समय की नब्ज पहिचानों 1
काव्य संकलन-
समर्पण-
समय के वे सभी हस्ताक्षर,
जिन्होने समय की नब्ज को,
भली भाँति परखा,
उन्हीं- के कर कमलों में-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
मानव जीवन के,अनूठे और अनसुलझे प्रश्नों को लेकर यह काव्य संकलन-समय की नब्ज पहिचानों-के स्फुरण संवादों को इसकी काव्य धरती बनाया गया है,जिसमें सुमन पंखुड़ियों की कोमलता में भी चुभन का अहिसास-सा होता है।मानव जीवन की कोमल और कठोर भूमि को कुरेदने की शक्ति सी है।मेरी तरह ही,आपकी मानस भाव भूमि को यह संकलन सरसाएगा। इन्हीं आशाओं के साथ-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
श्री गणेशाय नमः
बड़ा होता समय हजरत,समय को ही बड़ा मानों।।
समय के साथ ही चललो,समय की नब्ज पहिचानों-
जिंदगी से,बहुत प्यारा है वतन-
यह गुलिस्ताँ है,गुलिस्ताँ ही रखेगें।।
है नहीं शानी में कोई,झाँखकर देखो जरा-
ये स्वर्ग है,देवता भी तरसते इसके लिए।।
आजतक भरमाया तुमने,मोक्ष का परिचम लिए-
जान गए हम सब हकीकत,मोक्ष के हम-मोक्ष है।।
जो चला मंजिल उसे निश्चय मिली है-
सुचि सुरभि ने सुमन से स्वागत किया है।
मानवी हित दे गए कुर्बानियाँ जो,
उन्होने ही- अमरता जीवन जिया है।।
धूल के सुदंर घरौदे,पात की वे झोपड़ी,
जो मजा उनमें भरा,ढूँढ़े मिला नहीं आजतक।।
खूब मनते गणेश उच्छब,राम लीलाएँ करीं,
जो मजा था बचपने में,आज कोसों दूर है।।
खुलीं थी चारों दिशाएँ,खेलने और कूदने,
खाई ठोकर आज समझे जिंदगी था-बचपना।।
बालपन यूँ ही गया,यौवन गुजारा भूल में,
ढोते रहे थे नमक लकड़ी,अब बुढ़ापा क्या करैं।।
एक नहीं-अनेकों नशे थे,हम पर सवार-
बरना-भगवान होते,आदमी ही तो-नहीं।।
औरों को संभालते रहे,खुद को तो जरा संभालो-
बरना कोई किसी का नहीं,आज की दुनियाँ में।।
इसे,ऐसे बरबाद मत करो,घर तुम्हारा ही है-
बनाने में इसे,कई सदियाँ गुजारीं गई होगीं।।
चुन-चुन कर बनाया है तुमने घौसला जो-
क्या जमाने से-कभी उसे सराहा गया हैॽ
न्याय के दरबार कीं,ये सीढ़ियाँ-साँसे रही-
गिन सको तो गिनो,औकाद ओछी न्याय की।।
हम अंधेरे पार कर,यहाँ उजाला पा गए-
इस उजाले के रवि को,डूबने नहिं देएगे।।
तूँ जिसके सामने,यूँ हाथ फैलाने चला-
क्या पता हैॽवो भिखारी का भिखारी है।।
तूँ जिसे समझा है सैहतमंद,पर-
उसके जिगर में,सैकड़ो नासूर है।।
अफसोस होता है,तुम्हारी ना समझी पर-
बागी हो गए कैसेॽतुम तो बागबाँ थे।।
समझने भर की बात है,यहाँ पर केवल-
जो कुछ वो है,वही तो तूँ भी है।।
इस जहाँ में बशर करना,बहुत ही दुश्बार है-
पर बुलंदी के कदम ये,लौटना सीखे नहीं।।
याद आते ही तुम्हारी,याद वो सब आ गया-
किस कदर रोता रहा था,याद करके आपकी।।
दोश्तों के हौसले किस मर्ज की तासीर है-
जख्म पर ही नमक छिड़के,लग रहे कमजर्फ हो।।
