१६. सच्चा प्रायश्चित
नर्मदा नदी के किनारे पर बसे रामपुर नाम के गाँव में रामदास नामक एक संपन्न कृषक अपने दो पुत्रों के साथ रहता था। उसकी पत्नी का देहांत कई वर्ष पूर्व हो गया था, परंतु अपने बच्चों की परवरिश में कोई बाधा ना आए इसलिये उसने दूसरा विवाह नही किया था। उसके दोनो पुत्रों के स्वभाव एक दूसरे से विपरीत थे। उसका बडा बेटा लखन गलत प्रवृत्ति रखते हुए धन का बहुत लोभी था, परंतु उसका छोटा पुत्र विवेक बहुत ही दातार, प्रसन्नचित्त एवं दूसरों के कष्टों के निवारण में मददगार रहता था। वह कुशल तैराक भी था एवं तैराकी के शौक के में काफी समय देता था। वह अपने पिता के कामों में बहुत कम रूचि रखता था। वह सीधा, सरल एवं नेकदिल इंसान था एवं उसे अपने बडे भाई पर गहन श्रद्धा एवं विश्वास था।
रामदास ने अपनी वृद्धावस्था को देखते हुए अपनी वसीयत बनाकर अपने सहयोगी मित्र के पास रखवा दी थी और उसे रजिस्टर्ड करने का निर्देश भी दिया था, परंतु ऐसा होने के पूर्व ही दुर्भाग्यवश हृदयाघात के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसके बडे बेटे लखन ने हालात का फायदा उठाकर अपने पिता के मित्र को येन केन प्रकारेण अपनी ओर मिलाकर वह वसीयत हथिया ली एवं अपने पिता की हस्ताक्षर युक्त कोरे कागज पर नई वसीयत बनाकर खेती की पूरी जमीन व अन्य संपत्तियाँ, गहने, नकदी आदि अपने नाम लिखकर उन्हें हथिया लिया और विवेक को संपत्ति में उसके वाजिब हक से बेदखल कर दिया। विवेक के हितैषियों ने उसे न्यायालय जाने की सलाह दी, परंतु उसे ईश्वर पर गहरी श्रद्धा एवं विश्वास था और वह प्रभु से न्याय करने की प्रार्थना करके चुपचाप रह गया। विवेक अपने सीमित साधनों में ही अपना गुजर बसर किसी प्रकार कर रहा था। इस घटना के बाद दोनो भाइयों में पूर्णतः संबंध विच्छेद हो गये और लखन के विवाह में भी विवेक को नही बुलाया गया। कुछ वर्षों बाद लखन को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु सभी समारोंहों में विवेक की उपेक्षा की गई। वक्त बीत रहा था और लखन का बेटा दो वर्ष का हो गया था।
एक दिन वह अपनी माँ के साथ नाव से नदी पार कर रहा था, तभी ना जाने कैसे हादसा हुआ और बच्चा छिटककर नदी में गिर गया। विवेक इस घटना को पास के ही टापू से देख रहा था। उसका मन अपने अपमान को याद करके सहायता करने से रोक रहा था। विवेक ने देखा कि वह अबोध बालक लगभग डूबने की स्थिति में आ गया है और उसके दोनो हाथ पानी के ऊपर दिख रहे है। यह हृदय विदारक दृश्य देखकर वह अपने आपको रोक नही सका एवं बिजली की गति से पानी में तैरकर उस बालक के पास पहुँच गया। अपनी तैराकी के अनुभवों से उसे बचाकर किनारे की ओर ले आया। इस दुर्घटना की खबर आग की तरह सारे गाँव में फैल गई और लखन बदहवास सा नंगे पैर दौडता हुआ नदी के पास आया।
वहाँ पर उसने देखा कि काफी लोग विवेक को घेरकर उसके साहस, त्वरित निर्णय एवं भावुकता की भूरि भूरि प्रशंसा कर रहे थे। लखन को देखकर विवेक बच्चे को हाथ में उठाकर उसे देने हेतु उसके पास आया। यह दृश्य देखकर लखन स्तब्ध रह गया और उसके मुख से ये शब्द निकल पडे कि आज मैं याचक हूँ और तुम दाता हो, उसकी आँखे सजल हो गई और वह फूट फूटकर रो पडे मानो पश्चाताप आँसुओं से झर रहा था। वह रूंधे गले से कह रहा था, “ मैंने तेरे साथ हमेशा अन्याय किया है। मेरी धन लोलुपता एवं लोभी स्वभाव ने मुझे अधर्म के पथ पर ले जाकर भ्रष्ट कर दिया था। तुमने अपने अपमान को पीकर भी अपनी जान जोखिम में डालकर मेरे बच्चे की रक्षा की है। मुझे मेरी गलतियों के लिए माफ कर दो और मेरे साथ घर चलो।“
विवेक चुपचाप खडा सोच रहा था, तभी वह बालक चाचा चाचा कह कर उसकी गोद में आने के लिये मचलने लगा। ऐसे भावपूर्ण दृश्य ने लखन और विवेक के दिलों को एक कर दिया। लखन ने विवेक को घर ले जाकर उसे उसकी संपत्ति का हिस्सा देने के कागजात तुरंत बनवाए एवं इसके साथ ही गहने, नकदी, तथा अन्य चल संपत्तियों में जो भी वाजिब हिस्सा विवेक का था, वह उसे दे दिया। लखन ने कहा कि तुम्हारा अधिकार तुम्हें देकर भी मैं अपने पापों से मुक्त नही हो सकता। यह सुनकर विवेक ने अपने बडे भ्राता के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि उसके मन में अब किसी भी प्रकार का दुराभाव नही है। आप भी अपने नकारात्मक विचारों को हृदय से निकालकर सकारात्मक शुरूआत करें। यही आपके लिए जीवन का सच्चा प्रायश्चित होगा।
१७. पाश्विकता
मैं प्रतिदिन सुबह घर के बगीचे में आकर बैठ जाता था। वह एक बंदर था, जो नियमित रूप से उसी समय प्रतिदिन आकर याचनापूर्वक दोनो हाथों से मानो निवेदन करता हुआ बिस्किट माँगता था। मैं भी सहर्ष उसको बिस्किट देकर प्रसन्नता का अनुभव करता था। वह शांतिपूर्वक बिस्किट खाकर चला जाता था। एक दिन मैं बीमार हो गया, वह नियत समय पर आया, मैंने खिडकी से उसे बिस्किट दे दिया, उसने उसे लेकर बिना खाए संभालकर खिडकी के पास ही रख दिया। मैं तीन दिन तक बीमार रहा, वह प्रतिदिन तीन चार बार आकर खिडकी से मुझे देखकर वापस चला जाता था। मेरा स्वास्थ्य ठीक होने पर मैं वापस बगीचे मैं बैठने लगा। वह भी प्रसन्नचित्त होकर छिपाए हुए बिस्किट को खाकर चला गया। मैं अपने प्रति उसका व्यवहार देखकर आश्चर्यचकित था कि जानवर भी कितने संवदेनशील होते है।
