36. उत्तराधिकारी
मुंबई में एक प्रसिद्ध उद्योगपति जो कि कई कारखानों के मालिक थे, अपने उत्तराधिकारी का चयन करना चाहते थे। उनकी तीन संताने थी, एक दिन उन्होने तीनों पुत्रों को बुलाकर एक मुठठी मिट्टी देकर कहा कि मैं देखना चाहता हॅँ कि तुम लोग इसका एक माह के अंदर क्या उपयोग करते हो। एक माह के बाद जब पिताजी ने तीनों को बुलाया तो उन्होने अपने द्वारा किये गये कार्य का विवरण उन्हें दे दिया। सबसे पहले बड़े पुत्र ने बताया कि वह मिट्टी किसी काम की नही थी इसलिये मैनें उसे फिंकवा दिया। दूसरे पुत्र ने कहा कि मैंने सोचा कि इस मिट्टी में बीजारोपण करके पौधा उगाना श्रेष्ठ रहेगा। तीसरे और सबसे छोटे पुत्र ने कहा कि मैने गंभीरता पूर्वक मनन किया कि आपके द्वारा मिट्टी देने का कोई अर्थ अवश्य होगा इसलिये मैने तीन चार दिन विचार करने के पश्चात उस मिट्टी को प्रयोगशाला में भिजवा दिया जब परिणाम प्राप्त हुआ तो यह मालूम हुआ कि साधारण मिट्टी ना होकर फायर क्ले ( चीनी मिट्टी ) है जिसका औद्योगिक उपयोग किया जा सकता है। यह जानकर मैने इस पर आधारित कारखाना बनाने की पूरी कार्ययोजना तैयार कर ली है।
उस उद्योगपति ने अपने तीसरे पुत्र की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते हुये उसे अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी बना दिया और उससे कहा कि मुझे विश्वास है कि तुम्हारे नेतृत्व एवं कुशल मार्गदर्शन में हमारा व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करेगा। मेरा विश्वास है कि तुम जीवनपथ में सभी को साथ लेकर चलोगे और सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँचोगे। मेरा आशीर्वाद एवं शुभकामनाँए सदैव तुम्हारे साथ है। बेटा एक बात जीवन में सदा ध्यान रखना कि जरूरी नही कोई बहुत छोटी चीज छोटी ही हो। मिट्टी का क्या मोल ? लेकिन तुम्हारी तीक्ष्ण बुद्धि और विचारशीलता ने मिट्टी में भी बहुत कुछ खोज लिया। जीवन में सफलता पाने के लिये यह आवश्यक है कि हम छोटी से छोटी चीज के अंदर समाहित विराटता को खोजने का प्रयत्न करें।
37. वेदना
सडक के किनारे चुपचाप उपेक्षित बैठी हुई वह अबला नारी हर आने जाने वाले को कातर निगाहों से देख रही थी। उसके पास रूककर उसके दर्द को जानने का प्रयास कोई भी नही कर रहा था। उसके तन पर फटे-पुराने कपडे लिपटे हुये थे, जिससे वह बमुश्किल अपने तन के ढके हुए थी। उसके चेहरे पर असीम वेदना एवं आतंक का भाव दिख रहा था। वह अपने साथ कुछ माह पूर्व घटी निर्मम,वहशी बलात्कार की घटना के बारे में सोच रही थी, और इसे याद करके थर थर कांप रही थी।
इतने में पुलिस की गाडी की गाडी आयी, जिसे देखकर उसका खौफ, मन का डर और भी अधिक बढ गया। यह देखकर उसके मन में उस दिन की याद ताजा हो गयी, जब वह थाने में अपने साथ हुये अत्याचार एवं अनाचार का मामला दर्ज कराने पहुँची थी, परंतु उसके प्रति सहानुभूति ना रखते हुए पुलिसवालों ने उसे डांट डपटकर भगा दिया था। जिन अपराधी तत्वों ने ऐसा घृणित कृत्य किया था, वे अभी भी बेखौफ घूम रहे थे। पुलिसवाले उसे सडक से थोडा दूर हटकर बैठने की हिदायत देकर चले गये, मानो वे अपना फर्ज पूरा कर गये थे। उसे भिखारी समझकर कुछ दयावान व्यक्ति चंद सिक्के उसकी ओर उछालकर आगे बढ जाते थे। वह असहाय, इंसान में इंसानियत को खोज रही थी, जो समाज से तिरस्कृत एक गरीब महिला थी, जिसकी ऐसी स्थिति उसके परिवार के निजी कारणों से हो गई थी।
