी में एक ज़रूरी मीटिंग फिक्स हो गई। उसे और मधुरिमा में से किसी एक को वहां रुकना बेहद ज़रूरी हो गया। तब मधुरिमा ने हमें भेजा। वो कल आ जाएगी।
- डोंट वरी ममी जी... जब तेन ने कहा तो मधुरिमा की मम्मी को भीतर से बहुत अच्छा लगा। उनका मूड ठीक हो गया और वो बिटिया को गोद में लेकर फ़िर से सुलाने की कोशिश करने लगीं, जो थोड़ी- थोड़ी देर बाद नींद से जाग जाती थी। सिद्धांत भी मुस्कुराने लगा।
वैसे भी नींद का तो समय ही था। रात के पौने तीन बजे थे। हाईवे पर कहीं- कहीं उनींदे - बोझल से उजास में कुछ होटल- ढाबे खुले दिख जाते थे पर ट्रैफिक तो इस समय नाममात्र का ही था।
साजिद की कार सबसे आगे चल रही थी। मधुरिमा के पापा उसी गाड़ी में साजिद के साथ थे। पीछे तीसरी गाड़ी में पप्पू के साथ मनप्रीत बैठी हुई थी।
पापा की आंखें नींद से बोझिल थीं और वो बीच- बीच में झपकी भी ले लेते थे। साजिद ने तेज़ आवाज़ में म्यूज़िक चला रखा था। किंतु उधर मनप्रीत और पप्पू लगातार बातें करते हुए चल रहे थे जिससे नींद आने की कोई समस्या नहीं थी।
जयपुर की सीमा में प्रवेश करते - करते इस कारवां को लगभग सुबह ही हो चली थी। एक के पीछे एक चलती हुई तीनों गाड़ियां एक साथ ही मधुरिमा के घर के सामने ठहरीं।
सामान उतारा गया।
घर पर मधुरिमा के पापा की शॉप का एक वर्कर रात से ही मौजूद था और उन सब लोगों के पहुंचने से पहले ही उसने फ़ोन करके कामवाली बाई और खुद अपने बेटे को भी बुला लिया था ताकि घर पर आ गए मेहमानों के सत्कार में कोई कोर - कसर बाकी न रहे।
घर चहक उठा।
एक हल्की सी ख़लिश पूरे घर के आलम में मधुरिमा की नामौजूदगी को ज़रूर दर्ज़ कर रही थी।
चाय की तैयारियां शुरू हो गईं।
डायनिंग टेबल पर नई- नकोर शानदार क्रॉकरी सज गई। आख़िर घर में पहली बार दामाद का आगमन हुआ था।
तनिष्मा अब आराम से बेडरूम में गहरी नींद सोई हुई थी। मधुरिमा की मम्मी के चेहरे से उल्लास टपका पड़ रहा था। मनप्रीत भी उनकी मदद करवाने के लिए रसोई घर में ही थी।
नींद न हो पाने की थकान या हरारत किसी के चेहरे पर भी नहीं थी। सुबह से छः सात बार मधुरिमा की मम्मी उसे याद कर चुकी थीं। बार - बार यही कहती थीं कि मधु भी आ जाती तो अच्छा रहता।
उनकी इस बात पर कोई भी कुछ नहीं कह पाता, फ़िर वो ख़ुद ही जवाब सा दे देतीं- चलो, कल आ जाएगी!
उन्हें कई बार ये अहसास होता कि कहीं मधुरिमा अपने आने का प्रोग्राम कैंसल तो नहीं कर देगी न... फ़िर वो तेन से इस बात की पुष्टि करतीं कि उसका टिकिट बुक हो गया था या नहीं!
मधुरिमा की मम्मी के दिल में बातें तो कई घुमड़तीं पर वो तेन की ओर देख कर सकुचा जातीं। उन्हें अहसास होता कि उनका दामाद विदेशी है, न जाने उनकी भावनाओं को किस रूप में समझेगा।
वो पहले हर बात मनप्रीत को बतातीं और फ़िर जब मनप्रीत तेन से ही पूछ कर उनकी बात का जवाब देती तब मम्मी को पता चलता कि उनका ये विदेशी दामाद तो हिंदी बोलने में पारंगत है।
इस तरह धीरे- धीरे वो तेन से खुलने लगीं।
तेन ने ही उन्हें बताया कि जापान में, या चाइना में भी सब लोग इंगलिश नहीं बोलते हैं, बल्कि अपनी भाषा बोलते हैं। इसीलिए जब वहां के लोग भारत आते हैं तो वो इंगलिश न बोल कर टूटी - फूटी हिंदी बोलना ही ज़्यादा पसंद करते हैं।
तेन ने जब बताया कि टूटी- फूटी हिंदी लोग सब जगह समझते हैं क्योंकि हिंदी की फ़िल्में सब जगह जाती ही हैं, तो एक ठहाका लगा।
फ़िर तेन तो पूरे एक साल तक दिल्ली में आगोश के साथ एक ट्रेनिंग करने के दौरान रह चुका था। उसे भाषा को लेकर तो कोई प्रॉब्लम थी ही नहीं।
लो!