एक दिन वह रक्तरंजित अवस्था में बडी मुष्किल से लँगडाकर चलते हुए मेरे पास आया और बेहोश होकर गिर पडा। किसी ने उस पर पत्थर किया था, जिससे वह बुरी तरह जख्मी हो गया था। हम उसे तुरंत अस्पताल ले गए। जहाँ डाॅक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। मैं दुखी मन से उसके बहते हुए रक्त में मानवीय क्रूरता का अट्ठहास महसूस कर रहा था एवं अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि देकर चुपचाप वापस घर आ गया। आज भी जब वह घटना याद आ जाती है, तो मैं द्रवित हो जाता हूँ और मनुष्य की पाश्विकता को नही भूल पाता।
१८. विश्वास
मुम्बई की एक बहुमंजिला इमारत में मोहनलाल जी नाम के एक बहुत ही सज्जन व दयालु स्वभाव के व्यक्ति रहते थे। उसी इमारत के पास एक महात्मा जी दिन भर ईश्वर की आराधना में व्यस्त रहते थे। मोहनलाल जी के यहाँ से उन्हें प्रतिदिन रात का भोजन प्रदान किया जाता था। यह परम्परा काफी समय से चल रही थी। एक दिन उन महात्मा जी ने भोजन लाने वाले को निर्देश दिया कि अपने मालिक से कहना कि मैंने उसे याद किया है। यह सुनकर मोहनलाल जी तत्काल ही उनके पास पहुँचे और उन्हे बुलाने का प्रयोजन जानना चाहा। महात्मा जी ने कहा कि मुझे आप पर आने वाली विपत्ति का संकेत प्रतीत हो रहा है। क्या आप कोई बहुत बड़ा निर्णय निकट भविष्य में लेने वाले हैं ? मोहनलाल जी ने बताया- मैं अपने दोनों पुत्रों के बीच अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। मैं और मेरी पत्नी की आवश्यकताएं तो बहुत सीमित हैं जिसकी व्यवस्था वे खुशी-खुशी कर देंगे। महात्मा जी ने यह सुनकर कहा कि आप अपनी संपत्ति के दो नहीं तीन भाग कीजिये और एक भाग अपने लिये बचाकर रख लीजिये। इससे आप दोनों जीवन में किसी पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। मोहनलाल जी यह सुनकर बोले कि हम सभी आपस में बहुत प्रेम करते है। उन्होनें महात्मा जी की बात पर ध्यान न देते हुये बाद में जब संपत्ति का वितरण किया तो उसके दो ही हिस्से किए।
कुछ समय तक तो सब कुछ सामान्य रहा फिर उन्हें धीरे धीरे अनुभव होने लगा कि उनके बच्चे उद्योग-व्यापार और पारिवारिक मामलों में उनकी दखलन्दाजी पसन्द नहीं करते हैं। कुछ माह में उनकी उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गयी और जब स्थिति मर्यादा को पार करने लगी तो एक दिन उन्होने अपनी पत्नी के साथ दुखी मन से अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने हेतु घर छोड़ दिया। वे जाने के पहले उन महात्मा जी के पास मिलने गए। उन्होंने पूछा आज बहुत समय बाद कैसे आए ? तो मोहनलाल जी ने उत्तर दिया कि मैं प्रकाश से अन्धकार की ओर चला गया था और अब वापिस प्रकाश लाने के लिये जा रहा हूँ। मैं अपना भविष्य नहीं जानता किन्तु प्रयासरत रहूँगा कि सम्मान की दो रोटी प्राप्त कर सकूं। महात्मा जी ने उनकी बात सुनी और मुस्कराकर कहा कि मैंने तो तुम्हें पहले ही आगाह किया था। तुम कड़ी मेहनत करके सूर्य की प्रकाश किरणों के समान प्रकाशवान होकर औरों को प्रकाशित करने का प्रयास करो।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं जो मुझे काफी धन देकर जाते हैं जो मेरे लिये किसी काम का नहीं है। तुम इसका समुचित उपयोग करके जीवन में आगे बढ़ो और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करो। ऐसा कहकर उन महात्मा जी ने लाखों रूपये जो उनके पास थे वह मोहनलाल जी को दे दिये। मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी एवं तो बुद्धिमान तो थे ही, बाजार में उनकी साख भी थी। उन्होंने अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया। इस बीच उनके दोनों लड़कों की आपस में नहीं पटी और उन्होंने अपने व्यापार को चौपट कर लिया। इधर मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। व्यापार चौपट होने के कारण भारी आर्थिक संकट का सामना कर रहे दोनो पुत्र उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे। मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा कि इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं जो इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उन महात्मा जी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उन्हीं महात्मा जी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे वहाँ पहुँचे तो महात्मा जी ने उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया और कहा कि जैसे कर्म तुमने किये हैं उनका परिणाम तो तुम्हें भोगना ही होगा।
१९. विद्यादान
परिधि एक संभ्रांत परिवार की पुत्रवधू थी। वह प्रतिदिन अपने आस-पास के गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ाती थी। उसकी कक्षा में तीन चार दिन पहले ही एक बालक बब्लू आया था। बब्लू की माँ का देहांत हो चुका था और पिता मजदूरी करके किसी प्रकार अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। वह प्रारंभिक शिक्षा हेतू आया था। बब्लू शिक्षा के प्रति काफी गंभीर था। वह मन लगाकर पढ़ना चाहता था।एक दिन अचानक ही उसका पिता नाराज होता हुआ आया और बच्चे को कक्षा से ले गया। वह बड़बडा रहा था, कि मेडम आपके पढ़ाने का क्या औचित्य है, मैं गरीब आदमी हूँ और स्कूल की पढ़ाई का पैसा मेरे पास नही है। इसे बड़ा होने पर मेरे समान ही मजदूरी का काम करना है। यह थोडा बहुत पढ़ लेगा तो अपने आप को पता नही क्या समझने लगेगा। हमारे पड़ोसी रामू के लड़के को देखिए बारहवीं पास करके दो साल से घर में बैठा है। उसे बाबू की नौकरी मिलती नही और चपरासी की नौकरी करना नही चाहता क्योंकि पढ़ा लिखा है। आज अच्छी अच्छी डिग्री वाले बेरोजगार है जबकि बिना पढ़े लिखे, छोटा मोटा काम करके अपना पेट पालने के लायक धन कमा लेते है। आप तो इन बच्चों को इकट्ठा करके बडे-बडे अखबारों में अपनी फोटो छपवाकर समाजसेविका कहलाएँगी परंतु मुझे इससे क्या लाभ? इतना कहते हुए वह परिधि की समझाइश के बाद भी बच्चे को लेकर चला गया।