उसने सडक पर ही असीम प्रसव वेदना के साथ एक बच्चे को जन्म दे दिया, वह पीडा से निरंतर तडप रही थी। किसी संवेदनशील ने उसकी दयनीय हालत देखकर आपातकालीन सेवा को सूचना दी। उन्होने त्वरित कार्यवाही करते हुये उस ले जाकर शासकीय अस्पताल में भर्ती करा दिया, परंतु समय पर इलाज ना होने के कारण उसकी मृत्यु हो गई और उसकी संतान को अनाथालय में भेज दिया गया। मैं सोच रहा था, जिस बच्चे का जन्म ऐसी परिस्थितियों में हुआ हो, उसका बचपन, जवानी और बुढापा कैसे बीतेगा ? कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि एक विदेशी दंपती बच्चे को गोद लेकर अपने देश चले गये है। जिसका कोई नही होता उसका भगवान होता है।
38. निर्जीव सजीव
जबलपुर के पास नर्मदा किनारे बसे रामपुर नामक गाँव में एक संपन्न किसान एवं मालगुजार ठाकुर हरिसिंह रहते थे। उन्हें बचपन से ही पेड़-पौधों एवं प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वे जब दो वर्ष के थे, तभी उन्होने एक वृक्ष को अपने घर के सामने लगाया था। इतनी कम उम्र से ही वे उस पौधे को प्यार व स्नेह से सींचा करते थे। जब वे बचपन से युवावस्था में आए तब तक पेड़ भी बड़ा होकर फल देने लगा था। गाँवों में षासन द्वारा तेजी से विकास कार्य कराए जा रहे थे, और इसी के अंतर्गत वहाँ पर सड़क निर्माण का कार्य संपन्न हो रहा था। इस सड़क निर्माण में वह वृक्ष बाधा बन रहा था, यदि उसे बचाते तो ठाकुर हरिसिंह के मकान का एक हिस्सा तोड़ना पड सकता था। परंतु उन्होने वृक्ष को बचाने के लिए सहर्ष ही अपने घर का एक हिस्सा टूट जाने दिया। सभी गाँव वाले इस घटना से आश्चर्यचकित थे एवं उनके पर्यावरण के प्रति लगाव की चर्चा करते रहते थे। पेड़ भी निर्जीव नही सजीव होते है, ऐसी उनकी धारणा थी। इस घटना से मानो वह पेड़ भी बहुत उपकृत महसूस कर रहा था। जब भी ठाकुर साहब प्रसन्न होते तो वह भी खिला-खिला सा महसूस होता था। जब वे किसी चिंता में रहते तो वह भी मुरझाया सा हो जाता था।
एक दिन वे दोपहर के समय पेड़ की छाया में विश्राम कर थे। वहाँ के मनोरम वातावरण एवं ठंडी-ठंडी हवा के कारण उनकी झपकी लग गयी और वे तने के सहारे निद्रा में लीन हो गये। उनसे कुछ ही दूरी पर अचानक से एक सांप कही से आ गया। उसे देखकर वह वृक्ष आने वाले संकट से विचलित हो गया और तभी पेड़ के कुछ फल तेज हवा के कारण डाल से टूटकर ठाकुर साहब के सिर पर गिरे जिससे उनकी नींद टूट गयी। उनकी नींद टूटने से अचानक उनकी नजर उस सांप पर पडी तो वे सचेत हो गये। गाँव वालों का सोचना था, कि वृक्ष ने उनकी जीवन रक्षा करके उस दिन का भार उतार दिया जब उसकी सड़क निर्माण में कटाई होने वाली थी।
