वहाँ मोतीलाल को जैसे ही यह बात पता चली कि पुलिस भी इस मामले में पड़ सकती हैं तो उसकी रातों की नींद उड़ गई। उसने पैसे लेकर टेंडर पास किया था और यह जानते हुए कि खाना विषैला और बासी है, उसने तब भी पैसे लेकर खाना परोसने के लिए कह दिया। ऐसा खाना इन छोटी जात वालो की नियति हैं, इन्हें क्या फर्क पड़ेगा? ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? थोड़ा पेट में दर्द होगा। उसे क्या पता था कि बीमारी के साथ-साथ तीन मासूम अपनी जान खो देंगे। और दूसरा वह हरिहर से बदला लेना चाहता था। वह तबसे ही खार खाये बैठा था, जबसे हरिहर के बच्चों का दाखिला हुआ था। उसकी नफरत का ही परिणाम था कि उसने बासी और विषैली खीर और कढ़ी मनोहर जैसे बच्चों को सौंपी। और उसे यह भी लगने लगा था, हरिहर ने अगर टेंडर भर दिया और उसे यह कॉन्ट्रैक्ट मिल गया तो यह हार भी उसे बर्दाश्त नहीं होंगी। अपने बदले और अहम के कारण उसने मूलचंद जैसे घटिया स्तर के व्यक्ति को ऐसी हरकत करने से नहीं रोका। मगर अब क्या? वो शालिनी एक बार फ़िर हरिहर की मदद करने के लिए आ गयी हैं। तभी मूलचंद उसके घर आया, उन्हें इस तरह परेशान देख वह बोला, आप क्यों घबराते हों सर जी? मैं हूँ न, सब इंतज़ाम कर दूँगा। कुछ नहीं होगा, मैंने पहले भी कई स्कूल में ऐसा खाना परोसा, मगर मज़ाल हैं, कोई मुझ तक पहुँच भी पाया हों।" मूलचंद ने आराम से कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
क्या कभी किसी की जान गयी थीं ? मोतीलाल ने सवाल किया।हाँ, कह सकते हों कि एक-दो बच्चे, मगर उन्हें हमने काफी पैसा दिया था। पैसा इन गरीबों का भगवान है सरजी, आप चिंता न करें। बस कुछ ही दिनों में आपको एक खुशखबरी सुनाऊंगा कि सब मामला सुलट गया। कहकर मूलचंद चला गया। मूलचंद कह तो ठीक रहा हैं, न उन लोगों क पास कोई सबूत हैं और न ही इतनी ताकत कि हमारे साथ लड़ सकें। यह सोचकर मोतीलाल निश्चित हों गया।
मूलचंद ने अपनी तरफ़ से पूरा ज़ोर लगा दिया कि यह केस एक किस्सा बनकर यही खत्म हों जाए और लोग कुछ दिनों में सब भूल जाए। शालिनी भी इंतज़ार कर रही थीं कि कब हरिहर स्वयं उसके पास आयेंगा और वो लम्बे समय से चलते आ रहे, इस मिड डे मील में ज़हर परोसते स्वार्थी और पापी लोगों को जेल के अंदर देखेंगी। उसे याद है, आज से ठीक दो साल पहले किसी स्कूल के बच्चों के साथ ऐसा हुआ था। मगर तब भी अपराधी बचकर निकल गये थे। उन माता-पिता ने ही साथ देने से मना कर दिया। जिनके बच्चे इस अनहोनी का शिकार हुए थे। उन्होंने पुलिस, कोर्ट केस के चक्कर में पड़ने से मना कर दिया था। उनका कहना था ग़रीब को कभी कोई न्याय दे पाया हैं, उसके पास फुर्सत नहीं कि वो अपना अच्छा और बुरा सोच सके। वे तो सकूं से अपने परिवार का गुज़ारा कर ले, यही बहुत हैं। बच्चों को जाना था, इसलिए चले गए। वह पुलिस स्टेशन में बैठी, ये सब सोच ही रही थीं कि थानेदार बोला, मैडम आप कब तक इंतज़ार करेंगी। कोई नहीं आने वाला। उन दो बच्चों के परिवारों ने मना कर दिया है। अब बचा एक, वो भी नहीं आयेगा। आप अपनी मण्डली को लेकर यहाँ से जाए। इन लोगों को पैसा मिल गया होगा। जाने वाला चला गया, इनकी ज़िन्दगी सँवर गई। हम बरसो से यही देखते आ रहे हैं। आप जैसे कितने लोग आते हैं और ऐसे ही चले जाते हैं। आप भी जाइए और समाज को सुधारने का नया तरीका खोजिए। थानेदार शालिनी को डंडा दिखाते हुए बोला। उसे हरिहर से ऐसी उम्मीद नहीं थीं। कम से कम वो तो मनोहर की मौत का सौदा नहीं करता। अच्छा शालिनी, हम चलते हैं। उसके सहयोगी राजेश ने अपना थैला उठाकर कहा, हमसे अब और इंतज़ार नहीं होगा। मेरी मानो तो तुम भी हमारे साथ चलो, आगे तुम्हारी मर्ज़ी। थानेदार ने शालिनी को ऐसा देखा, मानो कह रहा हूँ बड़ी आई झाँसी की रानी। सब जोश हों गया ठंडा। शालिनी ने घड़ी की तरफ़ निगाह डाली। मगर मायूसी का घंटा उसके दिल में बज रहा था। हरिहर नहीं आने वाला हैं। वह यह बात जान चुकी थीं।
हरिहर अपने ठेले को लगातार देखे जा रहा था। इसी ठेले पर वह मृत मनोहर को लेकर आया था। क्या वह कभी इस पर अपनी दुकान लगा सकेगा। ऐसे ही प्रश्नों का जवाब देने के लिए उसने मिट्टी का तेल निकाला और ठेले पर गिराकर उसे जला दिया। नहीं, अब वह यह ठेला और नहीं देख पाएगा। तभी उसने देखा दो-चार लोग उसकी और ही आ रहे हैं। वह जलते हुए ठेले के धुएँ से साफ़-साफ़ नहीं देख पा रहा था। मगर धोती-कुर्ते पहने लोग उसकी तरफ ही बढ़ रहे थे । वह भी अपने घर के आँगन में खड़ा उन्हें आते एकटक देखता जा रहा था।