एक माह के उपरांत एक दिन वह बच्चे को वापिस लेकर आया और अपने पूर्व कृत्य की माफी माँगते हुए बच्चे को वापिस पढ़ाने हेतु प्रार्थना करने लगा। परिधि ने उससे पूछा कि ऐसा क्या हो गया है कि आपको वापिस यहाँ आना पड़ा? मैं इससे बहुत खुश हूँ कि आप इसे पढ़ाना चाहते हैं, पर आखिर ऐसा क्या हुआ? बब्लू के पिता ने बताया कि एक दिन उसने लाटरी का एक टिकट खरीद लिया था, जो एक सप्ताह बाद ही खुलने वाला था। इसकी नियत तिथि पर सभी अखबारों में इनामी नंबर की सूची प्रकाशित हुयी थी। उसने एक राहगीर को समाचार पत्र दिखाते हुए अपनी टिकट उसे देकर पूछा कि भईया जरा देख लो ये नंबर भी लगा है क्या? मैं तो पढ़ा लिखा हूँ नही, आप ही मेरी मदद कर दीजिए। उसने नंबर को मिलाते हुए मुझे बधाई दी कि तुम्हें पाँच हजार रूपए का इनाम मिलेगा परंतु इसके लिए तुम्हें कार्यालय के कई चक्कर काटने पडेंगे तब तुम्हें रकम प्राप्त होगी। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें पाँच हजार रूपए देकर यह टिकट ले लेता हूँ और आगे की कार्यवाही करने में स्वयं सक्षम हूँ। यह सुनकर मैंने पाँच हजार रूपए लेकर खुशी खुशी वह टिकट उसको दे दी और अपने घर वापस आ गया।
उसी दिन शाम को मेरा एक निकट संबंधी मिठाई फटाके वगैरह लेकर घर आया। उसने मेरी टिकट का नंबर नोट कर लिया था। मुझे बधाई देते हुए उसने कहा कि तुम बहुत भाग्यवान हो, तुम्हारी तो पाँच लाख की लाटरी निकली है। मैं यह सुनकर अवाक रह गया। जब मैंने उसे पूरी आप बीती बताई तो वह बोला कि अब हाथ मलने से क्या फायदा यदि तुम कुछ पढ़े लिखे होते तो इस तरह मूर्ख नही बनते इसलिए कहा जाता है कि जहाँ सरस्वती जी का वास होता है वहाँ लक्ष्मी जी का निवास रहता है। यह कहकर वह दुखी मन से वापस चला गया।
“ मैं रात भर सो न सका और अपने आप को कचोटता हुआ सोचता रहा कि बब्लू को शिक्षा से वंचित रखकर मैं उसके भविष्य के साथ खिलवाड कर रहा हूँ। मैने सुबह होते होते निश्चय कर लिया था कि इसको तुरंत आप के पास लाकर अपने पूर्व कृत्य की माफी माँगकर आपसे अनुरोध करूँगा कि आप जितना इसे पढ़ा सके पढ़ा दे उसके आगे भी मैं किसी भी प्रकार से जहाँ तक संभव होगा वहाँ तक पढ़ाऊँगा।“ परिधि ने उसे वापिस अपनी कक्षा में ले लिया और वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा।
बीस वर्ष उपरांत एक दिन परिधि ट्रैन से मुंबइ जा रही थी। रास्ते में टिकट निरीक्षक आया तो उसे देखते ही उसके चरण स्पर्श करके बोला, माँ आप कैसी है ? परिधि हतप्रभ थी कि ये कौन है और ऐसा क्यों पूछ रहा है? तभी उसने कहा कि आप मुझे भूल रही है, मैं वही बब्लू हूँ जिसे आपने प्रारंभिक शिक्षा दी थी। जिससे उत्साहित होकर पिताजी से अथक प्रयासो से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आज रेल्वे में टिकट निरीक्षक के रूप में कार्यरत हूँ। परिधि ने उसे आशीर्वाद दिया एवं मुस्कुरा कर देखती रही। उसके चेहरे पर विद्यादान के सुखद परिणाम के भाव आत्मसंतुष्टि के रूप में झलक रहे थे।
२०. मित्र हो तो ऐसा
कुसनेर और मोहनियाँ एक दूसरे से लगे हुए जबलपुर के पास के दो गाँव हैं। कुसनेर के अभयसिंह और मोहनियाँ के मकसूद के बीच बचपन से ही घनिष्ठ मित्रता थी। वे बचपन से साथ साथ खेले-कूदे और पले-बढे थे। अभयसिंह की थोडी सी खेती थी जिससे उसके परिवार का गुजारा भली भाँति चल जाता था। मकसूद का साडियों और सूत का थोक का व्यापार था। उसके पास खेती की काफी जमीन थी। खुदा का दिया हुआ सब कुछ था। वह एक संतुष्टिपूर्ण जीवन जी रहा था।
अभयसिंह की एक पुत्री थी। पुत्री जब छोटी थी तभी उसकी पत्नी का निधन हो गया था। उसने अपनी पुत्री को माँ और पिता दोनो का स्नेह देकर पाला था, उसे अच्छी षिक्षा दी थी। वह एम.ए. कर चुकी थी। अब अभयसिंह का उसके विवाह की चिंता सता रही थी। अथक प्रयासों के बाद उसे एक ऐसा वर मिला जो उसकी पुत्री के सर्वथा अनुकूल था। अच्छा वर और अच्छा घर मिल जाने से अभयसिंह बहुत खुष था लेकिन अभयसिंह के पास इतना रूपया नही था कि वह उसका विवाह भली भाँति कर सके। उसे चिंता उसके विवाह के लिए धन की व्यवस्था की थी। जब विवाह के लिए वह पर्याप्त धन नही जुटा सका तो उसने सोचा- मेरा क्या है, मेरे पास जो कुछ है वह मेरी बेटी का ही तो है। ऐसा विचार कर उसने अपनी कुछ जमीन बेचने का निष्चय किया।
मकसूद का इकलौता पुत्र था सलीम। उसका विवाह हो चुका था। सलीम का एक छोटा चार साल का बच्चा भी था। पुत्री के विवाह के लिए जब अभयसिंह ने अपनी जमीन बेचने के लिए लोगों से चर्चा की तो बात सलीम के माध्यम से मकसूद तक भी पहुँची। मकसूद को जब यह पता लगा कि अभयसिंह बेटी के विवाह के लिए अपनी जमीन बेच रहा है तो यह बात उसे अच्छी नही लगी। एक दिन वह अभयसिंह के घर गया। उसने कहा “सुना है बिटिया का विवाह तय हो गया है।“ “हाँ। मंडला के पास का परिवार है। लड़के के पिता अच्छे और प्रतिष्ठित किसान है। लडका पढा लिखा है, पिता के साथ खेती भी देखता है। एक इलेक्ट्रानिक की अच्छी दुकान भी मंडला में है जिसे पिता पुत्र मिलकर चलाते है। सुमन बिटिया के भाग्य खुल गए है। उस घर में जाएगी तो जीवन सँवर जाएगा और मैं भी चैन से आँख मूँद सकूँगा।“