समय तेजी से बीतता जाता है और जवानी एक दिन बुढ़ापे में तब्दील हो जाती है इसी क्रम में ठाकुर हरिसिंह भी अब बूढ़े हो गये थे और वह वृक्ष भी सूख कर कमजोर हो गया था। एक दिन अचानक ही रात्रि में ठाकुर हरिसिंह की मृत्यु हो गयी। वे अपने शयनकक्ष से भी वृक्ष को कातर निगाहों से देखा करते थे। यह एक संयोग था या कोई भावनात्मक लगाव का परिणाम कि वह वृक्ष भी प्रातः काल तक जड़ से उखड़कर अपने आप भूमि पर गिर गया।
गाँव वालों ने द्रवित होकर निर्णय लिया कि उस वृक्ष की ही लकड़ी को काटकर अंतिम संस्कार में उसका उपयोग करना ज्यादा उचित रहेगा और ऐसा ही किया गया। ठाकुर साहब का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक गमगीन माहौल में संपन्न हुआ जिसमें पूरा गाँव एवं आसपास की बस्ती के लोग शामिल थे और वे इस घटना की चर्चा आपस में कर रहे थे। ठाकुर साहब का मृत शरीर उन लकड़ियों से अग्निदाह के उपरांत पंच तत्वों में विलीन हो गया और इसके साथ-साथ वह वृक्ष भी राख में तब्दील होकर समाप्त हो गया। दोनो की राख को एक साथ नर्मदा जी में प्रवाहित कर दिया गया। ठाकुर साहब का उस वृक्ष के प्रति लगाव और उस वृक्ष का भी उनके प्रति प्रेमभाव, आज भी गाँव वाले याद करते हैं।
39. नाविक
जबलपुर में नर्मदा के तट पर एक नाविक रहता है। उसका नाम है, राजन। वह एक कुशल और अनुभवी नाविक व गोताखोर है। उसने अनेक लोगों की जान डूबने से बचाई है। सुबह सूर्य भगवान की ओर यात्रा अपनी नौका की पूजा के साथ ही प्रारम्भ होती है उसकी दिनचर्या। उसने लालच में आकर कभी अपनी नौका में क्षमता से अधिक सवारी नही बैठाई, कभी किसी से तय भाडे से अधिक राशि नही ली।
एक नेताजी अपने चमचों के साथ नदी के दूसरी ओर जाने के लिए राजन के पास आए। नेताजी के साथ उनके चमचों की संख्या नाव की क्षमता से अधिक थी। राजन ने उन्हें कहा कि वह उन्हें दो चक्करों में पार करा देगा, लेकिन नेताजी सबको साथ ले जाने पर अड गए। जब राजन इसके लिए तैयार नही हुआ, तो नेताजी एक दूसरे नाविक के पास चले गए। नेताजी के रौब और पैसे के आगे वह नाविक राजी हो गया और उन्हें नाव पर लादकर पार कराने के लिए चल दिया।
राजन अनुभवी था। उसने आगे होने वाली दुर्घटना को भाँप् लिया। उसने अपने गोताखोर साथियों को बुलाया और कहा कि हवा तेज चल रही है और उसने नाव पर अधिक लोगों को बैठा लिया है। इसलिये तुम लोग भी मेरी नाव में आ जाओ। हम उसकी नाव से एक निश्चित दूरी बनाकर चलेंगे। वह अपनी नाव चलाने लगा। उसके साथियों में से किसी ने यह भी कहा कि हम लोग क्यों इनके पीछे चलें। नेताजी तो बडी पहुँच वाले आदमी है, उनके लिए तो फौरन ही सरकारी सहायता आ जाएगी, लेकिन राजन ने उन्हें समझाया कि उनकी सहायता जब तक आएगी तब तक को सब कुछ खत्म हो जाएगा। हम सब नर्मदा मैया के भक्त है। हम अपना धर्म निभाएँ। उसकी बातो से प्रभावित उसके साथी उसके साथ चलते रहें।