नहिं समझ पाए अभी तक,झूठ की कैसी है रंगत-
वो सफेदी झूठ भी अब,रंग-बिरंगे हो गए है।।
अभी तक आपने रहवर,समय को व्यर्थ खोया है-
लगा ज्यौं पढ़ नहीं पाए,दोस्ती की ए-किताब।।
दर्द से सच में कलेवर,आफताबे बन गया-
हर किसी ने जान भी ली,दर्द की औकात को।।
रंगे है हाथ लोहू से,तुम्हारे दोस्तो कब से-
यकीनन जान लो इतना,कि कोई शक नहीं करता।।
निभाई दोस्ती कैसी कि घोंपे पींठ में खंजर-
ऐसे कातले रंग का,कोई दुश्मन नहीं होगा।।
तमन्ना थी यही मेरी-तुम्हें आगोश में ले-लँ-
मगर दिल काँपता थर-थर,जमाने के किसी डर से।।
घोंपे पींठ के खंजर,हमें भूले नहीं अब तक-
अभी इतना समझ पाए कि,होते दोस्त ही दुश्मन।।
यदि हमारे कत्ल से,तुमकों कहीं कुछ मिल सके-
तो शुकूनी है मुझे भी-काट दो शम्शीर से।।
मुझे अफसोस है इतना कि तेरा कद घटा कैसे-
कहीं चाँदी के टुकड़ों पर जो बेची आबरु अपनी।।
गुनाहे,गमे,शिकवे न होते अगर-
चुनाँचें ये जिंदगी,आफताब होती।।
कातिलों ने पोत दी,तस्वीर पर कालिख-
वरना-गुलस्तां होता,हिन्दुस्तान का नक्शा।।
कुर्सियों ने भर दये,नफरत समंदर-
हौंसले ही पस्त हो गये,कश्तियों के।।
सजाए-जिंदगी तो हर खुशी में काट ली अबतक-
अगली श्वांस क्या होगी,नहीं दरकार हैं मुझको।।
चोर कुर्सी में छिपे,खटमलों की ही तरह-
खाक में मिलती दिखी,तस्वीर हिन्दुस्तान की।।
गिरह कटों ने राह का चलना,कठिन ही कर दिया-
नहिं-फूल-सी खुशबूह होती,देश की इस धूल में।।
थाने,कचहरी,,सफाखाने,भूलकर मत जाइये-
जिंदगी की राह में,कंटक इन्हीं ने वो दिये।।
रोशनी घर की दुल्हनें,भूल मत रहवर मेरे-
इनको जलाकर,जिंदगी,मावसी हो जायेगी।।
किश्त पर लेकर तराजू,सही कैसे तौल सकते-
आदमी मजबूर है,आज के बाजार में।।
आदमी जीने की खातिर,बेचता इंसाफ को-
बस मुसीबत तो यही,बरना वही भगवान था।।
लूट के अड्डे जमे हैं,हर तरफ,चौराहे पै-
राहगीरों को निकलना,बहुत ही दुशवार है।।
इस मुखौटे को हटा दो।जो छलावे से भरा-
आप की बख्शीस सच में,विषभरी शमशीर।।
बहुत कुछ तुनने हकीकत ले,समंदर से कहा-
दे सका नहिं बूँद मीठी,किस कदर कंजूस था।।
घाव की गहराइयों पर,नहिं टिकी मरहम कोई-
ये जुवाँ ही,सच समझ लो,कलम और शम्शीर है।।
कलम की तासीर को,समझे नहीं हो आजतक
वे-जुवाँ,पर घाव गहरे,देखने इससे मिले।।
कौन कहता है तुम्हारी कलम में ताकत नहीं-
जब चली है जोश लेकर,हो गए संग्राम ही।।
हौसले बौने तुम्हारे,चाँद छूने को चले-
भेड़िए कब शेर छौने,अकल के मारे लगे।।
शिखर छूने की तमन्ना,संग ले बैशाखियाँ-
पालने लेटा शिशू कब,चाँद को छू पाएगा।।
समय को समझो,ये सारा उसी का तो खेल है-
नहीं कभी बख्शा है उसने,इस जहाँ के खुदा को।।
यदि खड़े,तो खड़े रहना,ठीक अपनी जगह पर-
भूल कर,जाना उधर नहिं,भीड़ में खो जाओगे।।
