dehkhoron ke bich - 7 in Hindi Fiction Stories by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | देहखोरों के बीच - भाग - सात - अंतिम भाग

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देहखोरों के बीच - भाग - सात - अंतिम भाग

भाग -सात

कुसुम और मास्टर को ठाकुर साहब ने समझाया कि अब तो तुम लोग शादी कर ही चुके हो।घर वापस चलो ।हम सब तुम लोगों को स्वीकार कर लेंगे।कुसुम तैयार हो गई ,वैसे भी साल- भर में अभाव झेलते -झेलते वह परेशान हो चुकी थी। वह राजकुमारी की तरह सुख- सुविधाओं में पली थी पर मास्टर तो गरीब था।माध्यमिक स्कूल के मास्टर का वेतन ही कितना होता है।उस पर अपनी पत्नी व बच्चे की भी जिम्मेदारी थी।जाने कैसे उसे मास्टर से प्यार हो गया?उसने दिमाग से नहीं दिल से काम लिया था।अपने घरवालों की इज्जत -प्रतिष्ठा भी दाँव पर लगा दी।पर करती भी क्या,वे लोग इस रिश्ते को स्वीकार ही नहीं करते और उसे हर हाल में मास्टर ही चाहिए था।किन्हीं कमजोर क्षणों में वह अपना तन -मन उसे समर्पित कर चुकी थी ।जीवन में एक ही बार प्यार होता है और एक ही बार शादी--यही उसने सुना था।मास्टर भी उसे जी -जान से प्यार करता था ।हालांकि उसकी शादी उसके घरवालों की मर्ज़ी से बहुत पहले ही हो चुकी थी,पर पत्नी उसकी जिम्मेदारी थी प्यार नहीं।कुसुम को एकांत में पढ़ाते -पढ़ाते कब उसके मन में प्रेम का बीजारोपण हो गया ,वह नहीं जानता।वह उसे बहुत अच्छी लगती थी, पर वह उसे पाने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह धरती पर था और वह चन्द्रमा थी।वह जानता था कि कुसुम के घरवाले उसकी चाहत के बारे में जान जाएंगे तो उसकी बोटी -बोटी काट देंगे।उसके घरवालों को भी सज़ा देंगे।पर इन सारे खतरे के बावजूद वह दिल के हाथों मजबूर हो गया।कुसुम भी उसे प्रोत्साहित कर रही थी और फिर एक दिन उससे भूल हो ही गई।
उस दिन घर में सिर्फ़ कुसुम थी,जब वह उसे पढ़ाने आया था।कुसुम अभी -अभी नहाकर आई थी।ताजा गुलाब -सी खिली और सुबासित।वह उसे देखता रह गया था। गुलाबी टी शर्ट और काले पैंट में वह कयामत ढा रही थी।वह दुपट्टा नहीं लगाती थी।टी शर्ट के ऊपर उभरे उसके सुडौल वक्ष आज उसे कसमसाते लगे।उसके भीगे होंठ आमंत्रित करते लगे।वह खुद पर काबू नहीं रख पाया और आगे बढ़कर उन होंठों पर अपने होंठ रख दिए।कुसुम भी शायद यही चाहती थी।उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया।और ...फिर....वह घटित हो गया...जो धर्म... समाज ..नैतिकता किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था।पर वे दोनों खुश थे ....फिर तो यह क्रम चल निकला।अब वे दोनों रात -दिन साथ रहना चाहते थे ।चोरी- छिपे का रिश्ता उन्हें तड़पा रहा था ।आख़िर भागने की योजना बनी,जिसमें मास्टर के एक मित्र ने मदद की।मास्टर जानता था कि कुसुम के घर वालों का छापा सर्वप्रथम उसके ही घर पड़ेगा, इसलिए वह अपने घर में मौजूद रहा।मामला शांत होने पर वह कोलकाता गया,जहाँ कुसुम उसका इंतजार कर रही थी।वह उसके मित्र के साथ वहाँ आई थी।

ठाकुर साहब ने जब पिता का पुराना स्नेह दिखाया ,तो कुसुम पिघल गई और उनके साथ चलने को तैयार हो गई।जबकि मास्टर सब कुछ समझ रहा था ।वह कुसुम को इशारे से मना करना चाहता था,पर ठाकुर साहब चौकन्ने थे एक पल के लिए भी दोनों को एकांत का अवसर नहीं दे रहे थे।
रात के अंधेरे में कुसुम अपने घर लौटी थी।उसे घर छोड़कर ठाकुर साहब को मास्टर को उसके घर पहुंचाने के लिए लेकर चले और फिर सुबह लौटे।मास्टर को वे कहां ले गए,उसका क्या हुआ?पता नहीं चला।उसका परिवार भी रातो -रात लापता हो गया।
कुसुम घर लौट आई है-इसका पता तो हम सबको था,पर वह न तो कॉलेज जाती थी ,न बाहर निकलती थी।एक दिन पता चला कि वह मर गई।उसके पेट में भयंकर दर्द हुआ और फिर वह नहीं रही।उसकी बड़ी -बड़ी बोलती आंखें सदा के लिए चुप हो गईं। सुन -गुन था कि वह गर्भवती थी और एबॉर्शन के लिए तैयार नहीं थी।जबरदस्ती गर्भपात कराने के लिए उसे किसी दवा की हाइडोज दी गई,जिसको उसकी नाजुक देह संभाल न सकी और वह तड़प -तड़प कर मर गई।ऑनर -कीलिंग की यह पहली घटना मेरे बहुत नजदीक घटी थी।