जैसी उसकी आशंका थी, वही हुआ। हवा के साथ तेज बहाव में पहुँचने पर नाव डगमगाने लगी। हडबडाहट में नेताजी और उनके चमचे सहायता के लिए चिल्लाने लगे और उनमें अफरा तफरी मच गई। इस स्थिति में वह नाविक संतुलन नही रख पाया और नाव पलट गई। सारे यात्री पानी में डूबने और बहने लगे, जिन्हें तैरना आता था, वे भी तेज बहाव के कारण तैर नही पा रहे थे। राजन और उसके साथी नाव से कूद पडे और एक एक को बचाकर राजन की नाव में चढाया गया। तब तक किनारे के दूसरे नाव वाले भी आ गए। सभी का जीवन बचा लिया गया।
पैसे और पद के अहंकार में जो नेताजी सीधे मुँह बात नही कर रहे थे, अब उनकी घिग्गी बँधी हुई थी। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए उन्होंने राजन और उनके साथियों को इनाम में पैसे देने चाहे तो राजन ने यह कहकर मना कर दिया कि हमें जो देना है वह हमारा भगवान देता है। हम तो अपनी मेहनत का कमाते है और सुख की नींद सोते है। आपको बचाकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है, इसका जो भी इनाम देना होगा, वह हमें नर्मदा मैया देंगी।
40. आत्मसम्मान
मैंने कोई चोरी नही की है, मुझे आपकी चूडियों के विषय में कोई जानकारी नही है। पुलिस के हवाले मत कीजिए, वे लोग बहुत मारेंगे, मैं चोर नही हूँ, गरीबी की परिस्थितियों के कारण आपके यहाँ नौकरी कर रहा हूँ। ऐसा अन्याय माँ जी मेरे साथ मत कीजिए। मेरे माता पिता को पता लगेगा, तो वे बहुत दुखी होगे। मानिक नाम का पंद्रह वर्षीय बालक रो रो कर एक माँ जी को अपनी सफाई दे रहा था। वह घर का सबसे वफादार एवं विश्वसनीय नौकर था।
माँ जी की सोने की चूडियाँ नही मिल रही थी। घर के नौकरों से पूछताछ के बाद भी जब कोई समाधान नही निकला, तो पुलिस के सूचना देकर बुलाया गया। पुलिस सभी नौकरों को पूछताछ के लिए थाने ले गई। उन्हें सबसे ज्यादा शक मानिक पर ही था, क्योंकि वही सारे घर में बेरोकटोक आ जा सकता था। पुलिस ने बगैर पूछताछ के अपने अंदाज में उसकी पिटाई चालू कर दी। वह पीडा से चीखता चिल्लाता रहा, परंतु उसकी सुनने वाला कोई नही था। इसी दौरान अचानक ही बिस्तर के कोने में दबी हुई चूडियाँ दिख गई, उनके प्राप्त होते ही पुलिस को सूचना देकर सभी को वापस घर बुला लिया गया। मानिक मन में संताप लिये हुए,आँखों में आँसू,चेहरे पर मलिनता के साथ दुखी मन से घर पहुँचा और तुरंत ही अपना सामान लेकर नौकरी छोडने की इच्छा व्यक्त करते हुए सबकी ओर देखकर यह कहता हुआ कि उसके साथ आप लोगों ने अच्छा व्यवहार नही किया, मेरे मान सम्मान को ठेस पहुँचाकर एक गरीब को बेवजह लज्जित किया है। यह सुनकर परिवार के सभी सदस्यों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए उसे नौकरी नही छोडने का निवेदन किया परंतु वह इसे अस्वीकार करते हुए रोता हुआ नौकरी छोडकर चला गया।
आज भी जब मुझे उस घटना की याद आती है, तो मैं सिहर उठता हूँ और महसूस करता हूँ, जैसे मानिक की आँखें मुझसे पूछ रही हो, क्या गरीब की इज्जत नही होती, क्या उसे सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार नही है, उसकी सच बातों को भी झूठा समझकर क्यों अपमानित किया गया ?