अब ये क्या हुआ?
सब फ़िर ज़ोर - ज़ोर से ठहाके लगाने लगे।
मधुरिमा की मम्मी भौंचक सी होकर सबको देखने लगीं।
क्या बात है? ये सब हंस क्यों रहे हैं! और ये खड़े क्यों हो गए?
मम्मी तो अभी नाश्ता प्लेटों में लगा - लगा कर दे ही रही थीं कि सब प्लेटें वापस रख- रख कर अपनी अपनी जगह से खड़े होकर हंसने लगे।
अरे बाबा, क्या षडयंत्र है ये?
ओहो, सब मम्मी को देखे जा रहे हैं! बात क्या है?
और तभी ड्राइंग रूम से भी ठहाकों की तेज़ आवाज़ आने लगी। सब उस तरफ़ बढ़े..
ड्राइंग रूम का पर्दा हटा और मम्मी देखती ही रह गईं। जैसे उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ...जैसे कोई सपना देख रही हों।
ड्राइंगरूम का भारी सा पर्दा हटा कर वहां से मधुरिमा ने प्रवेश किया।
और ये क्या? सब स्तब्ध रह गए।
मम्मी पहले तो लगभग दौड़ती हुई मधुरिमा की ओर लपकीं, जैसे उसे गले लगा लेना चाहती हों, लेकिन फ़िर उसके पास पहुंच कर उसे गले न लगा, पास की दीवार की ओर मुंह कर बुरी तरह रोने लगीं।
मधुरिमा ने उनकी पीठ सहला कर उन्हें संभाला।
आंखों में ख़ुशी के आंसू और सामने अविश्वसनीय सा सच।
हे भगवान, ये कैसा मज़ाक?
- तो क्या इन सब को मालूम था? सिर्फ़ मुझे ही नहीं बताया। और इन दामाद जी को देखो, कैसे सबकी हां में हां मिला कर बातें बनाए चले जा रहे हैं... ज़रूरी मीटिंग थी, नहीं आ सकी.. कल आयेगी...
- क्या तमाशा किया सारों ने? बेचारी तनिष्मा को भी अपनी धींगामुश्ती में अकारण रुलाया। नन्ही बिना बात के मम्मी से दूर अलग गाड़ी में बिसूरती हुई ननिहाल आई।
ये भी कोई मज़ाक करने का तरीका है? मम्मी ने मधुरिमा को अब अपने से चिपटा लिया और उसे बार- बार चूमते हुए उसके सिर पर हाथ फेरती रहीं।
हसीं- ख़ुशी का माहौल धीरे -धीरे फ़िर से बनने लगा और सब लोग बैठ कर अपनी- अपनी प्लेट उठाने लगे। मम्मी से फारिग होकर मधुरिमा मनप्रीत से गले मिली। पप्पू को भी गले लगा कर देर तक खड़ी रही।
पापा के पांवों को हाथ लगाने में तो रो ही पड़ी। चार आंखें एक साथ भीग गईं।
पापा भी सुबकने से लगे।
वातावरण गमगीन सा हो गया।
लेकिन पलक झपकते ही धूप फ़िर खिल गई। कहकहे शुरू हो गए। खाने- पीने का दौर चल पड़ा। कण- कण में ख़ुशी गुंथ गई। हंसी- ख़ुशी ने मानो हवाओं को गोद ले लिया।
बातों का दौर शुरू हुआ। ढेरों बातें थीं बताने को, ढेरों बातें थीं पूछने की।
इतने समय बाद सबको अपने खोए हुए दिन फिर मिले।
- अरे पर तू यहां आई कैसे?
दही बड़े की प्लेटों में दही डालते - डालते मम्मी के हाथ रुक गए। उनके सवाल ने सबका ध्यान खींचा।
- कहां से?
- अरे एयरपोर्ट से! किसके साथ आई ये मधुरिमा?
और तब सबको सारी बात पता चली।
ये सब क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ!
दरअसल हुआ ये कि पिछले दिनों आर्यन भी जापान पहुंच गया था उन लोगों के पास।
और फिर वो सब लोग एक साथ ही इंडिया आए।
ये मज़ाक आर्यन के ही दिमाग़ की उपज था। उसने तेन से कहा - चलो, तुम सबको कह देना कि मधुरिमा नहीं आई है... मज़े आयेंगे। हम लोग पीछे आते हैं... मुझे लेने भी गाड़ी आई है।
- तो आर्यन कहां है? मम्मी ने कहा।
- वो उसके घर पर है, दोपहर को आयेगा यहां आप लोगों से मिलने। अभी उसकी गाड़ी ही तो मुझे यहां छोड़ कर गई है.. मधुरिमा ने बताया।