मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय 32
रातभर किताबें अलग अलग आकार प्रकार में मेरी आँखों के सामने नाचती रही । ढेर की ढेर किताबें । जरा सा आँख लगती कि वे किताबें मेरे सामने नाचने लगती । मैं उन्हें पकङना चाहती तो वे गायब हो जाती । मैं उन्हें पकङने के लिए भाग दौङ करने में पसीना पसीना हो जाती तो मेरी नींद खुल जाती । सारी रात किताबों से मेरी आँखमिचोली चलती रही ।
इससे पहले माँ ने मुझे पाठ्यपुस्तकों के अलावा केवल व्रतकथा की पुस्तकें ही पकङाई थी जिनका पाठ मुझे पङोस की औरतों को व्रत की कहानी सुनाने के लिए करना होता था या फिर माँ का रोशनदानवाला किताबों का खजाना था जिसमें मैंने माँ की अनुपस्थिति में चोरी छिपे सेंध लगायी थी और धीरे धीरे करके चोरी चोरी सारी किताबें , ग्रंथ , रसाले , नावल सब पढ डाले थे । कभी कभी पिताजी लिफाफे बनाने या पुङिया बाँधने के लिए कबाङी से रद्दी खरीदते तो उसमें से कोई अच्छी किताब निकल आती जिसे मैं पढने के लिए रख लेती पर स्कूल में तो किताबों का खजाना हाथ आ गया था जो दिन निकलते ही हमारे हाथ लगने वाला था ।
सुबह मैं जल्दी ही उठ बैठी । फटाफट नहाकर स्कूल जाने के लिए तैयार हो गयी । उस दिन मैं समय से पूरे दस मिनट जल्दी पहुँची थी । दया दादी ने दरवाजा भीतर से बंद कर रखा था । अभी झाङूबुहारी चल रही होगी । पूरे पाँच मिनट बाद दरवाजा खुला तो सब लङकियाँ अपनी अपनी कक्षाओं को चल दी और उनके साथ मैं भी । पर अभी छठा कालांश तो बहुत दूर था । बैठी मैं कक्षा में थी पर ध्यान किताबों में लगा था । जैसे तैसे करके पाँचवे कालांश की समाप्ति की घोषणा करती घंटी बजी तो हमारी सांस में सांस आई । हम तुरंत दौङे पुस्तकालय । राजकरणी दीदी हमारी ही प्रतीक्षा कर रही थी । उन्होंने हमें एक रजिस्टर पकङा दिया । इस रजिस्टर में हमें किताबों के नाम दर्ज करने थे । दीदी ने किताबें अपनी मेज पर मंगवाई । अब हम एक एक किताब का पहला पेज खोलते । उसमें से किताब का नाम , किताब के लेखक का नाम , पृष्ठ संख्या , मूल्य बोलते जाते । दीदी उसे रजिस्टर में लिखती जाती । करीब बीस पचीस किताबें चढाने के बाद दीदी ने वह रजिस्टर हमारे हवाले कर दिया कि लो बाकी किताबें अब तुम चढाओ । इतनी बङी जिम्मेदारी पाकर हम फूले न समाए । मैं बोलती जाती , पुनीत लिखती जाती । घंटी बजने तक हमने लगभग सौ किताबें दर्ज करली थी । इनमे प्रेमचंद थे । यशपाल थे । वृंदावनलाल वर्मा थे । उग्र थे । हरिकृष्ण प्रेमी थे । महादेवी और निराला थे और भी सैंकङों लेखक , कहानीकार , कवि , नाटककार , निबंधकार थे । जब हम दोनों अपनी कक्षा में जाने लगे तो दीदी ने हमें मानसरोवर को दो खंड पढने के लिए दिये । हमारी खुशी की कोई सीमा न थी । पूरे बीस दिन लगे हमें किताबें चढाने और व्यवस्थित करने में । सबसे ज्यादा किताबें हमने चढाई थी और झाङकर अलमारी में रखी थी । दीदी हमारे काम से बहुत खुश थी । वे हर आनेवाले अध्यापक से हमारी चर्चा करती । उस दिन से पुस्तकालय कालेज का हमारा सबसे पसंदीदा स्थान हो गया । अब हम जब मन चाहे , पुस्तकालय चले जाते । अपनी मर्जी की अलमारी खोलते । किताब पढते और अंत में वहीं रख देते । दीदी ने सभी बच्चों के कार्ड बनाये और अब उन्हें सप्ताह में एक किताब घर ले जाने के लिये मिलने लगी जिसे सात दिनों के भीतर पढकर वापिस करना होता था । साथ ही अपने मनपसंद पेज का सुलेख और पुस्तक का सार अपने शब्दों में लिखकर दिखाना होता था पर हमारे लिए ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी । हम जितनी चाहे उतनी किताबें कालेज में और जितनी चाहे घर पढने के लिए ले सकते थे । कालेज के उन चार सालों में मैंने ढेर सारी किताबें पढी । विशेष रूप से कहानियाँ और उपन्यास । शायद वह पठन ही मेरे भविष्य के लेखन का आधार बना ।
इधर शाम को पिताजी की क्लिनिक में एक घंटा लगाना बदस्तूर जारी था । एक दिन शाम को मैं क्लिनिक के सामने पानी का छिङकाव कर रही थी । पिताजी अपने दोस्तों के साथ ताश की बाजी लगाने गये थे । माँ अंदर रसोई में शाम के भोजन की व्यवस्था में लगी थी । पानी छिङककर मैं झाङू लगाने लगी ही थी कि एक आदमी जैसा लङका आया - तुम्हारे पिताजी हैं ?
मैंने न में सिर हिलाते हुए कहा – वे तो नहीं हैं ।
मुझे दवा लेनी थी ।
तुम्हें क्या हुआ है ?
लङके ने कहा – दिल का मरीज हूँ । दवाई दोगी ?
पिताजी से मैंने पट्टियाँ बाँधनी तो सीख ली थी । नजला , जुकाम , बुखार की गोलियाँ भी पता थी पर यह दिल की दवाई तो मुझे पता न थी पर वह लङका तो दवा माँगकर मुझे हैरान परेशान छोङकर भाग गया था ।
थोङी देर बाद पिताजी आये तो मैंने पूछा – पिताजी क्या हमारे पास दिल की बीमारी की दवाई है ?
पिताजी ने मुझे सिर से पाँव तक देखा और पूछा – तूने दिल की दवाई क्या करनी है ?
पिताजी अभी एक बङा सारा आदमी आया था । उसको दिल की बीमारी है । वह दवाई माँग रहा था पर मुझे तो पता ही नहीं थी इसलिए वह चला गया ।
कौन था वह आदमी ?
पता नहीं , पहले तो कभी इधर आया नहीं । फिर अब तो वह चला गया ।
उसे पसीने आ रहे थे क्या । चक्कर जैसा कुछ ....।
नहीं तो । ऐसा तो कुछ नहीं था ।
चल तू अंदर जा । मैं देख लूँगा ।
अगले दो दिन पिताजी दुकान छोङकर कहीं नहीं गये । लेकिन उसके अगले दिन तक वे सब भूल गये । ताश के बिना वह रह ही नहीं सकते थे इसलिए शाम होते ही वे ताश खेलने निकल गये ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...