41. प्रेरणा पथ
पंडित केशव प्रसाद तिवारी (98 वर्ष) टेलीकाम फैक्ट्री से कार्यालय प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुये थे। वे अपने व्यापक अध्ययन के कारण हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत तीनों भाषाओं के शब्दकोष के रूप में जाने जाते हैं। उनसे चर्चा के दौरान उन्होंने अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये, जीवन तो सांसों का खेल है, जब तक साँस चल रही है तब तक जीवन है और परमात्मा का अंश हमारे भीतर है जिसे आत्मा कहा जाता है। आत्मा का बहिर्गमन और जीवन की समाप्ति हो जाना एक षाष्वत सत्य है। जब तक मन जाग्रत है, नई नई इच्छाएँ जन्म लेती रहती हैं और वासनाओं से तृप्ति नही हो पाती है तथा हम सांसारिकता में ही भटकते रहते है।
सभी परिजनों से संतुष्ट नही हुआ जा सकता और सभी के व्यवहार से असंतुष्ट भी नही रह सकता हूँ। सभी अपनी अपनी दृष्टि से जो भी उचित समझते हैं और जो मेरे अनुकूल हो ऐसा व्यवहार करके मुझे संतुष्ट रखने का प्रयास करते हैं। मेरी शारीरिक अवस्था ऐसी है कि ईश्वर का स्मरण और उनकी आराधना में ही समय का सदुपयोग कर रहा हूँ। इनका कहना है कि हर व्यक्ति को अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपना मार्ग चुनकर दृढ़तापूर्वक उस पर चलते रहना चाहिए, तभी वह गंतव्य तक पहुँच सकेगा। हमें देशहित और लोकहित को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए, यह हमारा नैतिक दायित्व है।
42. जियो और जीने दो
श्री एस. के गुप्ता (93 वर्ष) मध्य रेल्वे से मुख्य सिगनल एवं टेलीकाम इंजीनियर के पद से सेवानिवृत्त होकर अब फाऊंडेशन फार एक्सीलेन्स यू.एस.ए के फेसीलिटेटर के रूप में सेवाएँ दे रहे है। मेरे विचार में संसार में कोई भी प्राणी मृत्यु के लिये नही परंतु सुखपूर्वक जीने के लिये जीवन व्यतीत करता है। मैं इतनी उम्र के बाद भी अभी भी जीवित रहकर समाज सेवा हेतु समर्पित रहना चाहता हूँ। जीवन यदि ईमानदारी और अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित रहते हुये जिया जाये तो अत्यंत सुखदायी हो सकता है। मृत्यु एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं और उसके विषय में सोचना ही नही चाहिए क्योंकि हमारा मृत्यु पर कोई नियंत्रण नही है।
मैं अपने परिजनों के व्यवहार, प्रेम और समर्पण से पूर्ण संतुष्ट हूँ परंतु वर्तमान समय में लडकियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर शादी के बाद भी काम करना चाहती है इससे एकाकी परिवार का वातावरण बनता जा रहा है। आज बच्चे अपने बुजुर्ग माता पिता को छोडकर अपने भविष्य को उज्जवल बनाने हेतु विदेशो में बस गए है। इससे बुजुर्ग अकेले रह जाते है और वृद्धावस्था में कुटुंब जनों के सहारे से वंचित हो रहे है। वह अकेले जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर है। मैं अपने शेष बचे जीवन में गरीब बच्चों को पढ़ाई हेतु मदद करना चाहता हूँ।