इसके बाद मैं पढ़ने के लिए शहर आ गई।मेरा कस्बा पीछे छूट गया।और पीछे छूट गईं वे कहानियां, जो जिंदा सच थीं,जिनका मेरे व्यक्तित्व और शख्शियत पर गहरा असर पड़ा था।
शहर आकर मैंने सोचा कि मैं कुए से समुद्र में आ गई हूं।यहाँ की औरतें न कस्बे की औरतों की तरह शोषित हैं ,न पुरुष औरतखोर।मैं सब कुछ भूलकर पढ़ाई में लग गई।
अपनी शिक्षा पूरी कर, स्वावलम्बन प्राप्त किया ।फिर मैंने सोचा कि अब तो मैं एक व्यक्ति मान ली गई हूं।पढ़ा -लिखा, सभ्य- सुसंस्कृत समाज मुझे औरत होने के नाते नहीं, व्यक्ति होने के नाते जानता है।मैं फूले नहीं समाती थी कि मेरा अपना एक घर है... एक साहित्यिक संस्था है,नौकरी है ,नाम है,पहचान है।अपनी रोटी खुद अर्जित करती हूँ...।अब मैं प्रेम कर सकती हूँ।समान स्तर का प्रेम!
अब कोई मेरा शोषण नहीं कर सकता है।मेरी देह को मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई छू नहीं सकता ।
पर जल्द ही मेरा भ्रम टूट गया ।मेरा अभिमान चकनाचूर हो गया।मैंने देखा शिक्षा- जगत हो या साहित्य- जगत हर स्थान पर सभ्य -सुसंस्कृत देहखोर भरे पड़े हैं।उनके लिए कोई भी औरत पहले औरत है फिर और कुछ।आजाद और अकेली औरत को तो वे सर्वसुलभ मानकर चलते हैं।किसी भी औरत को आगे बढ़ने के लिए उनसे होकर गुजरना पड़ता है।हर बड़े और निर्णायक पद पर वही बैठे हैं।बिना उनके राजी हुए औरत आगे नहीं बढ़ सकती।पुरस्कार /सम्मान नहीं पा सकती...अपनी कोई भी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं कर सकती।

और न ही प्रेम कर सकती है या प्रेम पा सकती है।
क्योंकि समान स्तर न होने पर प्रेम सम्भव ही नहीं होता।
प्रेम जिंदगी को जिंदगी और समाज को सुंदर बनाने वाला महत्वपूर्ण सामाजिक मूल्य है।इसके लिए दो व्यक्तियों की दरकार होती है।एक स्त्री और एक पुरुष,पर जिस समाज में स्त्री पूरी तरह एक व्यक्ति नहीं मानी जाती ,वहाँ वह किस तरह किसी पुरूष से प्रेम कर सकती है?क्योंकि पुरूष तो हर हाल में व्यक्ति होता है ।
यदि पुरूष हैसियत में स्त्री से अधिक होता है तो स्त्री उसके सामने आधा, पौना या चौथाई हो जाती है और पुरूष सवा,डेढ़ या पौने दो।जहाँ ऐसा नहीं है वहां भी पुरूष ही उच्च होता है क्योंकि पुरूष होना अपने आप में एक 'पद' है।

आखिर मैंने अपना रास्ता तय कर लिया। मैंने इसलिए इतना संघर्ष नहीं किया था कि मात्र एक औरत बन कर रह जाऊँ। देहखोरों का शिकार होकर कुछ पाने से बेहतर था कुछ न पाना।

और यही हुआ विश्वविद्यालय में होने की जगह स्कूल में रहना पड़ा।नामी -गिरामी लेखिका की जगह सामान्य लेखिका ही बनी रही।न प्रेम मिला न गृहस्थी बसी।मैं अकेली ही हर हालात से जूझती रही,पर हार नहीं मानी और ना ही किसी देहखोर की शिकार बनी।मैं खुश हूं कि देहखोरों से भरे समाज में औरत होने की गरिमा को बचा सकी।