Nainam chhindati shstrani - 45 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 45

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 45

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अलीराजपुर से लौटने के पश्चात समिधा का मन न जाने कितने टुकड़ों में बँटा रहा | घर लौटकर भी वह काफ़ी दिनों तक घर में नहीं थी | अजीब से अहसासों की चिंदी-चिंदी उसके दिमाग़ में उड़ती रहतीं | जब तक प्रोजेक्ट पूरा नहीं हुआ दूरदर्शन में पुण्या से बार-बार मिलना होता | पुण्या से मिलकर वह स्मृतियों की गलियों में घूमने लगती और घर पर भी कभी अपने पीछे घूमते सायों में या फिर मुक्ता की स्थिति के बारे में सोचती रहती | सच तो यह था कि उसके काम में अवरोध बढ़ता ही जा रहा था | 

संसार में हर वस्तु के आकार में परिवर्तन आता है | बदलावों की दुनिया है यह, बदलाव होना स्वाभाविक हैं | आयु के बदलाव, उसीके अनुसार विचारों में बदलाव, स्वमित्रों में बदलाव, बातों में बदलाव, भाव में बदलाव, मनुष्य की चेतना में ही क्या संसार की प्रत्येक वस्तु में हर पल परिवर्तन घटित होता रहता है | समिधा के भी दिन, महीने, वर्ष बीतते जा रहे थे | जेलर वर्मा के कभी-कभार फ़ोन आ जाते, हाल-चाल पता चलते रहते | दो बार वे पत्नी मुक्ता के साथ अहमदाबाद आकर मिल भी गए थे | अब पुण्या से कम मुलाकात हो पाती थी परंतु दोनों के बीच एक ऐसा संवेदनात्मक रिश्ता बंध गया था जिसकी कोई डोरी नहीं थी पर बंधन मज़बूत था | रिश्ते की यह अदृश्य डोर अलीराजपुर मुक्ता व जेलर वर्मा के पास पहुँची थी | 

अब किसी भी काम को करने से पूर्व पुण्या समिधा दी से सलाह-मशवरा करने ज़रूर आ जाती | जो बातें पहले हर मन को मसोसे ! रखती थीं अब जब कभी याद आ जातीं थीं तो जैसे भयंकर लू का झौंका, असहनीय ! जीवन की गति कभी तीव्र होती, कभी शिथिल !समय कभी छोटा होता है, कभी बड़ा ! कभी ख़राब होता है तो कभी अच्छा ! समय ऊँच-नीच में पूरी ज़िंदगी गुज़ार देता है | इसका काम ही है परत पर परत पर चढ़ाना | वह सबकी ज़िंदगी में सबके हिस्से को समेटे अपना काम करता है | वास्तव में समय प्रत्येक मनुष्य को अपने में उलझाए रखता है | शायद विधाता ने समय को यही काम दिया है | कितना उल्लू बनाता है समय मनुष्य को ! हँसाता है तो बेतहाशा ! रुलाता है तो बेतहाशा ! देता है तो बेतहाशा !छीनता है तो बेतहाशा !

सच में ठीक ही तो कहते हैं बड़े-बुज़ुर्ग 'बलिहारी है समय की !'उसने भी तो समय को कितनी-कितनी करवटें बदलते हुए देखा है | बचपन के चित्र, युवावस्था के चित्र, बेकाम के चित्र, बेदाम के चित्र, अलीराजपुर और झाबुआ के आवरण-युक्त चित्र आवरण मुक्त चित्र, पुण्या के मन व तन पर अंकित स्याही पुते चित्र, ह्रदय-पटल पर अंकित धूलि-धूसरित चित्र --सभी को तो समय की तूलिका ने चित्रित किया था | हाँ, और वे चित्र जो चारों ओर बहुत-बहुत समीप थे, उसे छूते थे, उसका आलिंगन करते थे | अब वह उन चित्रों को छू नहीं पाती, महसूस करती है | कभी आँसु भरे नेत्रों से, कभी मुस्कानों से !

पहले ये सब बातें समिधा की समझ में नहीं आती थीं, अब आने लगीं हैं | ज़िंदगी के नरम-गरम थपेड़े मनुष्य को सब समझा देते हैं | तब लगता है क्या और क्यों ? क्या जूझने के लिए ही दी गई है ये ज़िंदगी ? ज़िंदगी का हवनकुंड प्रत्येक मनुष्य का होम लेता ही है, इसीके लिए तो मनुष्य जन्म लेता है | आजकल समिधा की ज़िंदगी में और भी उलझनें घिर आईं थीं, लगी हुई थी वह उलझनों को समझने में | सारांश अपने पिता डॉ. विलासचन्द्र के बारे में सोचकर बहुत व्यथित हो उठते थे यध्यपि उनके पास इस व्यथा का कोई ठोस कारण न था | 