क्या समझ रक्खा है तुमने,भेड़ के बच्चे हमें-
ये तुम्हारे तैवरों से,हम कहीं डर जाऐगे।।
इस शबै-मेहताब में,मुमकिन नहीं छुप पाओगे-
सब हकीकत की कहानी,ये जमाना कह रहा।।
भूल गए औकाद सारी,कुर्सियाँ क्या मिल गईॽ
सींग अब उगने लगे है,लग रहा इन गधो के।।
बदल सकते इक तुम्हीं बस,जहाँ की तस्वीर को-
क्या कभी खंजर टिके है,इस कलम के सामने।।
इस पसीने में जो ताकत,है नहीं शम्शीर में-
एक होने की जरुरत,मंजिलें हिल जाऐगी।।
जान जाओगे जभीं तुम,हाथ की ताशीर को-
बस तुम्हारे सोच पर ही,ताज भी झुक जाऐगे।।
हो रही ईमान की,कितनी फजीहत आजकल-
बेईमानों की तिजोरी,भर रहीं है रात दिन।।
हम भलां समझे न समझे,हादसे है हादसे-
मत कहो ऐसी कहानी,टूक होते दिलो की।।
दर्द की पैमास होगीॽ स्वर्ण सिक्कों से कहीं-
सिर्फ मुझसे ही नपैगीं,ये मेरीं ऊँचाइयाँ।।
इस कलम के सामने,सब भौथरे है तीर भी-
रोक सकती है जहाँ के,उमड़ते इस दौर को।।
प्यार से झुकते दिखें है,ये शिखर भी पाँव में-
इस तरह से,क्या कभी भी,आसमां झुक पाऐगा।।
है नहीं कमजोर इतने,तुम भलां समझो नहीं-
जी रहे अपनी तरह से,जमाने की चाल में।।
जानते हो सब हकीकत,कह नहीं सकते मगर-
है नहीं मुजरिम,बंधे सब-समय की जंजीर में।।
बहुत कुछ,छुप कर रहे हो,और कब तक रहोगेॽ
फैंक दो अब भी,समझकर-इस रंगीनी खाल को।।
क्या नहीं दिल में खटकता,ढ़ौग ये इंसाफ का-
आदमी की तरह रह लो,आदमी हो-आदमी।।
क्यों समय खोते हो रहबर,ये छली बहकाव में-
जिंदगी भर-जिंदगी को,सीखते आए तभी।।
है कसम तुमको खुदा की,छोड़ना नहीं,कोइ कसर-
सब तरह से तौल लेना,हम बजारु है नहीं।।
भूल जाओ तुम भलां,पर मैं तुम्हें भूला नहीं-
तुम भलां समझो न समझो,अश्क में पलते रहे।।
धार इतनी तेज होती,इस शैलाबे अश्क की-
रोक नहिं पाय़ा कहीं कोई,ढह गए सब साथ में।।
लौटकर आना पड़ेगा,इक मेरे ही वास्ते-
सूख नहिं सकते कभी भी,अश्क के दरियाब भी।।
क्या अभी तक समझ पाए,देख इस तस्वीर को-
जिंदगी की हर हकीकत,कह रहे पैबन्द ये।।
है नहीं मरहम कहीं भी,इस उधड़ती पीठ की-
मोल तुम कैसे करोगे,यह सदाँ वे-मोल है।।
चैन तज बैचेन होते,जिस खलक के वास्ते-
वो तुम्हारी जिंदगी का,उभरता नाशूर है।।
चंद-चाँदी के ये टुकड़े,जहर है-नाशूर है-
इस सलौनी जिंदगी को,क्यों हवाले कर रहे।।
है वहाँ ना-चीज दौलत,जिस जिगर संतोष है-
खाक में हस्ती मिटाने ,जाए क्यों दरबार में।।
हाथ है पारस ही जिसके,वो कहाँ कंगाल है-
हाथ फैलाए किसी के,द्वार फिर,किस वास्ते।।
है अजूबा,देख भी लो,जिंदगी के खेल ये-
भूल सब,करते कलोलें,चाँदनी के नीड़ में।।
सुबह होते ही चली है,पक्षियों की दौड़ ये-
क्या पता,कहां ठहर जाए,किस सुनहरे नीड़ में।।
हो नहीं सकते सहारे,ये नकाबी-गिध्द है-
दौड़ते ज्यौं,पीर लेकर,नौचते पर,चाँम को।।
लग रहे हमदर्द जैसे,आँसुओं की बाढ़ से-