मेरी सरकार से अपेक्षा है कि प्रतिवर्ष सैंकड़ों लोग उच्च पदों से सेवानिवृत्त होकर अच्छी पेंशन पाते है। उनमें से प्रायः सभी रिटायर होने के पश्चात अपना शेष समय सेवा कार्य में व्यतीत करना चाहते है परंतु उन्हें कोई भी मार्गदर्शन प्रदान करने वाला नही है। देश की राष्ट्रीय व प्रांतीय सरकार को इनकी उच्च शिक्षा व अनुभव का पूरा लाभ जनहित हेतु उठाना चाहिए ताकि नवोदित लोग इनसे लाभान्वित हो और इनके समय का भी सदुपयोग हो सके। मेरी युवाओ से अपील है कि हमें हर कार्य के लिये केवल समाज व प्रशासन पर निर्भर नही रहना चाहिए। हमें अपनी काबिलियत के अनुसार सरकारी व निजी क्षेंत्रों में प्रयास करना चाहिए। मैं पुनर्जन्म में विश्वास नही करता, हमारे अच्छे व बुरे कर्मों का फल इसी जन्म में किसी ना किसी रूप में मिल जाता है। हमें आजीवन समाज और देशहित के प्रति समर्पित रहना चाहिए।
43. स्वस्थ्य रहिये मस्त रहिये
श्री वासुदेव राठौर 86 वर्ष में भी पूर्णतया स्वस्थ्य व प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे बताते हैं कि आज तक उन्हें दवाओं के सेवन की जरूरत ही नही पडी। वे मानते हैं कि उन्होंने पूर्व जन्म में कोई अच्छे कार्य किये होंगे जिसके फलस्वरूप वे इस जीवन में अभी तक पूर्णतया स्वस्थ्य है।
उन्हे जीवन की एक घटना अभी भी याद है जब सन् 1959 में उन्हें चेचक हो गई थी और उन्हें ऐसा महसूस होता था जैसे उनका अंतिम समय आ गया है। उस समय उनके पिताजी ने बहुत पूजा पाठ की और ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि मैं अपने जीवन में कोई भी गलत काम नही करूँगा बस मेरा पुत्र स्वस्थ्य हो जाये। मैं बिना किसी दवा के स्वस्थ्य हो गया मानो ईष्वर ने उनकी प्रार्थना सुनकर मुझे पुनर्जीवन दे दिया हो। उनका चिंतन है कि जहाँ जीवन है वहाँ मृत्यु भी निर्धारित है। आपका जीवन तब तक सुखी रहेगा जब तक आप दूसरों की मदद निस्वार्थ भाव से करते रहेंगे। आप जीवन में जैसा कर्म करेंगे वैसा ही फल पायेंगें, जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे।
प्रभु कृपा से मुझे जो कुछ भी प्राप्त हुआ वह अवर्णनीय है बिना माँगे मुझे सब कुछ मिला और परमपिता परमात्मा का यह ऋण चुका पाना मेरे बस की बात नही। हम खाली हाथ आते है और खाली हाथ चले जाते है। यह कटु सत्य जानने के बाद भी हम अपने जीवन में सुखी समृद्ध रहने के लिये अनेकों प्रपंचों में उलझ जाते हैं। हमें अपने व्यक्तित्व को बदलना होगा। ईमानदारी, नैतिकता और अपनी संस्कृति को ध्यान में रखते हुये कर्म करें तो शांतिपूर्वक व्यतीत कर सकेंगें।
44. समाधान में सहयोग
