कहानी नानी-दादी से सुनी थी। बहुत पुरानी बात है। एक राजा था। उसके पास घोडा था। घोड़ा सुंदर था। लेकिन घोड़ा लालची था। राजा घोड़े की देखभाल अच्छे से करता था। उसकी सेवा के लिए कई साईस थे। राजा ने साईस को कह रखा था कि घोड़े को कोई तकलीफ न हो। लेकिन घोड़ा हमेशा खाने की सोचता रहता था। उसका पेट कभी नहीं भरता था। राजा भी उसकी इस आदत से परेशान था। उसने बहुत कोशिश की। लेकिन घोड़े का पेट कभी भरता ही नहीं था। लाचार- परेशान राजा ने अपने राज्य में एक योज़ना की शुरुआत घोड़े के लिए की। राजा ने सोचा कि इससे घोड़े में लालच का अवगुण है, वह दूर हो जाएगा।
योजनानुसार जो व्यक्ति घोड़े की भूख को मिटा सकेगा, उसे मुंहमाँगा इनाम दिया जाएगा। शर्त के अनुसार व्यक्ति को घोड़े को संतुष्ट करना है। दिनभर व्यक्ति घोड़े को साथ में रखे। घोड़े को खिलाए-पिलाए। शाम में राजमहल में वापस कर दे। शाम को घोड़े को चारा दिया जाएगा लेकिन घोड़ा कुछ खाए नहीं।
राजा की घोषणा लोगों ने सुनी। एक-एक करके लोग आगे आने लगे। अपने साथ घोड़े को एक-एक दिन के लिए लेकर जाने लगे। कुछ ने इसे घास खिलाया; कुछ ने चना दाल। कुछ ने विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से घोड़े का पेट भरने का प्रयास किया। हर दिन, जब जब घोड़े को वापस महल में लाया जाता, तो राजा के साईस राजा के निर्देशानुसार घोड़े को कुछ ताजी हरी घास खाने के लिए देता। दिन भर पेट भरे रहने के बावजूद, वह लालची घोड़ा हरी घास को देखते ही टूट पड़ता और घोड़े को ले जानेवाला व्यक्ति शर्त जीत नहीं पाटा। उस मुट्ठी भर घास के कारण घोड़ा अपनी भूख को नहीं रोक सकता था। घोड़े को ले जाने वाला व्यक्ति घोड़े को बुरा-भला कह वापस लौट जाता।
अगले दिन फिर दूसरे व्यक्ति की बारी आती थी। वह भी उसी प्रकार घोड़े को संतुष्ट करने का प्रयास करता था। मगर असफल ही रहता था।
इस प्रकार कई दिन बीत गए। अनेक लोगों ने कोशिश की। लेकिन हर शाम घोड़ा के महल में लौटने के बाद वही कहानी दुहराई जाती थी। दिन बीतते रहे। घोड़े की आदत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
इस घोड़े के बारे में एक साधु ने भी जाना। साधु को चुनौती का पता चला। साधु ने चुनौती स्वीकार कर ली।
शर्त के अनुसार सुबह-सुबह, वह घोड़े को पास के एक जंगल में ले गया। वहाँ उसने घोड़े के सामने कुछ घास रख दी। जिस क्षण घोड़ा खाने के लिए झुका; साधु ने एक मजबूत लाठी से उसे जोर से मारा। दिन भर यही चलता क्रम चलता रहा। घोड़ा घास के पास जाता और साधु उसे लाठी से जोर से मारता। सारा दिन घोड़ा भूखा रहा। जैसे ही शाम ढल गई, साधु भूखे घोड़े को महल में वापस छोड़ने गया। राजा ने घोड़े को ताजी घास खिलाने का आदेश दिया। साधु घोड़े के बगल में खड़ा हो गया। साधु के हाथ में लाठी थी। घोड़े ने लाठी को देखा और घास को छूने की हिम्मत नहीं की। दिन भर घास खाने के चक्कर में उसकी पिटाई हुई थी। खाने को भी नहीं मिला था। भय के कारण घोड़े ने अपना सबक अच्छी तरह से सीख लिया था। घास को घोड़े ने नहीं खाया। राजा न केवल चकित था बल्कि साधु से प्रभावित भी हुआ। राजा ने साधु को शर्त के अनुसार पुरस्कार राशि दी।
लगता है, हम मनुष्यों के लिए ही यह कहानी है। मनुष्य भी इस दुनिया में सांसारिक चीजों से जुड़ जाते हैं। हमें जितनी अधिक मिलता है या उपलब्ध होता है या पेशकश की जाती है। हमें कम ही लगता है। हम ‘और’ चाहने लगते हैं। हम कभी संतुष्ट नहीं होते। इच्छाओं पर हमारी कोई सीमा नहीं है। इसके बाद ईश्वर हमें सबक सिखाने का फैसला करते हैं। वह हमें आघात देते हैं। आघात किसी न किसी चीज से वंचित करके देते हैं। अब ईश्वर डांटने के लिए तो आते नहीं है। लेकिन आश्चर्य यह है कि फिर भी मनुष्य नहीं सुधरते। किसी की नहीं सुनते। हम जो चाहते हैं उसे पाने के लिए हम नए तरीके आजमाते हैं। आखिरकार ईश्वर हमें समझाने के लिए खाने-पीने, मौज-मस्ती करने की हमारी पशु प्रवृत्ति को वश में करने के लिए हमें आघात पहुंचाते हैं। अतः ईश्वर की मार से बचने के लिए सबसे अच्छी प्रवृति स्वयं को अनुशासित करने से है। संतोषी स्वभाव से है। जितना मिले उसमे संतुष्ट रहना है। दूसरों की देखादेखी से प्रभावित नहीं होना है। यदि अपनी प्रवृति में परिवर्तन नहीं लायेंगे तो फिर घोड़े की तरह लाठी से मार लगनी तय है।