ये नहीं होते किसी के,नाव को जो छेदते।।
समझना बिल्कुल कठिन,इस दौर के संवाद को-
लगाकर,बे ही बुझाने,दौड़ पड़ते आग को।।
मतलबी दोस्ती समझो,कभी क्या काम आई है-
वो इंसा की अमानत से,गिरा सबकी निगाहों में।।
ये दौलत कौन की होती,न भूलो बीतते कल को-
सिकंदर बन नहीं सकते,ये ख्बाबी दौर है-थोथा।।
तुम्हारी इन निगाहों ने,न अबतक तौल पाया है-
झुक कर छू नहीं सकता,तुम्हारी खूँ-सनी दैहरी।।
ऐसे देखते क्यों हो,में इंसा हूँ,नहीं मुजरिम-
तहीं-नाराज हो लगता,गया नहिं फड़ तुम्हारे पर।।
दिल में पाप का दरिया,तीरथ तुम भलां कर लो-
कभी क्या बदल पाई है,ये कालिख भी सफेदी में।।
कभी जुगूनू दिखे करते,अंधेरी रात को रोशन-
दिल में चोर है जिसके,वो इंसा हो नहीं सकता।।
जबतक रुह में नफरत,कैसे-क्या नबाजी हो-
अंधेरा बिन उगे सूरज,कभी हटता दिखा तुमको।।
ये दर्दे-दिल बहुत रोया,हमेशा ही अकेले में-
हकीकत और ही कुछ थी,मगर समझा न लोगों ने।।
जमाने की इस सूरत पर,हजारों बार रोया हूँ-
कहाँ तक,क्या कहूँ किससे,लोग कमजोरियाँ समझे।।
इबादत में भरी नफरत,औ जन्नत की तमन्ना ये-
कहो क्या आज तक समझे,जीवन की कहानी को।।
घुप अंधेरी रात भी,रोशन लगी जब हम चले-
तुम उजालों में कहानी,रात की क्यों कह रहे।।
ये उजालों में,अंधेरी रात के सपने लिए-
हम अंधेरों में,उजालों की कहानी कह रहे।।
रोशनी में खा रहे है,ठोकरे वे लोग कैसे-
लड़खड़ाए हम नहीं,चलकर अंधेरी रात में।।
क्या कहें तकदीर में,कुछ आए थे ऐसे अंधेरे-
रोशनी भी आ गई,अंधियार का भी ले मुखौटा।।
यूँ तो,अंधेरों में,अंधेरे ही खड़े थे सामने-
क्या कहे इस रोशनी को,जो अंधेरा ही बड़ाती।।
दिल चुराने की नहीं कोई भी तो तदबीर तुमकों-
दिलरुवा फिर हो गए कैसे,दिलदार बोलो।।
कौन-सी वो दिलरुबा,रात को जो जिन् बनातीं-
दिन तुम्हारे बीतते जब,इल्म के दरबार में।।
हम,पंतगों की तरह,न्यौछार होते-
तुम बुझाने में हमें,बदनाम करते।।
तुम भलां नफरत के सौदागर रहो-
पर,दिल हमारा आपकी तस्वीर पूजे।।
टूटकर भी हम तुम्हारे ही रहेगे-
और टूटेंगे तुम्हीं पर,पंतगों से।।
शिष्टता का पाठ नित पढ़ता रहा,पर-
ये तुम्हारे जुल्म कब,खंजर बना दें।।
इल्म की तासीर दिल में है,मगर-
कब थमा दे हाथ में खंजर,ये नफरत।।
नियत की ये अदालत किसकों,सजा दें-
देखने में सैकड़ो ही,दिख रहीं जब खामियाँ।।
जुल्म सहकर भी ये कैसे जी रहे है,
लग रहा ज्यौं,भीड़ मुर्दों की खड़ी हो।।
कौन जिंदा है यहाँ,अफसोस रहवर-
आजकल मुर्दो की चलती टोलियाँ है।।
सब कहैं,मुर्दे कभी नहीं चल सके है-
पर यहाँ दिन रात,मुर्दे दौड़ते है।।
देख लो तुम ही इन्हें,जिंदे या मुर्दे-
भीड़ किसकी है,कतारों में खड़ी जो।।
रोशनी भी खूँ,जो अंधा बना दे-
पर हमें,अंधो को देना रोशनी है।।
जिस रोशनी ने कर दिया,अंधा जहाँ-