“ षादी की तैयारियों के क्या हाल है ? “
“वैसे तेा मैंने सभी तैयारियाँ अपने हिसाब से कर रखी थी लेकिन उन लोगो की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर कुछ और तैयारियों की आवष्यकता थी। मैंने सोचा कि मेरे बाद मेरा सभी कुछ सुमन का ही तो है। मेरे पास आठ एकड़ जमीन है अगर उसमें से चार एकड़ निकाल दूँगा तो इतनी रकम मिल जाएगी कि सभी काम आनंद से हो जाएँगे। बाकी बचेगी चार एकड़ तो मेरे अकेले के गुजारे के लिए वह काफी है।“
“ यह जमीन बेचकर तुम्हारे अनुमान से तुम्हें लगभग कितना रूपया मिल जाएगा ? “
“ एक से सवा लाख रूपये एकड के भाव से तो जाएगी ही लगभग चार पाँच लाख रूपया तो मिल ही जायेगा। इतने में सारी व्यवस्था हो जाएगी।“
“ तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया कि ना तो तुमने मुझे यह बताया कि सुमन का विवाह तय हो गया है और ना ही तुमने मुझे यह बताया कि तुम अपनी जमीन बेच रहे हों। क्या तुम पर और सुमन पर मेरा कोई अधिकार नही है ? क्या वह मेरी भी बेटी नही है ?“
“ ऐसी तो कोई बात नही है। मैंने सोचा कि जब तुम्हारे पास आऊँगा तो सब कुछ बता दूँगा पर अभी बोनी आदि का समय होने के कारण मैं उस तरफ नही निकल पाया, वरना तुम्हें बिना बताए तो आज तक मैंने कोई काम किया ही नही है ?“
“ तब फिर जमीन बेचने का निष्चय तुमने मुझसे पूछे बिना कैसे कर लिया ? मेरे रहते तुम बेटी की षादी के लिए बेचो, यह मुझे कैसे स्वीकार होगा ? अब रही बात रूपयों की तो वे तुम्हें जब तुम चाहोगे तब मिल जाएँगे। जमीन बेचने का विचार मन से निकाल दो और बेटी की षादी की तैयारी करो।“ इतना कहकर मकसूद वहाँ से चला गया।
उनकी मित्रता ऐसी थी कि अभयसिंह कुछ ना कह सका। वह तैयारियों में जुट गया। उसने जमीन बेचने का विचार यह सोचकर त्याग दिया कि बाद में जब भी जरूरत होगी तो वह या तो जमीन मकसूद को दे देगा या उसके रूपये धीरे धीरे लौटा देगा। विवाह के कुछ दिन पहले मकसूद का संदेष अभय के पास आया कि मेरी तबीयत इन दिनो कुछ खराब चल रही है। तुम षीघ्र ही मुझसे आकर मिलो। उस दिन रात बहुत हो चुकी थी इसलिए अभय नही जा सका। मकसूद की बीमारी की खबर सुनकर वह विचलित हो गया था। दूसरे दिन सबेरे सबेरे ही वह घर से मकसूद के यहाँ जाने को निकल पडा। अभी वह पहुँचा भी नही था कि उस ओर से आ रहे एक गाँववासी ने उसे देखा तो बतलाया कि मकसूद का स्वास्थ्य रात को अधिक खराब हो गया था और उसे मेडिकल काॅलेज ले जाया गया है।
यह सुनकर अभय ने उस व्यक्ति से कहा कि गाँव में वह उसकी बेटी को बतला दे कि वह मेडिकल काॅलेज जा रहा है, मकसूद चाचा की तबीयत खराब है। अभयसिंह वहाँ से सीधा मेडिकल काॅलेज की ओर चल दिया। जब वह मेडिकल काॅलेज पहुँचा तो मकसूद इस दुनिया को छोडकर जा चुका था। अभय ने सलीम, सलीम की माँ और उसकी पत्नी को सांत्वना दी। वह उनके साथ गाँव वापस जाने की तैयारियाँ करने लगा। उसके ऊपर दुख का पहाड टूट पडा था। एक ओर उसका सगे भाई से भी बढकर मित्र बिछुड गया था और दूसरी ओर उसे बेटी के हाथ पीले करने थे।
मकसूद को सुपुर्दे-खाक करने के बाद अभय गाँव वापस आ गया। अगले दिन सबेरे सबेरे एक आदमी आया और उसने अभयसिंह से कहा कि उसे भाभीजान ने बुलाया है। अभय भारी मन से वहाँ गया। वहाँ जाकर वह सलीम के पास बैठा। सलीम बहुत दुखी था। अभयसिंह बडे होने के नाते उसे सांत्वना देता रहा जबकि वह स्वयं भी बहुत दुखी था। कुछ देर बाद ही सलीम की माँ उदास चेहरे के साथ वहाँ आई। उनकी आँखें सूजी हुई थी। उन्हे देखकर अभयसिंह की आँखों से भी आँसू का झरना फूट पडा। कुछ देर बाद जब उनके आँसू थमे तो कुछ बात हुई। कुछ समय पष्चात सलीम की माँ ने एक लिफाफा अभय की ओर बढाया। वे बोली - “ तीन चार दिन से इनकी तबीयत खराब चल रही थी। परसों जब उन्हंे कुछ अहसास हुआ तो उन्हेांने यह लिफाफा मुझे दिया था और कहा था कि यह आपको देना है, अगर मैं भूल जाऊँ तो तुम उसे याद से दे देना।“ अभय ने उस बंद लिफाफे को उनके सामने ही खोला। उसमें पाँच लाख रूपये और एक पत्र था। अभय उस पत्र को पढने लगा। पत्र पढते पढते उसकी आँखों से टप टप आँसू टपकने लगे। उसकी हिचकियाँ बँध गई और गला रूँध गया। सलीम ने वह पत्र अभय के हाथ से ले लिया और हल्की आवाज में पढने लगा-
“ प्रिय अभय, तुम्हारे जमीन बेचने के निर्णय से मैं बहुत दुखी हुआ था लेकिन मेरे प्रस्ताव को जब तुमने बिना किसी हील हुज्जत के मान लिया तो मेरा सारा दुख चला गया। हम दोनो मिलकर सुमन को विदा करें, यह मेरी बहुत पुरानी अभिलाषा थी। मुझे पता है कि भाभीजान के ना होने के कारण तुम कन्यादान नही ले सकते हो इसलिये मैंने निष्चय किया था कि सुमन का कन्यादान मैं और तुम्हारी भाभी लेंगे। लेकिन कल से मेरी तबीयत बहुत तेजी से खराब हो रही है और ना जाने क्यों मुझे लग रहा है कि मैं सुमन की षादी नही देख पाऊँगा। पाँच लाख रूपये रखे जा रहा हूँ। उसका विवाह धूम धाम से करना। तुम्हारा मकसूद।“
पत्र समाप्त होते होते वहाँ सभी की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने भाभीजान से कहा- “ भाभीजान आज मकसूद भाई होते तो इन रूपयों को लेने में मुझे कोई गुरेज नही था लेकिन आज जब वे नही रहे तो इन रूपयों को लेना मुझे उचित नही लग रहा है। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि ये रूपये आप वापस रख लीजिए।“ भाभीजान की रूलाई रूक गई। वे बोली-“ भाई साहब, अब हमारे पास बचा ही क्या है। उनके जाने के बाद अगर हम उनकी एक मुराद भी पूरी ना कर सके तो वे हमें कभी माफ नही करेंगें। खुदा भी हमें माफ नही करेगा।“