सारांश के पिता विलासचन्द्र अपने पी.एचडी के लिए संदर्भ-ग्रंथों की खोज में जब बनारस गए, वहाँ उनकी मुलाक़ात इंदु से हुई जो संस्कृत में एम.ए कर रही थी और जिसने उसे पुस्तकें चुनने में काफ़ी सहायता की थी | वे लगभग पंद्रह दिनों तक बनारस रहे, प्रतिदिन विभाग में उनका इंदु से मिलना होता | इस बीच इंदु उन्हें कई बार अपने घर भी ले गई जहाँ विलास उसके समृद्ध पिता व ब्रिटिश माँ से भी मिले | एक आकर्षण दोनों के बीच पनपा | सपने थे पर उन्हें पँख देना कठिन था, वे सपने लंबे आरसे तक पुतलियों में ही कैद रहे | 

विलास एक विधवा अध्यापिका माँ का पुत्र और इंदु के पिता बनारस के बड़े व्यापारी !...परन्तु बेहद उदारवादी, बेहद संवेदनशील व्यक्ति ! वे कला के पुजारी थे | उस ज़माने में उनके घर विभिन्न कलाओं के कार्यक्रम होते रहते| अपनी एक मात्र संतान इंदु को वे समस्त कलाओं से युक्त देखना चाहते थे | 

उन्होंने एक ब्रिटिश लड़की लैम्बी से विवाह किया था जो उनके भारतीय वातावरण में पूरी तरह रच-बस गई थी | भारतीय विचारधारा, भारतीय संस्कृति, भारतीय संगीत, भारतीय कला की वह इतनी दीवानी थी कि अपने माता-पिता के द्वारा अपने भविष्य की बेहद भयानक तस्वीर खींचने के उपरान्त भी वह भारतीय लड़के से विवाह करने के अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुई | लड़के अर्थात इन्दु के पिता को ही अपना घर त्यागना पड़ा था | केवल अपनी योग्यता, अपने भाग्य-विधाता पर श्रद्धा, स्वयं पर विश्वास व माता-पिता तथा उस परिवार के उस आशीष को लेकर वह निकल पड़ा था जो परिवार के सदस्यों के मुख से कभी निकला ही नहीं था | 

मुट्ठी भर पैसों से अपना व्यवसाय शुरू करके कुछ ही वर्षों में अपने श्रम, बुद्धि व लगन से उन्होंने बनारस में इतनी प्रतिष्ठा बना ली थी जो उसके माता -पिता के पास कानोंकान सरसराती हुई पहुँच गई थी | 

कुछ वर्षों के बाद उन्हें अपने बेटे को स्वीकार करना पड़ा परन्तु अब वे स्थाई रूप से बनारस के निवासी हो गए थे | उनके जीवन में पत्नी के आने के बाद लक्ष्मी देवी की इतनी कृपा बरसी कि उनका नाम बनारस के चंद प्रतिष्ठित रईस लोगों में सम्मिलित हो गया | उनके मन में उनकी पत्नी घर की लक्ष्मी तथा स्वरों में सरस्वती का अवतार थीं | 

विवाह के पश्चात उन्होंने अपनी पत्नी यानि इंदु की माँ को लक्ष्मी देवी के नाम से विभूषित कर दिया | अपनी पत्नी की सुरीली आवाज़ को उन्होंने खूब पहचाना था| माँ सरस्वती के चरणों में बैठने के लिए इतनी खुशामद की कि वह सकुचाती हुई संगीत से जुड़ने के लिए बाध्य हो गईं | 

विख्यात संगीताचार्य पंडित हरिनारायण 'बनारस वाले' लक्ष्मी को संगीत सिखाने घर पर आते | लोग कानाफूसियाँ करते परन्तु उन्होंने कभी समाज की चिंता नहीं की थी | कानाफूसियाँ तो तब भी कम नहीं हुईं थीं जब उन्होंने फिरंगन से ब्याह किया था | वे जाति के वणिक (बनिया) थे, अपने व्यवसाय में खूब चुस्त और बुद्धि से माँ शारदे के पुजारी ! वे कहते ;

"कौन कहता है लक्ष्मी एवं सरस्वती कभी एक स्थान पर नहीं रह सकतीं?एक ही माँ है, उसके ही विभिन्न स्वरूप हैं | लक्ष्मी माँ की पूजा वंदना शारदे माँ के साथ क्यों नहीं की जा सकती ? मूर्ख हैं वे लोग जो माँ के रूपों से परिचित नहीं हैं और आलोचना करने का अधिकार रखते हैं, ग़लत दावे करते हैं | "यह सब समिधा की सास इंदु ने अपने परिवार का ज़िक्र करते हुए कभी समिधा को बताया था |