श्रीमती स्वर्णलता गुप्ता उम्र 85 वर्ष अपना जीवन धर्म के प्रति आस्था रखते हुये शांतिपूर्वक बिता रही हैं। जीवन है, ईश्वर ने दिया है तो मृत्यु भी जरूर होगी परंतु प्रभु से इतनी प्रार्थना है कि यदि और लंबी आयु दे तो स्वस्थ्य रखें। मृत्यु जब भी हो कष्ट रहित हो। यही प्रभु से प्रार्थना है। मेरे पति बैंक में रीजनल मैनेजर थे और मैं उनके साथ बहुत अच्छा जीवन बिता रही थी, अचानक ही एक दिन हृदय रोग से उनकी मृत्यु हो गई और सभी सपने, कल्पनाये बिखर गये। मैं यही कहूँगी कि हम सब को पहले अपने परिवार को सुखी बनाने का सोचना चाहिए। किसी को कोई समस्या है तो उसके समाधान में सहयोग देना चाहिए ताकि उसे राहत मिले और वह भी दूसरों के साथ ऐसा सद्व्यवहार करे। हम अच्छे समाज की अपेक्षा तभी कर सकते हैं जब हम अपने आप को अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों में ढाल सकें। मेरे परिवार के सभी सदस्य जरूरतमंद लोगों की मदद करने के लिये हमेशा तत्पर रहते है और इस बात के लिये मैं अपने बच्चों को कभी नही रोकती बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करती रहती हूँ। इसे ही मैं अपना कर्तव्य एवं पूजा मानती हूँ।
45. सभ्य समाज का निर्माण
श्री श्याम सुंदर जेठा अनेक सामाजिक एवं व्यवसायिक संस्थाओं से संबंद्ध है तथा माहेश्वरी समाज में अपना एक प्रतिष्ठित स्थान रखते है। उनका कहना है कि जीवन जीने की कला यदि आप जानते है तो जीवन एक सुखद एवं रोचक यात्रा है। यह अनेकों संभावनाओं का अपार सागर है। हमारे मन में अनंत इच्छाएँ और कल्पनायें होती रहती है। जिनकी पूर्ति करने हेतु हम यथासंभव प्रयासरत रहते है। हमें समय का सदुपयोग निस्वार्थ सेवाभाव से जीवन में निरंतरता बनाते हुए, दूसरों को सुख एवं आनंद प्रदान करने में करना चाहिए।
आज से लगभग 40 वर्ष पहले की एक घटना से आपको अवगत करा रहा हूँ। मेरे परिचित जो कि एक हत्या के मामले में आरोपी बनाए गये थे और वे अनेक महिनों से घर से लापता थे। एक दिन वे अचानक ही मुझे राह मे मिल गए। उन्होंने मुझसे पाँच सौ रूपये उधार माँगे और बस स्टैंड तक छोडने की प्रार्थना की। मैंने उन्हें वहाँ तक पहुँचा दिया। इससे छः माह बाद तीन चार पुलिस वाले मेरे घर आये और मुझे थाने ले गये। जब मैंने कारण पूछा तो उन्होंने बतलाया कि आपने एक हत्या के आरोपी की मदद की है। आप कानून के अनुसार आरोपी की मदद करके कानून की निगाह में आरोपी हो गए है। मैं बडी मुश्किल और परेशानियों के बाद इस प्रकरण से मुक्त हो पाया लेकिन वह यह सबक दे गया कि किसी की मदद भी करो तो देखभाल कर, सोच समझकर ही करो। वे सज्जन बाद में आरोप से बरी होकर नौकरी पर बहाल हो गये।
जीवन और मृत्यु सत्य है इसलिये जो भी समय प्रभु कृपा से हमें मिला है उसे बेहतर से बेहतर तरीके से बिना झंझट और विवाद के जीना चाहिए। पुनर्जन्म एक कपोल कल्पना है। इस जन्म में अच्छा काम करोगे तो यही जन्म सुधर जायेगा और हम सुखी, समृद्ध और शांतिपूर्ण जीवन बिताकर संतुष्ट रहेंगे। पुनर्जन्म की बातें लोगों को डरपोक बनाती है। समाज और परिवार से यही अपेक्षा है कि एक अच्छा गैर अंधविश्वासी, ईमानदारी एवं नैतिकता का वातावरण बनाए ताकि लोगों के लिए वह प्रेरणादायक होकर एक सभ्य समाज के निर्माण में सहायक हो सके।