तभी सलीम बोला-“ चाचाजान आप नाहक सोच विचार में पडे है। दुनिया का नियम है आना और जाना। हम सब मिलकर सुमन का विवाह करेंगे। वह मेरी भी तो छोटी बहन है। मैं उसके लिए बडे भाई के भी सारे फर्ज पूरे करूँगा और अब्बा की ख्वाहिष भी पूरी करूँगा। आप ये रूपये रख लीजिए अगर और भी आवष्यकता होगी तो हम वह भी पूरी करेंगे।“ सुमन का विवाह नीयत समय पर हुआ। सलीम ने उसके भाई की सारी रस्में भी पूरी की और अपनी पत्नी के साथ उसका कन्यादान भी किया। आज भी लोग उस विवाह को याद कर उनकी मित्रता की मिसाल देते है।
२१. प्रभु कृपा
म.प्र. के जाने माने शल्य चिकित्सक डा. ओ.पी. मिश्रा (94 वर्ष) जबलपुर आयुर्विज्ञान महाविद्यालय के शल्य चिकित्सा विभाग में विभागाध्यक्ष के पद कई वर्षों तक रहे है। उन्होने बताया कि उन्हें भगवान के उपर पूरी श्रद्धा व विश्वास है और वे अपने जीवन से बहुत खुश है। उनका कथन है कि जन्म के साथ साथ मृत्यु तो निर्धारित है और यह प्रभु की इच्छा पर निर्भर है कि किसका जीवन कितने वर्षों का है। प्रभु कृपा से इतनी उम्र हो जाने पर भी मुझे कोई प्राणघातक बीमारी नही है परंतु फिर भी मै अब और नही जीना चाहता, क्योकि मेरी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण हो चुकी है। वे अपने निजी जीवन में अपने शैक्षणिक कार्यकाल एवं कैरियर से बहुत संतुष्ट रहे है। हिंदी साहित्य में भी उनकी गहरी रूचि है और उनकी पुस्तक “मेरी कविताएँ, मेरी कहानियाँ“ काफी लोकप्रिय हुई है।
उनका कथन है कि व्यक्ति के मन की इच्छाएँ कुछ भी हो परंतु होता वही है जो उसके भाग्य में निर्धारित है। मैं फिल्म अभिनेता बनना चाहता था और उस समय के सुप्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार मेरे प्रेरणा स्त्रोत थे। मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं चिकित्सक बनकर गांवों में जाकर गरीब जनता की सेवा करूँ। मैंने उनकी इच्छओं का सम्मान करते हुए चिकित्सक का पेशा अपना लिया। मैंने अपनी सिद्धांतवादिता के कारण आजीवन निजी प्रेक्टिस नही की।
मैंने म.प्र. शासन को स्वास्थ्य नीतियो में परिवर्तन करने का सुझाव दिया था। मेरा कहना था कि हमारी शिक्षा प्रणाली पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित है और उसका हमारे देश की आवश्यकताओं के अनुसार भारतीयकरण करना चाहिए। हमारे देश में चिकित्सकगण गांव में नही जाना चाहते। मैंने शासन को सुझाव दिया था कि जैसा मैने लीबिया में अपने पाँच वर्ष के कार्यकाल के दौरान देखा था कि सेवानिवृत्त होने पर भी जो चिकित्सकगण अभी भी अपनी सेवाएँ देना चाहते थे उन्हें उनकी इच्छानुसार स्थान पर ग्रामीण क्षेत्र में उसी तनखाह पर पुनर्नियुक्ति कर उनके अनुभव का लाभ लेने हेतु भेज दिया जाता था। इससे गांवों में चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो जाती थी परंतु शासन ने मेरे इस सुझाव को ना जाने क्यों स्वीकार नही किया ? मेरा चिंतन है कि हमें अपना कार्य ईमानदारी, समर्पण, गंभीरता एवं नैतिकता से करते रहना चाहिए।
वे अपने जीवन का एक संस्मरण बताते हुए बहुत भावुक हो गये। उन्होंने बताया कि वे अपनी मेडिकल कालेज की पढाई समाप्त कर 1947 में आगरा मेडिकल कालेज में रेसिडेंस सर्जन के पद पर कार्यरत थे। उसी समय देश के बंटवारे के दौरान दंगे फसाद हो रहे थे। एक दिन एक सिख युवक जिसकी उम्र लगभग 30 वर्ष रही होगी। अपने दो वर्ष के बेटे को इलाज हेतु गंभीरावस्था में बेहोशी की हालत में लेकर आया था। उस बच्चे का बहुत इलाज करने पर भी दुर्भाग्यवश उसे नही बचाया जा सका और उसकी मृत्यु हो गयी । यह सुनकर वे दुखी मन से उठकर अस्पताल परिसर में ही स्थित अपने घर चले गये। कुछ ही समय बाद दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। मैंने दरवाजे को धीरे से खोला और दरवाजा खुलते ही वही सरदार जी रोते हुए मेरे पैरों पर गिर पडे। मैने उन्हें बडी मुश्किल से उठाया तो वे फफक फफक कर रोते हुए कहने लगे कि आपने तो दिनरात प्रयास करके मेरे एकमात्र बेटे की प्राणरक्षा हेतू अथक प्रयास किया। मैं आपको धन्यवाद देता हूँ परंतु शायद मेरे भाग्य में ही यह दुख लिखा हुआ था। बंटवारे ने मुझे पूर्ण रूप से बर्बाद कर दिया है। मुझे सबकुछ छोडकर भागना पडा, मेरे सभी नजदीकी रिश्तेदार, मित्र एवं परिवार के सदस्य भी हिंसा का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हो चुके है। मैं ही किसी प्रकार अपने बेटे को साथ लेकर भागकर यहाँ तक आया हूँ अब वह भी मुझे छोडकर चला गया है। अब मै पूरे संसार में अकेला हूँ।
डा. मिश्रा ने बताया कि एक पिता को अपने बेटे से बिछुडने का दुख कितना होता है इस अनुभव उन्हें अपने एकमात्र पुत्र की आसामयिक मृत्यु हो जाने पर महसूस हुआ था। इस घटना ने मुझे बहुत मानसिक वेदना दी एवं आज भी जब यह घटना स्मृति में आती है तो मैं कांप जाता हूँ। डा मिश्रा ने अंत में यह कहते हुए अपनी बात समाप्त की हम सभी को अपने जीवन में कर्तव्य, ईमानदारी एवं निष्ठापूर्वक कर्म करते हुए संसार से विदा होना चाहिए।
२२. सेवाधर्म