उस जहाँ की रोशनी से,दूर है हम।।
बन गए जो,इन उजालों से अंधेरे-
उन अंधेरों को,उजाले बाँटना है।।
अच्छे समय में,दोस्तों की भीड़ लगती-
वख्त पर पहिचान होती,दोस्त-दुश्मन।।
लोग कहते है कि,अब तुम हो नहीं-
पर मुझे लगता कि,हरदम साथ हो तुम।।
बिल्कुल नहीं हो दूर,समझे लोग कुछ भी-
तुम सदाँ होते हो,खुद की बानगी में।।
हो नहीं तुम दूर,कोहनूर मेरे-
और किसका नूर है,मेरी जवाँ पर।।
जबाँ होना क्या गुनाहे,हमसफर-
वे घरौदे रेत के,भूले नहीं हम।।
खेल कर साँझी बिताई रात कितनी-
किन्तु अब तो खेलते,जीवन की साँझी।।
वो गुनाहे,मौज मस्ती,हमसफर-
अब भलाँ हो दूर,पर क्या दूर है हम।।
काबिले तारीफ मंजिल,की ये गुम्बद-
जो कहानी कह रही,देश की-परिवेश की।।
ये गुलिस्ताँ चमन भी है,काबिले तारीफ-
जो सजाता है जहाँ को,आबरु की गंध से।।
गंध महकी जो हवा,लेकर हवा वो-
बौर के उस भौर को,मनमस्त करती।।
वो जवां है,हौसले के घौसले में-
उग गए है पंख उड़ने को जहाँ में।।
काबिले तारीफ है,ये जवाँ होती भी जवानी-
है नहीं उपमा कहीं,जो खोज कर लाए।।
फूल की तन्हाई से,जब राजे-मस्ती पूँछली-
लहर सी लहरा गई अरु खिल गई वो सामने।।
हास में,उस साख से,जब साख पूँछी-
झुक गई वो,फल लगी ज्यों डाल सी।।
ठाट से उस घाट पर,करते कलोले-
कौन है वो,जो हमें यौं टेरते है।।
राजे मस्ती पूँछ ली जब,उस हवा ने-
झूम कर लहरा गई वो,दूध भरती बाल सी।।
वो समय गुजरे सभी,परदो में रहते-
हो गया पूरा ही झीना,आज परदा।।
रात की बातों सी बातें,हो गई अब-
बात का सब हौसला,जाता रहा वो।।
लग रहा,अब रात होती ही नहीं है-
काम सारे,दिन दहाड़े हो रहे है।।
खो रहे है व्यर्थ ही,अपने समय को-
रह गए है,अहम् सारे काम वो।।
सुन लई चिड़ियों की चहकन बहुत कुछ-
अब उठो,करने को सारे काम वो।।
बहुत कुछ रह गए बकाया काम उनके-
जो हमें वो सौंप कर,कहते गए कुछ।।
अब हमें करना वो,साथी छोड़कर मत भेद सारे-
आत्माऐं रो रहीं है,आँसुओं से तरबतर।।
हम कभी उस रेत में,बनाते घरौदे-
प्यार था कितना,मगर वह रेत थी।।
दौड़कर उस बुर्ज से भरते छलाँगे-
तैरना आता,नहीं बनें तैराक भी।।
कितनीं लड़ी थी मित्र कुश्ति,इस नदी की रेत में-
सुबह से जब शाम होती,वो जमाना और था।।
इस तरह से,खूब मस्ती दिन गुजारे आजतक-
याद बन, बस खेलते है,वे हमारी गोद में।।
क्या पता हो जाएगी ये,जिंदगी की शाम कब-
नेक बन जीवन बिता लो,फिर समझना आपका।।
एक होकर के जिए,एक होकर के रहे-
हो नहीं सकते अलग हम,एक है,बस एक है।।
लोग यह भी जानते है,हम पथिक इक राह के-
फिर कहो,होगे जुदा क्यों,एक ही गन्तब्य है।।
हम तुम्हारी याद में अरु तुम हमारी याद में-
फिर कहाँ है दूर रहबर,हो नहीं सकते कभी।।
कट गई ये उम्र सारी और थोड़ी रह गई-
बस यूँ ही कट जाऐगी,हसते हुए ये जिंदगी।।