PADMA SACHDEV KE SAFAR KI SAMAPTI in Hindi Motivational Stories by Anand M Mishra books and stories PDF | पद्मा सचदेव के सफ़र की समाप्ति

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पद्मा सचदेव के सफ़र की समाप्ति

“तुम्हें मालूम था, यह राह नहीं निकलती, जहाँ पहुँचना मैंने, तुम उस तरफ जा भी नहीं रहे थे ,फिर भी तुम चलते रहे मेरे साथ-साथ…” इन पंक्तियों के रचयिता पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित डोगरी भाषा की पहली आधुनिक कवयित्री पद्मा सचदेव हमारे बीच नहीं रहीं। उन्होंने मुंबई के एक अस्पताल में अंतिम सांस लीं। वे एक बेहतरीन कवयित्री थीं, लिखने पढ़ने वालों की चहेती लेखिका थीं, दूसरों की चिंता करने वाली साहित्यकार थीं और दिल से जितनी नरम थीं, उतनी ही साहसी भी। हिंदी तथा डोगरी साहित्य के लिए उनका जाना एक आघात से कम नहीं है। उनकी आत्मकथा ‘बूंद बावड़ी’ पढ़कर उनके संघर्ष और साहस का अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन में कितना संघर्ष किया होगा। बात भी सही है – साहित्यकारों को संघर्ष करना ही पड़ता है। वे जम्मू-कश्मीर के राजपुरोहितों की बेटी हैं – इसे बड़े गर्व से बताती थीं। आत्मविश्वास से भरी हुई रहती थीं। उनके सामने कितना बड़ा आदमी भी क्यों न आ जाए – उनसे बेबाकी से बात करने में हिचक नहीं होती थी। डोगरी और हिंदी साहित्य अपने जिन रचनाकारों पर गर्व करता रहेगा, उनमें पद्मा सचदेव का नाम भी हमेशा शरीक रहेगा।

“देह जलाकर मैं अपनी, लौ दूं अंधेरे को, जलती-जलती हंस पडूं, जलती ही जीती हूं मैं” इन पंक्तियों को पढने से ही एक समाज में व्याप्त पीडाओं का ध्यान आता है। इस पंक्ति में बहुत कुछ समाया हुआ है। संस्कृत के विद्वान शिक्षक जयदेव बादु की तीन संतानों में सबसे बड़ी पद्मा सचदेव ने अपनी शिक्षा की शुरुआत पवित्र नदी ‘देवका’ के तट पर स्थित अपने पैतृक गांव के प्राथमिक विद्यालय से की थी। 1947 में भारत के विभाजन का शिकार बने पहले उन्होंने डोगरी कवयित्री के रूप में ख्याति प्राप्त की और लोकगीतों से प्रभावित होकर कविता और गीत लिखे। बाद में हिंदी और गद्य में भी साधिकार लिखा। हालांकि वह डोगरी लोकगीतों से हमेशा चमत्कृत रहतीं। उनके मन में हमेशा उन अज्ञात लोकगीतकारों के प्रति सम्मान रहता, जिनके नाम गीतों में नहीं रहते। उनकी किताब ‘जम्मू जो कभी शहर था’ को अपार लोकप्रियता मिली थी। उन्होंने 1973 की हिंदी फिल्म ‘प्रेम पर्वत’ और ‘मेरा छोटा सा घर बार’ के गीत भी लिखे। उनके लिए पुरस्कारों की तो वर्षा ही हो गयी थी। उनके कतिपय कविता संग्रह प्रकाशित हुये, किन्तु "मेरी कविता मेरे गीत" के लिए उन्हें 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले। सूची में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1987), हिंदी अकादमी पुरस्कार (1987-88), उत्तर प्रदेश हिंदी अकादमी के सौहार्द पुरस्कार (1989) आदि के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर सरकार के ‘रोब ऑफ ऑनर’ तथा राजा राममोहन राय पुरस्कार भी उन्हें मिले थे। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘अमराई’, ‘भटको नहीं धनंजय’, ‘नौशीन’, अक्खरकुंड’, ‘बूंद बावड़ी’ (आत्मकथा), ‘तवी ते चन्हान’, ‘नेहरियां गलियां’, ‘पोता पोता निम्बल’, ‘उत्तरबैहनी’, ‘तैथियां’, ‘गोद भरी’ तथा हिंदी में ‘उपन्यास ‘अब न बनेगी देहरी’ प्रमुख हैं। अब वे केवल यादों में ही रहेंगी। उनकी लिखी कविताएँ अमर रहेंगी। ऐसे अनुभवी, कुशल साहित्यकारों के निधन पर देश को अपूरणीय क्षति होती है। आना-जाना रोज की बात नहीं है। किसी का आना-जाना अमिट छाप छोड़ जाता है। ऐसी शख्सियतें कभी-कभार ही जन्म लेती हैं। उनके योगदान से हिंदी - डोगरी साहित्य को काफी मदद मिली है। अंत में उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!!