श्री राजेन्द्र पाल अग्रवाल 86 वर्ष की अवस्था में भी पूर्णतः सक्रिय रहते हुए अपने व्यवसाय को संभाल रहे है और इससे उन्हें संतोष, तृप्ति और अकथनीय आनंद की अनुभूति होती है। उनका चिंतन है कि जीवन सीमित है यह कहना उचित नही है। किसी का भी जीवन सीमित नही होता क्योंकि वह गतिमान एवं बहुआयामी होकर सफलता की नई दिशाओं एवं नई संभावनाओं का अवसर प्रदान करता है। मृत्यु कब, कैसे और किस स्वरूप में आ जाए, हम पता नही कर सकते है इसलिये जीवन को खूब संतुष्ट, तृप्त एवं खुश होकर भरपूर जियो। यह हमेशा संघर्षपूर्ण एवं चुनौतियों से भरपूर रहता है। मैंने जीवन में देखा है कि इंसान से ज्यादा जानवर अधिक वफादार होता है। मैंने षेर को हिरण की रक्षा करते हुए देखा है किंतु इंसान ही आज इंसान का दुश्मन बन बैठा है और स्वार्थ के आगे धर्म की भी उपेक्षा कर देता है। जीवन में जरूरतमंद की सेवा से बढकर कोई पुण्य नही है एवं मेरे लिये यही ईश्वर की पूजा है।
मेरे अनुरोध पर उन्होंने एक भावानात्मक संस्मरण बताया कि सन् 1982 में उनकी बेटी का विवाह था और बारात बंबई से आ चुकी थी। शाम को 4 बजे से अचानक मूसलाधार बरसात होने से विवाह स्थल पर आधे घंटे में ही एक फुट पानी भर चुका था, इससे सभी लोग परेशान थे कि अब क्या करें और अब आयोजन कैसे होगा ? इस विषम परिस्थिति में उनके पडोसी श्री कैलाश गुप्ता सामने आये और बोले कि विवाह उनके घर से कर लिया जाये। उनके इस कथन ने हमारे परिवार को बहुत बल दिया, यह आश्वासन मेरे लिए बहुत बडा था। मैं जीवनभर इसके लिये उनका आभारी रहूँगा। बेटी का विवाह बडी धूमधाम से संपन्न हो गया जिसका श्रेय में भगवान और अपने मित्रों को देता हूँ। यह घटना मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना है।
हमारे संस्कारों के पल्लवित होने में कई पीढियों का योगदान रहता है। मुझे गरीबों व अशक्तजनों की मदद करना, अपने उसूलों से समझौता नही करना, गलत बातों का कभी साथ नही देना, ईमानदारी मे विश्वास रखना आदि शिक्षायें विरासत में मिली, जिनका अनुसरण मैं निरंतर कर रहा हूँ। मैं अपने जीवन का बचा हुआ समय आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की मदद करने, उनके बच्चों की शिक्षा, बीमारी एवं विवाह में सहयोग देने में बिताना चाहता हूँ। मैं रोटरी क्लब एवं अनेक सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से गरीब महिलाओं के लिये सिलाई मशीन, गृहउद्योग, स्वरोजगार के साधन, होम्योपैथिक चिकित्सा आदि उपलब्ध कराने जैसे सेवा कार्यों में संलग्न रहता हूँ। इन कार्यों से मुझे उत्साह, ऊर्जा एवं प्रेरणा मिलती हैं। मैं अपने पारिवारिक वातावरण से पूर्ण संतुष्ट हूँ। पुनर्जन्म के विषय में काफी सुना, पढा है और इस धारणा में विश्वास रखता हूँ कि मनुष्य के कर्मों और भावनाओं के अनुसार ही उसका पुनर्जन्म होता है।
२३. जाने शाम कहाँ पर हो
म.प्र. के जबलपुर शहर के सुविख्यात पत्रकार श्री भगवतीधर वाजपेयी जी लगभग 40 वर्षों से पत्रकारिता से जुडे हुये हैं एवं दैनिक स्वदेश, वीर अर्जुन और दैनिक युगधर्म जैसे सुप्रसिद्ध समाचार पत्रों का संपादन कर चुके है। लगभग 93 वर्ष की आयु में भी वे एकदम स्वस्थ्य एवं प्रसन्नचित्त रहते है। आज भी वे काफी समय पढने एवं लिखने में बिताते है परंतु बहुत उछलकूद व अपेक्षाएँ करने का सामथ्र्य अब शरीर में नही है। वे कहते है कि जीवन के अंत का प्रारंभ हो चुका है पर कवि नीरज के अनुसार जाने डोला कहाँ रूके, जाने शाम कहाँ पर हो। मुझे अब न जीने की तमन्ना है, न मरने का इरादा है। कारण, मेरी अब ऐसी कोई समस्या नही है जिसे सुलझाने के लिए और अधिक आयु की जरूरत हो, और न ऐसी कोई परेशानी है कि परमात्मा से प्रार्थना करूँ कि मुझे उठा ले। आयु और मृत्यु का दिन उसी दिन निर्धारित हो गया था जिस दिन जन्म हुआ था। ईश्वर का यह विधान बदला नही जा सकता। जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैंने -
खट्टे मीठे बेरों की तरह जिंदगी खूब जी ली है,
मुझे किसी से कोई शिकायत नही,
मैं तो आभारी हूँ उनका
जिन्होंने ठोकर लगने पर तुरंत संभाला,
मौत को तो एक दिन आना ही है,
कान अब बहरे हो गए है
अतः मौत की आहट न सुन पाऊँगा
हाँ, वह आएगी तो चला जाऊँगा,
उसके साथ जाने में मुझे खुशी होगी,
क्योकि राम के धाम पहुँच जाऊँगा।
श्री वाजपेयी जी का चिंतन है कि हमें जन्म क्यों मिला है ? क्या हमें जीवन में मस्ती काटते ही अंत में चले जाना है ? जब परमात्मा एक बडा मिशन लेकर अवतार लेते है ओर मिशन पूरा होते ही अपनी लीला समेट लेते है तो हम भी परिस्थिति और सामथ्र्य के अनुसार कोई बडा नही तो कोई छोटा सत्कार्य तो करें। मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके अच्छे कर्मों को लोग आदर के साथ याद करते हैं। डा. अब्दुल कलाम ने कहा है कि To die with fame is an achievement एक प्रार्थना की पंक्ति सदैव याद रखने लायक है कि हम यह न सोचे की हमें क्या मिला है, हम बताए कि हमने क्या किया है अर्पण। व्यक्ति से समाज बडा होता है और समाज से देश बडा होता है। सबके अपने अपने कर्तवय है जिनका ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए।
२४. प्रगति की आधारषिला - संघर्ष
म.प्र. के महाधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी (83 वर्ष) विधि के क्षेत्र में एक चिरपरिचित व्यक्तित्व तो हैं ही साथ ही दर्शन, इतिहास और साहित्य के क्षेत्र में भी विभूति के रूप में जाने जाते है। वे शिक्षा, साहित्य, रंगमंच और समाज सेवा के क्षेत्र में सदैव सक्रिय भूमिका का निर्वाह करते है। समाज के सभी वर्गों के लोगों में वे स्नेह एवं सम्मान से कक्का जी के नाम से जाने जाते है। उन्होंने जब प्रश्नावली को देखा तो वे मुझसे कहने लगे कि मैं अपने जीवन के संस्मरणों को बता रहा हूँ जिनमें आपके सभी प्रश्नो के उत्तर समाहित होंगे।
