Its matter of those days - 36 in Hindi Fiction Stories by Misha books and stories PDF | ये उन दिनों की बात है - 36

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ये उन दिनों की बात है - 36

आज तो तुम बिलकुल मैंने प्यार किया की सुमन लग रही हो!!

थैंक्स!! और तुम भी मैंने प्यार किया के प्रेम लग रहे हो!!

रियली!! वैसे मेरी दादी कहती है की मैं बहुत ही डैशिंग हूँ |

आहा......हा......हा..........हा............

और क्या!! वहां मुंबई में तो लड़कियाँ मरती थी मुझ पर | वहीं क्या यहाँ की लड़कियाँ भी पागल है मेरे पीछे |

अच्छा पर हम तो नहीं है |

तो फिर पहली ही मुलाक़ात में क्यों देखती ही रह गयी थी मुझे |

नहीं तो!! मैंने मुँह बनाकर झूठमूठ कहा |

तो मेरे अलावा और कौन था वहां?

वो मैं तुम्हारी तरफ़ गुस्से में देख रही थी, तुमने मुझे गिरा दिया था ना इसलिए |

अच्छा मैडम!! गुस्सा भी कभी इस तरह देखकर किया जाता है क्या!! हमें तो आज पता चला |

अब तुम्हे पता नहीं क्या-क्या लगता है | जल्दी चलो ना नहीं तो फिल्म निकल जाएगी |

जो हुकुम मेरे आका!! आइये हमारी मोटरसाइकिल पर तशरीफ़ रखिये | पाँव संभलकर बैठिएगा कहीं नाजुक पाँव में ज़रब ना लग जाए |

क्या ना लग जाए? मुझे समझ नहीं आया था |

अरे मेरा मतलब है, चोट ना लग जाए!!

तुम और तुम्हारी ये उर्दू मुझे समझ ही नहीं आती |

बड़ी मीठी भाषा है उर्दू!! मल्लिका ए हुस्न!! तमीज़ की भाषा है | आप फ़िक्र ना कीजिये हम इससे आपका अच्छे से इस्तक़बाल करा देंगे |

अच्छा जनाब!!

और कुछ ही देर में हम राजमंदिर के सामने थे |

तुम मेरा यहीं इंतज़ार करो | मैं बाइक पार्क करके आता हूँ |

जल्दी आना |

हाँ......बस यूँ गया और यूँ आया |

बहुत भीड़ थी वहां इतनी की लोगों में आपस में धक्का मुक्की भी हो गयी थी | वहां लोग टिकट के लिए मरने-मारने पर उतारू थे | कुछ लोग ब्लैक में भी टिकट बेच रहे थे |

मैं इतनी भीड़ देखकर घबरा गई |

हे भगवान!! कैसे लोग है!! ऐसा नहीं की शान्ति से खड़े रहे | पता नहीं सबको कहाँ की जल्दी है, मैं मन ही मन बुदबुदाई |

इतने में सागर गाड़ी पार्क कर आ गया था | मेरे चेहरे पर घबराहट को दखकर वो समझ गया था इसलिए उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा......डोंट वरी तुम मेरे साथ हो और टिकट का इंतजाम हो गया है |

"सच"!!

"मुच"!! अंदर चलें |

"हाँ" | अगर सागर का साथ हो तो कोई परेशानी नहीं है |

हम दोनों ने एक दुसरे का हाथ पकड़ा हुआ था |

पिक्चर शुरू हो गई थी |

सागर के हाथ लगातार मेरे हाथों की उँगलियों से खेल रहे थे | उसका ध्यान मुझ पर जयादा था बजाय फिल्म के | जबकि मेरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ फिल्म देखने में ही था | हर एक सीन को मैं बहुत ही गौर से देख रही थी |

और जब सलमान की एंट्री हुई मैं तो उसको देखते ही रह गई | मेरे मुँह से अनायास ही निकला, हाय!! " कितना प्यारा लग रहा है" |

फिल्म ख़त्म हो गई थी लेकिन उसकी खुमारी अब भी मुझ पर तारी थी |
"तो कैसी लगी फिल्म तुम्हें" ?
"बहुत ही अच्छी! इतनी की जिसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती" |
"तुम्हे कैसी लगी" ?
"मैंने फिल्म देखी ही कहाँ"!!
"क्यों" ?
मैं तो सिर्फ तुम्हे फिल्म देखते हुए देख रहा था | तुम्हारे चेहरे के बनते-बिगड़ते भाव देखते रहने में ही मुझे बहुत ख़ुशी मिल रही थी |
दो-चार जगह तुम शरमाई भी थी |
ऐसा क्यों ?
वो तो बस ऐसे ही उसके इस तरह सवाल करते ही मैं शर्मा सी गई थी |
प्लीज बताओ ना!! क्यों ?
पहली बार जब प्रेम सुमन को चिट्ठी लिखता है और अपने दिल की बात उसे खत के जरिये बताता है |
दूसरी बार जब वो अपने प्यार का इजहार उससे करता है |
"कैसे"?
हम्म्म...............
"कैसे"?
वो तीन शब्द कहकर!!

"कौनसे तीन शब्द"?
जैसे तुम्हे पता ही नहीं |
नहीं तुम्ही बता दो ना |

मुझे भी नहीं पता |
अच्छा बाबा!! ठीक है, ठीक है और तीसरी बार!!
जब सुमन "काटे नहीं कटते" गाने के जरिये प्रेम से प्यार का इजहार करती है |
हम्म्म्म............
फिर कुछ सोचकर उसने फिर पूछा |
"और चौथी बार"!!
"नहीं"!! "बस इतना ही" |
"नहीं", "नहीं", मुझे याद है तुम शरमाई थी |
"तुम सवाल बहुत करते हो" |
"और तुम जवाब देती नहीं" | "जब सारे जवाब मिल जायेंगे तो सवाल भी बंद हो जायेंगे" |
वो "मेरे रंग में रंगने वाली" गाने में जब प्रेम, प्रेम.......वो जब..........और मुझे नहीं पता |

तुम्हें सब पता है लेकिन मेरे सामने ड्रामा कर रहे हो |
"सच्ची"!! "नहीं पता दिव्या"!!
सागर दरअसल दिव्या को छेड़ रहा था | उसका शर्माता हुआ चेहरा देखकर उसे और छेड़ने का मन करता था, उसे प्यार करने का मन करता था सागर का |

वो जब प्रेम........सुमन को वो...........वो करता है..........
"क्या करता है"?
"नहीं बता पाऊँगी" |
"कहीं वो किस तो नहीं" |
मैंने सिर हिलाकर हामी भरी |
फिर से हम दोनों कुछ देर के लिए खामोश हो गए |