उनका कथन है कि मैं जब बीते समय को देखता हूँ तो जीवन के संबंध में अनेक विषम संभावनाएँ, मन की इच्छाएँ और दृष्टिकोण के संबंध में अनेक प्रश्न जागृत होते हैं। जीवन यात्रा के दौरान परिवार में अनेक सुख दुख आये, 8 वर्ष अल्पायु में ही पिताजी का स्वर्गवास हो गया। मैंने अनेक कठिनाईयों से जूझते हुए अपनी कालेज तक की शिक्षा पूर्ण की। मेरे पास आवागमन का कोई साधन नही था, यहाँ तक कि साइकिल से भी वंचित था परंतु किसी तरह पढ़ता रहा और इंटरमीडिएट परीक्षा में प्रथम श्रेणी में चौथा स्थान मिला। मुझे संस्कृत विषय में म.प्र. में सर्वाधिक अंक पाने के फलस्वरूप स्व. के.सी.दत्त मेमोरियल के द्वारा पुरूस्कार स्वरूप 120 रू. मिले तब मैंने साइकिल खरीदी।
एक बार में स्व. रामेश्वर प्रसाद गुरू के घर गया और उनकी उदारता, बडप्पन देखकर दंग रह गया। उन्होंने मेरी आर्थिक परिस्थितयाँ जानने के बाद कहा कि घबराने की बात नही है यह तो जीवन के उतार चढ़ाव है। जीवन में समय कभी एक सा नही रहता। गुरूजी क्राइस्ट चर्च स्कूल में गणित विषय के शिक्षक थे और अमृत बाजार पत्रिका के हिंदी अंक के संवाददाता भी थे। उनकी कृपा से मुझे इसमें सहायक संवाददाता का कार्य मिल गया। गुरूजी की कृपा से ही मुझे स्कूल में अंग्रेजी माध्यम में संस्कृत पढाने की नौकरी मिल गई और अब मैं शिक्षक भी था और संवाददाता भी बन गया था। जिससे कुछ पैसे समय पर मिलने लगे। मैंने बी.ए में अंग्रेजी साहित्य, हिंदी साहित्य और संस्कृत साहित्य तीनों विषय लिये थे और मैं अंग्रेजी या संस्कृत में व्याख्याता बनना चाहता था।
उस समय की सरकारी नीति थी प्रथम श्रेणी में प्रथम रहे विद्यार्थी को पहले नौकरी मिल जाती थी और बाद में वह पी.एस.सी मे चुना जाता था। मैंने कानून की पढाई सायंकालीन समय में करके 1962 में कानून की डिग्री प्राप्त कर ली। सन् 1963 में स्वाध्यायी छात्र के रूप में एम.ए संस्कृत में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद भी किसी कारणवश मुझे नौकरी नही मिली। मेरे सामने भविष्य का दर्शन बडा अंधकारपूर्ण था। मेरी हेडमिस्ट्रेस मुझे अक्सर यह कहकर प्रोत्साहित करती रहती थी कि तुम स्कूल की मास्टरी से कही ऊपर हो। मेहनत करते रहो, अपने व्यक्तित्व को उभारने के लिये प्रयासरत रहो। सफलता एक दिन अवश्य प्राप्त होगी। मेरे अनेक शुभचिंतकों ने मुझे प्रेरणा दी कि वकील बनो। मैंने अपने मन पर काबू रखा और दृष्टिकोण बनाया कि जीवन में आगे बढने के लिए किसी भी तरह मानसिक रूप से सृदृढ़ रहकर आगे बढ़ते रहना चाहिए और इसी विचार के साथ मैं वकालत के पेशे में प्रविष्ट हो गया।
मुझे पूर्ण विश्वास था कि मैं इस विधा में अवश्य सफल होऊँगा। मैंने जब स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करना शुरू किया तब मेरी समझ में आया कि वकालत का पेशा भी आसान नही है और यहाँ भी जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है। मैं मन लगाकर कार्य करता रहा और धीरे धीरे वकालत से इतनी आमदनी होने लगी कि घर परिवार सुख से रहने लगा। सन् 1980 में मैं शासकीय अधिवक्ता हो गया और उसके चार साल बाद मैं उपमहाधिवक्ता बना और इस पद पर 1988 तक कार्यरत् रहा। इसके बाद मैं पुनः वापिस स्वतंत्र रूप से उच्च न्यायालय में अपने विधि व्यवसाय को करने लगा जो कि आज तक भी चल रहा है। अभी चार महिने पहिले ही म.प्र. शासन ने मुझे महाधिवक्ता बनाया है और मै उस पद कार्यरत् हूँ। मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि महाधिवक्ता पद तक पहुँचने की उपलब्धि के बाद आगे का जीवन कैसा होगा ? मैं अपने जीवन में हमेशा अध्ययनशील व्यक्ति रहा हूँ। इसका परिणाम यह है कि अनेक विषयों में मेरी पैठ होती गयी और आज भी मैं समय का सदुपयोग अध्ययन में कर रहा हूँ।
जबलपुर के सुप्रसिद्ध लेखक स्व. भवानी प्रसाद तिवारी के निवास स्थान पर साहित्य पर गहन चिंतन व विचार विमर्श की अभिव्यक्ति होती थी। मैं भी उसमें सम्मिलित होकर प्राप्य ज्ञान को संजोकर रखता रहा। मेरे जीवन की यह विशिष्ट घटना थी जिसने इस संकल्प को जन्म दिया कि अध्ययन के सिवा जीवन में सच्चा अर्जन और कुछ नही है और आगे बढ़ने के लिये उस पर चिंतन मनन आवश्यक है। इससे मुझे यह प्रेरणा मिली की अपने समय का कैसे सदुपयोग करें।
एक विशेष घटना बता रहा हूँ कि मैं जब बी.ए फाइनल में था तो पहला यूनिवर्सिटी यूथ सम्मेलन ताल कटोरा स्टेडियम नई दिल्ली में हुआ। जबलपुर विश्वविद्यालय की ओर से एक नाटक जिसका शीर्षक था कि आज नाटक नही होगा का मंचन हम लोगो ने वहाँ किया। हम सभी यह देखकर स्तब्ध थे कि उस समय देश के प्रधानमंत्री नेहरू जी स्वयं वहाँ उपस्थित थे। हमारे प्रदर्शन को बहुत सराहा गया और इसे पुरूस्कृत भी किया गया। जबलपुर वापिस आने पर स्वयं कुलपति जी ने स्टेषन पहुँचकर हमे आशीर्वाद दिया था। मैं हमेशा अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर खोजता रहता हूँ और इसी भावना का परिणाम है कि शहर के रंगकर्मियों के साथ मैं उनके संरक्षक के रूप में आज प्रतिष्ठित हूँ एवं मुझसे जितना बन सकता है उनकी मदद करता हूँ।
एक घटना और सुनिए- एक विद्यार्थी सबेरे सबेरे मेरे पास आया और बोला किसी तरह आप मेरी मदद करके मुझे इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन लेने में सहयोग दीजिए। मैंने सारी बात सुनी तो समझ में आया कि बिना पिता के वो लडका, माँ की मजदूरी से अभी तक पढा है। मुझे तत्काल मन में यह वृत्ति जागी कि अपने देश में अभावग्रस्त लोग सचमुच में कितनी बार शिक्षा से वंचित रह जाते है। इस कार्य में अगर हम मदद ना करें तो जीवन किस काम का। मैं पूरे पाँच वर्ष तक चुपचाप उस लडके की मदद करता रहा। आज वो इंजीनियरिंग नौकरी के बडे पद है। मेरी आत्मा को उससे जितना सुख मिला, उसका वर्णन नही कर सकता। हम सब लोगो को अपने मन में यह धारणा बनानी चाहिए कि अभावग्रस्त लोगो के लिए हम अपनी अर्जित संपत्ति में से एक भाग अवश्य बाँटे, ताकि वो भी अपनी प्रतिभा प्रकट कर सकें। आज भी मेरे मन में यही भावना है और जिन कालेजों, स्कूलों का मैं शासकीय निकाय का अध्यक्ष हूँ कभी रोटरी की तरफ से, कभी और लोगों की तरफ से, गरीब विद्यार्थियों को मदद दिलाने की कोशिश करता हूँ। मैं इन सब लोगों की सेवा करके वास्तविक मानव धर्म के पालन करने का प्रयास कर रहा हूँ।
मै 1964 के आरंभ से ही विश्वविद्यालय की राजनीति में सक्रिय होने लगा और अच्छे मतों से जीतकर विश्वविद्यालय कोर्ट का मेंबर बना। इसके पश्चात चुनाव लडकर विद्या परिषद का सदस्य बना जहाँ बडे बडे विद्वान लोग गवर्नर के द्वारा नामांकित किये गये थे। इन सब के बीच में सक्रिय होने का परिणाम यह हुआ कि मेरी तर्क शक्ति को बहुत बल मिला और मुझे आत्मविश्वास जाग्रत हुआ। मैं महसूस कर रहा था कि इसके कारण मेरे वकालत के काम का नुकसान कर रहा हूँ और मैंने विश्वविद्यालय की राजनीति से विदा ले ली। इन सब व्यस्तताओं के बीच मैंने भारतीय दर्शन, संस्कृति और साहित्य के साथ साथ संस्कृत साहित्य और अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन को नही छोडा। मैं रात को नियमित रूप से सोने जाने के पहले एक घंटे साहित्य का अध्ययन करता हूँ। मेरा विश्वास है कि ज्ञान पाने के लिए समझदार व्यक्ति को हमेशा विद्यार्थी के समान रहना चाहिए। आखिर में यही कहना चाहता हूँ कि अभावग्रस्त लोगो की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। शायद ईश्वर ने हमें इस योग्य बनाया है कि हम इनकी मदद कर सकें।
२५. जहाँ चाह वहाँ राह
डा. अंजली शुक्ला (61 वर्ष) अर्थशास्त्र की प्राध्यापक है। वे दुर्भाग्य से 2014 में कैंसर से पीडित हो गई थी परंतु अपने आत्मबल, परिजनों के सहयोग, स्नेह तथा समय पर उचित उपचार के उपलब्ध हो जाने के कारण अब वे पूर्णतया स्वस्थ्य हो चुकी हैं। जीवन के लिये उनका संघर्ष बतलाता है कि सहयोग ओर संकल्प से कठिन से कठिन परिस्थितयों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। सन् 2014 में अचानक ही उनकी जिंदगी में कैंसर के कारण भूचाल आ गया था। उनके हाथों में सूजन रहती थी और दर्द होता था। ऐसा अनेक बार होने पर चिकित्सकों ने जाँच के बाद बतलाया कि आपकों कैंसर हो गया है। वे दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स हास्पिटल में जाँच कराने गई जहाँ पर उन्होंने ब्रेस्ट कैंसर का होना बताया गया। मेरे आत्मविश्वास ने साथ दिया और मुझे लगा कि यदि बीमारी है तो इसका इलाज भी अवश्य होगा। उन्होंने मन में संकल्प ले लिया कि कष्ट तो हो सकता है और उसे झेलना ही होगा परंतु मुझे इस बीमारी से मुक्त होना हैं।
दिल्ली में उनके धर्म भाई श्री नरेन्द्र शर्मा के घर पर रहकर उनका उपचार हुआ। वे जब कभी भी बहुत बेचैन होती थी तो उनके परिवार में उनकी पत्नी, बच्चे और सभी हिम्मत देते और सेवा करते थे। जिससे उनका आत्मविश्वास और भी दृढ हो जाता था। इस बीमारी के रहते हुए भी उन्होंने नौकरी से अवकाश तभी लिया जब अधिक कष्ट होता था वरना अपना कर्तव्य पूरा करती रही। जीवन अनमोल है उसे वे व्यर्थ नही गंवाना चाहती थी। वे अपने को और अधिक व्यस्त रखने का प्रयास करने लगी। दिल्ली में दो कीमोथैरेपी के उपचार के उपरांत बाकी का उपचार जबलपुर में करवाया। उनका मानना हैं कि काम में व्यस्त रहने से जीवन जीने की आशा बढती है और वे अपनी दिनचर्या को पूर्णतया व्यस्त रखती है। वे कई संस्थाओं से पहले भी जुडी थी और आज भी जुडी है एवं कार्यक्रमों में बढचढ कर हिस्सा लेती है। इसी के अंतर्गत उन्होंने रोड फार रन मेराथन में हिस्सा लिया और 5 कि.मी. की दौड पूरी करके कलेक्टर महोदया से 5000 रू. का विशेष पुरूस्कार प्राप्त किया।
बीमारी के दौरान पढे लिखे लोगों की सोच के दोनो रूप देखे। एक ओर मैं जिस वाशरूम का उपयोग करती थी मेरी कुछ महिला मित्र उसका उपयोग नही करती थी। एक अत्यंत पढी लिखी महिला ने तो डाक्टर तक से पूछा था कि यह छूत का रोग तो नही है ? दूसरी ओर दिल्ली में मेरी मुँहबोली भाभी थी जो अपने पोते पोतियों को भी मेरे पास भेज देती थी और मेरे यह कहने पर कि बच्चों को मुझसे दूर रखिये उनका जवाब होता था कि आप उनके साथ रहेंगी तो आपको अच्छा लगेगा। मेरे इन परिजनों की सकारात्मक सोच, प्यार, स्नेह व अपनत्व ने मेरे ठीक होने में बहुत बडा योगदान दिया है। मेरा सोचना था कि जीवन और मरण तो सिक्के के दो पहलू है जो सभी के जीवन में आते है। यही सोचकर मैंने अपने जीवन को सरल बना लिया। दवा के साथ दुआओं में बडी ताकत होती है। मेरे प्रियजनों की आत्मीयता और बुजुर्गों की दुआओं का असर है कि आज मैं जीवित हूँ।